Wednesday, November 27, 2013

लोकसभा चुनाव के लिए ओपीनियन पोल साबित होंगे दिल्ली के परिणाम

 मंगलवार, 26 नवंबर, 2013 को 08:05 IST तक के समाचार
इंडिया गेट
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए दिल्ली विधानसभा का चुनाव ओपीनियन पोल का काम करेगा. कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए.
दिल्ली एक बेहतरीन बैरोमीटर बनता, पर ‘आप’ ने एंटी क्लाइमैक्स तैयार कर दिया है.
अंदेशा है कि दिल्ली का वोटर त्रिशंकु विधानसभा चुनकर दे सकता है. ऐसा हुआ तो ‘आप’ के सामने बड़ा धर्मसंकट पैदा होगा. यह उस धर्मसंकट का ट्रेलर भी होगा, जो 2014 के लोकसभा परिणामों के बाद जन्म ले सकता है.
दिल्ली से उठने वाली हवा के झोंके पूरे देश को प्रभावित करते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों संसदीय सीटों पर कांग्रेस के प्रत्याशी जीते थे.
इनमें कपिल सिब्बल, अजय माकन, कृष्णा तीरथ और संदीप दीक्षित की राष्ट्रीय पहचान है. यहाँ होने वाली राजनीतिक हार या जीत के चाहे व्यावहारिक रूप से कोई मायने न हों पर प्रतीकात्मक अर्थ गहरा होता है.
पिछले कुछ साल में देश के शहरी नौजवानों के आंदोलनों को सबसे अच्छा हवा-पानी दिल्ली में ही मिला. राजधानी होने के नाते दिल्ली इस आयु और आय वर्ग का बेहतरीन नमूना है.

Tuesday, November 26, 2013

शीला दीक्षित, समय ने जिनका साथ दिया

 गुरुवार, 21 नवंबर, 2013 को 09:00 IST तक के समाचार
मुख्यमंत्री के रूप में लगातार चुनाव जीतना सफलता का पैमाना है तो शीला दीक्षित को नरेन्द्र मोदी से ज़्यादा सफल मुख्यमंत्री माना जा सकता है. कांग्रेस के ही नहीं बल्कि देश के सबसे अच्छे मुख्यमंत्रियों में उनकी गिनती होती है.
सौम्य छवि उनकी सफलता का बड़ा कारण है. सच यह भी है कि शीला दीक्षित को उस प्रकार के कठोर राजनीतिक विरोध का सामना नहीं करना पड़ा जैसा विरोध नरेंद्र मोदी को झेलना पड़ा.
साथ ही भौगोलिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और आर्थिक हर लिहाज़ से दिल्ली खुशहाल राज्य है, जहाँ समस्याएं अपेक्षाकृत कम हैं.
आकार को देखते हुए उसके पास साधनों की कमी नहीं. क़ानून-व्यवस्था की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की नहीं. शिक्षा के ज़्यादातर संस्थान केंद्रीय हैं.
राजधानी में रहने वालों में बड़ी संख्या केंद्रीय कर्मियों की है जिनके वेतन-भत्ते केंद्र सरकार देती है.
बदले में वे ख़ुद कई तरह के टैक्स दिल्ली सरकार को देते हैं.

Monday, November 25, 2013

चुनाव रैलियों में भीड़ क्यों नहीं जाती?

जयपुर का रामलीला मैदान अपेक्षाकृत छोटा है। तकरीबन बीस हजार वर्ग फुट क्षेत्र में मंच की जगह छोड़ने के बाद ज़मीन पर बैठें तो छह हजार के आसपास दर्शक आएंगे। गुरुवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जयपुर सभा जान-बूझकर रामलीला मैदान में रखी गई थी। आयोजकों ने मैदान में तीन हज़ार कुर्सियाँ फैलाकर लगाई थीं। मनमोहन सिंह के नाम पर यों भी भीड़ नहीं उमड़ती। उम्मीद थी कि शहर के बीच में होने के कारण और फिर देश के प्रधानमंत्री के नाम पर कुछ लोग तो आएंगे।ऐसा हुआ नहीं। तकरीबन 1200 सुरक्षा कर्मियों की उपस्थिति के बावज़ूद मैदान भरा नहीं था।

