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Sunday, July 16, 2023

वर्षा-बाढ़ और भूस्खलन यानी ‘विकास’ की विसंगतियाँ


दिल्ली में यमुना का पानी हालांकि उतरने लगा है, पर शुक्रवार को सहायता के लिए सेना और एनडीआरएफ को आना पड़ा। यमुना तो उफना ही रही थी, बारिश का पानी नदी में फेंकने वाले ड्रेन रेग्युलेटर में खराबी आ जाने की वजह से उल्टे नदी का पानी शहर में प्रवेश कर गया। सिविल लाइंस, रिंग रोड, आईटीओ, राजघाट और सुप्रीम कोर्ट की परिधि तक पानी पहुँच गया। तटबंध और रेग्युलेटर की मरम्मत के लिए सेना की कोर ऑफ इंजीनियर्स को बुलाना पड़ा। हिमाचल, उत्तराखंड, हरियाणा और पंजाब से भी अतिवृष्टि और बाढ़ की भयावह खबरें आ रही हैं। 2013 की उत्तराखंड आपदा के बाद एक भी साल ऐसा नहीं गया जब कम से कम एक बार खतरनाक बारिश नहीं हुई हो। एक तरफ बाढ़ है, तो दूसरी तरफ बहुत से इलाके ऐसे हैं, जहाँ सूखा पड़ा है। ऐसा भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में है। इस त्रासदी में प्रकृति की भूमिका है, जिसके साथ छेड़-छाड़ भारी पड़ रही है। हमारी प्रबंध-क्षमता की खामियाँ भी उजागर हो रही हैं। पानी का प्रबंधन करके हम इसे संसाधन में बदल सकते थे, पर ऐसा नहीं कर पाए। परंपरागत पोखरों, तालाबों और बावड़ियों को हमने नष्ट होने दिया। बचा-खुचा काम राजनीति ने कर दिया। उदाहरण है ऐसे मौके पर भी दिल्ली सरकार और एलजी के बीच चल रही तकरार।

दिल्ली में संकट

दिल्ली में यमुना नदी का पानी गुरुवार को 208.6 मीटर के पार पहुंच गया। इससे पहले साल 1978 में आख़िरी बार यमुना का पानी 207.49 मीटर तक पहुंचा था। तब काफ़ी नुकसान हुआ था। दिल्ली में 1924, 1977, 1978, 1995, 2010 और 2013 में बाढ़ आई थी। लोग घबरा गए कि कहीं हालात 1978 जैसे न हो जाएं। शहर के अलावा उत्तरी दिल्ली में 30 गाँवों में बाढ़ आ गई। दिल्ली देश की राजधानी है और कुछ हफ़्तों बाद यहाँ जी-20 शिखर वार्ता होने जा रही है। बाढ़-प्रबंधन में विफलता का दुनिया के सामने अच्छा संदेश नहीं जाएगा। बरसात अभी खत्म नहीं हुई है। अगस्त और सितंबर बाक़ी है। दिल्ली में बारिश रुक जाने के बाद भी यमुना का जलस्तर बढ़ता रहा। वजह थी कि पीछे से पानी आता रहा। इसके कारणों को देखना और समझना होगा। पानी को रोकने और छोड़ने के वैज्ञानिक तरीकों पर विचार करने की जरूरत है।

