दिवाली पर चौतरफा खुशहाली-आज सुबह दिल्ली के दैनिक भास्कर का यह मुख्य शीर्षक है। जयपुर का शीर्षक है घर-घर पधारिए माँ लक्ष्मी। दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका के बीच इन जिनों थ्री-डी अखबार देने की प्रतियोगिता है। पहले राजस्थान पत्रिका ने दिया, फिर दैनिक भास्कर ने। राजस्थान पत्रिका ने धनतेरस के दिन पाठकों से कहा, आज के अखबार को अपनी नाक के पास ले जाएं। इसमें स्ट्रॉबेरी की खुशबू आएगी।
आज के हिन्दुस्तान का शीर्षक है हैप्पी दिवाली। जागरण का शीर्षक है दिवाली धमाका। आमतौर पर फीलगुड फैक्टर का सबसे बड़ा पैरोकार नवभारत टाइम्स माने हिन्दी में NBT ने शेयर बाजार और सोने वगैरह को लीड नहीं बनाया है। राष्ट्रीय सहारा ने भी NBT की तरह दफ्तर में आचरण के नए नियमों को तरज़ीह दी है।
अमर उजाला का शीर्षक है- सेंसेक्स और सोने ने बिखेरी चमक, बाजार रिकॉर्ड 20893 के स्तर पर बंद, दिवाली और धनतेरस पर 200 अरब का सोना बिका।
हिन्दी इलाके के मध्यवर्ग की खुशी के रंग में भंग डालना अच्छा नहीं लगेगा, पर आज के हिन्दी अखबारों ने यूएनडीपी की मानवाधिकार रपट की खबर को महत्व देना पसंद नहीं किया, जिसके अनुसार भारत दुनिया में आर्थिक प्रगति की तेजी में टॉप के दस देशों में है, पर मानव विकास में पिछड़टा जा रहा है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर को टॉप पर लगाया है कि लैंगिक समानता के मामले में भारत का दर्जा पाकिस्तान से भी नीचा है।
देश की खुशहाली और जनता की अमीरी बढ़ते देखना अच्छा लगता है, पर खबरों के चयन में हिन्दी अखबारों का यह दृष्टिकोण समझ में नहीं आता। ऐसी खबरें टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस में छपती हैं, जबकि उनके पाठक अपेक्षाकृत उच्च वर्ग से आते हैं।
हिन्दी अखबारों की कवरेज को देखें तो लगता नहीं कि वे अपने इलाके का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इलाके की आर्थक संरचना को थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएं तो इन अखबारों में संस्कृति भी कृत्रिम है। हम अपने पर्वों को किस तरह मनाते हैं, यह हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं रहा। इसकी जगह छिछली अंग्रेजियत ने ले ली है। न जाने क्यों हमारे स्वाभिमान को चोट नहीं लगती।
सम्भव है मेरी यह बातें पिछड़ापन और दकियानूसी लगें, पर मुझे मीडियामार्ग से प्रवाहित यह खुशी नकली और आत्मघाती लगती है। मेरी कामना है कि हम वास्तव सें सुखी हों, अकेले ही नहीं पूरे समुदाय के साथ। उन करोड़ों उदास और परेशान आँखों को याद करें जिनके लिए आपके घर की रोशनी कोई माने नहीं रखती।
हिन्दी इलाके के मध्यवर्ग की खुशी के रंग में भंग डालना अच्छा नहीं लगेगा, पर आज के हिन्दी अखबारों ने यूएनडीपी की मानवाधिकार रपट की खबर को महत्व देना पसंद नहीं किया, जिसके अनुसार भारत दुनिया में आर्थिक प्रगति की तेजी में टॉप के दस देशों में है, पर मानव विकास में पिछड़टा जा रहा है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर को टॉप पर लगाया है कि लैंगिक समानता के मामले में भारत का दर्जा पाकिस्तान से भी नीचा है।
देश की खुशहाली और जनता की अमीरी बढ़ते देखना अच्छा लगता है, पर खबरों के चयन में हिन्दी अखबारों का यह दृष्टिकोण समझ में नहीं आता। ऐसी खबरें टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस में छपती हैं, जबकि उनके पाठक अपेक्षाकृत उच्च वर्ग से आते हैं।
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सम्भव है मेरी यह बातें पिछड़ापन और दकियानूसी लगें, पर मुझे मीडियामार्ग से प्रवाहित यह खुशी नकली और आत्मघाती लगती है। मेरी कामना है कि हम वास्तव सें सुखी हों, अकेले ही नहीं पूरे समुदाय के साथ। उन करोड़ों उदास और परेशान आँखों को याद करें जिनके लिए आपके घर की रोशनी कोई माने नहीं रखती।