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Tuesday, October 4, 2011

अंतर्विरोधों से घिरा पाकिस्तान



अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करज़ाई भारत यात्रा पर आ रहे हैं। एक अर्से से पाकिस्तान की कोशिश थी कि अफगानिस्तान में भारत की कोई भूमिका न रहे। जो भी हो पाकिस्तान के नज़रिए से हो। ऐसा तभी होगा, जब वहाँ पाक-परस्त निज़ाम होगा। शुरू में अमेरिका भी पाकिस्तान की इस नीति का पक्षधर था। पर हाल के घटनाक्रम में अमेरिका की राय बदली है। इसका असर देखने को मिल रहा है। पाकिस्तान ने अमेरिका के सामने चीन-कार्ड फेंका है। तुम नहीं तो कोई दूसरा। पर चीन के भी पाकिस्तान में हित जुडें हैं। वह पाकिस्तान का फायदा उठाना चाहता है। वह उसकी उस हद तक मदद भी नहीं कर सकता जिस हद तक अमेरिका ने की है। अफगानिस्तान की सरकार भी पाकिस्तान समर्थक नहीं है। जन संदेश टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेख


भारत-पाकिस्तान रिश्तों के लिहाज से पिछले दो हफ्ते की घटनाओं पर ध्यान देने की ज़रूरत है। अमेरिका-पाकिस्तान, चीन-भारत और अफगानिस्तान इस घटनाक्रम के केन्द्र में हैं। अगले कुछ दिनों में एक ओर भारत-अफगानिस्तान रक्षा सहयोग के समझौते की उम्मीद है वहीं पाकिस्तान और चीन के बीच एक फौजी गठबंधन की खबरें हवा में हैं। दोनों देशों के रिश्तों में चीन एक महत्वपूर्ण देश के रूप में उभर रहा है। जिस तरह भारत ने वियतनाम, सिंगापुर, मलेशिया और जापान के साथ रिश्ते सुधारे हैं उसके जवाब में पाकिस्तान ने भी अपनी ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ घोषित की है।

Friday, September 30, 2011

फिर प्रधानमंत्री की भूमिका क्या है?

हिन्दू में केशव का कार्टून
पिछले हफ्ते की दो खबरों को एक साथ पढ़ने का मौका मिला। एक थी प्रणब मुखर्जी और पी चिदम्बरम के बीच की खींचतान और दूसरी पूर्वी उत्तर प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों की वसूली का विरोध करने वाले एक ड्राइवर की हत्या। दोनों खबरों में कोई रिश्ता नहीं, पर दोनों बातें हताश करती हैं। दोनों बातें बताती हैं कि सुपर पावर बनने को आतुर देश की व्यवस्था अकुशल, बचकानी और घटिया है। ये अवगुण पिछले दो दशक में विकसित हुए हैं। तिकड़म, दलाली और धंधेबाजी को जो खुलेआम सम्मान हाल के वर्षों में मिला है वह पहले नहीं था। तथ्यों को बजाय उजागर करने के उनपर पर्दा डालने की प्रवृत्ति व्यवस्था को अविश्सनीय बना रही है।

Monday, September 26, 2011

दिल्ली प्रहसन ...ब्रेक के बाद

कल्पना कीजिए यूपीए-प्रथम के कार्यकाल में नागरिकों को जानकारी पाने का अधिकार न मिला होता तो आज यूपीए-द्वितीय के सामने खड़ी अनेक परेशानियों का अस्तित्व ही नहीं होता। वही अर्जुन और वही बाण हैं। पर गोपियों को लुटने से बचा नहीं पा रहे हैं। इन बातों से आजिज आकर कॉरपोरेट मामलों के मंत्री वीरप्पा मोइली ने कहा है कि आरटीआई पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए, क्योंकि यह कानून स्वतंत्र सरकारी काम-काज में दखलंदाजी को बढ़ावा दे रहा है। यूपीए-द्वितीय की परेशानियाँ इस कानून के कारण बढ़ी हैं या ‘स्वतंत्र सरकारी काम-काज‘ की परिभाषा में कोई दोष है? जिस वक्त यह कानून पास हो रहा था, तबसे अब तक फाइलों की नोटिंग-ड्राफ्टिंग और आधिकारिक पत्रों को आरटीआई के दायरे में रखने को लेकर सरकारी प्रतिरोध में कभी कमी नहीं हुई। सरकारों को स्वतंत्र और निर्भय होकर काम करना चाहिए, इस बात का विरोध किसी ने नहीं किया। पर टीप का बंद यह है कि काम पारदर्शी तरीके से होना चाहिए।

Monday, September 19, 2011

राजनीति में जिसका स्वांग चल जाए वही सफल है



दारुल-उल-उलूम देवबंद के पूर्व मोहातमिम गुलाम मुहम्मद वस्तानवी ने नरेन्द्र मोदी के बारे में क्या कहा था? यही कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात का विकास हुआ है। और दूसरे यह कि जहाँ तक विकास की बात है मुसलमानों के साथ भेदभाव नहीं बरता गया। उन्होंने यह भी कहा कि 2002 के दंगे देश के लिए कलंक हैं। दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। दंगों के दौरान पुलिस ने मुसलमानों को नहीं बचाया, क्योंकि ऊपर से राजनीतिक दबाव था। वस्तानवी ने इसके अलावा यह भी कहा कि मुसलमानों को अच्छी शिक्षा लेनी चाहिए। उनके लिए नौकरियों का बंदोबस्त तभी हो सकता है जब वे अच्छी तरह पढ़ें।

