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Sunday, July 18, 2021

राजद्रोह बनाम कानूनी-अराजकता

लोकतंत्र के कुछ बुनियादी आधारों को लेकर देश में कुछ समय से जो बहस चल रही है, उससे जुड़े दो मामले पिछले हफ्ते अदालत में उठे। सोमवार को उच्चतम न्यायालय ने हैरत जताई कि अब भी आईटी कानून की धारा 66ए के तहत लोगों पर मुकदमे चलाए जा रहे हैं, जबकि इसे सुप्रीम कोर्ट ने 24 मार्च, 2015 को असंवैधानिक घोषित किया था। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ अदालत में यह मामला लेकर गई थी। दो साल पहले इस संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि इस कानून के रद्द होने के बाद कम से कम 22 लोगों पर इसके तहत मुकदमे चलाए गए हैं। अदालत की हैरानी के बाद अब केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से कहा है कि वे थानों को 66ए के तहत मामले दर्ज न करने के निर्देश दें। अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में कानूनों के अनुपालन के नाम पर कैसी अराजकता है।

राजद्रोह कानून

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा दूसरा मामला राजद्रोह कानून का है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राजद्रोह कानून का इस्तेमाल अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए किया था, तो क्या आजादी के 75 साल बाद भी इसे जारी रखने की जरूरत है? अदालत में एक रिटायर मेजर जनरल ने धारा-124ए(राजद्रोह) कानून के वैधानिकता को चुनौती दी है। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अगुवाई वाले पीठ ने इस याचिका के परीक्षण का फैसला किया है। अदालत ने कहा कि सरकार कई कानूनों को खत्म कर चुकी है। इसे क्यों नहीं देखा गया? अदालत ने यह भी कहा कि यह फैसला नहीं है, हमने जो सोचा है उसका संकेत है।

पिछले दो महीनों में राजद्रोह कानून को लेकर जो बहस शुरू हुई है उसे तार्किक परिणति तक पहुँचना चाहिए। मसला कानून को खत्म करने से ज्यादा इसके दुरुपयोग से जुड़ा है। धारा66ए निरस्त है, फिर भी अधिकारी उसका इस्तेमाल करते हैं। लोगों को गिरफ्तार किया जाता है। कोई जवाबदेही नहीं। कोई पुलिस ऑफिसर गांवों के दूर दराज इलाकों में किसी शख्स के खिलाफ राजद्रोह कानून का आसानी से इस्तेमाल कर सकता है। जुआरियों पर राजद्रोह का आरोप।

इसी दौरान अदालत में एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की ओर से अलग से अर्जी दाखिल की गई है, जिसमें राजद्रोह कानून के प्रावधान को चुनौती दी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने इस अर्जी पर भी सुनवाई के लिए सहमति दे दी। अटॉर्नी जनरल वेणुगोपाल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की दूसरी बेंच में भी राजद्रोह कानून को चुनौती वाली याचिका विचाराधीन है। दो पत्रकारों की उस याचिका पर 27 जुलाई को सुनवाई होनी है।

राजद्रोह और देशद्रोह

इस विषय को व्यावहारिकता की रोशनी में देखना चाहिए। राजद्रोह और देशद्रोह के अंतर को भी समझने की जरूरत है। सरकार या सरकारी नीतियों के प्रति असंतोष व्यक्त करने की सीमा-रेखा भी तय होनी चाहिए। इस साल 26 जनवरी को लालकिले पर जो हुआ, क्या उसे स्वस्थ लोकतांत्रिक-विरोध के दायरे में रखा जाएगा? वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह के एक मामले को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले महीने 3 जून को कहा था कि पत्रकारों को राजद्रोह के दंडात्मक प्रावधानों से तबतक सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए, जबतक कि उनकी खबर से हिंसा भड़कना या सार्वजनिक शांति भंग होना साबित न हुआ हो।

Sunday, June 6, 2021

राजद्रोह पर पुनर्विचार की जरूरत


वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह के एक मामले को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि पत्रकारों को राजद्रोह के दंडात्मक प्रावधानों से तबतक सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए, जबतक कि उनकी खबर से हिंसा भड़कना या सार्वजनिक शांति भंग होना साबित न हुआ हो। अदालत ने यह भी कहा कि किसी भी नागरिक को सरकार की आलोचना और टिप्पणी करने का हक है, बशर्ते वह लोगों को सरकार के खिलाफ हिंसा करने के लिए प्रेरित न करे। अलबत्ता कोर्ट ने इस मांग को ठुकरा दिया कि अनुभवी पत्रकारों पर राजद्रोह केस दर्ज करने से पहले हाईकोर्ट जज की कमेटी से मंजूरी ली जाए।

विनोद दुआ ने एक यूट्यूब चैनल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार के खिलाफ टिप्पणी की थी, जिसके खिलाफ शिमला के कुमारसैन थाने में एक एफआईआर दर्ज कराई गई थी। अदालत ने कहा कि अब वह वक्त नहीं है, जब सरकार की आलोचना को देशद्रोह माना जाए। ईमानदार और विवेकशील आलोचना समाज को कमजोर नहीं मजबूत बनाती है।

हल्के-फुल्के आरोप

पिछले हफ्ते ही अदालत ने एक और मामले में आंध्र प्रदेश पुलिस को दो टीवी चैनलों के ख़िलाफ़ राजद्रोह के आरोप में दंडात्मक कार्रवाई से रोकते हुए कहा कि राजद्रोह से जुड़ी आईपीसी की धारा 124-ए की व्याख्या करने की जरूरत है। इस कानून के इस्तेमाल से प्रेस की स्वतंत्रता पर पड़ने वाले असर की व्याख्या भी होनी चाहिए।

आंध्र पुलिस ने दो तेलुगू चैनलों के ख़िलाफ़ 14 मई को राजद्रोह का मुक़दमा दायर किया था। आरोप है कि उनके कार्यक्रमों में मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी की आलोचना की गई थी। मुकदमा अभी आगे चलेगा, इसलिए सम्भव है कि अदालत अपने अंतिम आदेश में व्याख्या करे। यह कानून औपनिवेशिक शासन की देन है और ज्यादातर देशों में ऐसा कानून नहीं है।