नदी-प्रबंधन

विशेषज्ञ बताते हैं कि दिल्ली में वज़ीराबाद बराज से ओखला बराज के 22 किमी के हिस्से में औसतन 800 मीटर की दूरी पर 25 पुल बन गए हैं। ये पुल पानी के सामान्य बहाव को रोकते हैं और नदी की हाइड्रोलॉजी को भी प्रभावित करते हैं। यमुना के ऊपरी हिस्से में खनन और तल में जमा गाद या कीचड़ को मशीन से साफ करने की जरूरत होती है। नदी अपने आप गाद को बहा नहीं सकती। विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि यमुना के खादर (फ़्लडप्लेन) को बचाकर नहीं रखा गया,  तो संकट बढ़ जाएगा। हालांकि तटबंधों के कारण पानी फ़्लडप्लेन में सिमटा रहा, पर वह इतना चौड़ा नहीं होता तो दिल्ली शहर लोगों के घरों में पानी घुस जाता। हिमाचल में यही हुआ। हिमालय से निकलने वाली नदियों में बाढ़ आना आम बात है। यह बाढ़ नदी का जीवन है। इससे नदियों के खादर में पानी का संग्रह हो जाता है। नदियों के ऊपरी इलाकों में पानी को थामे रहने की क्षमता कम हो गई है। जंगल, ग्रासलैंड और वैटलैंड कम हो गए हैं। इससे नदियों के निचले इलाकों में पानी ज़्यादा हो जाता है। नदियों के ऊपरी इलाकों में पानी को रोकने की व्यवस्था होनी चाहिए।

हिमाचल में तबाही

जिस तरह 2013 में उत्तराखंड से भयानक बाढ़ की तस्वीरें आईं थीं, करीब-करीब वैसी ही तस्वीरें इस साल हिमाचल प्रदेश से आई हैं। ब्यास, सतलुज, रावी, चिनाब (चंद्र और भागा) और यमुना उफनने लगीं। तेज हवा और भयंकर जलधारा से ख़तरा पैदा हो गया। ब्यास नदी के पास घनी आबादी वाले कुल्लू और मनाली में भीषण तबाही हुई। ब्यास नदी की घाटी में, नदी के एकदम करीब काफी निर्माण हुए हैं। तेज रफ्तार ब्यास ने रास्ता बदला और मनाली से मंडी के बीच तमाम मकानों, वाहनों, जानवरों और सड़कों को बहाती ले गई। ब्यास की रफ़्तार इस इलाके में तेज़ होती है और वह सड़क के काफी करीब से बहती है। यह तबाही प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ का नतीजा है। राज्य के मुख्यमंत्री का अनुमान है कि चार हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हुआ है। पर्यावरण और पारिस्थितिकी के साथ छेड़छाड़ के पहले संकेत पहाड़ों, नदियों और तालाबों से मिलते हैं। विडंबना है कि सबसे ज्यादा विनाश की खबरें उन इलाकों से आ रही हैं, जहाँ सड़कें, बाँध, बिजलीघर और होटल वगैरह बने हैं। विकास और विनाश की इस विसंगति पर ध्यान देने की जरूरत है।

Sunday, November 13, 2022

कौन देगा दुनिया को बचाने की कीमत?


मिस्र के शर्म-अल-शेख में 6 नवंबर से शुरू हुए संयुक्त राष्ट्र के कांफ्रेंस ऑफ द पार्टीज़ (कॉप27) सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी वैश्विक चिंताएं जुड़ी हैं। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से लड़ने के लिए संयुक्त राष्ट्र का यह सबसे बड़ा सालाना कार्यक्रम है। इस वैश्विक-वार्ता के केंद्र में एक तरफ जहरीली गैसों के बढ़ते जा रहे उत्सर्जन की चिंता है, तो दूसरी तरफ आने वाले वक्त में परिस्थितियों को बेहतर बनाने की कार्य-योजना। इन सबसे ऊपर है पैसा और इंसाफ। गरीब देश, अमीर देशों से जहर-मुक्त भविष्य की ओर जाने के लिए आर्थिक-सहायता मांग रहे हैं। वे उस नुकसान की भरपाई भी चाहते हैं जो वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के कारण हो रहा है, जिसमें उनका कोई हाथ नहीं है। पिछले पौने दो सौ साल के औद्योगीकरण के कारण वातावरण में जो जहरीली गैसें गई थीं, वे अभी मौजूद हैं।