मोदी के बारे में वस्तानवी का बयान एकतरफा नहीं था। पर शायद देवबंद के प्रमुख पद पर बैठे व्यक्ति से देश के ज्यादातर मुसलमानों को ऐसी उम्मीद नहीं थी। मोदी के बारे में मुसलमानों को नरम बयान नहीं चाहिए। गुजरात में मुसलमानों का जिस तरह संहार किया गया वह क्या कभी भुलाया जा सकता है? फिर वस्तानवी ने ऐसा बयान क्यों दिया? वे तो गुजराती हैं। उन्हें तो दंगों की भयावहता की जानकारी थी। उनकी ईमानदारी पर पहले किसी को संदेह नहीं था। पर इस बयान से कहानी बदल गई। उन्हें पद से हटा दिया गया। और जब उन्हें हटाया जा रहा था तभी यह बात कही जा रही थी कि उनके हटने की वजह यह भी है कि वे गुजरात से हैं। वस्तानवी उन कुछ मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी राय है कि हमें गोधरा कांड के बाद हुए दंगों से आगे बढ़ना चाहिए। बात मोदी को माफ करने या उन्हें समर्थन देने की नहीं है। बल्कि नए दौर में मुसलमानों के दूसरे सवालों को रेखांकित करने की भी है।

Monday, September 12, 2011

साम्प्रदायिक हिंसा कानून के राजनीतिक निहितार्थ


साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ प्रस्तावित कानून की भावना जितनी अच्छी है उतना ही मुश्किल है इसका व्यावहारिक रूप। यह कानून अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए बनाया जा रहा है। पर इसका जितना प्रचार होगा उतना ही बहुसंख्यक वर्ग इसके खिलाफ जाएगा। हो सकता है कि कांग्रेस को इससे राजनीतिक लाभ मिले, पर भाजपा को भी तो मिलेगा। इस कानून के संघीय व्यवस्था के संदर्भ में भी कुछ निहितार्थ हैं। इसका नुकसान किसे होगा? बहरहाल इस कानून की भावना जो भी हो इसे सामने लाने का समय ठीक नहीं है। 



यूपीए दो की सरकार बनने के बाद लगा कि भाजपा के दिन लद गए। अटल बिहारी वाजपेयी के नेपथ्य में जाने के बाद पार्टी के पास मंच पर कोई दूसरा नेता नहीं बचा। पिछले दो साल से पार्टी की नैया हिचकोले खा रही है। पिछले साल झारखंड में शिबू सोरेन के साथ लेन-देन के शुरूआती झटकों के बाद पार्टी के नेतृत्व में सरकार बन गई। कर्नाटक में अच्छी भली सरकार बन गई थी, पर येदियुरप्पा को रेड्डी बंधुओं की दोस्ती रास नहीं आई। सन 2009 के अंत में एकदम अनजाने से नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बने तब लगा कि इसे चलाने वालों का सिर फिर गया है। पर वक्त की बात है कि इसे प्रणवायु मिलती रही। इसमे पार्टी की अपनी भूमिका कम दूसरों की ज्यादा है। पिछले डेढ़ साल से भाजपा को यूपीए सरकार प्लेट में रखकर मौके दे रही है। पता नहीं अन्ना-आंदोलन में इनका कितना हाथ था, पर ये फायदा उठा ले गए। और अब सरकार संसद के शीत सत्र में साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ जो विधेयक पेश करने वाली है, उसका फायदा कांग्रेस को मिले न मिले, भाजपा को ज़रूर मिलेगा।

Monday, September 5, 2011

राजनीति में ही है राजनीतिक संकट का हल



दो साल पहले की बात है। प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी को किसी सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। तभी उन्होंने कहीं कहा कि मैं राजनीति में आना चाहता हूँ। उनकी माँ को विश्वास है कि उनका बेटा राजनीति में आकर मंत्री बनेगा। कुछ साल पहले फिल्म अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी ने कहीं कहा था कि मैं राजनीति में कभी नहीं आना चाहूँगी। ऐसे शब्दों को हम खोजने की कोशिश करें, जिनके अर्थ सबसे ज्यादा भ्रामक हैं तो राजनीति उनमें प्रमुख शब्द होगा। व्यावहारिक अर्थ में राजनीति अंतर्विरोधों के बीच सामंजस्य बैठाने की कला है। भारत जैसे देश में जहाँ दुनिया के सबसे ज्यादा अंतर्विरोध पाए जाते हैं, इस कला की सबसे ज्यादा ज़रूरत है। संयोग से हमारे यहाँ राजनीति की कमी नहीं है, बल्कि इफरात है। फिर भी हाल के अन्ना हजारे के आंदोलन में सबसे ज्यादा फजीहत राजनीति की हुई। लोगों को लगता है कि यह आंदोलन राजनीति-विरोधी था।

Monday, August 22, 2011

यह बदलाव की प्रक्रिया है, देर तक चलेगी



अन्ना के अनशन के सात दिन आज पूरे हो जाएंगे। और अभी तक यह समझ में नहीं आ रहा है कि यह कब तक चलेगा और कहाँ तक चलेगा। आंदोलन के समर्थन और विरोध में बहस वह मूल प्रश्नों के बाहर नहीं निकल पाई है। क्या केवल इस कानून से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? क्या यह सम्भव है कि अन्ना का प्रस्तावित विधेयक हूबहू पास कर दिया जाए? सरकार ने जो विधेयक पेश किया है उसका क्या होगा? क्या सरकार उसे वापस लेने को मजबूर होगी? सवाल यह भी है कि सरकार ने विपक्षी दलों के साथ इस विषय पर बात क्यों नहीं की। क्या वह उनके सहयोग के बगैर इस संकट का सामना कर सकेगी? क्या हम किसी बड़े व्यवस्था परिवर्तन की ओर बढ़ रहे हैं? क्या सरकार आने वाले राजनैतिक संकट की गम्भीरता को नहीं समझ पा रही है?