यूक्रेन युद्ध के तीन महीने पूरे हो चुके हैं और नतीजा सिफर है। हमला उत्तर से हुआ, फिर दक्षिण में और अब पूर्व। रूसी रणनीति तेजी से सफलता हासिल करने की थी, पर अब वह सीमित सफलता से ही संतोष करना चाहता है। वह भी मिल नहीं रही। दोनों अपनी सफलताओं की घोषणा कर रहे हैं, पर ऐसी सफलता किसी को नहीं मिली, जिसके बाद लड़ाई खत्म हो। रूस ने कई इलाकों पर कब्जा किया है, पर उसे विजय नहीं माना जा सकता।
पिछले हफ्ते ‘इकोनॉमिस्ट’ ने
रूसी राजनीति-शास्त्री आन्द्रे कोर्तुनोव की राय को प्रकाशित किया। उन्होंने युद्ध
रुकने की तीन परिस्थितियों की कल्पना की है। वे कहते हैं, यह जातीय युद्ध नहीं है।
रूसी और यूक्रेनी मूल के लोग दोनों तरफ हैं। यूक्रेनी लोगों के मन में कोई उग्र
राष्ट्रवादी विचार नहीं हैं। यह मज़हबी लड़ाई भी नहीं है। दोनों सेक्युलर देश हैं।
धार्मिक-चेतना कहीं नज़र भी आ रही है, तो पनीली है। झगड़ा जमीन का भी नहीं है।
दो दृष्टिकोणों का टकराव
उनके अनुसार यह ऐसे दो देशों के
सामाजिक-राजनीतिक तौर-तरीकों को लेकर झगड़ा है, जो कुछ समय पहले तक एक थे। दो
मनोदशाओं का टकराव। अंतरराष्ट्रीय-व्यवस्था और विश्व-दृष्टि का झगड़ा। उन्होंने
लिखा, यह नहीं मान लेना चाहिए कि यूक्रेन पूरी तरह पश्चिमी उदार-लोकतंत्र में रंग
गया है, पर वह उस दिशा में बढ़ रहा है। रूस भी पारम्परिक एशियाई या यूरोपियन शैली
का निरंकुश-राज्य नहीं है। अलबत्ता पिछले बीस वर्षों में वह उदार
लोकतांत्रिक-व्यवस्था से दूर जाता नजर आ रहा है।
यूक्रेनी समाज नीचे से ऊपर की ओर संगठित हो रहा
है, रूसी समाज ऊपर से नीचे की ओर। सन 1991 में स्वतंत्र होने के बाद से यूक्रेन ने
छह राष्ट्रपतियों को चुना है। हरेक ने कड़े चुनाव के बाद और कई बार बेहद नाटकीय
तरीके से जीत हासिल की। इस दौरान रूस ने केवल तीन शासनाध्यक्षों को देखा। हर नए
शासनाध्यक्ष को उसके पूर्ववर्ती ने चुना।
सोवियत व्यवस्था से निकले दो देशों के इस फर्क को लेकर अलग-अलग धारणाएं हैं। इतना स्पष्ट है कि रूस ताकतवर है, जबकि यूक्रेन को अंतरराष्ट्रीय हमदर्दी हासिल है। रूस आक्रामक है और यूक्रेन रक्षात्मक। रूसी विशेषज्ञ मानते हैं कि यूक्रेन की रक्षात्मक रणनीति के पीछे पश्चिमी देशों की सैन्य-सहायता का हाथ है, पर इस जिजीविषा के कारण भी कहीं हैं। याद रखें, अमेरिका की जबर्दस्त सैनिक-आर्थिक सहायता अफगानिस्तान में तालिबान को रोक नहीं पाई।