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Sunday, December 31, 2023

विधानसभा चुनाव और 2024 के संकेत

तीन हिंदी भाषी राज्यों में जीत के बाद बीजेपी ने बड़ी तेजी से लोकसभा चुनाव की रणनीतियों पर काम शुरू कर दिया है। तीन राज्यों के नए मुख्यमंत्रियों के चयन से यह बात साफ हो गई है कि पार्टी ने लोकसभा चुनाव ही नहीं, उसके बाद की राजनीति पर भी विचार शुरू कर दिया है। विशेषज्ञों के कयासों को ग़लत साबित करते हुए बीजेपी ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में न सिर्फ जीत हासिल की, बल्कि नए मुख्यमंत्रियों के रूप में तीन नए चेहरों को आगे बढ़ाकर चौंकाया है। संभवतः पार्टी का आशय है कि हमारे यहाँ व्यक्ति से ज्यादा संगठन का महत्व है। हम नेता बना सकते हैं।

तीनों राज्यों में बीजेपी की सफलता के पीछे अनेक कारण हैं। मजबूत नेतृत्व, संगठन-क्षमता, संसाधन, सांस्कृतिक-आधार और कल्याणकारी योजनाएं वगैरह-वगैरह। इनमें शुक्रिया मोदीजी को भी जोड़ लीजिए। यानी मुसलमान वोटरों को खींचने के प्रयासों में भी उसे आंशिक सफलता मिलती नज़र आ रही है।  

राजस्थान में पहली बार विधायक बने भजनलाल शर्मा, मध्य प्रदेश में मोहन यादव और छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय के नामों की दूर तक चर्चा नहीं थी। इनका नाम नहीं था, पर पार्टी अब इनके सहारे नएपन का आभास देगी। उसे कितनी सफलता मिलेगी, यह तो मई 2024 में ही पता लगेगा, पर इतना साफ है कि पार्टी पुरानेपन को भुलाना और नएपन को अपनाना चाहती है। पुराने नेताओं का कोई हैंगओवर अब नहीं है। दूसरी तरफ पार्टी को इस बात का भरोसा भी है कि वह लोकसभा चुनाव आसानी से जीत जाएगी। उसने इंड गठबंधन या इंडिया को चुनौती के रूप में लिया ही नहीं।

Friday, October 13, 2023

गठबंधन ‘इंडिया’ की विसंगतियाँ


गठबंधन ‘इंडिया’ ने मुंबई में हुई बैठक के दौरान तीन प्रस्ताव पास किए थे। पहला, सीट बँटवारे की प्रक्रिया जल्द ही पूरी की जाएगी, दूसरा, ‘इंडिया’ के घटक दल जनता के मुद्दों पर देश के अलग-अलग हिस्सों में जनसभाएं करेंगे और तीसरा, इंडिया के सभी घटक दलों का अपना चुनाव अभियान जुड़ेगा भार औरजीतेगा इंडिया की थीम पर होगा। इनमें पहला काम सबसे बड़ा और जरूरी होगा। शेष दो काम किसी न किसी रूप में चल जाएंगे, पर सीटों का बँटवारा सबसे जटिल विषय है। ऐसा लग रहा है कि फ़िलहाल गठबंधन उसे आगे के लिए टाल रहा है।

चार राज्यों में फज़ीहत

पश्चिम बंगाल, दिल्ली, पंजाब और केरल कम से कम चार ऐसे राज्य हैं, जो साफ-साफ इस गठबंधन की किसी भी समय फज़ीहत कर सकते हैं। हाल में तमिलनाडु में मुख्यमंत्री स्टालिन के बेटे ने सनातन धर्म के बारे में टिप्पणी करके कांग्रेस पार्टी के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं। इसी वजह से गठबंधन की भोपाल में होने वाली बैठक रद्द कर दी गई। इसका असर मध्य प्रदेश के चुनाव पर पड़ सकता है।

शुरू में लगता था कि नीतीश कुमार इस गठबंधन के समन्वय का काम करेंगे, पर ऐसा हुआ नहीं। हालांकि उन्होंने अभी तक प्रत्यक्षतः कुछ ऐसा नहीं किया है, जिससे साबित हो कि वे नाराज हैं, पर गठबंधन ने जब टीवी के 14 एंकरों के बहिष्कार की घोषणा की, तो उन्होंने इस बात से अपनी असहमति व्यक्त कर दी। उधर सीपीएम ने गठबंधन की समन्वय समिति में शामिल नहीं होने की घोषणा करके एक और असमंजस पैदा कर दिया है।

Sunday, October 8, 2023

जातियों का मसला, समस्या या समाधान


बिहार में जातियों की जनगणना के नतीजे आने के बाद देश में जातिगत-आरक्षण की बहस फिर से तेज होने जा रहा है, जिसका असर लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा। सर्वेक्षण का फायदा गरीब, पिछड़ों और दलितों को मिले या नहीं मिले, पर इसका राजनीतिक लाभ सभी दल लेना चाहेंगे। राष्ट्रीय स्तर पर जाति-जनगणना की माँग और शिक्षा तथा नौकरियों में आरक्षण की 50 फीसदी की कानूनी सीमा पर फिर से विचार करने की माँग जोर पकड़ेगी। न्यायपालिका से कहा जाएगा कि आरक्षण पर लगी कैप को हटाया जाए। हिंदुओं के व्यापक आधार तैयार करने की मनोकामना से प्रेरित भारतीय जनता पार्टी और ओबीसी, दलितों और दूसरे सामाजिक वर्गों के हितों की रक्षा के लिए गठित राजनीतिक समूहों के टकराव का एक नया अध्याय अब शुरू होगा। 

यह टकराव पूरी तरह नकारात्मक नहीं है। इसके सकारात्मक पहलू भी हैं। यह जानकारी भी जरूरी है कि हमारी सामाजिक-संरचना वास्तव में है क्या। सर्वेक्षण से पता चला है कि बिहार की 13 करोड़ आबादी के 63 फीसदी हिस्से का ताल्लुक अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की श्रेणियों में शामिल की गई जातियों से है। इसमें लोगों के सामाजिक-आर्थिक विवरण भी दर्ज किए गए हैं, लेकिन वे अभी सामने नहीं आए हैं। उधर गत 31 जुलाई को रोहिणी आयोग ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। हालांकि उसकी सिफारिशों को सार्वजनिक नहीं किया गया है, पर उसके निहितार्थ महत्वपूर्ण होंगे। जो स्थिति अगड़ों की थी, वह अब पिछड़ों में अगड़ों की होगी। इससे एक नई राजनीति जन्म लेगी। बिहार का डेटा उसकी तरफ इशारा कर रहा है।  

Thursday, August 3, 2023

विदेश-नीति और आंतरिक-राजनीति की विसंगतियाँ

विदेशमंत्री एस जयशंकर ने पिछले हफ्ते लोकसभा में विरोधी सदस्यों के हंगामे के बीच भारत की विदेश-नीति तथा देश के नेताओं की हाल की विदेश यात्राओं के बारे में जानकारी देने के लिए एक बयान दिया. उस बयान को जिस राजनीतिक-बेरुखी का सामना करना पड़ा, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आंतरिक-राजनीति, विदेश-नीति को कितना महत्व दे रही है.   

इस बात को स्वीकार करने की जरूरत है कि सरकार किसी भी पार्टी की हो, राष्ट्रीय-सुरक्षा और विदेश-नीति को लेकर आमराय होनी चाहिए. इन नीतियों में क्रमबद्धता होती है. ऐसा नहीं होता कि सरकार बदलने पर इन नीतियों में भारी बदलाव हो जाता हो.

इस महीने दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स का एक महत्वपूर्ण शिखर सम्मेलन होने वाला है. उसके बाद सितंबर में जी-20 का शिखर सम्मेलन दिल्ली में होगा. ये सभी घटनाएं भारत के राष्ट्रीय-हितों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं.