अधूरे वादे-इरादे

वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में हुए कॉप-15 में विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में विकासशील देशों की मदद करने के लिए संयुक्त रूप से 2020 तक प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर जुटाने की प्रतिबद्धता जताई थी। यह लक्ष्य कभी पूरा नहीं हुआ। वित्तीय मदद देने के इस कोष को ग्रीन क्लाइमेट फंड यानी जीसीएफ कहते हैं। इसका उद्देश्य अक्षय ऊर्जा की व्यवस्था करने वाले देशों की मदद करना और तपती दुनिया को रहने लायक बनाने से जुड़ी परियोजनाओं को वित्तीय मदद देना है। किसान ऐसे बीज अपनाएं, जो सूखे का सामना कर सकें या लू की लपेट से बचने के लिए शहरों में ठंडक पैदा करने के लिए हरियाली पैदा की जाए वगैरह।

वित्तीय लक्ष्य

भारत सहित विकासशील देश, अमीर देशों पर नए वित्तीय-लक्ष्य पर सहमत होने के लिए दबाव डाल रहे हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा प्रकाशित फैक्टशीट के अनुसार 2020 में, विकसित देशों ने 83.3 अरब डॉलर जुटाए,। उसके एक साल पहले यह राशि 2019 में 80.4 अरब डॉलर थी। 100 अरब डॉलर का वादा 2023 तक पूरा होने की आशा नहीं है। मिस्र में, एकत्र हुए देश 2024 के लिए और बड़े वित्तीय-लक्ष्य तय करना चाहते हैं। सम्मेलन का समापन 18 नवंबर को होगा। देखना है कि इस सम्मेलन में लक्ष्य क्या तय होता है। सकारात्मक बात यह है कि लॉस एंड डैमेज फंडिंग को वार्ता के एजेंडा में शामिल कर लिया गया है। ज़ाहिर है कि क्लाइमेट-फाइनेंस और क्षति की भरपाई के लिए अमीर देशों पर दबाव बढ़ने लगा है, पर जितनी देर होगी, उतनी लागत बढ़ती जाएगी।

पेरिस समझौता

2015 के पेरिस समझौते के तहत दुनिया के सभी देश पहली बार ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने और ग्रीनहाउस-गैस उत्सर्जन में कटौती पर सहमत हुए थे। जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों के इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के मुताबिक 1850 से लेकर अब तक दुनिया का तापमान औसतन 1.1 सेंटीग्रेड बढ़ चुका है। इस बदलाव की वजह मौसम से जुड़ी प्रतिकूल घटनाएं अब जल्दी-जल्दी सामने आ रही हैं। जीवाश्म ईंधन जैसे कोयले और पेट्रोल के अधिक इस्तेमाल से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसें बढ़ती जा रही हैं। पिछले डेढ़ सौ से ज्यादा वर्षों से ये गैसें धरती के वातावरण में घुल जा रही हैं, जिसकी वजह से तापमान बढ़ रहा है। उत्सर्जन की एक सीमा का सामना करने की क्षमता प्रकृति में हैं, पर जहरीली गैसें वह सीमा पार कर चुकी हैं। इससे पश्चिम एशिया के देशों में खेती की बची-खुची जमीन रेगिस्तान बनने का खतरा पैदा हो गया है। डर है कि प्रशांत महासागर के अनके द्वीप समुद्र स्तर बढ़ने से डूब जाएंगे। अफ्रीकी देशों को भयावह खाद्य समस्या का सामना करना पड़ सकता है।

उबलता यूरोप

इस साल जुलाई में पूरा यूरोप गर्मी में उबलने लगा था। यूरोप ने पिछले 500 साल के सबसे खराब सूखे का सामना किया। जंगलों में लगी आग ने मुश्किलों को और बढ़ा दिया। रूस जैसे ठंडे देशों में भी 2021 में साइबेरिया के जंगलों में आग लगने की घटनाएं हुईं। यूनाइटेड किंगडम से लेकर हर हिस्से में तापमान नए रिकॉर्ड बने है। स्पेन के प्रधानमंत्री पेद्रो सांचेज ने इसे ग्लोबल वॉर्मिंग से जोड़ा और कहा कि जलवायु परिवर्तन लोगों की जान ले रहा है। ठंडे इलाके होने के कारण यहाँ बने लकड़ी के घरों में एसी और पंखों की व्यवस्था नहीं होती। घरों को इस तरह तैयार किया जाता है कि ठंड के मौसम में बाहरी तापमान का असर घर के अंदर नहीं हो। भीषण गर्मी को ध्यान में रखकर घर नहीं बने हैं। ज़ाहिर है कि आने वाले वक्त के लिए यह खतरनाक संकेत है। हाल में पाकिस्तान में आई बाढ़ ग्लोबल वॉर्मिंग का नतीज़ा मानी जा रही है।

