आज अचानक मेरे मन में राजेन्द्र माथुर के एक पुराने आलेख को फिर से छापने की इच्छा पैदा हुई है। यह इच्छा निर्मला सीतारमन के बजट पर मिली प्रतिक्रियाओं के बरक्स है। यह लेख नई दुनिया के समय का यानी सत्तर के दशक का है। इसमें आज के संदर्भों को खोजने की जरूरत नहीं है। इसमें समाजवाद से जुड़ी परिकल्पना और भारतीय मनोदशा का आनंद लेने की जरूरत है। आज वामपंथ एक नए रूप में सामने आ रहा है। राजेंद्र माथुर को पसंद करने वाले काफी हैं, पर काफी लोग उन्हें नापसंद भी करते हैं। आज वे जीवित होते तो पता नहीं राष्ट्रवाद की उनकी दृष्टि क्या होती, पर उस दौर में भी उन्हें संघी मानने वाले लोग थे। वे नेहरू के प्रशंसक थे, भक्त नहीं। बहरहाल इस आलेख को पढ़िए। कुछ समय बाद मैं कुछ और रोचक चीजें आपके सामने रखूँगा।
प्रजातंत्रीय भारत
में समाजवाद क्यों नहीं आ रहा है, इसका उत्तर तो स्पष्ट है। समाजवाद के रास्ते में सबसे बड़ा अड़ंगा स्वयं भारत की
जनता है, वह जनता जिसके हाथ
में वोट है। यदि जनता दूसरी होती, तो निश्चय ही समाजवाद तुरंत आ जाता। हमने जिस ख्याल को समाजवाद का नाम देकर
दिमाग में ठूंस रखा है, उसे
मार्क्स, लेनिन, माओ किसी का भी समाजवाद नहीं कह सकते। इस
शब्द का अर्थ ही हमारे लिए अलग है।
समाजवाद का अर्थ
इस देश के शब्दकोश में मजदूर किसानों का राज नहीं है, पार्टी की तानाशाही नहीं है, पुरानी व्यवस्था का विनाश नहीं है, नए मूल्यों का निर्माण नहीं है। हमारे लिए
समाजवाद का अर्थ एक सफेदपोश स्वर्ग है, जिसमें इस देश का हर नागरिक 21 साल पूरा करते ही पहुंच जाएगा। यह ऐसा स्वर्ग है, जिसमें किसानी और मजदूरी की जरूरत ही नहीं होगी। ऐसा
कोई वर्ग ही नहीं होगा, जिसे
बदन से मेहनत करनी पड़े। रूस ने अपने संविधान में काम को बुनियादी अधिकार माना है,
लेकिन भारत के सफेदपोश स्वर्ग में काम
की कुप्रथा का हमेशा के लिए अंत कर दिया जाएगा।
बेशक जो
मेहनत-मजदूरी करने वाले लोग हैं, वे कोई सफेदपोश स्वर्ग नहीं, बल्कि अपनी नारकीय गरीबी से जार-सी राहत चाहते हैं। वे करोड़ों हैं, शायद 80 प्रतिशत हैं, लेकिन वे बेजुबान, असंगठित और राजनीतिविहीन हैं। शायद वे इस तरह वोट
देते हैं, जैसे रोटरी क्लब के
अध्यक्ष पद के लिए पूरे इन्दौर की जनता वोट देने लगे। राजनीति का क्लब थोड़े से
लोगों का है, लेकिन वोट देने
का अधिकार सभी को है। शायद भारत के सबसे गरीब लोग अभी इतने असंतुष्ट भी नहीं हुए
हैं कि वर्तमान व्यवस्था को हर कीमत पर तहस-नहस कर डालें।
इंदिरा गांधी और
जगजीवन राम गरीबी हटाने की चाहे जितनी बात करें, लेकिन जो गरीबी राजनैतिक रूप से दुखद नहीं है,
वह कभी नहीं हटेगी। जिस बच्चे ने
चिल्लाना नहीं सीखा है, वह
बिना दूध के भूखा ही मरेगा। वह यों भी हमेशा भूखों मरता आया है और तृप्ति को उसने
कभी अपना अधिकार नहीं माना है। यह सर्वहारा वर्ग अभी राजनीति से विलग है, इसलिए रूस या चीन जैसा समाजवाद इस देश में
नहीं आ सकता।