कैसे इंडिया?

संसद में अपने बयान के प्रति बेरुखी को देखते हुए जयशंकर ने कहा कि वे ‘इंडिया’ (विरोधी गठबंधन) होने का दावा करते हैं, लेकिन अगर वे भारत के राष्ट्रीय हितों के बारे में सुनने के लिए तैयार नहीं हैं, तो वे किस तरह के इंडिया हैं?

बहरहाल पिछले दिनों कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं हैं, जिनपर मीडिया का ध्यान कम गया है. एक और घटना संसद से ही जुड़ी है. विदेशी मामलों से जुड़ी संसदीय समिति ने भारत सरकार को सलाह दी है कि यदि पाकिस्तान पहल करे, तो उसके साथ आर्थिक संबंध फिर से कायम करने चाहिए.

Wednesday, July 5, 2023

विसंगतियों की शिकार विरोधी-एकता

राष्ट्रीय-राजनीति का परिदृश्य अचानक 2019 के लोकसभा-चुनाव के एक साल पहले जैसा हो गया है। मई, 2018 में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों की शुरुआती गहमागहमी के बाद कांग्रेस के समर्थन से एचडी कुमारस्वामी की सरकार बनी, जिसके शपथ-ग्रहण समारोह में विरोधी दलों के नेताओं ने हाथ से हाथ मिलाकर एकता का प्रदर्शन किया। एकता की बातें चुनाव के पहले तक चलती रहीं। 2014 के चुनाव के पहले भी ऐसा ही हुआ था। और अब गत 23 जून को पटना में हुई विरोधी-दलों की बैठक के बारे में कहा जा रहा है कि इससे भारतीय राजनीति का रूपांतरण हो जाएगा। (यह लेख पाञ्चजन्य में प्रकाशित होने के बाद महाराष्ट्र में राकांपा के अजित पवार एनडीए सरकार में शामिल हो गए हैं। इस परिघटना के दौरान एनसीपी के कुछ अंतर्विरोध भी सामने आए हैं। मसलन माना जा रहा है कि एनसीपी के ज्यादातर विधायक बीजेपी के साथ जाना चाहते थे और यह बात शरद पवार जानते थे। इतना ही नहीं शरद पवार ने भी 2019 के चुनाव के बाद बीजेपी के साथ सरकार बनाने का समर्थन किया था। महाराष्ट्र की इस गतिविधि के बाद अब कहा जा रहा है कि जदयू में भी विभाजन संभव है।)

बैठक के आयोजक नीतीश कुमार को भरोसा है कि वे बीजेपी को 100 सीटों के भीतर सीमित कर सकते हैं। केजरीवाल-प्रसंग पर ध्यान न दें, तो इस बैठक में शामिल ज्यादातर नेता इस बात से खुश थे कि शुरुआत अच्छी है। संभव है कि बंद कमरे में हुई बातचीत में गठजोड़ की विसंगतियों पर चर्चा हुई हो, पर बैठक के बाद हुई प्रेस-वार्ता में सवाल-जवाब नहीं हुए। तस्वीरें खिंचाने और बयान जारी करने के अलावा लिट्टी-चोखा, गुलाब जामुन, राहुल गांधी की दाढ़ी और शादी जैसे विषयों पर बातें हुईं। इसलिए अब 17-18 जुलाई को बेंगलुरु में होने वाली अगली बैठक का इंतजार करना होगा। 

केंद्र में या परिधि में?

पटना और बेंगलुरु, दोनों बैठकों का उद्देश्य एक है, पर इरादों के अंतर को समझने की जरूरत है। पटना-बैठक नीतीश कुमार की पहल पर हुई थी, पर बेंगलुरु का आयोजन कांग्रेसी होगा। दोनों बैठकों का निहितार्थ एक है। फैसला कांग्रेस को करना है कि वह गठबंधन के केंद्र में रहेगी या परिधि में। इस एकता में शामिल ज्यादातर पार्टियाँ कांग्रेस की कीमत पर आगे बढ़ी हैं, या कांग्रेस से निकली हैं। जैसे एनसीपी और तृणमूल। कांग्रेस का पुनरोदय इनमें से कुछ दलों को कमजोर करेगा। फिर यह किस एकता की बात है?

देश में दो राष्ट्रीय गठबंधन हैं। एक, एनडीए और दूसरा यूपीए। प्रश्न है, यूपीए यदि विरोधी-गठबंधन है, तो उसका ही विस्तार क्यों नहीं करें? गठबंधन को नया रूप देने या नाम बदलने का मतलब है, कांग्रेस के वर्चस्व को अस्वीकार करना। विरोधी दलों राय है कि लोकसभा चुनाव में अधिकाधिक संभव स्थानों पर बीजेपी के प्रत्याशियों के खिलाफ एक प्रत्याशी उतारा जाए। इसे लेकर उत्साहित होने के बावजूद ये दल जानते हैं कि इसके साथ कुछ जटिलताएं जुड़ी हैं। बड़ी संख्या में ऐसे चुनाव-क्षेत्र हैं, जहाँ विरोधी-दलों के बीच प्रतिस्पर्धा है। कुछ समय पहले खबरें थीं कि राहुल गांधी का सुझाव है कि सबसे पहले दिल्ली से बाहर तीन-चार दिन के लिए विरोधी दलों का चिंतन-शिविर लगना चाहिए, जिसमें खुलकर बातचीत हो। अनुमान लगाया जा सकता है कि विरोधी-एकता अभियान में कांग्रेस अपनी केंद्रीय-भूमिका पर ज़ोर देगी।

Monday, July 3, 2023

राजनीति बनाम सीबीआई यानी ‘डबल-धार’ की तलवार

महाराष्ट्र में एनसीपी की बगावत के पीछे एक बड़ा कारण यह बताया जाता है कि उसके कुछ नेता ईडी की जाँच के दायरे में हैं और उससे बचने के लिए वे बीजेपी की शरण में आए हैं। यह बात आंशिक रूप से ही सही होगी, कारण दूसरे भी होंगे, पर इस बात को छिपाना मुश्किल है कि बड़ी संख्या में राजनीतिक नेताओं पर गैर-कानूनी तरीके से कमाई के आरोप हैं। यह बात राजनीतिक-प्रक्रिया को प्रभावित करती है। तमिलनाडु में बिजली मंत्री वी सेंथिल बालाजी की गिरफ्तारी के बाद प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई की भूमिका को लेकर बहस एकबार फिर से शुरू हुई है। दूसरी तरफ तमिलनाडु सरकार ने राज्य में सीबीआई को मिली सामान्य अनुमति (जनरल कंसेंट) वापस लेकर जवाबी कार्रवाई भी की है। साथ ही  तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने कहा, हम हर तरह की राजनीति करने में समर्थ हैं। यह कोरी धमकी नहीं, चेतावनी है। डीएमके के आदमी को गलत तरीके से परेशान मत करो। हम जवाबी कार्रवाई करेंगे, तो आप बर्दाश्त नहीं कर पाओगे। 

स्टालिन की इस चेतावनी में राजनीति के कुछ सूत्र छिपे हैं। सरकारी संस्थाएं और व्यवस्थाएं कुछ उद्देश्यों और लक्ष्यों को लेकर बनी हैं। उनके सदुपयोग और दुरुपयोग पर पूरी व्यवस्था निर्भर करती है। स्टालिन की बात के जवाब में बीजेपी का कहना है कि हम भ्रष्टाचारियों का पर्दाफाश करेंगे। यह उसका राजनीतिक नारा है, रणनीति और राजनीति भी। उसके पास आयकर विभाग, सीबीआई और ईडी तीन एजेंसियाँ हैं, जो उस नश्तर की तरह हैं, जो इलाज करता है और कत्ल भी। उच्चतम न्यायालय ने धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के तहत प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को मिले अधिकार को उचित ठहराकर सरकार के हाथ और मजबूत कर दिए हैं। आर्थिक अपराधों की बारीकियों को समझना आसान नहीं है। आम आदमी पार्टी जिन नेताओं को कट्टरपंथी ईमानदार बताती है, उनका महीनों से कैद में रहना इसीलिए आम आदमी को समझ में नहीं आता। क्या वास्तव में किसी ईमानदार व्यक्ति को इस तरह से सताने की इजाजत हमारी व्यवस्था देती है?  