Tuesday, July 19, 2022

गर्मी से परेशान यूरोप

 

मंगलवार के वॉलस्ट्रीट जरनल के पहले पेज पर प्रकाशित तस्वीर। बकिंघम पैलेस पर तैनात संतरी को ठंडा पानी पिलाता उसका अफसर। 

पश्चिमी यूरोप इन दिनों झुलसाने वाली गर्मी का सामना कर रहा है। ज़बरदस्त गर्म हवाओं के उत्तर की ओर बढ़ने के साथ ही मंगलवार को पश्चिमी यूरोप में पारा चढ़ता जा रहा है। कई देशों ने इसे राष्ट्रीय संकट घोषित कर दिया है। फ्रांस और यूके में सोमवार 18 जुलाई को बेहद गर्मी की चेतावनी जारी की गई। वहीं स्पेन में सोमवार को 43 डिग्री तापमान रहा।

फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन और ग्रीस में जंगल की आग के कारण हज़ारों लोगों को अपना घर छोड़कर सुरक्षित जगहों की तरफ जाना पड़ा है। विशेषज्ञ कहते हैं कि ब्रिटेन जल्द ही अपने सबसे गर्म दिन का सामना करेगा और फ्रांस के कुछ हिस्सों में "कयामत की गर्मी बरस" रही है।

पूरा यूरोप गर्मी में उबल रहा है। जंगलों में लगी आग ने मुश्किलों का और बढ़ा दिया है। यूनाइटेड किंगडम (यूके) से लेकर हर हिस्से में तापमान नए रिकॉर्ड बना रहा है। स्पेन में लगी आग में दो लोगों की मौत ने इसे और गंभीर बना दिया है। स्पेन के प्रधानमंत्री पेद्रो सांचेज ने इसे ग्लोबल वॉर्मिंग से जोड़ा है और कहा है कि जलवायु परिवर्तन लोगों की जान ले रहा है।

दक्षिणी इंग्‍लैंड में सोमवार को तापमान 38 डिग्री था जो मंगलवार को 41 डिग्री के आसपास है। नेशनल रेल सर्विस ने यात्रियों को सलाह दी है कि जब तक जरूरी न हो सफर न करें। पूर्वोत्तर इंग्‍लैंड में कई जगह रेल सेवा बंद कर दी गई है।

Tuesday, November 2, 2021

2070 होगा भारत का नेट-ज़ीरो लक्ष्य


अंततः भारत ने नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लिए अपनी समय-सीमा दुनिया को बता दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्कॉटलैंड के ग्लासगो में 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (कॉप 26) में कहा कि हम 2070 तक नेट-ज़ीरो के लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। इसके अलावा भारत, 2030 तक ऊर्जा की अपनी 50 प्रतिशत जरूरत अक्षय ऊर्जा से पूरी करेगा।

मोदी की इस घोषणा से बहुत से विशेषज्ञों को हैरत हुई है, क्योंकि अभी तक भारत कहता रहा है कि नेट-ज़ीरो लक्ष्य इस समस्या का समाधान नहीं है और भारत इस मामले में किसी के दबाव में नहीं आएगा। हालांकि यह लक्ष्य अमीर देशों द्वारा घोषित लक्ष्य से पीछे है, पर दुनिया के उन विशेषज्ञों के अनुमान के करीब है, जो भारत के संदर्भ में इसे व्यावहारिक मानते हैं। हाल में भारत के एक थिंकटैंक कौंसिल ऑन इनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्लू) ने अनुमान लगाया था कि भारत के लिए 2070 से 2080 के बीच का लक्ष्य रखना व्यावहारिक होगा। दूसरे विकसित देशों और चीन की तुलना में भी भारत अपने औद्योगिक विकास के शिखर से कई दशक दूर है। अभी यहाँ ऊर्जा का उपभोग काफी बढ़ेगा। भारत में इस समय जरूरत की 70 फीसदी ऊर्जा कोयले से उत्पन्न हो रही है।

