गिरिजेश कुमार का यह आलेख अरुणा शानबाग के ताज़ा प्रकरण पर है। इस सिलसिले में मैं केवल यह कहना चाहूँगा कि सुप्रीम कोर्ट ने दया मृत्यु को अस्वीकार करने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह बताया कि मुम्बई के केईएम अस्पताल की नर्से और अन्य कर्मचारी उसे मरने देना नहीं चाहते। इन नर्सों ने पिछले 37 साल से अरुणा की पूरी जिम्मेदारी ले रखी है। इन नर्सों के जीवन में अरुणा का एक मतलब हो गया है। अरुणा उनकी एकता की एक कड़ी है। अदालत ने इन कर्मचारियों का उल्लेख करते हुए कहा है कि हर भारतीय को ऐसे कर्मचारियों पर फख्र होना चाहिए।
अरुणा शानबाग: समाज ने जिसे जिंदा लाश बना दिया
इसे विडंबना कहे या संयोग कि जहाँ एक तरफ़ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के सौ साल पूरे होने पर महिलाओं की भागीदारी और हासिल की गई उपलब्धियों तथा पिछड़ेपन के कारणों पर चर्चा हो रही है वहीँ दूसरी तरफ़ एक महिला अरुणा शानबाग की दयामृत्यु याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी| हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला कई नैतिक, मानवीय, सामाजिक और क़ानूनी पहलुओं को ध्यान में रखकर किया है लेकिन फिर भी यह सवाल तो उठता ही है कि अरुणा की जिंदगी को जिंदा लाश में तब्दील कर देने का जो कलंक कुछ पुरुषवादी मानसिकता वाले लोगों ने समाज के ऊपर लगाया है, वह उसे ‘जीने का हक है’ कह देने भर से धुल जाएगा?