हाल में नरेंद्र मोदी की भोपाल-रैली में भी भीड़ उम्मीद से काफी कम थी। दो महीने पहले इसी जगह पर नरेंद्र मोदी को सुनने के लिए लाखों लोग जमा हो गए थे। इस बार पाँच-छह हज़ार के आसपास थे। सागर, छतरपुर और गुना में हुई उनकी रैलियों में भी उम्मीद से कम लोग थे। हाल में दिल्ली में राहुल गांधी की सभा में दर्शक भाषण शुरू होने के पहले ही खिसकने लगे। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हाथ जोड़कर निवेदन करना पड़ा, कृपया रुक जाएं। मोदी और राहुल की सभाओं का यह हाल है तो बाकी का क्या होगा? खबर है कि भोजपुर में सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, शमशाबाद में मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं की सभाओं से भीड़ नदारद थी। शरद यादव ने पेटलावद में हेलिकॉप्टर से झांककर देखा तो सौ लोग भी नहीं थे और वे आसमान में ही वापस थांदला लौट गए। उनकी जबलपुर सभा में भी लोग काफी कम थे। अब लोग हेलिकाप्टर देखने भी नहीं आते।

Sunday, November 24, 2013

‘तहलका’ मामला निजी नहीं

तरुण तेजपाल के मामले को बदलती जीवन शैली की दृष्टि से देखें, स्त्रियों के साथ हो रहे बर्ताव या पत्रकारिता या सिर्फ अपराध के नज़रिए से देखा जा सकता है। पर यह मामला ज्यादा बड़े फलक पर विचार करने को प्रेरित करता है। अगले महीने दिल्ली गैंग रेप मामले का एक साल पूरा होगा। लगता है एक साल में हम दो कदम भी आगे नहीं बढ़ पाए हैं। इस मसले ने पूरे देश को हिलाकर ज़रूर रख दिया, पर हमें बदला नहीं। गोवा पुलिस ने तरुण तेजपाल के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कर ली है। अब यह आपराधिक मामला है और जांच का विषय। केवल दो व्यक्तियों के बीच का मामला नहीं रहा। एक जाँच पुलिस करेगी। दूसरी तहलका में होगी। दोनों जाँचों के बाद घटना की वास्तविकता और उसके बाद उठाए गए कदमों की जानकारी मिलेगी। बात फिर भी खत्म नहीं होगी। मीडिया के भीतर की इस घटना को तूल देने के आरोप मीडिया पर ही लगे हैं। अफसोस कि मीडिया में काम करने वाली महिलाएं स्वयं को असुरक्षित पाती हैं।

Saturday, November 23, 2013

तेन्दुलकर तो निर्विवाद हैं, पुरस्कार नहीं

18 अगस्त 2007 को जब दशरथ मांझी का दिल्ली में कैंसर से लड़ते हुए निधन हुआ था, तब उसके जीवट और लगन की कहानी देश के सामने आई थी। पर न तब और न आज किसी ने कहा कि उन्हें भारत रत्न मिलना चाहिए। हमारे एलीटिस्ट मन में यह बात नहीं आती। इन पुरस्कारों का इतिहास देखें तो लगता है कि तेन्दुलकर का सम्मान गलत नहीं है।

जाने-अनजाने सचिन तेन्दुलकर देश की पहचान हैं। उनकी प्रतिभा और लगन युवा वर्ग को प्रेरणा देती है। सहज और सौम्य हैं, पारिवारिक व्यक्ति हैं, माँ का सम्मान करते हैं और एक साधारण परिवार से उठकर आए हैं। यह तय करने का कोई मापदंड नहीं कि वे  देश के सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी हैं भी या नहीं। ध्यानचंद महान खिलाड़ी थे और उस दौर में थे जब हमें आत्मविश्वास की ज़रूरत थी। फिर भी वे लोकप्रियता के उस शिखर पर नहीं थे, जिसपर आज सचिन तेन्दुलकर हैं। वह संस्कृति और वह समाज ऐसी लोकप्रियता देता भी नहीं था। ध्यानचंद के जन्मदिन को हम राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाते हैं। तमाम खेल प्रेमी नहीं जानते कि 29 अगस्त उनकी जन्मतिथि है। इस दिन राष्ट्रपति राष्ट्रीय खेल पुरस्कार देते हैं।