हालांकि भारत में दुनिया की सबसे सस्ती सौर-ऊर्जा तैयार हो रही है, पर अभी इसे ग्रिड से जोड़ने की तकनीक विकसित नहीं हो पाई है। इसके अलावा भारत को हाइड्रोजन और उसके भंडारण की तकनीक विकसित करने में समय लगेगा। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह काम 2040 तक हो पाएगा। भारत के पास इतनी पूँजी भी नहीं है कि वह तेजी से इन सब की व्यवस्था कर सके। इसीलिए भारत जो व्यावहारिक है उसे करने यानी क्लाइमेट जस्टिस की बात कर रहा है।

चार अल्पकालिक लक्ष्य

प्रधानमंत्री मोदी ने चार अल्पकालिक लक्ष्य और बताए हैं। नेट-जीरो लक्ष्य का मतलब है कि उसे तय करने वाला देश वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड या अन्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन उस सीमा से ज्यादा नहीं होने देगा, जिस सीमा तक इन गैसों को प्रकृति यानी वनस्पतियाँ और दुनिया भर में विकसित हो रही तकनीकें सोख लें।  

पिछले कुछ वर्षों में कुछ देशों ने अपने लक्ष्य घोषित किए हैं। अमेरिका, यूके, जापान और अन्य अमीर देशों ने इसके लिए सन 2050 को अपना लक्ष्य वर्ष घोषित किया है। दुनिया के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक चीन ने 2060 का लक्ष्य रखा है। रूस और सऊदी अरब ने भी 2060 का लक्ष्य तय किया है।

पाँच अमृत तत्व

नरेंद्र मोदी के इस भाषण में जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत की प्रशासनिक-नीतियों के अलावा परंपरागत समझ भी झलकती है। उन्होंने सम्मेलन में भारत की ओर से पांच वायदे किए। उन्होंने कहा, जलवायु परिवर्तन पर इस वैश्विक मंथन के बीच, मैं भारत की ओर से, इस चुनौती से निपटने के लिए पांच अमृत तत्व रखना चाहता हूं, पंचामृत की सौगात देना चाहता हूं। पहला- भारत, 2030 तक अपनी गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावॉट तक पहुंचाएगा। दूसरा-हम 2030 तक अपनी कुल ऊर्जा आवश्यकताओं में से 50 फीसदी अक्षय-ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त करने लगेंगे। तीसरा- अब से लेकर 2030 तक के कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में हम एक अरब टन की कमी करेंगे। चौथा- 2030 तक भारत, अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता (इन्टेंसिटी) को 45 प्रतिशत से भी कम करेगा। और पाँचवाँ- वर्ष 2070 तक भारत, नेट-जीरो का लक्ष्य हासिल करेगा।

Monday, November 1, 2021

कॉप26 शुरू, भारत की दुविधा और जी-20 का कोई वायदा नहीं

 ग्लासगो में कॉप26 के उद्घाटन के अवसर पर कॉप के अध्यक्ष आलोक शर्मा से हाथ मिलाते हुए संरा महासभा के अध्यक्ष अब्दुल्ला शाहिद। सम्मेलन की कार्यकारी सचिव पैट्रीशिया ऐस्पिनोसा (बाएं से दूसरी) और सम्मेलन की निवृत्तमान अध्यक्ष चिली की पर्यावरण मंत्री कैरलीना श्मिट भी चित्र में हैं।  

