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Wednesday, June 5, 2024

हमारा लोकतंत्र और पश्चिमी-मनोकामनाएं

न्यूयॉर्क टाइम्स में भारत का मज़ाक उड़ाता कार्टून

यह आलेख 4 जून, 2024 को चुनाव-परिणाम आने के ठीक पहले प्रकाशित हुआ था।

लोकसभा चुनाव के परिणाम आज आने वाले हैं, पर उसके पहले एग्ज़िट पोल के परिणाम आ चुके हैं, जिन्हें लेकर देश के अलावा विदेश में भी प्रतिक्रिया हुई है. रायटर्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय एग्ज़िट-पोलों के परिणाम असमान (पैची) होते हैं.

भारतीय चुनाव के परिणामों को लेकर पश्चिमी देशों में खासी दिलचस्पी है. अमेरिका और यूरोप में भारतीय-लोकतंत्र को लेकर पहले से कड़वाहट है, पर पिछले दस साल में यह कड़वाहट बढ़ी है.

एग्ज़िट पोल से अनुमान लगता है कि देश में लगातार तीसरी बार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने जा रही है. अंतिम परिणाम क्या होंगे, यह आज (4 जून को) स्पष्ट होगा, पर भारतीय लोकतंत्र को लेकर पश्चिमी देशों में जो सवाल खड़े किए जा रहे हैं, उनपर विचार करने का मौका आ रहा है.

पश्चिमी-चिंताएं 

2014 और 2019 में भी लोकसभा चुनावों के ठीक पहले पश्चिम के मुख्यधारा-मीडिया ने चिंता व्यक्त की थी. साफ है कि उन्हें भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी नापसंद हैं, फिर भी उन्हें पसंद करना पड़ रहा है.

जैसे-जैसे भारत का वैश्विक-प्रभाव बढ़ेगा, पश्चिमी-प्रतिक्रिया भी बढ़ेगी. लोकतांत्रिक-रेटिंग करने वाली संस्थाएं भारत के रैंक को घटा रही हैं, विश्वविद्यालयों में भारतीय-लोकतंत्र को सेमिनार हो रहे हैं और भारतीय-मूल के अकादमीशियन चिंता-व्यक्त करते शोध-प्रबंध लिख रहे हैं.

Wednesday, February 22, 2023

साम्राज्यवाद के शिकार भारत को साम्राज्यवादी नसीहतें

कार्बन उत्सर्जन में भारत की भूमिका को लेकर न्यूयॉर्क टाइम्स का कार्टून 

तमाम विफलताओं के बावजूद भारत की ताकत है उसका लोकतंत्र. सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ, क्योंकि भारत एक अवधारणा के रूप में देश के लोगों के मन में पहले से मौजूद था. पूरे एशिया में सुदूर पूर्व के जापान, ताइवान और दक्षिण कोरिया को छोड़ दें, तो भारत अकेला देश है, जहाँ पिछले 75 से ज्यादा वर्षों में लोकतांत्रिक-व्यवस्था निर्बाध चल रही है.

अब अपने आसपास देखें. पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव में सत्ता-परिवर्तन की प्रक्रिया सुचारु नहीं रही है. सत्ता-परिवर्तन की बात ही नहीं है, देश की लोकतांत्रिक-संस्थाएं काम कर रही हैं और क्रमशः मजबूत भी होती जा रही हैं. लोकतंत्र की ताकत उसकी संस्थाओं के साथ-साथ जनता की जागरूकता पर निर्भर करती है.

इस जागरूकता के लिए शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, न्याय-प्रणाली और नागरिकों की समृद्धि की जरूरत होती है. बहुत सी कसौटियों पर हमारा लोकतंत्र अभी उतना विकसित नहीं है कि उसकी तुलना पश्चिमी देशों से की जा सके, पर पिछले 75 वर्षों में इन सभी मानकों पर सुधार हुआ है. सबसे पहले इस बात को स्वीकार करें कि भारत की काफी समस्याएं अंग्रेजी-साम्राज्यवाद की देन हैं.

लुटा-पिटा देश

15 अगस्त, 1947 को जो भारत आजाद हुआ, वह लुटा-पिटा और बेहद गरीब देश था. अंग्रेजी-राज ने उसे उद्योग-विहीन कर दिया था और जाते-जाते विभाजित भी. सन 1700 में वैश्विक-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के करीब-करीब बराबर थी. यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 फीसदी रह गई थी.