Wednesday, November 20, 2013

गठबंधनों का गड़बड़झाला


लालू यादव से किसी टीवी चैनल के एंकर ने कहा, आपकी तो रीजनल पार्टी है. लालू बोले रीजनल नहीं ओरीजनल पार्टी है. लालू प्रसाद ने जवाब क्या सोचकर दिया था पता नहीं, पर इतना तय है कि वे भारत की ग्रासरूट राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस लिहाज से उनकी राजनीति ओरीजनल है. वे इस वक्त परेशानी से घिरे हैं, पर यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि उनकी राजनीति खत्म हो गई. उसका एक नया दौर शुरू हुआ है. तमाम क्षेत्रीय क्षत्रपों की तरह लालू यादव भी सन 2014 के चुनाव के बाद देश में बुनी जाने वाली राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे. वे खुद चुनाव लड़ें या न लड़ें.

गठबंधन भारतीय राजनीति का मूल तत्व है. चाहे वह 1962 तक की कांग्रेस के एकछत्र शासन की राजनीति हो या यूपीए-2 की गड़बड़झाला राजनीति. इस राजनीति के तमाम गुण-दोष हैं. इसके साथ विचार-दर्शन और सिद्धांत हैं और शुद्ध मतलब-परस्ती भी. इसके अंतर में सम्प्रदाय और जाति के कारक हैं जो इसे संकीर्ण बनाते हैं, पर क्षेत्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के दर्शन भी इसी के मार्फत होते हैं. हाँ, इन गठबंधनों में विचारधारा कम, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या गुटबाजी हावी रहती हैं. गठबंधनों के कारणों के तफसील में जाएंगे तो यही बात उजागर होगी.

Monday, November 18, 2013

इन तमगों का पानी भी नही उतरना चाहिए

सचिन तेन्दुलकर देश के बड़े आयकन हैं। उनकी खेल प्रतिभा के कारण देश का सम्मान बढ़ा जिस पर हम सबको नाज़ है। इस घोषणा के राजनीतिक निहितार्थ गहरे हैं और इस पर ऑब्जेक्टिव विमर्श खासा मुश्किल। सचिन तेन्दुलकर युवा वर्ग के आदर्श बनें और उनसे प्रेरणा लेकर अनुशासन, लगन और परिश्रम की राह खुले तो देश का हित होगा। इधर खबर है कि सचिन को समाजवादी पार्टी ने अपने साथ आने का न्योता भेजा है। कांग्रेस पार्टी शायद उन्हें अपनी उपलब्धि मानेगी। शायद शिवसेना उन्हें मराठी मानते हुए पूजे। पर सचिन तो पूरे देश के हैं और उन्हें अब राष्ट्रीय संरक्षक की भूमिका निभानी चाहिए। इसके साथ हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि हम प्रतिभाओं का सम्मान किस तरह करते हैं। और यह भी कि क्या सचिन को बनाने में कॉरपोरेट मीडिया की कोई भूमिका थी। कोल्ड ड्रिंक और टूथपेस्ट बेचते भारत रत्न दिखाई पड़ेंगे तो यह सवाल भी मन में आएगा। सवाल सचिन की श्रेष्ठता का नहीं है, उस व्यवस्था का है, जो श्रेष्ठता के पैमाने तय करती है। 

यह सवाल तो फिर भी पूछा जा सकता है कि यह सचिन की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश तो नहीं? दिसम्बर 2011 में तत्कालीन खेल मंत्री अजय माकन ने जानकारी दी कि उन्होंने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि भारत रत्न पुरस्कार की पात्रता में खिलाड़ियों को भी शामिल किया जाए। सरकार ने उस साल नवम्बर में इस सिफारिश को मंजूर करते हुए इस आशय की अधिसूचना ज़ारी की थी।