द्रमुक के नेता और बिजली मंत्री बालाजी को ‘नौकरी के बदले नकदी’ घोटाले से जुड़े धन-शोधन के एक मामले में 14 जून को ईडी ने गिरफ्तार किया। वे वर्तमान डीएमके सरकार के पहले मंत्री हैं, जिन्हें गिरफ्तार किया गया है। हालांकि मुख्यमंत्री इसे बदले की कार्रवाई बता रहे हैं, पर ईडी का कहना है कि उसके पास मंत्री के खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं। गिरफ्तारी के बावजूद मुख्यमंत्री ने उन्हें मंत्रिपद पर बरकरार रखा है। स्टालिन का कहना है कि बीजेपी अपने उन विरोधियों को डराने के लिए आयकर विभाग, सीबीआई और ईडी जैसी जांच-एजेंसियों का इस्तेमाल करती है, जिनका वह राजनीतिक मुकाबला नहीं कर सकती। स्टालिन के अनुसार ईडी ने बीजेपी के सरकार में आने से पहले 10 साल में 112 छापे मारे थे, जबकि 2014 में बीजेपी के केंद्र में आने के बाद लगभग 3000 छापे मारे गए हैं।

Sunday, July 2, 2023

समान नागरिक संहिता के किंतु-परंतु


संसद का मॉनसून सत्र 20 जुलाई से 11 अगस्त के बीच होने की घोषणा हो गई है। कहा जा रहा है कि इस सत्र के दौरान समान नागरिक संहिता से जुड़ा विधेयक भी पेश हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में कहा है कि कुछ राजनीतिक दल समान नागरिक संहिता के नाम पर मुसलमानों को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी तरफ उनके विरोधी नेताओं का कहना है कि यह मुद्दा मुसलमानों को टारगेट करने के लिए ही उठाया गया है। सच यह है कि इसका असर केवल मुसलमानों पर ही नहीं पड़ेगा। देश के सभी धर्मावलंबी और जनजातीय समुदाय इससे प्रभावित होंगे। फिर भी पर्सनल लॉ की चर्चा जब भी छिड़ती है तब हिंदू-मुसलमान पर चली जाती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इन दो समुदायों की संख्या बड़ी है और वोट के सहारे सत्ता हासिल करने में इन दो में से किसी एक का समर्थन हासिल करना उपयोगी होता है। इसे ध्रुवीकरण कहते हैं। इसकी वजह से पिछले 75 वर्ष में राजनीतिक वोट-बैंक की अवधारणा विकसित हुई है।

सब पर समान रूप से लागू होने वाला कानून अच्छा विचार है, पर वह तभी संभव है, जब समाज अपने भीतर सुधार के लिए तैयार हो। पता नहीं वह दिन कब आएगा। हिंदू कोड बिल ने सामाजिक की शुरुआत की, पर उससे ही हिंदू-राजनीतिको बल मिला। वह सुधार भी आसानी से नहीं हुआ। हिंदू-कोड बिल समिति 1941 में गठित की गई थी, पर कानून बनाने में14 साल लगे। वह भी एक कानून से नहीं तीन कानूनों, हिंदू-विवाह, उत्तराधिकार और दत्तक-ग्रहण, के मार्फत। कांग्रेस के भीतर प्रतिरोध हुआ। सरदार पटेल, पट्टाभि सीतारमैया, एमए अयंगार, मदन मोहन मालवीय और कैलाश नाथ काटजू जैसे नेताओं की राय अलग थी। इसी कानून को लेकर 1951 में भीमराव आंबेडकर ने कानून मंत्री पद से इस्तीफा दिया। डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा, मैं इस कानून पर दस्तखत नहीं करूँगा। बिल रोका गया और बाद में नए कानून बने। फिर भी 1955 के कानून में बेटियों को संपत्ति का अधिकार नहीं मिला। यह अधिकार 2005 में मिला।

संविधान सभा में अनुच्छेद 44 पर बहस को भी पढ़ना चाहिए। अनुच्छेद 44 में शब्द यूनिफॉर्म का इस्तेमाल हुआ है, कॉमन का नहीं। इसका मतलब है समझने की जरूरत भी है। पचास के दशक की बहस के बीच श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने (तब जनसंघ का गठन नहीं हुआ था और श्यामा प्रसाद की राजनीति दूसरी थी) कहा कि समरूप (यूनिफॉर्म) नागरिक-संहिता बनाई जाए। बहरहाल हिंदू-कोड बिल आने के बाद कहा गया कि हिंदू-समाज परिवर्तन के लिए तैयार है, मुस्लिम-समाज नहीं। इस दौरान पाकिस्तान में पर्सनल लॉ में सुधार हुआ। इन सब बातों के कारण मुस्लिम-तुष्टीकरणएक राजनीतिक-अवधारणा बनकर उभरी, जिसने इस विचार को पनपने का मौका दिया। हमारा लोकतंत्र इतना प्रौढ़ नहीं है कि सामान्य वोटर इन बारीकियों को पढ़ सके। पर यह मानना भी ठीक नहीं कि संविधान निर्माताओं ने जिस समझदारी के साथ देश पर समान नागरिक संहिता लागू नहीं की, उसे देखते हुए यह मामला हमेशा के लिए जस का तस रह पाएगा। सवाल है कि वह समय कब आएगा, जब इसे को उठाया जाएगा? पर असली चुनौती उद्देश्य की नहीं, इरादों की है। साथ ही ऐसा कानून बनाने की, जिसे सभी समुदाय स्वीकार करें।

Thursday, March 9, 2023

कांग्रेस के फैसले, मर्जी परिवार की


राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा और कांग्रेस के नवा रायपुर-अधिवेशन को जोड़कर देखें, तो लगता है कि विचारधारा, संगठन और चुनावी रणनीति की दृष्टि से पार्टी नया कुछ गढ़ना नहीं चाहती है। वह राहुल गांधी सिद्धांतपर चल रही है, जो 2019 के चुनाव के पहले तय हुआ था। पार्टी के कार्यक्रमों पर नजर डालें, तो 2019 के घोषणापत्र के न्याय कार्यक्रम की कार्बन कॉपी हैं। इसमें न्यूनतम आय और स्वास्थ्य के सार्वभौमिक अधिकार को भी शामिल किया गया है। तब और अब में फर्क केवल इतना है कि पार्टी अध्यक्ष अब मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, जिनकी अपनी कोई लाइन नहीं है। संयोग से परिणाम वसे नहीं आए, जिनका दावा किया जा रहा है, तो जिम्मेदारी खड़गे साहब ले ही लेंगे।  

कार्यक्रमों पर नज़र डालें, तो दिखाई पड़ेगा कि पार्टी ने बीजेपी के कार्यक्रमों की तर्ज पर ही अपने कार्यक्रम बनाए हैं। नयापन कोई नहीं है। इस महाधिवेशन से दो-तीन बातें और स्पष्ट हुई हैं। कांग्रेस अब सोनिया गांधी से बाद की राहुल-प्रियंका पीढ़ी के पूरे नियंत्रण में है। अधिवेशन में जो भी फैसले हुए, वे परिवार की मर्जी को व्यक्त करते हैं। पार्टी में पिछली पीढ़ी के ज्यादातर नेता या तो किनारे कर दिए गए हैं या राहुल की शरण में चले गए हैं। जी-23 जैसे ग्रुप का दबाव खत्म है।