इतिहास के इस पहिए को उल्टा घुमाने की जिम्मेदारी आधुनिक भारत पर है. क्या हम ऐसा कर सकते हैं? आप पूछेंगे कि इस समय यह सवाल क्यों? इस समय अचानक हम दो विपरीत-परिस्थितियों के बीच आ गए हैं. एक तरफ भारत जी-20 और शंघाई सहयोग संगठन की अध्यक्षता करते हुए विदेशी-सहयोग के रास्ते खोज रहा है, वहीं भारतीय लोकतंत्र में विदेशी-हस्तक्षेप की खबर सुर्खियों में है.

सोरोस का बयान

गत 16 फरवरी को म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस से पहले टेक्नीकल यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख में आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए अमेरिकी पूँजीपति जॉर्ज सोरोस ने अपने चेहरे पर से पर्दा हटाते हुए कहा कि हम भारतीय लोकतंत्र के पुनरुत्थान के लिए कोशिशें कर रहे हैं. कैसा पुनरुत्थान, क्या हमारा लोकतंत्र सोया हुआ है?   

सोरोस के बयान के बाद केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और विदेशमंत्री एस जयशंकर ने सोरोस को जवाब दिए हैं. शनिवार को ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में रायसीना डायलॉग के उद्घाटन सत्र के दौरान जयशंकर ने कहा कि सोरोस की टिप्पणी ठेठ 'यूरो अटलांटिक नज़रिये' वाली है. वे न्यूयॉर्क में बैठकर मान लेते हैं कि पूरी दुनिया की गति उनके नज़रिए से तय होगा...वे बूढ़े, रईस, हठधर्मी और ख़तरनाक हैं.

जयशंकर ने यह भी कहा कि आप अफ़वाहबाज़ी करेंगे कि दसियों लाख लोग अपनी नागरिकता से हाथ धो बैठेंगे तो यह हमारे सामाजिक ताने-बाने को चोट पहुंचाएगा. ये लोग नैरेटिव बनाने पर पैसा लगा रहे हैं. वे मानते हैं कि उनका पसंदीदा व्यक्ति जीते तो चुनाव अच्छा है और हारे, तो कहेंगे कि लोकतंत्र खराब है. गजब है कि यह सब कुछ खुले समाज की वकालत के बहाने किया जाता है. भारत के मतदाता फैसला करेंगे कि देश कैसे चलेगा.  

Tuesday, May 11, 2021

आँकड़ों की बाजीगरी और पश्चिमी देशों के मीडिया की भारत के प्रति द्वेष-दृष्टि


भारत पर आई आपदा को लेकर अमेरिका और यूरोप के तमाम देशों ने मदद भेजी है। करीब 16 साल बाद हमने विदेशी सहायता को स्वीकार किया है। आत्मनिर्भरता से जुड़ी भारतीय मनोकामना के पीछे वह आत्मविश्वास है, जो इक्कीसवीं सदी के भारत की पहचान बन रहा है। इस आत्मविश्वास को लेकर पश्चिमी देशों में एक प्रकार का ईर्ष्या-भाव भी दिखाई पड़ रहा है। खासतौर से कोविड-19 को लेकर पश्चिमी देशों की मीडिया-कवरेज में वह चिढ़ दिखाई पड़ रही है।

पिछले साल जब देश में पहली बार लॉकडाउन हुआ था और उसके बाद यह बात सामने आई कि सीमित साधनों के बावजूद भारत ने कोरोना का सामना मुस्तैदी से किया है, तो दो तरह की बातें कही गईं। एक तो यह कि भारत संक्रमितों की जो संख्या बता रहा है, वह गलत है। दूसरे लॉकडाउन की मदद से संक्रमण कुछ देर के लिए रोक भी लिया, तो लॉकडाउन खुलते ही संक्रमणों की संख्या फिर बढ़ जाएगी।

भारत की चुनौतियाँ

बहुत सी रिपोर्ट शुद्ध अटकलबाजियों पर आधारित थीं, पर अमेरिका की जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी और सेंटर फॉर डिजीज डायनैमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी की ओर से पिछले साल मार्च में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के लिए आने वाला समय चुनौतियों से भरा होगा। रिपोर्ट के अनुसार देश की स्वास्थ्य सुविधाओं में बहुत कमी है। देश में लगभग 10 लाख वेंटीलेटरों की जरूरत पड़ेगी, जबकि उपलब्धता 30 से 50 हजार ही है। अमेरिका में 1.60 लाख वेंटीलेटर भी कम पड़ रहे हैं, जबकि वहां की आबादी भारत से कम है।