कयास तभी था कि शायद सचिन तेन्दुलकर को यह अलंकार मिलने वाला है। फौरन बात उठी कि सचिन के पहले ध्यानचंद को यह पुरस्कार मिलना चाहिए। शायद इसी वजह से तब फैसला रुक गया। हाल में खेल मंत्री ने सरकार को पास सिफारिश भी भेजी कि ध्यानचंद को भारत रत्न दिया जाए। पर फैसला सचिन के नाम पर हुआ है। अब यह बहस खत्म है कि ध्यानचंद को सम्मान मिलना चाहिए कि नहीं। अब उन्हें सम्मान मिले भी तो वैसे ही होगा, जैसे हम महात्मा गांधी को भारत रत्न का सम्मान दें।

महात्मा गांधी को भी भारत रत्न नहीं मिला। गांधी को सरकारी सम्मान की ज़रूरत ही नहीं। गांधी की तरह ध्यानचंद को सम्मान के लिए सरकारी अलंकरण की जरूरत नहीं है। पर इतिहास के कालक्रम का ध्यान रखना चाहिए। महापुरुषों का सम्मान करने की प्राथमिकता तय करनी चाहिए। भविष्य के इतिहास में सम्मानित व्यक्तियों की सूचियाँ और उनसे जुड़ी बहसें भी नत्थी होंगी। पर उसके पहले देखें कि दक्षिण एशिया ने क्रिकेट को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया है।

1975 में जब एक दिनी क्रिकेट के विश्व कप की शुरूआत हुई थी, तब तक यह अंग्रेजों का खेल था। अक्सर सवाल होता है कि भारत में क्रिकेट को इतनी अहमियत क्यों दी जाती है? दूसरे खेलों को क्यों नहीं? नई आर्थिक संस्कृति और कॉरपोरेट-संरक्षण के कारण हमारा क्रिकेट दुनिया के टॉप पर है। इस बदलाव का नेतृत्व भारत ने किया है। पर पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश को मिली सफलताएं भी इसका कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो टीम को मिली सफलता है। सामान्य दर्शक को सफलता और हीरो चाहिए। राष्ट्रीय-अभिमान, उन्माद और मौज-मस्ती के लश्कर इसके सहारे बढ़ते हैं।

क्रिकेट लम्बा और उबाऊ खेल था। यह खत्म हो जाता अगर ऑस्ट्रेलिया के मीडिया-टायकून कैरी पैकर ने इसे नई परिभाषा न दी होती।1975 में पहले विश्व कप के लिए आठ टीमें जुटाना मुश्किल था। उसमें श्रीलंका को शामिल किया गया, जिसे टेस्ट मैच खेलने लायक नहीं समझा जाता था। पूर्वी अफ्रीका के देशों की एक संयुक्त टीम बनाई गई थी। 1979 में कोई नहीं कहता था कि अगला विश्व कप भारत की टीम जीतेगी। 1983 में प्रतियोगिता शुरू होने तक कोई नहीं कह सकता था। इंग्लैंड के सट्टेबाज भारत की सम्भावना पर 66-1 का सट्टा लगा रहे थे। 1982 के एशिया खेलों के कारण हमारा राष्ट्रीय रंगीन टीवी नेटवर्क काम करने लगा था, पर विश्व कप के टीवी प्रसारण की बात सोची भी नहीं गई थी। टीम अप्रत्याशित रूप से सफल हुई तो सेमीफाइनल और फाइनल मैच टेलीकास्ट हुआ। उस खेल में ग्लैमर भी नहीं था। 60 ओवर का मैच दिन की धूप में खेला जाता था। खिलाड़ी रंगीन कपड़े नहीं पहनते थे। सफेद कपड़े पहनते थे।

