एक महीने के भीतर फ्रांस में गला काटने की तीन घटनाओं ने दुनियाभर का ध्यान खींचा है। इन हत्याओं को लेकर एक तरफ फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कड़ी चेतावनी दी है, वहीं तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोआन, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने फ्रांस पर मुसलमानों के दमन का आरोप लगाया है। दुनिया के मुसलमानों के मन में पहले से नाराजगी भरी है, जो इन तीन महत्वपूर्ण राजनेताओं के बयानों के बाद फूट पड़ी है।
दूसरे देशों के अलावा भारत में भी फ्रांस विरोधी प्रदर्शन हुए हैं। भारत सरकार ने फ्रांस के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया है। हिंसक कार्रवाई का समर्थन किसी रूप में नहीं किया जा सकता। ऐसा पहली बार हो रहा है, जब तुर्की और पाकिस्तान सरकार खुलकर हिंसा का समर्थन कर रहे हैं। इससे उनके देशों के कट्टरपंथी तबकों को खुलकर सामने आने का मौका मिल रहा है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रदर्शनकारी अपने पैगम्बर के अपमान से आहत हैं। पर गर्दन काटने का समर्थन कैसे किया जाए?
फ्रांस की
कार्टून पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ ने पुराने कार्टूनों को फिर से छापने का फैसला किया है, जिसके कारण यह विरोध
और उग्र हुआ है। फ्रांस में ईशनिंदा अपराध नहीं माना जाता। वहाँ इसे अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता के दायरे में रखा जाता है। इस वजह से पिछले आठ साल से फ्रांस में आए
दिन हिंसक घटनाएं हो रही हैं। इनमें 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है।
फ्रांस में करीब 60 लाख मुसलमान रहते हैं, जो यूरोप में इस समुदाय की सबसे बड़ी
आबादी है।
यूरोप में
मुसलमानों के बीच अलकायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे संगठन पहले से सक्रिय हैं। फ्रांस
में ही नहीं यूरोप के कई देशों में ऐसी घटनाओं का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। यह
केवल कार्टूनों के प्रकाशन की प्रतिक्रिया नहीं है। इससे मुसलमानों के लिए भी
परेशानी पैदा हो रही है। उनके सामने रोजी-रोजगार की समस्या पैदा हो रही है। वे
अपने संकटग्रस्त देशों से निकल कर यूरोप में आए हैं, ताकि अमन से रह सकें, पर यहाँ
भी उन्हें उन्हीं संकटों का सामना करना पड़ रहा है।
पाकिस्तानी
प्रधानमंत्री इमरान खान इस मामले को तूल दे रहे हैं। उनकी दिलचस्पी मुस्लिम का
अगुवा बनने में है। उन्होंने कहा है, ‘मैंने इस्लामिक देशों के समूह में सभी से कहा
है कि पश्चिम में इस्लामोफोबिया बढ़ रहा है और इस समस्या के समाधान के लिए सभी
मुसलमान देशों को एक साथ आने और इसके बारे में चर्चा छेड़ने की ज़रूरत है।’ तुर्की के
राष्ट्रपति एर्दोआन ने फ़्रांसीसी सामान का बहिष्कार करने की अपील भी की है।
यह सब ऐसे दौर
में हो रहा है, जब दुनिया के सामने महामारी का खतरा खड़ा है। इस खतरे का मुकाबला
करने की जिम्मेदारी विज्ञान ने ली है, धर्मों ने नहीं। दूसरी तरफ इक्कीसवीं सदी के
दूसरे दशक का विमर्श जिस मुकाम पर आ गया है, उसे लेकर हैरत होती है। यह सब क्या
मुसलमानों को छेड़ने, सताने या उनका मजाक उड़ाने के लिए है या यह साबित करने के
लिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बुनियादी तौर पर जरूरी है? मुसलमानों के लिए भी। यह अभिव्यक्ति क्या कुरूप, विद्रूप
और अभद्र होनी चाहिए? पर कार्टून तो तस्वीर का
विरूपण ही होता है। उसका लक्ष्य ही भक्ति-भाव को ठेस पहुँचाने का होता है।
फ्रांस सरकार
धर्मनिरपेक्षता से जुड़े कुछ कानूनी बदलाव करने जा रही है। इसके तहत बच्चों को
स्कूल भेजने और संदेहास्पद धर्मस्थलों को बंद करने का विचार है। जाहिर है कि यह सब
एकतरफा नहीं हो सकता। इसमें सभी समुदायों की भागीदारी की जरूरत भी होगी। फ्रांस
में सन 1958 से लागू वर्तमान संविधान के अनुसार, ‘फ्रांस अविभाज्य, सेक्युलर, लोकतांत्रिक और सामाजिक
गणतंत्र है, जो अपने नागरिकों को कानून के सामने बराबर मानता है, भले ही वे किसी
भी नस्ल या धर्म से वास्ता रखते हों, और सभी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करता है।’
पेरिस की कार्टून
पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ
लोगों ने यह सवाल भी उठाया था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो? क्या किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाई जानी चाहिए? फ्री स्पीच के मायने क्या कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता है? कार्टून और व्यंग्य को लेकर खासतौर से यह सवाल है। क्या
आस्था की स्वतंत्रता की सीमा भी नहीं होनी चाहिए? धर्म-विरोधी
विचारों को भी अपनी राय व्यक्त करने की स्वतंत्रता क्या नहीं होनी चाहिए?
