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Tuesday, August 3, 2010

पत्रकारिता के समांतर चलता है उसका कारोबार



जब हम मीडिया के विकास, क्षेत्र विस्तार और गुणात्मक सुधार की बात करते हैं, तब सामान्यतः उसके आर्थिक आधार के बारे में विचार नहीं करते। करते भी हैं तो ज्यादा गहराई तक नहीं जाते। इस वजह से हमारे एकतरफा होने की संभावना ज्यादा होती है। कहने का मतलब यह कि जब हम मूल्यबद्ध होते हैं, तब व्यावहारिक बातों को ध्यान में नहीं रखते। इसके विपरीत जब व्यावहारिक होते हैं तब मूल्यों को भूल जाते हैं। जब पत्रकारिता की बात करते हैं, तब यह नहीं देखते कि इतने लोगों को रोजी-रोज़गार देना और साथ ही इतने बड़े जन-समूह के पास सूचना पहुँचाना मुफ्त में तो नहीं हो सकता। शिकायती लहज़े में अक्सर कुछ लोग सवाल करते हैं कि मीडिया की आलोचना के पीछे आपकी कोई व्यक्तिगत पीड़ा तो नहीं? ऐसे सवालों के जवाब नहीं दिए जा सकते। दिए भी जाएं तो ज़रूरी नहीं कि पूछने वाला संतुष्ट हो। बेहतर है कि हम चीज़ों को बड़े फलक पर देखें। व्यक्तिगत सवालों के जवाब समय देता है।

पत्रकार होने के नाते हमारे पास अपने काम का अनुभव और उसकी मर्यादाओं से जुड़ी धारणाएं हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हम कारोबारी मामलों को महत्वहीन मानें और उनकी उपेक्षा करें। मेरा अनुभव है कि मीडिया-बिजनेस में तीन-चार तरह की प्रवृत्तियाँ हैं, जो व्यक्तियों के मार्फत नज़र आती हैं। एक है कि हमें केवल पत्रकारीय कर्म और मर्यादा के बारे में सोचना चाहिए। कारोबार हमारी समझ के बाहर है। पत्रकारीय कर्म के भी अंतर्विरोध हैं। एक कहता है कि हम जिस देश-काल को रिपोर्ट करते हैं, उससे निरपेक्ष रहें। जिस राजनीति पर लिखते हैं, उसमें शामिल न हों। दूसरा कहता है कि राजनीति एक मूल्य है। मैं उस मूल्य से जुड़ा हूँ। मेरे मन में कोई संशय नहीं। मैं एक्टिविस्ट हूँ, वही रहूँगा।

तीसरा पत्रकारीय मूल्य से हटकर कारोबारी मूल्य की ओर झुकता है। वह कारोबार की ज़रूरत को भी आंशिक रूप से समझना चाहता है। चौथा कारोबारी एक्टिविस्ट है यानी वह पत्रकार होते हुए भी खुलेआम बिजनेस के साथ रहना चाहता है। वह मार्केटिंग हैड से बड़ा एक्सपर्ट खुद को साबित करना चाहता है। पाँचवाँ बिजनेसमैन है, जो कारोबार जानता है, पर पत्रकारीय मर्यादाओं को तोड़ना नहीं चाहता। वह इस कारोबार की साख बनाए रखना चाहता है। छठे को मूल्य-मर्यादा नहीं धंधा चाहिए। पैसा लगाने वाले ने पैसा लगाया है। उसे मुनाफे के साथ पैसे की वापसी चाहिए। आप इस वर्गीकरण को अपने ढंग से बढ़ा-घटा सकते हैं। इस स्पेक्ट्रम के और रंग भी हो सकते हैं। एक संतुलित धारणा बनाने के लिए हमें इस कारोबार के सभी पहलुओं का विवेचन करना चाहिए।

इन दिनों ब्लॉगिंग चर्चित विषय है। चिट्ठाजगत से हर रोज तकरीबन दस-पन्द्रह नए चिट्ठों के पंजीकरण की जानकारी दी जाती है। वास्तविक नए ब्लॉगों की संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी। चिट्ठाजगत में पंजीकृत चिट्ठों की संख्या पन्द्रह हजार के पास पहुँच रही है। हर रोज चार सौ से पाँच सौ के बीच ब्लॉग पोस्ट आती हैं। यानी इनमें से पाँच प्रतिशत भी नियमित रूप से नहीं लिखते। एक तरह की सनसनी है। एक नई चीज़ सामने आ रही है। एक लोकप्रिय एग्रेगेटर ब्लॉगवाणी के अचानक बंद हो जाने से ब्लॉगरों में निराशा है। इस बीच दो-एक नए एग्रेगेटर तैयार हो रहे हैं। यह सब कारोबार से भी जुड़ा है। कोई सिर्फ जनसेवा के लिए एग्रेगेटर नहीं बना सकता। उसका कारोबारी मॉडल अभी कच्चा है। जिस दिन अच्छा हो जाएगा, बड़े इनवेस्टर इस मैदान में उतर आएंगे। ब्लॉग लेखक भी चाहते हैं कि उनके स्ट्राइक्स बढ़ें। इसके लिए वे अपने कंटेंट में नयापन लाने की कोशिश करते हैं। इसके लिए कुछ ने सनसनी का सहारा भी लिया है। अपने समूह बना लिए हैं। एक-दूसरे का ब्लॉग पढ़ते हैं। टिप्पणियाँ करते हैं। वे अपनी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाना चाहते हैं। साथ ही इसे व्यावसायिक रूप से सफल भी बनाना चाहते हैं। मिले तो विज्ञापन भी लेना चाहेंगे। ध्यान से पढ़ें तो मीडिया बिजनेस की तमाम प्रवृत्तियाँ आपको यहाँ मिलेंगी।