क्रिकेट की जो लोकप्रियता हम देख रहे हैं उसे इस स्तर पर लाने में मीडिया और कारोबार की भारी भूमिका है। कारोबार को आयकन चाहिए। वे लोकप्रिय नहीं होंगे तो आयकन कैसे? इस विचार से ध्यानचंद निरर्थक हैं। भीड़ उन्हें पहचानती नहीं, भले ही वे महान खिलाड़ी रहे हों। हमने इस भीड़ को उनकी महानता से परिचित ही नहीं कराया। जैसे कमाई के लिए मीडिया को आई बॉल्स चाहिए वैसे ही राजनीति को भी लोकप्रियता की दरकार है। सचिन तेन्दुलकर में इन सबका मेल है। वे महान हैं।

राष्ट्रीय सम्मान राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से जुड़े हैं तो उनकी राजनीति भी है। सन 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब अलंकरणों को खत्म करने का फैसला किया गया। मोरारजी देसाई व्यक्तिगत रूप से अलंकरणों के खिलाफ थे। संयोग है कि सन 1991 में मोरारजी को भारत रत्न का अलंकरण दिया गया। दूरदर्शन ने जब मोरारजी से प्रतिक्रिया माँगी तो उन्होंने कहा, मैं ऐसे अलंकरणों के खिलाफ हूँ आप देना ही चाहते हैं तो मैं क्या कर सकता हूँ। 

पर सचिन के साथ सीएनआर राव के नाम की ज़रूरत क्या थी? सरकार की इच्छा सम्मान करने से ज्यादा उस लोकप्रियता का लाभ लेने में है जो सचिन के संन्यास और मंगलयान के प्रक्षेपण के बाद भारतीय विज्ञान के प्रति विश्वास से उपजी है। सीएनआर राव प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद में हैं। काबिल वैज्ञानिक हैं पर क्या हम अपने काबिल वैज्ञानिकों का सम्मान करते हैं? ऐसा है तो होमी जहाँगीर भाभा और विक्रम साराभाई को क्यों भूल गए

भारत रत्नों की सूची ध्यान से देखें तो पाएंगे कि अलंकरणों का रिश्ता राजनीति से है।  कुछ लोग बरसों बाद याद आए और कुछ कभी याद नहीं आए। दिसम्बर 2011 में सीएनआर राव ने कहा था कि डॉ भाभा को भारत रत्न मिलना चाहिए। यह बात उन्होंने तब कही जब सचिन तेंदुलकर को भारत देने की मांग करते हुए मुम्बई क्रिकेट एसोसिएशन ने उनसे प्रतिक्रिया माँगी। उन्होंने कहा, दुख की बात है कि आज क्रिकेट को विज्ञान से अधिक महत्व मिल रहा है। मुझे सचिन को यह सम्मान देने पर विचार करने को लेकर कोई दिक्कत नहीं है लेकिन भाभा के बारे में क्या? इस महान हस्ती का मरणोपरांत सम्मान करने का शिष्टाचार तो कम से कम होना ही चाहिए। मैं प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखूँगा। लगता है कि सरकार को उनकी चिट्ठी मिल गई और उन्हें राव साहब ही सामने नज़र आए जिन्हें सम्मान दे दिया।
हाल में वल्लभ भाई पटेल की विरासत को लेकर जब कांग्रेस और भाजपा के बीच संग्राम चल रहा था, तब इस बात का उल्लेख हुआ कि पटेल को 1991 में भारत रत्न मिला राजीव गांधी के साथ। जवाहर लाल नेहरू को 1955 में गोविंद बल्लभ पंत को 1957, विधान चन्द्र रॉय को 1961, राजेन्द्र प्रसाद को 1962, लाल बहादुर शास्त्री को 1966, इंदिरा गांधी को 1971, वीवी गिरि को 1975, के कामराज को 1976, एमजी रामचंद्रन को 1988 और भीमराव आम्बेडकर को 1990 में यह सम्मान मिला। इस सूची में केवल सीवी रामन, एम विश्वेसरैया और एपीजे कलाम सिर्फ तीन ऐसे नाम विज्ञान और तकनीक से जुड़े हैं। कोई ज़रूरी नहीं कि भारत के सारे महापुरुषों का सम्मान हो जाए, पर प्राथमिकता तो दिखाई पड़ती है। जैसे खेल में हमें ध्यानचंद याद हैं वैसे ही विज्ञान में हमें भाभा और साराभाई याद हैं। पर आज कौन उन्हें जानता है? सरकार को सीएनआर राव का नाम रहा सीआर राव का नहीं, जिनका नाम आज दुनिया के श्रेष्ठतम गणितज्ञों, सांख्यिकीविदों में शुमार किया जाता है। तमाम नाम और हैं। पर प्रतिभा का सम्मान एक बात है और लोकप्रियता दूसरी। फैसला सरकार का है। बहस आप करिए।   

