भूमि अधिग्रहण कानून देश की राजनीति और प्रशासन की पोल खोलता है। लम्बे अरसे तक लटकाए रखने के बाद इसे जब पास किया गया तभी ज़ाहिर था कि कारोबार जगत को इसे लेकर अंदेशा है। जयराम रमेश ने ग्रामीण विकास मंत्रालय का पद भार ग्रहण करने के तुरंत बाद भूमि अधिग्रहण के कानून में किसानों के पक्ष में पैरवी की थी, पर जब कानून पास हो रहा था तब उन्हें भी लगने लगा था कि आर्थिक विकास की दर को तेज़ करने के लिए इसकी कड़ी शर्तें कम करनी होंगी। निवेशकों को माफिक आने वाला भूमि अधिग्रहण विधेयक लाना होगा। अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार इसमें बदलाव लाना चाहती है, पर जब यह कानून पास हो रहा था तब पार्टी ने ये सवाल नहीं उठाए थे। फिलहाल इस मामले से जुड़े कुछ मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं:-
· सरकार शीतकालीन सत्र में ही कानून में संशोधन कराने में सफल क्यों नहीं हुई? इसी सत्र में सरकार श्रम कानूनों से सम्बद्ध कानूनी बदलाव कराने में सफल रही थी।
· क्या अध्यादेश के अधिकार का दुरुपयोग हो रहा है? अध्यादेश के बजाय सरकार ने संसद में इसे पेश क्यों नहीं किया? राज्यसभा में पास नहीं होता तो संयुक्त अधिवेशन का रास्ता था।
· आर्थिक उदारीकरण के मामले में कांग्रेस पार्टी की नीति भी भारतीय जनता पार्टी की नीतियों जैसी है। इस मामले में अड़ंगा लगाकर क्या वह अपनी छवि उदारीकरण विरोधी की बनाना चाहेगी?
· मामला केवल भूमि अधिग्रहण कानून तक सीमित नहीं है। अभी सरकार को कई कानूनों को बदलना है। क्या इसके बारे में कोई रणनीति भाजपा के पास है?
· सरकार शीतकालीन सत्र में ही कानून में संशोधन कराने में सफल क्यों नहीं हुई? इसी सत्र में सरकार श्रम कानूनों से सम्बद्ध कानूनी बदलाव कराने में सफल रही थी।
· क्या अध्यादेश के अधिकार का दुरुपयोग हो रहा है? अध्यादेश के बजाय सरकार ने संसद में इसे पेश क्यों नहीं किया? राज्यसभा में पास नहीं होता तो संयुक्त अधिवेशन का रास्ता था।
· आर्थिक उदारीकरण के मामले में कांग्रेस पार्टी की नीति भी भारतीय जनता पार्टी की नीतियों जैसी है। इस मामले में अड़ंगा लगाकर क्या वह अपनी छवि उदारीकरण विरोधी की बनाना चाहेगी?
· मामला केवल भूमि अधिग्रहण कानून तक सीमित नहीं है। अभी सरकार को कई कानूनों को बदलना है। क्या इसके बारे में कोई रणनीति भाजपा के पास है?