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Monday, March 14, 2011

आपदाओं से निपटना जापान से सीखें


भूकम्प और सुनामी से तबाह हुए इलाके में किसी बालक को मिले पुरस्कार
 प्रमाणपत्र के चिथड़े को पढता एक बालक।

मैने यह लेख जब लिखा था तब न्यूक्लियर रिएक्टरों वाली बात उभरी नहीं थी। रेडिएशन के खतरे ने जापानी त्रासदी को इंसानियत के सामने सबसे बड़े खतरों की सूची में दर्ज कर दिया है। शायद अब यह सोचना होगा कि जिन इलाकों में भूकम्प इतने ज्यादा आते हों वहाँ नाभिकीय ऊर्जा का विकल्प खारिज करना चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि आपदाओं से जूझने के मामले में हमें जापान से सीखना चाहिए। 

सुनामी से जूझते जापान पर नज़र डालें तो आपको उससे सीखने के लिए बहुत कुछ मिलेगा। दुनिया का अकेला देश जिसने एटम बमों का वार झेला। तबाही का सामना करते हुए इस देश के बहादुर और कर्मठ नागरिकों ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद सिर्फ दो दशक में जापान को आर्थिक महाशक्ति बना दिया। तबाहियों से खेलना इनकी आदत है। सुनामी शब्द जापान ने दिया है। यह देश हर साल कम से कम एक हजार भूकम्पों का सामना करता है। सैकड़ों सुनामी हर साल जापानी तटों से टकरातीं हैं। पर इस बार उनके इतिहास का सबसे जबर्दस्त भूकम्प आया है।

Saturday, June 12, 2010

भोपाल त्रासदी

त्रासदी के पच्चीस साल बाद हमारे पास सोचने के लिए क्या है?


कि वॉरेन एंडरसन को देश से बाहर किसने जाने दिया


कि क्या उन्हें हम वापस भारत ला सकते हैं?


कि राजीव गांधी को दिसम्बर 1984 में सलाह देने वाले लोग कौन थे? श्रीमती गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने उन्हें एक महीना और कुछ दिन हुए थे। 


कि क्या हम सच जानना चाहते हैं या इसे या उसे दोषी ठहराना चाहते हैं?


कि हमारी अदालतों में क्या फैसले होते रहेजस्टिस अहमदी ने कानून की सीमा के बारे में जो बात कही है, क्या हम उससे इत्तफाक रखते हैं? मसलन प्रातिनिधिक दायित्व(विकेरियस लायबिलिटी) क्या है? इस तरह के हादसों से जुड़े कानून बनाने के बारे में क्या हुआ?


कि हमने ऐसे कारखानों की सुरक्षा के बारे में क्या सोचा?


कि भोपाल में वास्तव में हुआ क्या था
कि 1982 में भोपाल गैस प्लांट के सेफ्टी ऑडिट में जिन 30 बड़ी खामियों को पकड़ा गया, उनका निवारण क्यों नहीं हुआ?


कि कल को कोई और हादसा ऐसा हुआ तो हम क्या करेंगे?


कि भोपाल में मुआबजे का बँटवारा क्या ठीक ढंग से हो पाया?


ऐसे सैकड़ों सवाल हैं, पर आज सारे सवाल बेमानी है। हम सब आपत्तियाँ ठीक उठाते हैं, पर गलत समय से। 1996 में जस्टिस अहमदी ने फैसला किया। 1984 में वॉरेन एंडरसन बचकर अमेरिका गए। हम क्या कर रहे थे? 1996 में तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आ गया था। फिर यूनियन कार्बाइड के भारतीय प्रतिनिधि तो देश में ही थे। जून 2010 में अदालती फैसला आने के पहले हम कहाँ थेहमने क्या किया


आसानी से समझ में आता है कि अमेरिका का दबाव था तो किसी एक व्यक्ति पर नहीं था। और हमारी व्यवस्था किसी एक व्यक्ति के कहने पर चल सकती है तो फिर किसी से शिकायत क्यों? आज भी हर राज्य में मुख्यमंत्री सरकारी अफसरों से वह करा रहे हैं, जो वे चाहते हैं। राजनीति में अपराधियों की  खुलेआम आमदरफ्त है। भोपाल में मुआवजे को लेकर कई प्रकार के स्वार्थ समूह बन गए हैं। एक विवाद के बाद दूसरा। शायद भोपाल हादसे की जगह कल-परसों कोई नई बात सामने आएगी तो हम इसे भूल जाएंगे। हमें उत्तेजित होने और शोर मचाने की जगह शांति से और सही मौके पर कार्रवाई करनी चाहिए। हाथी गुज़र जाने के बाद उसके पद चिह्नं पीटने से क्या फायदा