भारत में अभी प्रिंट मीडिया का अच्छा भविष्य है। कम से कम दस साल तक बेहतरीन विस्तार देखने को मिलेगा। इसके साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विस्तार हो रहा है। वह भी चलेगा। उसके समानांतर इंटरनेट का मीडिया आ रहा है, जो निश्चित रूप से सबसे आगे जाएगा। पर उसका कारोबारी मॉडल अभी शक्ल नहीं ले पाया है। मोबाइल तकनीक का विकास इसे आगे बढ़ाएगा। तमाम चर्चा-परिचर्चाओं के बावज़ूद इंटरनेट मीडिया-कारोबार शैशवावस्था में, बल्कि संकट में है।

दुनिया के ज्यातर बड़े अखबार इंटरनेट पर आ गए हैं। वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्डियन, टेलीग्राफ, इंडिपेंडेंट, डॉन, टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दू से लेकर जागरण, भास्कर, हिन्दुस्तान और अमर उजाला तक। ज्यादातर के ई-पेपर हैं और न्यूज वैबसाइट भी। पर इनका बिजनेस अब भी प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मुकाबले हल्का है। विज्ञापन की दरें कम हैं। इनमे काम करने वालों की संख्या कम होने के बावजूद उनका वेतन कम है। धीरे-धीरे ई-न्यूज़पेपरों की फीस तय होने लगी है। रूपर्ट मर्डोक ने पेड कंटेंट की पहल की है। अभी तक ज्यादातर कंटेंट मुफ्त में मिलता है। रिसर्च जरनल, वीडियो गेम्स जैसी कुछ चीजें ही फीस लेकर बिक पातीं हैं। संगीत तक मुफ्त में डाउनलोड होता है। बल्कि हैकरों के मार्फत इंटरनेट आपकी सम्पत्ति लूटने के काम में ही लगा है। मुफ्त में कोई चीज़ नहीं दी जा सकती। मुफ्त में देने वाले का कोई स्वार्थ होगा। ऐसे में गुणवत्ता और वस्तुनिष्ठा नहीं मिलती। डिजिटल इकॉनमी को शक्ल देने की कोशिशें हो रहीं हैं।

कभी मौका मिले तो हफिंगटनपोस्ट को पढ़ें। इंटरनेट न्यूज़पेपर के रूप में यह अभी तक का सबसे सफल प्रयोग है। पिछले महीने इस साइट पर करीब ढाई करोड़ यूनीक विज़िटर आए। ज्यादातर बड़े अखबारों की साइट से ज्यादा। पर रिवेन्यू था तीन करोड़ डॉलर। साधारण अखबार से भी काफी कम। हफिंगटन पोस्ट इस वक्त इंटरनेट की ताकत का प्रतीक है। करीब छह हजार ब्लॉगर इसकी मदद करते हैं। इसके साथ जुड़े पाठक बेहद सक्रिय हैं। हर महीने इसे करीब दस लाख कमेंट मिलते हैं। चौबीस घंटे अपडेट होने वाला यह अखबार दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अखबारों की कोटि की सामग्री देता है। साथ में वीडियो ब्लॉगिंग है। सन 2005 से शुरू हुई इस न्यूज़साइट के शिकागो, न्यूयॉर्क, डेनवर, लॉस एंजलस संस्करण निकल चुके हैं। पिछले साल जब फोर्ब्स ने पहली बार मीडिया क्षेत्र में सबसे प्रभावशाली महिलाओं की सूची छापी तो इस साइट की को-फाउंडर एरियाना हफिंगटन को बारहवें नम्बर पर रखा।

इंटरनेट के मीडिया ने अपनी ताकत और साख को स्थापित कर दिया है। पर यह साख बनी रहे और गुणवत्ता में सुधार हो इसके लिए इसका कारोबारी मॉडल बनाना होगा। नेट पर पेमेंट लेने की व्यवस्था करने वाली एजेंसी पेपॉल को छोटे पेमेंट यानी माइक्रो पेमेंट्स के बारे में सोचना पड़ रहा है। जिस तरह भारत में मोबाइल फोन के दस रुपए के रिचार्ज की व्यवस्था करनी पड़ी उसी तरह इंटरनेट से दो रुपए और दस रुपए के पेमेंट का सिस्टम बनाना होगा। चूंकि नेट अब मोबाइल के मार्फत आपके पास आने वाला है, इसलिए बहुत जल्द आपको चीजें बदली हुई मिलेंगी। और उसके बाद कंटेंट के कुछ नए सवाल सामने आएंगे। पर जो भी होगा, उसमें कुछ बुनियादी मानवीय मूल्य होंगे। वे मूल्य क्या हैं, उनपर चर्चा ज़रूर करते रहिए।

चलते-चलते