Saturday, November 16, 2013

बधाई सचिन! इससे पहले कि इन अलंकरणों का पानी उतरे

महात्मा गांधी को भारत रत्न नहीं मिला। किसीको इस बात पर शिकायत नहीं है, क्योंकि गांधी को सरकारी सम्मान की ज़रूरत ही नहीं थी। सरहदी गांधी को हमने सम्मान दिया। नहीं देते तब भी हमारे मन में उनके लिेए वही सम्मान था। हाल में जब भारत रत्न देने के लिेए नियमों को दुरुस्त किया जा रहा था तब यह सम्भावना व्यक्त की गई थी कि शायद यह सचिन तेन्दुलकर को पुरस्कृत करने की तैयारी है। ऐसा नहीं हुआ तो उन्हें राज्यसभा की सदस्यता दे दी गई। हालांकि तब भी काफी लोगों ने याद दिलाया कि हमें हॉकी के जादूगर ध्यानचंद को याद करना चाहिए। कोई बात नहीं महात्मा गांधी की तरह ध्यानचंद को सम्मान के लिए सरकारी अलंकरण की जरूरत नहीं है।

सन 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तब अलंकरणों को खत्म करने का फैसला किया गया। मोरारजी देसाई व्यक्तिगत रूप से अलंकरणों के खिलाफ थे। संयोग है कि सन 1991 में मोरारजी को भारत रत्न का ्लंकरण दिया गया। मोरारजी ने उस घोषणा के दिन ही कहा कि मैं ऐसे अलंकरणों के खिलाफ हूँ, पर  आप देना ही चाहते हैं तो मैं क्या कर सकता हूँ। 

सचिन तेन्दुलकर और सीएनआर राव का सम्मान करने पर हमें खुशी है। अपनी प्रतिभाओं पर हमें गर्व करना भी चाहिए। पर लगता है कि सरकार की इच्छा सम्मान करने से ज्यादा उस लोकप्रियता का लाभ लेने में है जो सचिन के संन्यास और मंगलयान के प्रक्षेपण के बाद भारतीय विज्ञान के प्रति विश्वास से उपजी है। मंगलयान तो अभी रास्ते में ही है। सीएनआर राव प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद में हैं। वे काबिल वैज्ञानिक हैं, पर क्या हम अपने काबिल वैज्ञानिकों का सम्मान करते रहते हैं? बहरहाल खुशी है कि हम वैज्ञानिक का सम्मान कर रहे हैं, पर यहां सम्मान करने वालों की सदाशयता पर संदेह है। होमी जहाँगीर भाभा और विक्रम साराभाई को हम क्यों भूल गए? 

नीचे भारत रत्न पाने वालों की सूची है। आप ध्यान से देखें तो पाएंगे कि अलंकरण का रिश्ता राजनीति से भी है।  कुछ बरसों बाद याद आए और कुछ कभी याद ही नहीं आए। दिसम्बर 2011 में सीएनआरआर राव ने कहा था कि डॉ भाभा को भारत रत्न मिलना चाहिए।  डॉ भाभा को भारत रत्न देने की मांग करते हुए मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखूँगा। यह बात उन्होंने तब कही जब सचिन तेंदुलकर को भारत देने की मांग करते हुए मुम्बई क्रिक्रेट असोसिएशन की ओर से पारित प्रस्ताव पर उनसे प्रतिक्रिया माँगी गई।