दूसरी तरफ राहुल-सिद्धांत की विसंगतियाँ भी कायम हैं। राहुल ने खुद को ‘सत्याग्रही’ और भाजपा को ‘सत्ताग्रही’ बताया। नौ साल सत्ता से बाहर रहना उनकी व्यथा है। दूसरी तरफ पार्टी का अहंकार बढ़ा है। वह विरोधी दलों से कह रही है कि हमारे साथ आना है, तो हमारे नेतृत्व को स्वीकार करो। बगैर किसी चुनावी सफलता के उसका ऐसा मान लेना आश्चर्यजनक है। सवाल है कि गुजरात में मिली जबर्दस्त हार के बावजूद पार्टी के गौरव-गान के पीछे कोई कारण है या सब कुछ हवा-हवाई है?  पार्टी मान कर चल रही है कि राहुल गांधी का कद बढ़ा है। उनकी भारत-जोड़ो यात्रा ने चमत्कार कर दिया है। छोटे से लेकर बड़े नेताओं तक ने भारत-जोड़ो जैसा यशोगान किया, वह रोचक है।  

यात्रा की राजनीति

हालांकि यात्रा को पार्टी के कार्यक्रम के रूप में शुरू नहीं किया गया था और उसे राजनीतिक कार्यक्रम बताया भी नहीं गया था, पर पार्टी यह भी मानती है कि इस यात्रा ने पार्टी में प्राण फूँक दिए हैं और अब ऐसे ही कार्यक्रम और चलाए जाएंगे, ताकि राहुल गांधी के ही शब्दों में उनकी तपस्या के कारण पैदा हुआ उत्साह भंग न होने पाए। तपस्या बंद नहीं होनी चाहिए। जयराम रमेश ने फौरन ही पासीघाट (अरुणाचल) से पोरबंदर (गुजरात) की पूर्व से पश्चिम यात्रा की घोषणा भी कर दी है, जो जून या नवंबर में आयोजित की जाएगी। यह यात्रा उतने बड़े स्तर पर नहीं होगी और पदयात्रा के साथ दूसरे माध्यमों से भी हो सकती है।

बहरहाल यात्रा की राजनीति ही अब कांग्रेस का रणनीति है। उनकी समझ से बीजेपी के राष्ट्रवाद का जवाब। बीजेपी पर हमला करने के लिए कांग्रेस ने वर्तमान चीनी-घुसपैठ के राजनीतिकरण और 1962 में चीनी-आक्रमण के दौरान तैयार हुई राष्ट्रीय-चेतना का श्रेय लेने की रणनीति तैयार की है। नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया औरआत्मनिर्भर भारत जैसे कार्यक्रमों की देखादेखी अधिवेशन में पारित एक प्रस्ताव में कहा गया है कि देश के उत्पादों के बढ़ावा देने का समय आ गया है। इसके लिए मझोले और छोटे उद्योगों, छोटे कारोबारियों को संरक्षण देने तथा जीएसटी को सरल बनाने की जरूरत है।

Sunday, March 5, 2023

पूर्वोत्तर के परिणामों के निहितार्थ


पूर्वोत्तर के तीनों राज्यों के चुनाव परिणामों को कम से कम तीन नज़रियों से देखने की ज़रूरत है। एक, बीजेपी की इस इलाके में पकड़ मजबूत होती जा रही है, कांग्रेस की कम हो रही है और तीसरे विरोधी दलों की एकता का कोई फॉर्मूला इस इलाके में सफल होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में बन रही तीनों सरकारों में बीजेपी का शामिल होने का राजनीतिक संदेश है। बहरहाल बीजेपी उत्तर में पंजाब और दक्षिण के दो राज्यों तमिलनाडु और केरल में अपेक्षाकृत कमज़ोर है। फिर भी कांग्रेस के मुकाबले उसकी अखिल भारतीय उपस्थिति बेहतर हो गई है। तीन राज्यों के चुनावों के अलावा हाल में कुछ और घटनाएं आने वाले समय की राजनीति की दिशा का संकेत कर रही हैं।

चुनावों का मौसम

कांग्रेस के नजरिए से इनमें पहली घटना है राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा और फिर उसके बाद नवा रायपुर में हुआ पार्टी का 85वाँ महाधिवेशन। इन दोनों कार्यक्रमों में बीजेपी को पराजित करने की रणनीति और बनाने और विरोधी-एकता कायम करने की बातें हुईं। विरोधी-एकता की दृष्टि से तेलंगाना के खम्मम में और फिर पटना में हुई दो रैलियों और चेन्नई में द्रमुक सुप्रीमो एमके स्टालिन के जन्मदिन के समारोह पर भी नजर डालनी चाहिए। इन तीनों कार्यक्रमों में विरोधी दलों के नेता जमा हुए, पर तीनों की दिशाएं अलग-अलग थीं। बहरहाल 2024 का बिगुल बज गया है। अब इस साल होने वाले छह विधानसभा चुनावों पर नजरें रहेंगी, जिनमें लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास होगा। अगले दो-तीन महीनों में कर्नाटक में विधानसभा-चुनाव होंगे। इसके बाद नवंबर में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और मिजोरम में। फिर दिसंबर में राजस्थान और तेलंगाना में।

परिणाम कुछ कहते हैं

पूर्वोत्तर के तीनों राज्यों में यथास्थिति बनी रही। तीनों जगह बीजेपी सत्ता में थी और इसबार भी तकरीबन वही स्थिति है। त्रिपुरा में मामूली फर्क पड़ा है, जहाँ बीजेपी की ताकत पिछली बार के मुकाबले कम हुई है, पर वहाँ वाममोर्चे और कांग्रेस के गठबंधन को वैसी सफलता नहीं मिली, जिसकी उम्मीद की जा रही थी। बीजेपी ने चुनाव के कुछ महीने पहले राज्य में नेतृत्व परिवर्तन करके माणिक साहा को लाने का जो दाँव खेला था, वह सफल रहा। पूर्वोत्तर के इस राज्य को बीजेपी कितना महत्व दे रही है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नई सरकार के शपथ-ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के उपस्थित रहने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। यह समारोह 8 मार्च को होगा, जब देश होली मना रहा होगा।

सीपीएम का गढ़ टूटा

पश्चिमी बंगाल के साथ त्रिपुरा वाममोर्चे का गढ़ हुआ करता था। वह गढ़ अब टूट गया है। इसकी शुरुआत 2018 में हो गई थी, जब बीजेपी 35 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। उसने सीपीएम के 25 साल के गढ़ को ध्वस्त किया था। इसबार सीपीएम और कांग्रेस का गठबंधन था। पिछले चुनाव में जीत के बाद बीजेपी ने बिप्लब देव को मुख्यमंत्री बनाया था, लेकिन मई 2022 में माणिक साहा को मुख्यमंत्री बनाया गया। इसबार के चुनाव में भाजपा ने सभी 60 सीटों पर चुनाव लड़ा।  उसे 32 सीटें मिली हैं। एक सीट उसके सहयोगी संगठन आईपीएफटी को मिली। लेफ्ट-कांग्रेस के गठबंधन ने (क्रमश: 47 और 13 सीटों) पर और टिपरा मोथा पार्टी ने 42 सीटों पर चुनाव लड़ा। इस तरह राज्य में त्रिकोणीय मुकाबला था। सीपीएम को 11 और कांग्रेस को 3 और टिपरा मोथा पार्टी को 13 सीटें मिली हैं। असम के बाद त्रिपुरा दूसरा ऐसा राज्य है, जहाँ बीजेपी ने अपना आधार काफी मजबूत कर लिया है।

Sunday, February 19, 2023

भारतीय राजनीति में विदेशी-हस्तक्षेप?


