बदलाव लाने का एक तरीका होता है ‘चेंज लीडर्स’ तैयार करो। ऐसे
व्यक्तियों और संस्थाओं को बनाओ, जो दूसरों को प्रेरित करें। इस सिद्धांत पर हमारे
देश में ‘आदर्शों’ के ढेर लग गए हैं।
आदर्श विद्यालय, आदर्श चिकित्सालय, आदर्श रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन से लेकर आदर्श
ग्राम तक। सैद्धांतिक रूप से यह उपयोगी धारणा है, बशर्ते इसे लागू करने का कोई ‘आदर्श सिद्धांत’ हो। विकास की वास्तविक समस्या
अच्छी नीतियों को खोजने की नहीं, राजनीतिक प्रक्रिया को खोजने की है। राजनीति सही है, तो सही नीतियाँ अपने आप बनेंगी। खराब संस्थाओं
के दुष्चक्र को तोड़ने का एक रास्ता है आदर्श संस्थाओं को तैयार करना। कुछ दशक पहले अमेरिकी
अर्थशास्त्री पॉल रोमर ने व्यवस्थाओं को ठीक करने का एक समाधान सुझाया यदि आप अपना
देश नहीं चला सकते तो उसे किसी दूसरे को सब कॉण्ट्रैक्ट कर दीजिए। उन्होंने अपनी
अवधारणा को नाम दिया “चार्टर सिटीज़।” देश अपने यहाँ खाली ज़मीन विदेशी ताकत को सौंप
दें, जो नया शहर बसाए और अच्छी
संस्थाएं बनाए। एकदम बुनियाद से शुरू करने पर अच्छे ग्राउंड रूल भी बनेंगे।
गाँव को लेकर
हमारी धारणाओं पर अक्सर भावुकता का पानी चढ़ा रहता है। ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ जैसी बातें कवि
सम्मेलनों में अच्छी लगती हैं। किसी गाँव में जाकर देखें तो कहानी दूसरी मिलेगी। गाँव
माने असुविधा। महात्मा गांधी का कहना था, ‘भारत का भविष्य
गाँवों में छिपा है।’ क्या बदहाली और बेचारगी
को भारत का भविष्य मान लें? गाँव केवल छोटी सी
भौगोलिक इकाई नहीं है। हजारों साल की परम्परा से वह हमारे लोक-मत, लोक-जीवन और
लोक-संस्कृति की बुनियाद है। सामाजिक विचार का सबसे प्रभावशाली मंच। पर ग्राम
समुदाय स्थिर और परिवर्तन-शून्य नहीं है। वह उसमें हमारे सामाजिक अंतर्विरोध भी झलकते
हैं। हमारा लोकतंत्र पश्चिम से आयातित है। अलबत्ता 73 वे संविधान संशोधन के बाद
जिस पंचायत राज व्यवस्था को अपने ऊपर लागू करने का फैसला किया, उसमें परम्परागत
सामाजिक परिकल्पना भी शामिल थी, जो व्यवहारतः लागू हो नहीं पाई है।