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Monday, January 9, 2023

आपने कभी शिकायती चिट्ठी लिखी?


हाल में एक शाम मेरे पुराने मित्र और सहयोगी संतोष तिवारी का फोन आया। बातों के दौरान एक पुरानी घटना का जिक्र हुआ। हम दोनों कभी लखनऊ के नवभारत टाइम्स में एक साथ काम कर चुके थे। बाद में तिवारी जी एकैडमिक्स में चले गए। अलग-अलग विश्वविद्यालयों के पत्रकारिता विभाग से संबद्ध रहने के बाद वे सेवामुक्त हो गए और आजकल लखनऊ के अपने घर में रह रहे हैं। 6 अक्टूबर 1995 के स्वतंत्र भारत में मैंने एक लेख लिखा था, जिसकी शुरुआत उनका संदर्भ देते हुए ही हुई थी। इस बात का जिक्र इसके पहले भी एकाध बार मैं उनसे कर चुका था। उन्होंने कहा, आप वह लेख मुझे भेज सकते हों, तो भेजें। मुझे वह लेख खोजने में एक दिन लगा। वॉट्सएप से उसकी तस्वीर मैंने उनके पास भेज दी। बहरहाल।

उस लेख को छपे 27 साल हो गए हैं, पर मुझे वह अब भी प्रासंगिक लगता है। ऐसा नहीं कि उसमें मैंने कोई बड़ी बात लिख दी हो, पर मन की बात थी, जो लिख दी थी। बहुत साधारण बात थी। उसमें तिवारी जी के अलावा हमारी एक और संपादकीय सहयोगी तृप्ति जी का जिक्र भी था। लेख में दोनों के नाम नहीं थे, उसकी जरूरत भी नहीं थी। तिवारी जी को तो मैंने बताया भी था, तृप्ति जी से शायद मैंने कभी इसका जिक्र किया भी नहीं। बहुत व्यक्तिगत प्रसंग भी नहीं था, और कभी ऐसा मौका मिला भी नहीं। पता नहीं तृप्ति जी को उस बात की याद है भी या नहीं। इस लेख की कतरन लगाई है। समय मिला, तो लेख को दुबारा टाइप करके अपने ब्लॉग में लगाऊंगा। यों तस्वीर का रिजॉल्यूशन अच्छा है। कतरन को पढ़ा जा सकता है।   

उपरोक्त वक्तव्य के साथ मैंने इस कतरन को फेसबुक पर लगा दिया। नवभारत टाइम्स, लखनऊ के ही पुराने साथी परवेज़ अहमद ने लिखा आपने लखनऊ याद दिला दिया...दोनों दोस्तों को सलाम। प्रमोद जी इसे पढ़ पाना आसान नहीं है। मुझे समझ में आ रहा था कि कुछ दोस्तों को पढ़ने में दिक्कत होगी। मैंने लिखा, मैं कल इसे टाइप करके ब्लॉग में लगाऊँगा।इसके बाद मैं सो गया।

सुबह उठने पर मैंने अपने मोबाइल फोन पर नवभारत टाइम्स, लखनऊ के ही पुराने मित्र मुकेश कुमार सिंह का संदेश देखा। उन्होंने कतरन का लेख टाइप करके भेजा था। फेसबुक को खोला, तो उसमें मुकेश ने परवेज़ को जवाब दिया था, लीजिए, मैंने आपका काम आसान कर दिया और परवेज़ अहमद जी की सहूलियत के लिए लेख को आसानी से पढ़ने लायक लेख में तब्दील कर दिया 😃😃। उन्होंने फेसबुक के कमेंट बॉक्स में पूरा लेख लगा दिया। चूंकि कमेंट के लिए शब्दों की सीमा होती है, इसलिए उसे तीन टुकड़ों में बाँट दिया। यह बात मेरे लिए खुशी और विस्मय दोनों का विषय है। बहरहाल इस लेख को पढ़ें:

 

पहले बताएं आपने कभी किसी से कोई शिकायत की?

बात कहने और उसे सुनने की संस्कृति विकसित हो, तब काफी कुछ किया जा सकेगा। क्या वह संस्कृति हमने विकसित की है? रोडवेज़ की बसों में एक जब वे नई होती हैं, डिब्बा लगा होता है 'सुझाव शिकायतें' या फिर यह सूचना लिखी होगी 'परिवाद पुस्तिका कंडक्टर से मांगें!परिवाद पुस्तिका देश भर के विभागों और दफ्तरों में होती है। हैरत है कि उनमें शिकायतें और सुझाव दर्ज नहीं होते। क्या शिकायतें हैं। नहीं और सुझाव देने की जरूरत नहीं रही? बात यह है कि शिकायतें इतनी है कि उन्हें सुना ही नहीं जा सकता। शिकायत है कि परिवाद पुस्तिका नहीं है। बस के कंडक्टर, ट्रेन के गार्ड, बैंक के मैनेजर या राशन के दुकानदार से परिवाद पुस्तिका मांग कर देखें। सुझाव इतने सारे हैं कि उन पर अमल करना असंभव। ज्यादातर लोग अपना काम कराना चाहते हैं। नियम-कानून की फिक्र किए बगैर।

 

कुछ साल पहले की बात है, लखनऊ के एक हिन्दी दैनिक पत्र के एक पत्रकार ने कहीं से पते लेकर अमेरिका और ब्रिटेन के कुछ प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों, खासकर पत्रकारिता के प्रशिक्षण और शोध से जुड़े संस्थानों को पत्र लिखे आशय यह था कि उन संस्थानों में शिक्षण, प्रशिक्षण और शोध कार्यों की जानकारी हासिल की जाए और यह पता लगाया जाए कि वहां प्रवेश पाने का 'जुगाड़' क्या है? 'जुगाड़' का अंग्रेजी पर्याय भले ही मिल जाए, पर इसका जो अर्थ भारत में है वह अनोखा है। पत्रकार बंधु ने पत्र लिख दिए थे, उन्हें उम्मीद नहीं थी कि कहीं से जवाब मिलेगा। उन्हें आश्चर्य तब हुआ जब प्रायः सभी संस्थानों से पत्रकारिता विभाग के अध्यक्षों ने व्यक्ति रूप से पत्र के उत्तर लिखे और साथ यह भी कहा कि योग्य सेवा के लिए भविष्य में भी पत्र लिखें।