जनवरी के आखिरी हफ्ते में जब गौतम अडानी के कारोबार को लेकर अमेरिकी रिसर्च कंपनी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट सामने आई थी, तभी यह स्पष्ट था कि इसके पीछे अमेरिकी कारोबारी जॉर्ज सोरोस का हाथ है। यह कहानी 2017 में ऑस्ट्रेलिया में चले अडानी-विरोधी आंदोलन के दौरान स्पष्ट थी। विरोध की वजह से अडानी ग्रुप के प्रोजेक्ट की क्षमता सीमित हो गई थी। इस विरोध के तार कितनी दूर तक जुड़े हैं, इसे समझना आसान नहीं। अलबत्ता कहा जा सकता है कि सोरोस-प्रकरण से संगठित विदेशी-हाथ की पुष्टि हो रही है।

अडानी-विरोध के पीछे पर्यावरण-संरक्षण से जुड़े संगठनों का हाथ ही होता, तो बात अलग थी। मान लेते हैं कि इसमें कारोबारी-प्रतिस्पर्धियों की भूमिका होगी। अडानी की कंपनियाँ बंदरगाहों, एयरपोर्ट, टेलीकम्युनिकेशंस, बिजलीघरों, खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी परियोजनाओं पर काम करती हैं। यह मामला केवल कारोबार तक सीमित नहीं है। उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करीबी माना जाता है। यदि इसके पीछे राजनीति है, तो सवाल होगा कि कैसी राजनीति? केवल मोदी और भारतीय जनता पार्टी निशाने पर है या भारतीय-अर्थव्यवस्था है? कौन है इसके पीछे? क्या यह पश्चिमी देशों में पनपने वाली भारत-विरोधी, हिंदू-राष्ट्रवाद विरोधी दृष्टि है? क्या इसके सूत्र भारतीय-राजनीति से जुड़े हैं? क्या यह भारतीय राजनीति में 2024 के चुनाव के पहले सीधे हस्तक्षेप की कोशिश है? भारत के भविष्य का फैसला देश का वोटर करेगा, विदेशी पूँजीपति नहीं।

सोरोस का एजेंडा

गत 16 फरवरी को म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस के सिलसिले में टेक्नीकल यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख में आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए जॉर्ज सोरोस के एक वक्तव्य और फिर केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के जवाबी बयान के बाद यह मसला और जटिल हो गया है। स्मृति ईरानी के बाद विदेशमंत्री एस जयशंकर ने भी उन्हें जवाब दिया है। शनिवार को ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में रायसीना डायलॉग के उद्घाटन सत्र के दौरान जयशंकर ने कहा कि सोरोस की टिप्पणी ठेठ 'यूरो अटलांटिक नज़रिये' वाली है। वे न्यूयॉर्क में बैठकर सोचते हैं कि उनके विचारों से पूरी दुनिया की गति तय होनी चाहिए... अगर मैं ठीक से कहूं तो वे बूढ़े, रईस, हठधर्मी और ख़तरनाक हैं। अगर आप इस तरह की अफ़वाहबाज़ी करेंगे, जैसे दसियों लाख लोग अपनी नागरिकता से हाथ धो बैठेंगे तो यह वास्तव में हमारे सामाजिक ताने-बाने को बहुत क्षति पहुंचाएगा। ऐसे लोग वास्तव में नैरेटिव या बयानिया तय करने में अपने संसाधन लगाते हैं। उनके जैसे लोगों को लगता है कि अगर उनकी पसंद का व्यक्ति जीते तो चुनाव अच्छा है और अगर चुनाव का परिणाम कुछ और आए, तो वे कहेंगे कि यह खराब लोकतंत्र है। गजब की बात तो यह है कि यह सब कुछ खुले समाज की वकालत के बहाने किया जाता है। भारत के मतदाताओं ने फैसला किया है कि देश कैसे चलना चाहिए।

सवाल है कि सोरोस को बयान देने की जरूरत क्यों पड़ी? वे क्या चाहते हैं? उनके बयान का क्या विपरीत प्रभाव पड़ेगा?  सोरोस का एक राजनीतिक एजेंडा है और उनके साथ दुनियाभर के अकादमिक, मानवाधिकार संरक्षण और मीडिया-संगठन जुड़े हैं। उन्होंने पहली बार मोदी-सरकार पर हमला नहीं बोला है। इसके पहले वे वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में सरकार की आलोचना कर चुके हैं। इतना ही नहीं वे अपने राजनीतिक-कार्यक्रम के लिए एक अरब डॉलर के कोष की स्थापना कर चुके हैं। इसमें वे अरबों रुपया लगा रहे हैं। वे अकेले नहीं हैं। उनके साथ एक पूरा नेटवर्क है। यह पागलपन है।

अडानी बहाना, मोदी निशाना

अपने ताजा बयान में सोरोस ने अडानी को लेकर प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधा है। उन्होंने कहा, मोदी इस मुद्दे पर खामोश हैं, लेकिन उन्हें विदेशी निवेशकों और संसद में पूछे गए सवालों के जवाब देने होंगे। यह जवाबदेही सरकार पर मोदी की पकड़ को कमजोर कर देगी। मुझे उम्मीद है कि भारत में एक लोकतांत्रिक परिवर्तन होगा। उन्होंने यह भी कहा, भारत तो लोकतांत्रिक देश है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतांत्रिक नहीं हैं। उनके इतनी तेज़ी से आगे बढ़ने के पीछे भारतीय मुसलमानों के साथ हिंसा भड़काना एक बड़ा कारक रहा है। 

बात केवल अडानी-संदर्भ तक सीमित नहीं है। ज्यादा महत्वपूर्ण है कश्मीर से 370 हटाने का विरोध और नागरिकता कानून को लेकर उनकी राय। वे दुनिया में बढ़ रहे राष्ट्रवादी विचार के विरोधी हैं। उन्होंने 2020 में एक ग्लोबल यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए एक अरब डॉलर के दान की घोषणा की थी। इस विवि का उद्देश्य राष्ट्रवादी विचार से लड़ना है। सोरोस ने कहा कि राष्ट्रवाद बहुत आगे निकल गया है। सबसे बड़ा और सबसे भयावह झटका भारत में लगा है, क्योंकि वहाँ लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नरेंद्र मोदी भारत को एक हिंदू राष्ट्रवादी देश बना रहे हैं। वे कश्मीर में सख्ती कर रहे हैं, जो अर्ध-स्वायत्त मुस्लिम क्षेत्र है और वे लाखों नागरिकों को उनकी नागरिकता से वंचित करने की धमकी दे रहे हैं।

Sunday, February 12, 2023

संसदीय-बहस ने खोले चुनाव-24 के द्वार


इस हफ्ते संसद में बजट से ज्यादा राष्ट्रपति का अभिभाषण चर्चा का विषय रहा। चर्चा का विषय यह नहीं था कि राष्ट्रपति ने क्या कहा, बल्कि इस अभिभाषण के मार्फत व्यापक सवालों से जुड़ी राजनीतिक-बहस संसद के दोनों सदनों में शुरू हुई है, जो संभवतः 2024 के लोकसभा चुनाव से जुड़े सवालों को छूकर गुजरेगी। भारत-जोड़ो यात्रा के अनुभव और आत्मविश्वास से भरे राहुल गांधी की राजनीतिक दिशा को भी इसके सहारे देखा-समझा जा सकता है। बहरहाल संसद के भीतर राहुल और उनके सहयोगियों ने सरकार को निशाना बनाया, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उतनी ही शिद्दत से उन्हें जवाब दिया। इस वाग्युद्ध की शब्दावली से अनुमान लगाया जा सकता है कि बहस का धरातल कैसा रहेगा। बहरहाल लोकसभा में प्रधानमंत्री के वक्तव्य के बाद माहौल में जो गर्मी पैदा हुई थी, उससे राज्यसभा में नाटकीयता बहुत ज्यादा बढ़ गई। इस दौरान संसदीय-बहस के कुछ मूल्य और सिद्धांतों को लेकर सवाल भी उठे हैं। सदन में किस प्रकार की शब्दावली की इस्तेमाल किया जाए, आरोप लगाते वक्त किन बातों को ध्यान में रखा जाए और किस प्रकार के बयानों को कार्यवाही से निकाला जा सकता है, ऐसे प्रश्न राष्ट्रीय-विमर्श के केंद्र में भी आए हैं। मोटे तौर पर यह सब उस राष्ट्रीय बहस का प्रस्थान-बिंदु है, जिसका समापन अब 2024 के चुनाव में ही होगा।

