हमले के बाद बेनग़ाज़ी में अमेरिकी दूतावास के भीतर का दृश्य |
कुछ साल पहले डेनमार्क के कार्टूनिस्ट को लेकर इस्लामी दुनिया में नाराज़गी फैली थी। तकरीबन वैसी ही नाराज़गी की शुरुआत अब हो गई लगती है। अमेरिका में शूट की गई एक साधारण सी फिल्म जून के महीने में हॉलीवुड के छोटे से सिनेमाघर में दिखाई गई। इसका नाम है 'इनोसेंस ऑफ मुस्लिम्स'। इसकी कुछ क्लिप्स जब अरबी में अनूदित करके यू ट्यूब पर लगाई गई, तब मिस्र और लीबिया वगैरह में आग भड़क उठी।
इस फिल्म के कई पहलू हैं। पहली बात यह कि यह एक सस्ती सी घटिया फिल्म है।फिल्म के कलाकारों का कहना है कि इसमें इस्लाम को लेकर कहे गए संवाद अलग से डब किए गए हैं। हमें नहीं पता था कि फिल्म में क्या चीज़ किस तरह दिखाई जा रही है। अभी फिल्म के निर्माता सैम बेसाइल का अता-पता नहीं लग पाया है। इतना ज़रूर है कि इसके पीछे इस्लाम विरोधी लोगों का हाथ है।
फिल्म के पीछे कौन है, क्या है से ज्यादा महत्वपूर्ण यह देखना है कि इसका असर क्या है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इसका समर्थन भी नहीं किया जाना चाहिए। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में दो-तीन कारणों से नहीं रखा जा सकता। 1.यह किसी ऐसे बिन्दु को नहीं उठाती, जो इनसानियत के ऊँचे मूल्यों से जुड़ा है। 2.इसके कारण दुनिया के मुसलमानों की भावनाओं को ठेस लगी है।3.इसका उद्देश्य सम्प्रदायों के बीच वैमनष्य बढ़ाना है। इस प्रकार की सामग्री दो वर्गों के बीच कटुता बढ़ाती है और इसका लक्ष्य कटुता बढ़ाना ही है।
पर इस फिल्म के कारण पश्चिम एशिया में अल कायदा से हमदर्दी रखने वाली प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलेगा। हालांकि मिस्र में विरोध शांतिपूर्ण तरीके से हुआ है, पर लीबिया में बाकायदा हथियारों के साथ विरोध हुआ है। इसका मतलब है कि लीबिया में अमेरिका विरोधी तत्व मौज़ूद हैं। सन 2005 में डेनिश कार्टूनों के बाद हिंसा इंडोनेशिया से लेकर अफगानिस्तान और मोरक्को तक फैल गई थी। उसमें 200 से ज्यादा लोग मरे थे।
इस फिल्म को यू ट्यूब में डालने और अरबी अनुवाद करने के पीछे भी किसी की योजना हो सकती है या नहीं भी हो सकती है, पर सोशल साइट्स की भूमिका पर विचार करने की ज़रूरत भी है। मीडिया की भड़काऊ प्रवृत्ति लगातार किसी न किसी रूप में प्रकट हो रही है। इस किस्म की फिल्मों के बनाने की निन्दा भी की जानी चाहिए।
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