देस-परदेश
गत 9 दिसंबर को तवांग के यांग्त्से क्षेत्र में
हुई हिंसक भिड़ंत को भारत-चीन रिश्तों के अलावा वैश्विक-संदर्भों में भी देखने की
जरूरत है. अक्तूबर के महीने में हुई चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस से
दो संदेश निकल कर आए थे. एक, राष्ट्रपति शी चिनफिंग की निजी ताकत में इज़ाफा और
उनके नेतृत्व में चीन की आक्रामक मुद्रा. दूसरी तरफ उसके सामने खड़ी मुसीबतें भी कम नहीं हैं, खासतौर से कोविड-19 वहाँ फिर से जाग गया है.
पिछले साल फरवरी में रूस के यूक्रेन पर हमले के
बाद से विश्व-व्यवस्था को लेकर कुछ बुनियादी धारणाएं ध्वस्त हुई हैं. इनमें सबसे
बड़ी धारणा यह थी कि अब देशों के बीच लड़ाइयों का ज़माना नहीं रहा. यूक्रेन के बाद
ताइवान को लेकर चीनी गर्जन-तर्जन को देखते हुए सारे सिद्धांत बदल रहे हैं. दक्षिण
चीन सागर में चीन संरा समुद्री कानून संधि का खुला उल्लंघन करके विश्व-व्यवस्था को
चुनौती दे रहा है.
अभी तक माना जा रहा था कि जब दुनिया के सभी
देशों का आपसी व्यापार एक-दूसरे से हो रहा है, तब युद्ध की स्थितियाँ बनेंगी नहीं,
क्योंकि सब एक-दूसरे पर आश्रित हैं. एक विचार यह भी था कि जब पश्चिमी देशों के साथ
चीन की अर्थव्यवस्था काफी जुड़ गई है, तब मार्केट-मुखी चीन इस व्यवस्था को तोड़ना
नहीं चाहेगा. पर हो कुछ और रहा है.
एक गलतफहमी यह भी थी कि अमेरिका और पश्चिमी
देशों की आर्थिक-पाबंदियों का तोड़ निकाल पाना किसी देश के बस की बात नहीं. उसे भी
रूस ने ध्वस्त कर दिया है. परंपराएं टूट रही हैं, भरोसा खत्म हो रहा है. ऐसा लगता
है कि जैसे बदहवासी का दौर है.
भारतीय दुविधा
इस लिहाज से भारत को भी अपनी विदेश और
रक्षा-नीति पर विचार करना जरूरी हो गया है. आंतरिक राजनीति में जो भी कहा जाए,
चीनी आक्रामकता का जवाब फौजी हमले से नहीं दिया जा सकता. इन बातों का निपटारा
डिप्लोमैटिक तरीकों से ही होगा. अलबत्ता भारत को अपनी आर्थिक, सैनिक और राजनयिक-शक्ति
को बढ़ाना और उसका समझदारी से इस्तेमाल करना होगा. साथ ही वैश्विक-समीकरणों को ठीक
से समझना भी होगा.
तवांग-प्रकरण के साथ तीन परिघटनाओं पर ध्यान
देने की जरूरत है. एक, भारत के अग्नि-5 मिसाइल का परीक्षण. दो, अमेरिका का
रक्षा-बजट, जो 858 अरब डॉलर के साथ इतिहास का सबसे बड़ा सैनिक खर्च तो है ही, साथ
ही उससे चीन से मुकाबले की प्रतिध्वनि आ रही है. तीसरी परिघटना है जापान की
रक्षा-नीति में बड़ा बदलाव, जिसमें आने वाले समय के खतरनाक संकेत छिपे है.
चुनौतियाँ
यह सब रूस-यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में हो
रहा है, जिसका अंत होता अभी दिखाई नहीं पड़ता. इन सब बातों के अलावा उत्तरी कोरिया
और पश्चिम एशिया और अफ्रीकी देशों में सक्रिय अल कायदा, बोको हराम और इस्लामिक
स्टेट जैसे अतिवादी समूहों की चुनौतियाँ भी हैं.
चीनी अर्थव्यवस्था का विस्तार अंततः उसकी
भिड़ंत अमेरिका जैसी ताकतों से कराएगा ही साथ ही ऐसी ताकतों से भी कराएगा, जो
वैधानिक-व्यवस्था के दायरे से बाहर हैं. इनमें समुद्री डाकुओं और संगठित अपराध का
नेटवर्क शामिल है. थोड़ी देर के लिए लगता है कि दुनिया एकबार फिर से दो ध्रुवीय
होने वाली है, पर अब यह आसान नहीं है. इसका कोई नया रूप ही बनेगा और इसमें भारत की
भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी.
विश्व-व्यवस्था
ज्यादा बड़ी समस्या वैश्विक-व्यवस्था यानी
ग्लोबल ऑर्डर से जुड़ी है. आज की विश्व-व्यवस्था की अघोषित धुरी है अमेरिका और
उसके पीछे खड़े पश्चिमी देश. इसकी शुरुआत पहले विश्व-युद्ध के बाद से हुई है, जब अमेरिकी
राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने लीग ऑफ नेशंस
के मार्फत ‘नई विश्व-व्यवस्था’ कायम करने का ठेका
उठाया. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद गठित संयुक्त राष्ट्र और दूसरी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं
के पीछे अमेरिका है.
उसके पहले उन्नीसवीं
सदी में एक और अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स मुनरो ने अमेरिका के महाशक्ति बनने की
घोषणा कर दी थी. बहरहाल बीसवीं सदी में अमेरिका और उसके साथ वैश्विक-थानेदार बने
रहे. पर यह अनंतकाल तक नहीं चलेगा. और जरूरी नहीं कि उसी तौर-तरीके से चले जैसे
अभी तक चला आ रहा था. इक्कीसवीं सदी में चीन की महत्वाकांक्षाएं उभर कर सामने आ
रही हैं. पर यह राह सरल नहीं है. भारत को किसी का पिछलग्गू बनने के बजाय अपनी
स्वतंत्र राह पर चलना है.