‘शार्ली एब्दो’ केवल इस्लाम पर ही व्यंग्य नहीं करती थी। उसके
निशाने पर दूसरे धर्म भी रहते हैं। उसका अंदाज़ बेहद तीखा होता है, पर सवाल यह है
कि धर्मों को व्यंग्य का विषय क्यों नहीं बनाया जा सकता? सवाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी है। जो केवल कलम का
इस्तेमाल करता है या ब्रश से अपनी बात कहता है उसका जवाब क्या बंदूक से दिया जाना
चाहिए? यह बात केवल इस्लामी
कट्टरता से नहीं जुड़ी है। हर रंग की कट्टरता से जुड़ी है।
‘शार्ली एब्दो’
पर हमला बोलने वाले केवल हत्या करने में ही सफल नहीं हुए। वे सामाजिक जीवन की
समरसता तोड़ने में और ध्रुवीकरण बढ़ाने में भी कामयाब हुए थे। वे इस बात को
स्थापित कर गए कि कुछ धार्मिक मसलों पर किसी को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है।
इससे वे एक धर्म के लोगों की भावनाओं को भड़का गए। दूसरी ओर वे एक बड़े वर्ग को
अपने से अलग साबित करने में कामयाब हुए। जब पूरा समुदाय कुंठित महसूस करता है, तब
सामाजिक टकराव की स्थितियाँ पैदा होती हैं। अंतर्विरोधों को जब भड़काया जाता है तब
क्रिया और प्रतिक्रिया होने लगती है।
फ्रांस में भी यूरोप के दूसरे देशों की तरह नस्ली भावनाएं भड़क
रहीं हैं। सन 2011 में
नॉर्वे के 32 वर्षीय नौजवान का एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक ने एक सैरगाह में यूथ कैम्प
पर गोलियाँ चलाकर तकरीबन 80 लोगों की जान ले ली थी। नॉर्वे जैसे शांत देश में वह
हिंसा हुई। पिछले साल मार्च में न्यूजीलैंड के
क्राइस्टचर्च में एक हत्यारे ने दो मस्जिदों पर हमला करके 50 से ज्यादा लोगों की
हत्या कर दी। ऐसी घटनाओं की प्रतिक्रिया होती है। फ्रांस के खिलाफ इस समय जैसा
विरोध व्यक्त किया जा रहा है वह एक नई प्रवृत्ति को जन्म दे रहा है। जरूरत दोनों
तरफ भावनाओं को शांत करने की है।
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
02/11/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
'शार्ली एब्दो’ के ऊपर फ्रांस में उनके धर्म वालों ने भी केस किया हुआ है पर कभी हिंसा से जवाब नहीं दिया। और ऐसी हिंसा को कहीं से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता है। न्यूजीलैंड में जो हुआ वो एकदम से आश्चर्यचकित कर देने वाला था कि इतने शांत देश में भी ऐसा कुछ होगा। फिर जो श्रीलंका में हुआ था वो दिल दहला देने वाला और अंदर से झकझोर देना वाला था। कभी कभी लगता है ये इशा बनाम मूसा की जंग चल रही है। भारत के कुछ में फ्रांस के राष्ट्रपति पुतला फूंका गया मुस्लिमो द्वारा पर शायद ही कभी आतंकवाद के खिलाफ फतवा जारी हुआ हो मौलवियों द्वारा। किसी ने भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए भारत माता कि ऐसी तस्वीर बनाई थी कि किसी का भी खून खौल जाय.... खैर भारत से ज्यादा ही किसी ने आतंकवाद को झेला हो!
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