रविवार
, 31 अक्टूबर, को स्कॉटलैंड के ग्लासगो शहर में संयुक्त राष्ट्र के कांफ्रेंस ऑफ द पार्टीज़ (कॉप26) की शुरुआत हुई। 12 नवम्बर तक चलने वाले इस सम्मेलन में सभी मोर्चों पर महत्वाकांक्षा बढ़ाने और सन 2015 के पेरिस जलवायु समझौते को कारगर ढंग से लागू करने के लिए दिशा-निर्देशों को अंतिम रूप देने पर चर्चा होगी। सम्मेलन में ब्रिटेन की 95 वर्षीय महारानी एलिज़ाबेथ के आगमन की संभावना थी, पर शारीरिक असमर्थता के कारण वे नहीं आ पाईं। उनके स्थान पर सोमवार को राजकुमार चार्ल्स आने वाले हैं।

सम्मेलन से ठीक पहले अनेक रिपोर्टें और अध्ययन जारी किए गए हैं, जिनके निष्कर्षों में मौजूदा जलवायु कार्रवाई को अपर्याप्त क़रार दिया गया है। इन अध्ययनों में, पेरिस जलवायु समझौते के तहत वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को 1।5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य तक सीमित रखने के लिये महत्वाकांक्षी जलवायु संकल्पों की अहमियत को रेखांकित किया गया है।

कार्यकारी सचिव पैट्रीशिया ऐस्पिनोसा ने सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा कि जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ाई में, दुनिया एक अहम पड़ाव पर खड़ी है। उन्होंने कॉप26 में सफलता को पूर्ण रूप से सम्भव बताते हुए अपने आशावादी रुख़ की वजह बताई। उन्होंने कहा, मेरे विचार में हम जो समझ व देख रहे हैं, हम जानते हैं कि यह रूपांतरकारी बदलाव हो सकता है। यहाँ औज़ार हैं, यहाँ उपकरण हैं, यहाँ समाधान हैं। भिन्नताएँ हैं, पर यह बात भरोसा दिलाती है कि उद्देश्यों को लेकर एकता है।

‘अस्तित्व पर संकट’

यूएन महासभा के अध्यक्ष अब्दुल्ला शाहिद ने उद्घाटन कार्यक्रम के दौरान कहा कि मानवता के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। हमारे पास इस संकट को हल करने के लिए क्षमता और संसाधन मौजूद हैं, पर हम पर्याप्त क़दम नहीं उठा रहे हैं। उन्होंने पुख़्ता जलवायु कार्रवाई के लिये अक्षय ऊर्जा टेक्नोलॉजी और नवाचारों को सभी देशों तक पहुँचाने के प्रयासों में तेज़ी लाने, निजी सेक्टर द्वारा नेट-शून्य उत्सर्जन संकल्पों को प्राथमिकता देने, उन्हें स्पष्ट व ज़्यादा असरदार बनाने का आग्रह किया।

Tuesday, October 5, 2021

कोरोना से कहीं बड़ा है ज़हरीली-हवा का ख़तरा


कोविड-19 के ताजा आँकड़ों के अनुसार इस हफ्ते तक इस बीमारी ने दुनियाभर में 48 लाख के आसपास लोगों की जान ले ली है। करीब एक करोड़ 85 लाख लोग अब भी संक्रमण की चपेट में हैं। यह महामारी मनुष्य-जाति के अस्तित्व के सामने खतरे के रूप में खड़ी है, पर यह सबसे बड़ा खतरा नहीं है। इससे भी ज्यादा बड़ा एक और खतरा हमारे सामने है, जिसकी भयावहता का बहुत से लोगों को अनुमान ही नहीं है।

हाल में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु गुणवत्ता के नए निर्देश जारी किए हैं, जिनमें कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के साथ वायु प्रदूषण मानव-स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक है। डब्लूएचओ ने 2005 के बाद पहली बार अपने एयर क्वालिटी गाइडलाइंस को बदला है। नए वैश्विक वायु गुणवत्ता दिशानिर्देशों (एक्यूजी) के अनुसार इस बात के प्रमाण मिले हैं कि प्रदूषित वायु की जो समझ पहले थी, उससे भी कम प्रदूषित वायु से मानव-स्वास्थ्य को होने वाले नुकसानों के सबूत मिले हैं। संगठन का कहना है कि वायु प्रदूषण से हर साल 70 लाख लोगों की अकाल मृत्यु होती है। यह संख्या कोविड-19 से हुई मौतों से कहीं ज्यादा है।

