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Wednesday, December 16, 2020

प्रणब मुखर्जी की किताब को लेकर भाई-बहन में असहमति क्यों?


प्रणब मुखर्जी की आने वाली किताब को लेकर उनके बेटे और बेटी के बीच असहमति का कारण समझ में नहीं आता है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह असहमति ट्विटर पर व्यक्त की गई है, जबकि यह बात आसानी से एक फोन कॉल पर व्यक्त हो सकती थी। इतना ही नहीं पूर्व राष्ट्रपति के पुत्र ने किताब को लेकर प्रकाशक से अपनी भावनाएं भी ट्विटर पर शेयर की हैं, जबकि वे चाहते तो यह बात फोन करके भी कह सकते थे। इस बात को भाई-बहन की असहमति के रूप में देखा जा रहा है। यह किताब को प्रमोट करने की कोशिश है या पारिवारिक विवाद? मेरे मन में कुछ संशय हैं। लगता यह है कि पुस्तक में जो बातें हैं, वे शर्मिष्ठा की जानकारी में हैं और प्रणब मुखर्जी ने अपने जीवन के अनुभवों को बेटी के साथ साझा किया है। 

प्रणब मुखर्जी की किताब 'The Presidential Years' के प्रकाशन पर उनके बेटे अभिजित मुखर्जी ने ट्वीट कर कहा, चूंकि मैं प्रणब मुखर्जी का पुत्र हूं, ऐसे में इसे प्रकाशित किए जाने से पहले मैं एक बार किताब की सामग्री को देखना चाहता हूं। उन्होंने यह भी कहा कि किताब को प्रकाशित करने के लिए उनकी लिखित अनुमति ली जाए। उन्होंने इस ट्वीट में रूपा बुक्स के मालिक कपीश मेहता और पुस्तक के प्रकाशक रूपा बुक्स को टैग किया है।

Tuesday, September 1, 2020

राजनेता नहीं, श्रेष्ठ राजपुरुष


प्रणब मुखर्जी के बारे में निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद वे देश के सर्वश्रेष्ठ राजपुरुषों (स्टेट्समैन) में एक थे। विलक्षण राजनेता, योग्य प्रशासक, संविधान के ज्ञाता और श्रेष्ठ अध्येता के रूप में उनकी गिनती की जाएगी। उनका कद किसी भी राजनेता से ज्यादा बड़ा था, और उन्होंने बार-बार इस बात को रेखांकित किया कि राजनीति को संकीर्ण दायरे के बाहर निकल कर आना चाहिए।

बेशक उन्हें वह नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे। व्यावहारिक राजनीति और सांविधानिक मर्यादाओं का उच्चतम समन्वय उनके व्यक्तित्व में देखा जा सकता है। विसंगतियों से मेल बैठाना व्यवहारिक राजनीति है। प्रणब मुखर्जी को इस बात का श्रेय मिलना ही चाहिए कि वे राजनीतिक दृष्टि में सबसे विकट वक्त के राष्ट्रपति बने। वे बुनियादी तौर पर कांग्रेसी थे, पर कांग्रेस की कठोरतम प्रतिस्पर्धी बीजेपी की मोदी सरकार के साथ उन्होंने काम किया और टकराव की नौबत कभी नहीं आने दी।

देश ने उन्हें राष्ट्रपति बनाया और भारत रत्न से सम्मानित भी किया, पर वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, जिसके वे अधिकारी थे। सामान्य परिस्थितियाँ होती, तो शायद सन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ही उन्हें देश की बागडोर मिल जाती, पर कांग्रेस पार्टी ‘परिवार’ को अपनी नियति मान चुकी थी। उस वक्त उन्हें न केवल एक संभावना से वंचित रहना पड़ा हाशिए पर जाना पड़ा और कुछ समय के लिए पार्टी से बाहर भी रहे। सन 1991 में राजीव गांधी के निधन के बाद भी वे इस पद को पाने में वंचित रहे। तीसरा मौका सन 2004 में आया, जब परिवार से बाहर के व्यक्ति को यह पद मिला। तब भी उन्हें वंचित रहना पड़ा।

Sunday, June 10, 2018

नागपुर में किसे, क्या मिला?

लालकृष्ण आडवाणी इसे अपने नज़रिए से देखते हैं, पर उनकी इस बात से सहमति व्यक्त की जा सकती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंच से पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का भाषण ऐतिहासिक था। एक अरसे से देश में राष्ट्रवाद, देशभक्ति और विविधता में एकता की बातें हो रहीं हैं, पर किसी एक मंच से दो अंतर्विरोधी-दृष्टिकोणों का इतने सहज-भाव से आमना-सामना नहीं हुआ होगा। इन भाषणों में नई बातें नहीं थीं, और न ऐसी कोई जटिल बात थी, जो लोगों को समझ में नहीं आती हो। प्रणब मुखर्जी और सरसंघचालक मोहन भागवत के वक्तव्यों को गहराई से पढ़ने पर उनका भेद भी समझा जा सकता है, पर इस भेद की कटुता नजर नहीं आती। सवाल यह है कि इस चर्चा से हम क्या निष्कर्ष निकालें? क्या संघ की तरफ से अपने विचार को प्रसारित करने की यह कोशिश है? या प्रणब मुखर्जी के मन में कोई राजनीतिक भूमिका निभाने की इच्छा है? 