राव ने कहा, 'यह दुख की बात है कि आज क्रिक्रेट को विज्ञान से अधिक महत्व मिल रहा है। मुझे सचिन को यह सम्मान देने पर विचार करने को लेकर कोई दिक्कत नहीं है लेकिन भाभा के बारे में क्या? हमें इस महान हस्ती को उनके द्वारा दिेए गए व्यापक योगदान को मरणोपरांत भी पहचान देने का शिष्टाचार तो कम से कम होना ही चाहिए।' लगता है कि सरकार को उनकी चिट्ठी मिल गई और उन्हें राव साहब ही सामने नज़र आए जिन्हें सम्मान दे दिया। खुशी है कि  सरकार ने विज्ञान का सम्मान कर दिया। 

भारत रत्नों की सूची

1.Chakravarti Rajgopalachari
1954
Independence activist, last Governor-General
2.Sir C. V. Raman
1954
Physicist
3.Sarvepalli Radhakrishnan
1954
Philosopher, India's First Vice President (1952-1962), and India's Second President(1962-1967)
4.Bhagwan Das
1955
Independence activist, author
5.Mokshagundam Visvesvarayya
1955
Civil engineer, Diwan of Mysore
6.Jawaharlal Nehru
1955
Independence activist, author, first Prime Minister
7.Govind Ballabh Pant
1957
Independence activist, Chief Minister of Uttar Pradesh, Home Minister
8.Dhondo Keshav Karve
1958
Educator, social reformer
9.Bidhan Chandra Roy
1961
Physician, Chief Minister of West Bengal
10.Purushottam Das Tandon
1961
Independence activist, educator
11.Rajendra Prasad
1962
Independence activist, jurist, first President
12.Zakir Hussain
1963
Independence activist, Scholar, third President
13.Pandurang Vaman Kane
1963
Indologist and Sanskrit scholar
14.Lal Bahadur Shastri
1966
Posthumous, independence activist, second Prime Minister
15.Indira Gandhi
1971
Third Prime Minister
16.V. V. Giri
1975
Trade unionist and fourth President
17.K. Kamaraj
1976
Posthumous, independence activist, Chief Minister of Tamil Nadu State
18.Mother Teresa
1980
Catholic nun, founder of the Missionaries of Charity
19.Vinoba Bhave
1983
Posthumous, social reformer, independence activist
20.Khan Abdul Ghaffar Khan
1987
First non-citizen, independence activist
21.M. G. Ramachandran
1988
Posthumous, film actor, Chief Minister of Tamil Nadu
22.B. R. Ambedkar
1990
Posthumous, chief architect of the Indian Constitution, politician, economist, and scholar
23.Nelson Mandela
1990
Second non-citizen and non-Indian recipient, Leader of the Anti-Apartheid movement
24.Rajiv Gandhi
1991
Posthumous, Sixth Prime Minister
25.Vallabhbhai Patel
1991
Posthumous, independence activist, first Home Minister
26.Morarji Desai
1991
Independence activist, fourth Prime Minister
27.Abul Kalam Azad
1992
Posthumous, independence activist, first Minister of Education
28.J. R. D. Tata
1992
Industrialist and philanthropist
29.Satyajit Ray
1992
Bengali Filmmaker
30.A. P. J. Abdul Kalam
1997
Aeronautical Engineer,11th President of India
31.Gulzarilal Nanda
1997
Independence activist, interim Prime Minister
32.Aruna Asaf Ali
1997
Posthumous, independence activist
33.M. S. Subbulakshmi
1998
Carnatic classical singer
34.Chidambaram Subramaniam
1998
Independence activist, Minister of Agriculture
35.Jayaprakash Narayan
1999
Posthumous, independence activist and politician
36.Ravi Shankar
1999
Sitar player
37.Amartya Sen
1999
Economist
38.Gopinath Bordoloi
1999
Posthumous, independence activist, Chief Minister of Assam
39.Lata Mangeshkar
2001
Playback singer
40.Bismillah Khan
2001
Hindustani classical shehnai player
41.Bhimsen Joshi