बच्चों की मौतें

नए दिशानिर्देश ओज़ोन, नाइट्रोजन डाईऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड और कार्बन मोनोक्साइड समेत पदार्थों पर लागू होते हैं। डब्ल्यूएचओ ने आखिरी बार 2005 में वायु गुणवत्ता दिशानिर्देश जारी किए थे, जिसका दुनिया भर के देशों की पर्यावरण नीतियों पर प्रभाव पड़ा था।

सेव द चिल्ड्रन इंटरनेशनल की अगुवाई में जारी की गई एक और रिपोर्ट सिटीज4चिल्ड्रन में बताया गया है कि हर दिन दुनिया में 19 साल से कम उम्र के 93 फीसदी बच्चे भारी प्रदूषित हवा में साँस लेते हैं जो उनके स्वास्थ्य और विकास को खतरे में डालता है। 2019 में वायु प्रदूषण से दुनिया में लगभग पाँच लाख नवजात-शिशुओं की जन्म के महीने भर के भीतर मौतें हुई। बच्चे विशेष रूप से वायु प्रदूषण के प्रति संवेदनशील होते हैं। उनका शरीर बढ़ रहा होता है। वे वयस्कों की तुलना में शरीर के वजन की प्रति इकाई हवा की अधिक मात्रा में साँस लेते हैं, इसलिए अधिक प्रदूषक उनके शरीर के अंदर जा सकते हैं।

Friday, October 4, 2019

बदलते मौसम का संकेत है बिहार की बाढ़


बिहार इन दिनों बारिश और बाढ़ की मार से जूझ रहा है. पटना शहर डूबा पड़ा है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सुशासन पर तंज कसे जा रहे हैं. उन्होंने भी पलट कर कहा है कि क्या बिहार में बाढ़ ही सबसे बड़ी समस्या है? कभी हम सूखे का सामना करते हैं और कभी बाढ़ का. जब उनसे बार-बार सवाल किया गया तो वे भड़क गए. उन्होंने कहा, ‘मैं पूछ रहा हूं कि देश और दुनिया के और कितने हिस्से में बाढ़ आई है. अमेरिका का क्या हुआ?
उनकी पार्टी बिहार में बाढ़ प्रबंधन की आलोचना होने पर मुंबई और चेन्नई की बाढ़ का हवाला दे चुके हैं. अब नीतीश कुमार ने अमेरिका का जिक्र करके मौसम की अनिश्चितता की ओर इशारा किया है. बेशक इससे बाढ़ प्रबंधन और जल भराव से जुड़े सवालों का जवाब नहीं मिलता, पर यह सवाल इस बार शिद्दत के साथ उभर कर आया है कि जब मॉनसून की वापसी का समय होता है, तब इतनी भारी बारिश क्यों हुई? इससे जुड़ा दूसरा सवाल यह है कि मौसम दफ्तर की भविष्यवाणी थी कि इस साल सामान्य से कम वर्षा होगी, तब सामान्य से ज्यादा वर्ष क्यों हुई?

केवल बिहार ही नहीं उत्तर प्रदेश में भी इस साल आखिरी दिनों की इस बारिश ने जन-जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया. देश के मौसम दफ्तर के अनुसार दक्षिण पश्चिम मॉनसून को इस साल सोमवार 30 सितंबर को समाप्त हो जाना चाहिए था, बल्कि आधिकारिक तौर पर वह वापस चला गया है. पर सामान्य के मुकाबले 110 प्रतिशत वर्षा के बावजूद बरसात जारी है और अनुमान है कि मॉनसून की वापसी 10 अक्तूबर से शुरू होगी. संभवतः यह पिछले एक सौ वर्षों का सबसे लंबा मॉनसून साबित होगा. इसके पहले सन 1961 में मॉनसून की वापसी 1 अक्तूबर को हुई थी और 2007 में 30 सितंबर को.