मोदी पर निशाना

लोकसभा में राहुल गांधी ने और राज्यसभा में मल्लिकार्जुन खड़गे ने नरेंद्र मोदी को सीधा निशाना बनाया, तो मोदी ने दोनों को करारे जवाब दिए। अलबत्ता राज्यसभा में कांग्रेस पार्टी ने लगातार नारेबाजी का सहारा लिया, जबकि लोकसभा में एकबार बहिर्गमन करने के बाद पार्टी के सदस्य सदन में वापस आ गए थे।  दोनों बातों से लगता है कि पार्टी तय नहीं कर पा रही है कि उसकी रणनीति क्या होगी। उसे अपना चेहरा सौम्य बनाना है या कठोर? अतीत का अनुभव है कि केवल मोदी पर हमला होने पर जवाबी प्रतिक्रिया का लाभ मोदी को ही मिलता है। 2002 के गुजरात चुनाव के बाद से अब तक का अनुभव यही रहा है। पूरी बहस पर नज़र डालें, तो उसमें राष्ट्रपति के अभिभाषण में व्यक्त बातों को शायद ही कही छुआ गया हो। मोदी ने लोकसभा में अपना वक्तव्य शुरू करते समय इस बात का उल्लेख किया भी था। बेशक इस बहस ने माहौल को सरगर्म कर दिया है, पर संसदीय-कर्म की गुणवत्ता के लिहाज से तमाम सवाल भी इसे लेकर उठे हैं।

एक अकेला, सब पर भारी

लोकसभा में मोदी ने कहा कि देश की 140 करोड़ जनता मेरे लिए ढाल का काम करती है, वहीं राज्यसभा में कहा, मैं अकेला बोल रहा हूं, उन्हें नारेबाजी के लिए लोग बदलने पड़ रहे हैं। और यह भी, कीचड़ उनके पास था, मेरे पास गुलाल। जो भी जिसके पास था, उसने दिया उछाल। जितना कीचड़ उछालोगे, कमल उतना ही ज्यादा खिलेगा। राज्यसभा में प्रधानमंत्री का भाषण शुरू होने के पहले ही विपक्ष ने नारेबाजी शुरू कर दी, जो उनके 90 मिनट के भाषण के दौरान लगातार जारी रही। इस पर मोदी बोले, देश देख रहा है कि एक अकेला कितनों पर भारी पड़ रहा है। नारे बोलने के लिए भी लोग बदलने पड़ रहे हैं। मैं अकेला घंटे भर से बोल रहा हूं, रुका नहीं। उनके अंदर हौसला नहीं है, वे बचने का रास्ता ढूंढ रहे हैं। एक अकेला, सब पर भारी 2024 के चुनाव में यह राजनीतिक नारा बनकर उभरे तो हैरत नहीं होगी। बजट सत्र शुरू होने के ठीक पहले गौतम अडानी की कंपनियों को लेकर हिंडनबर्ग रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद कांग्रेस के पास इससे जुड़े सवाल करने का यह बेहतरीन मौका था। राहुल गांधी ने अपने भाषण में इन सवालों को उठाया, जबकि प्रधानमंत्री ने इनका जिक्र भी नहीं किया। क्यों नहीं किया? इसके दो कारण बताए गए हैं। पहला कारण तकनीकी है। राहुल गांधी के वक्तव्य के वे अंश कार्यवाही से निकाल दिए गए हैं, जिनमें अडानी से जुड़े सवाल थे। जब सवाल ही कार्यवाही में नहीं है, तब जवाब कैसे? दूसरा कारण रणनीतिक है। जवाब देने पर उसमें विसंगतियाँ निकाली जातीं। पार्टी अभी उनसे बचना चाहती है।

Saturday, January 7, 2023

बिहार में जातिगत सर्वेक्षण के निहितार्थ


कतरनें यानी मीडिया में जो इधर-उधर प्रकाशित हो रहा है,
 उसके बारे में अपने पाठकों को जानकारी देना. ये कतरनें केवल जानकारी नहीं है, बल्कि विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए हैं.

बिहार में आज 7 जनवरी से जातिगत सर्वेक्षण का काम शुरू हो गया है। यह काम दो चरणों में होगा। 7 से 21 जनवरी ( पहले चरण ) तक घरों की गिनती होगी। दूसरे चरण में जातियों को गिना जाएगा। इस कार्यक्रम के अंतर्गत केवल जाति की गणना नहीं हो रही है, लोगों की आर्थिक स्थिति का सर्वेक्षण भी किया जाएगा। राज्य सरकार इसे पूरा करने के लिए अपने आकस्मिक कोष से 500 करोड़ रुपये खर्च कर रही है। बिहार सरकार ने पिछले साल 2 जून को जातिगत सर्वेक्षण को मंज़ूरी दी थी। इस सर्वेक्षण में 12.7 करोड़ जनसंख्या, 2.58 करोड़ घरों को कवर किया जाएगा जो 31 मई को पूरा होगा। इसे जातिगत जनगणना नहीं कहा गया है, लेकिन इसमें जाति संबंधी जानकारी जुटाई जाएगी। बीबीसी हिंदी में पढ़ें विस्तार से

भारत जोड़ो यात्रा पर योगेंद्र यादव का एक और लेख

भारत-जोड़ो यात्रा पर वैबसाइट दिप्रिंट में जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापक योगेंद्र यादव ने एक और लेख लिखा है. इसके तीन गिन पहले भी उन्होंने इसी वैबसाइट पर एक और लेख लिखा था. नए लेख के स्वर पिछले लेख से कुछ अलग हैं, इसलिए दोनों लेखों को एकसाथ पढ़ना चाहिए. बहरहाल 7 जनवरी के नवीनतम लेख में उन्होंने लिखा है, क्या भारत जोड़ो यात्रा ने सांप्रदायिक गुस्से को कम किया है? मैंने किसी कार्य-कारण प्रभाव के दावे को साबित करने के लिए हमेशा से ठोस सबूत भी मांगा है. लेकिन यह प्रश्न कठिन सबूत को भी स्वीकार नहीं कर रहा है. कम से कम इतने कम समय में तो नहीं…तो, मैं इसे सावधानी से बता दूं. मैं केवल एक सवाल खड़ा कर रहा हूं, फाइनल जवाब नहीं दे रहा हूं. जैसा कि सामाजिक विज्ञान में कहते हैं न कि यह एक अवधारणा (हाइपोथीसिस) है जिसकी जांच की जानी है. साथ ही, मैं साम्प्रदायिकता के संगठित या पूर्व नियोजित कृत्यों जैसे दंगों, हिंसा और हेट क्राइम के बारे में नहीं बोल रहा. अगर इन कृत्यों को घृणा की राजनीति से प्रेरित समूहों द्वारा डिजाइन और अंजाम नहीं दिया गया है, जिसका कि यह यात्रा विरोध करना चाहती है, मैं उनके दिल में अचानक बदलाव की उम्मीद नहीं करता, और वह भी भारत जोड़ो यात्रा से. मुझे रोज़मर्रा के सांप्रदायिक तनाव में दिलचस्पी है जो कि अव्यक्त शत्रुता और अविश्वास, अपशब्द, अपमान, पड़ोस के विवाद में मौजूद है–मुझे इस बात में दिलचस्पी है कि क्या यात्रा ने सांप्रदायिक कट्टरता में आम लोगों के शामिल होने को कम किया है…मेरा अनुमान है कि यात्रा का संदेश जहां भी पहुंचा है, इसने स्थानीय सांप्रदायिक तनाव में कमी लाने की भरसक कोशिश की है.. यहाँ पढ़ें यह लेख

नेपाल में प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने से कितना ख़ुश है चीन?