Friday, August 4, 2017

क्या कांग्रेस को रास्ता दिखाएंगे प्रणब?

प्रणब मुखर्जी बड़े विकट समय में राष्ट्रपति रहे। यूपीए सरकार के अंतिम दो साल राजनीतिक संकट से भरे थे। सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे थे, अर्थ-व्यवस्था अचानक ढलान पर उतर गई थी और सत्तारूढ़ दल अचानक नेतृत्व विहीन नजर आने लगा था। यूपी सरकार के जाने के बाद एक ताकतवर राजनेता प्रधानमंत्री के रूप में दिल्ली आया तो राजनीति में जबर्दस्त बदलाव की लहरें उठने लगीं। ऐसे में राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी ने जिस संयम और धैर्य के साथ काम किया, वह कम महत्वपूर्ण नहीं है।   

प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के वरिष्ठतम राजनेताओं में से एक हैं। उनके सामने पिछले दो साल में ऐसे अनेक मौके आए होंगे, जब उनके निर्णयों को लेकर राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा सकते थे। ऐसा हुआ नहीं। उनके पहले दो साल के कार्यकाल में इस बात की संभावना नहीं थी, पर अंतिम तीन साल में थी। पर वे अत्यंत संतुलित, सुलझे हुए राष्ट्रपति साबित हुए। संसदीय व्यवस्था के सुदीर्घ अनुभव का पूरा इस्तेमाल करते हुए उन्होंने हर मौके पर वही किया, जिसकी एक राजपुरुष यानी स्टेट्समैन से अपेक्षा की जाती है। संविधान में लिखे अक्षरों और उनके पीछे की भावना का पूरा सम्मान और अपने विवेक का इस्तेमाल। उनकी सेवानिवृत्ति के बाद एक सवाल आया है कि क्या वे वापस जाकर कांग्रेस की सेवा करेंगे?

Saturday, June 24, 2017

प्रणब मुखर्जी: विकट दौर के सहज राष्ट्रपति


भारतीय संविधान के अनुसार देश का राष्ट्रपति भारत सरकार का प्रशासनिक प्रमुख है, पर व्यवहार में वह अपने ज्यादातर काम सत्तारूढ़ सरकार की सलाह पर करता है। बहुत कम काम ऐसे होते हैं, जिन्हें उनका व्यक्तिगत निर्णय कहा जाए। हर साल संसद के बजट सत्र की शुरुआत में उनका भाषण एक तरह से सत्तारूढ़ दल की सरकार लिखती है। सरकारी काम-काज के बाहर की सभाओं, गोष्ठियों में कई बार राष्ट्रपति अपने निजी विचार व्यक्त करते हैं, जिन्हें बड़े गौर से सुना जाता है। ऐसी टिप्पणियों से, अध्यादेशों को पुनर्विचार के लिए सरकार के पास वापस भेजने और कैदियों की सज़ा-माफी और कुछ नियुक्तियों के फैसलों से ही राष्ट्रपतियों के व्यक्तित्व के फर्क का पता लगता है।

डॉ राजेन्द्र प्रसाद, डॉ राधाकृष्णन, डॉ ज़ाकिर हुसेन, ज्ञानी जैल सिंह, केआर नारायण, एपीजे अब्दुल कलाम, प्रतिभा पाटिल और प्रणब मुखर्जी तक सभी राष्ट्रपतियों की कुछ न कुछ खास बातें याद की जाती हैं, खासतौर से तब जब वे विदा होते हैं। 24 जुलाई को प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल के पाँच साल पूरे हो रहे हैं। ऐसे में यह समझना बेहतर होगा कि ऐसी कौन सी बातें हैं, जिनके लिए उन्हें विशेष रूप से याद किया जाए।

परिपक्व राजपुरुष

जैसा कि अंदेशा था, सन 2014 में त्रिशंकु संसद होती तब शायद प्रणब मुखर्जी की समझदारी की परीक्षा होती। उन्होंने इसके लिए पहले से विशेषज्ञों से राय भी ले रखी थी। पर ऐसा मौका आया नहीं। पर इतना जरूर है कि पिछले तीन साल में उन्होंने कोई ऐसा फैसला नहीं किया, जिससे उन्हें विवादास्पद कहा जाए। जब भी उन्हें मौका मिला उन्होंने अपनी राय गोष्ठियों और सभाओं में जाहिर कीं। यह एक परिपक्व राजपुरुष (स्टेट्समैन) का गुण है।