नेपाल में नई सरकार के गठन के अगले ही दिननेपाल-चीन के बीच रेल संपर्क स्थापित करने के व्यावहारिक पहलू के अध्ययन के लिए चीन की एक तकनीकी टीम काठमांडू पहुंची। इसके एक दिन बादचीनी पक्ष ने रसुवागढी-केरुंग क्रॉसिंग को खोलने का फ़ैसला कियाजो कोविड-19 के समय से बंद था। हाल में चीन सरकार के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने नेपाल को लेकर दो महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ की हैं। 3 जनवरी की एक टिप्पणी में कहा गया है कि चीन और नेपाल के सहयोग को लेकर भारत को ईर्ष्या नहीं होनी चाहिए। प्रचंड को प्रधानमंत्री नियुक्त किए जाने के बाद 29 दिसंबर 2022 को 'घुसपैठ द्वारा काठमांडू को नियंत्रित करने का अमेरिकी प्रयास विफल' शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था।बीबीसी हिंदी में पढ़ें यह रिपोर्ट 

Saturday, December 3, 2022

भारतीय राजनीति की वैचारिक-विसंगतियाँ


केरल में अडानी पोर्ट द्वारा विकसित की जा रही विझिंजम अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह परियोजना के खिलाफ लैटिन कैथलिक चर्च के नेतृत्व में स्थानीय मछुआरों का आंदोलन भारतीय राजनीति की एक विसंगति की ओर इशारा कर रहा है। लैटिन कैथलिक चर्च के आंदोलन के विरोध में सीपीएम और बीजेपी कार्यकर्ता एक साथ आ गए हैं। यह एक रोचक परिस्थिति है। ऐसा ही इन दिनों पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में स्थानीय निकाय में देखने को मिल रहा है। पिछले दिनों नंदकुमार इलाके में हुए कोऑपरेटिव चुनाव में सीपीएम और बीजेपी ने मिलकर तृणमूल के प्रत्याशियों को परास्त कर दिया था। यह चुनाव पार्टी आधार पर नहीं था, जिससे सीपीएम को यह कहने का मौका मिला है कि निचले स्तर पर क्या हो रहा है, हम कह नहीं सकते। अलबत्ता यह स्पष्ट है कि निचले स्तर पर वैचारिक टकराव वैसा नहीं है, जैसा ऊँचे स्तर पर है। 

भारत-जोड़ो यात्रा के महाराष्ट्र में प्रवेश के दौरान राहुल गांधी के सावरकर से जुड़े बयान को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है, वह विरोधी दलों की एकता के सिलसिले में एक महत्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित कर रहा है। भारतीय जनता पार्टी के विरोध में अनेक राजनीतिक दल एक-दूसरे के करीब आना तो चाहते हैं, पर सबके अपने हित भी हैं, जो उन्हें करीब आने से रोकते हैं। इन अंतर्विरोधों के पीछे ऐतिहासिक परिस्थितियाँ और इन दलों के सामाजिक आधार भी हैं।

सबसे बड़ी बात यह है कि बड़े स्तर ज़मीनी स्तर पर राजनीतिक कार्यकर्ता विचारधारा के नहीं, निजी हितों के आधार पर काम करते हैं। कुछ लोग बेशक विचारधारा को महत्व देते हैं, पर सब पर यह बात लागू नहीं होती है। दल-बदल कानून के कड़े उपबंधों के बावजूद कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और पूर्वांचल के कुछ राज्यों में हुए सत्ता-परिवर्तनों का क्या संदेश है?

राहुल गांधी के वक्तव्य के संदर्भ में शिवसेना के वरिष्ठ नेता संजय राउत ने शुक्रवार 18 नवंबर को कहा कि राहुल गांधी को सावरकर पर टिप्पणी करने की कोई वजह नहीं थी। इससे महाविकास आघाड़ी (एमवीए) में दरार पड़ सकती है, क्योंकि हम वीर सावरकर को आदर्श मानते हैं। इतिहास को कुरेदने के बजाय राहुल को नया इतिहास रचना चाहिए। उनके इस बयान के बाद कांग्रेस के जयराम रमेश के साथ उनकी विमर्श भी हुआ, ताकि इस प्रकरण की क्षतिपूर्ति की जा सके।

Sunday, October 23, 2022

कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र: उम्मीदें और अंदेशे


मल्लिकार्जुन खड़गे की जीत को लेकर शायद ही किसी को संदेह रहा हो, पर असली सवाल है कि इस चुनाव से कांग्रेस की समस्याओं का समाधान होगा या नहीं? इस सिलसिले में दो तरह की तात्कालिक प्रतिक्रियाएं हैं। पहली यह कि खड़गे ने सिर पर काँटों का ताज पहन लिया है और उनके सामने समस्याओं के पहाड़ हैं, जिनका समाधान गांधी परिवार नहीं कर पाया, तो वे क्या करेंगे? दूसरी तरफ कुछ संजीदा राजनीति-शास्त्री मानते हैं कि यह चुनाव केवल कांग्रेस पार्टी के लिए ही युगांतरकारी साबित नहीं होगा, बल्कि इससे दूसरे दलों के आंतरिक लोकतंत्र की संभावनाएं बढ़ेंगी। फिलहाल कांग्रेस की सारी समस्याओं के समाधान नहीं निकलें, पर पार्टी के पुनरोदय के रास्ते खुलेंगे और एक नई शुरुआत होगी।

अंदेशे और सवाल

करीब 24 साल बाद कांग्रेस की कमान किसी गैर-गांधी के हाथ में आई है। पर जिस बदलाव की आशा पार्टी के भीतर और बाहर से की जा रही है, वह केवल इतनी ही नहीं है। इसे बदलाव का प्रस्थान-बिंदु माना जा सकता है, पर केवल इतना ही, क्योंकि सवाल कई हैं? इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है हाईकमान से आशीर्वाद प्राप्त प्रत्याशीका होना। उसके पीछे सबसे बड़ा सवाल है कि अब हाईकमान के मायने क्या होंगे? पिछले कुछ वर्षों के घटनाक्रम से यह बात रेखांकित हो रही है कि पार्टी में कोई धुरी नहीं है और है भी तो कमज़ोर है। अब नए अध्यक्ष की भूमिका क्या होगी, कितनी उसकी चलेगी और कितनी परिवार की, जिसे हाईकमान कहा जाता है?  और अध्यक्ष के रहते क्या कोई हाईकमान भी होगी? सबसे बड़ा सवाल है कि गैर-गांधी अध्यक्ष खुद कब तक चलेगा?  बात केवल अध्यक्ष के पदस्थापित होने तक है या पार्टी के भीतर वैचारिक और संगठनात्मक सुधारों की कोई योजना भी है?

चुनौतियों के पहाड़

मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने चुनौतियों के पहाड़ हैं और समय कम है। समय से आशय है 2024 का लोकसभा चुनाव। यह बदलाव मई 2019 में राहुल गांधी के इस्तीफे के फौरन बाद हो गया होता, तब भी बात थी। नए अध्यक्ष को अपना काम करने का मौका मिल गया होता। पता नहीं उस स्थिति में भारत जोड़ो यात्रा होती या कुछ और होता। पंजाब में कांग्रेस हारती या नहीं हारती वगैरह-वगैरह। खड़गे के पास अब समय नहीं है। लोकसभा चुनाव के लिए डेढ़ साल का समय बचा है। उसके पहले 11 राज्यों के और उसके फौरन बाद को भी जोड़ लें, तो कुल 18 विधानसभाओं के चुनाव होने हैं, जिनमें हिमाचल प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य शामिल हैं। हिमाचल और गुजरात के चुनाव तो सामने खड़े हैं और फिर 2023 में उनके गृह राज्य कर्नाटक के चुनाव हैं। अगले साल फरवरी-मार्च में त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के चुनाव हैं, मई में कर्नाटक के और नवंबर-दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना के। राजस्थान में अशोक गहलोत प्रकरण अभी अनसुलझा है। भले ही खड़गे पार्टी अध्यक्ष हैं, पर कम से कम इस मामले में परिवार की सलाह काम करेगी।

Sunday, September 11, 2022

‘मिशन 24’ की राजनीतिक यात्राएं


राष्ट्रीय-राजनीति का चुनाव-विमर्श अचानक तेज हो गया है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जिस दिन शुरू हो रही थी, उसके एक दिन पहले नीतीश कुमार दिल्ली में 2024 के चुनाव की संभावनाओं को लेकर मुलाकातें कर रहे थे। उन्होंने राहुल गांधी और राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल के अलावा शरद पवार, एचडी कुमारस्वामी, ओम प्रकाश चौटाला, सीताराम येचुरी और दूसरे कुछ नेताओं से भी मुलाकात की। पार्टी उन्हें पीएम-उम्मीदवार के तौर पर पेश कर रही है, वहीं नीतीश कुमार ने दिल्ली में कहा कि मैं दावेदार नहीं बनना चाहता। सिर्फ विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास कर रहा हूँ। 4 सितंबर को रामलीला मैदान में हुई रैली में राहुल गांधी ने कहा कि नरेंद्र मोदी का मुकाबला सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस ही कर सकती है। यानी कि बीजेपी को हराना है तो उन्हें कांग्रेस के नेतृत्व में ही आना होगा। पर विरोधी-खिचड़ियाँ अलग-अलग बर्तनों में पक रही हैं। विपक्ष बिखरा हुआ है, लेकिन एकजुटता की कोशिशें जारी है। इस एकता का एक प्रदर्शन 25 सितंबर को हरियाणा में हिसार के नजदीक विपक्ष की रैली में देखने को मिलेगा।

एकता के प्रयास

विरोधी राजनीति के नजरिए से बिहार में हुए राजनीतिक बदलाव के बाद संभावनाएं बेहतर हुई हैं। इसका संकेत ममता बनर्जी के ताजा बयान से मिलता है। उन्होंने कहा, नीतीश जी, अखिलेश, हेमंत और मेरा वादा है कि ये चार मिलकर बीजेपी को 2024 लोकसभा चुनाव में 100 सीटों पर रोक देंगे। इनमें से पश्चिम बंगाल में 42, बिहार में 40, उत्तर प्रदेश में 80 और झारखंड में 14 लोकसभा सीटे हैं। भाजपा कहती है कि उनके पास 300 सीटें हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि राजीव गांधी के पास 400 सीटें थीं लेकिन अगले चुनाव में कांग्रेस हार गई। बीजेपी भी हारेगी। इन राज्यों में उसे 100 सीटों का नुकसान होगा। देश के अन्य हिस्सों की पार्टियां भी जल्द ही हमारे साथ आएंगी। क्या बीजेपी को 100 सीटों पर रोका जा सकता है?

कांग्रेस से परहेज

ध्यान देने वाली बात है कि ममता बनर्जी ने राहुल गांधी, केजरीवाल, शरद पवार और चंद्रशेखर राव के नामों का उल्लेख नहीं किया है। क्या इस बयान को भविष्य के राजनीतिक गठजोड़ का संकेत मानें? या सिर्फ बयान मानें, जो माहौल बनाने के लिए है? सवाल तीन हैं। नंबर एक, क्या राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी एकता है? दो, क्या इस एकता में कांग्रेस भी शामिल है? और तीन, बीजेपी के पास इसकी काट की रणनीति क्या है? इन सवालों के आगे-पीछे अनेक किंतु-परंतु हैं। इंडियन नेशनल लोकदल अपने संस्थापक देवीलाल की जयंती पर 25 सितंबर को रैली का आयोजन कर रहा है। इसमें कांग्रेस को छोड़कर विपक्षी दलों के कई नेताओं को निमंत्रण भेजा गया है। दूसरी तरफ हालांकि ममता बनर्जी विरोधी-एकता की समर्थक हैं, पर उनकी पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के योग्य उम्मीदवार माना है। कोलकाता में आयोजित पार्टी की बैठक के दौरान उन्होंने जिन दलों के नाम लिए उनमें कांग्रेस का नाम गायब था। यह भी साफ है कि बीजेपी को हराने के लिए लेफ्ट के साथ भी उनका गठबंधन नहीं होने वाला है।

भारत जोड़ो यात्रा

राहुल गांधी की यात्रा का उद्देश्य क्या है? कन्याकुमारी से यात्रा शुरू करते हुए राहुल गांधी ने दो तरह की बातें कहीं, यह मार्च राष्ट्रीय ध्वज के मूल्यों के तले सभी भारतीयों को एकजुट करने की कोशिश है, जिसका मूल सिद्धांत विविधता है। साथ ही यह भी कहा कि हिंदुत्व की विचारधारा के साए में ये मूल्य अब खतरे में हैं। ज़ाहिर है कि यह कांग्रेस को बचाने की कोशिश है और 2024 के चुनाव के पहले की राजनीतिक गतिविधि। यह यात्रा पार्टी के झंडे के पीछे नहीं चल रही है, बल्कि तिरंगे के पीछे है, पर संदेश राजनीतिक है और कांग्रेस के नेतृत्व में बनी योजना भी राजनीतिक है। अब इसे विरोधी एकता के लिए किए जा रहे प्रयासों के साथ जोड़कर देखें।

धुरी या परिधि?

विरोधी दलों की एकता में कांग्रेस कहाँ है? धुरी में या परिधि में? कांग्रेस साबित करना चाहती है कि यह एकता उसके नेतृत्व में ही संभव है, जबकि क्षेत्रीय स्तर पर दूसरे नेताओं को लगता है कि कांग्रेस अब नेतृत्व के लायक नहीं रही। डीएमके, राकांपा और शिवसेना जैसे दल कहते रहे हैं कि कांग्रेस के बिना विरोधी एकता संभव नहीं है, पर जल्द ही होने वाले बृहन्मुंबई म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनाव में राकांपा और शिवसेना मिलकर लड़ेंगे। कांग्रेस उसमें शामिल नहीं होगी। महाराष्ट्र में सरकार गिरने के बाद महा विकास अघाड़ी (एमवीए) की पहली बैठक में तीनों सहयोगी पार्टियों ने फैसला किया कि शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनाव एक साथ लड़ेंगी, जबकि स्थानीय निकाय चुनावों को साथ लड़ने पर कोई सहमति नहीं बनी।

यात्रा की राजनीति

राहुल गांधी खुद को हिंदुत्व का सबसे मुखर आलोचक, संघवाद और उदारवाद का प्रवर्तक मानते हैं। पर चुनाव परिणामों को देखें, तो लगता है कि वे पर्याप्त जन समर्थन जुटाने की स्थिति में नहीं हैं। कांग्रेस ने हिंदू-जनाधार को खो दिया है, जबकि बीजेपी ने गहरी जड़ें जमा ली हैं। राहुल गांधी अब यात्रा के फॉर्मूले का इस्तेमाल करना चाहते हैं। अतीत में महात्मा गांधी, चंद्रशेखर, मुरली मनोहर जोशी से लेकर लालकृष्ण आडवाणी तक ने इसका लाभ लिया है। क्या राहुल गांधी को इसका लाभ मिलेगा? आंशिक-परिणाम सामने आने में कुछ महीने लगेंगे और अंतिम-परिणाम 2024 के चुनाव के बाद आएंगे।