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Saturday, September 1, 2018

लोकतांत्रिक ‘सेफ्टी वॉल्वों’ पर वार

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और उसके बाद शुरू हुई ‘बहस’ और ‘अदालती कार्यवाही’ कई मानों में लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है। एक तरफ देश में फासीवाद, नाजीवाद के पनपने के आरोप हैं, वहीं हमारे बीच ऐसे व्यक्ति और संगठन हैं, जो रात-रात भर अदालतों में गुहार लगा सकते हैं। ऐसे में इस व्यवस्था को फासिस्ट कैसे कहेंगे? हमारी अदालतें नागरिक अधिकारों के पक्ष में हस्तक्षेप कर रहीं हैं। मीडिया पर तमाम तरह के आरोप हैं, पर ऐसा नहीं कि इस मामले में सामाजिक कार्यकर्ताओं के पक्ष को सामने रखा न गया हो। 

इस मामले का 2019 की चुनावी राजनीति से कहीं न कहीं सीधा रिश्ता है। बीजेपी की सफलता के पीछे दलित और ओबीसी वोट भी है। बीजेपी-विरोधी राजनीति उस वोट को बीजेपी से अलग करना चाहती है। रोहित वेमुला प्रकरण एक प्रतीक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लम्बे अरसे से दलितों और खासतौर से जनताजातीय इलाकों में सक्रिय है। यह इस प्रकरण का आंतरिक पक्ष है। सवाल यह है कि बीजेपी ने उन लोगों पर कार्रवाई क्यों की जो सीधे उसके राजनीतिक प्रतिस्पर्धी नहीं हैं? दूसरा सवाल यह है कि यदि ये ताकतें बीजेपी को परास्त करने की योजना में शामिल हैं, तो यह योजना किसकी है? इन बातों पर अलग से विचार करने की जरूरत है। 

फिलहाल इस प्रकरण का सीधा वास्ता हमारी राजनीतिक-व्यवस्था और लोकतांत्रिक संस्थाओं से है, जो परेशान करने वाला है। साथ ही भारतीय राष्ट्र-राज्य की एकता और अखंडता के सवाल भी हैं, जिनकी तरफ हम देख नहीं पा रहे हैं। बदलते भारत और उसके भीतर पनपने वाले उदार लोकतांत्रिक समाज की परिकल्पना के बरक्स कई प्रकार की अंतर्विरोधी धाराओं का टकराव भी देखने को मिल रहा है।

अधिकारों की रक्षा और नागरिकों की सुरक्षा के सवाल बेहद महत्वपूर्ण हैं, पर यह मामला ज्यादा बड़े राजनीतिक विमर्श से जुड़ा है। इसके साथ 1947 की आजादी के बाद राष्ट्र-राज्य के गठन की प्रक्रिया और विकास की धारा से कटे आदिवासियों, दलितों और वंचितों के सवाल भी हैं। इस मामले के कानूनी, राजनीतिक और राष्ट्र-राज्य के संरक्षण से जुड़े तीन अलग-अलग पहलू हैं। तीनों गड्ड-मड्ड हो रहे हैं। उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में समझने के जरूरत है।

सेफ्टी वॉल्व

इन दिनों शब्द चल रहा है अर्बन नक्सली। सच यह है कि बड़ी संख्या में लोग माओवादी, कम्युनिस्ट, नक्सवादी, लिबरल और वामपंथी वगैरह के अर्थ नहीं जानते। अक्सर सबको एक मानकर चलते हैं। सामाजिक जीवन से जुड़े वकील, अध्यापक, साहित्यकार या दूसरे कार्यकर्ता काफी खुले तरीके से सोचते हैं। क्या उनकी राजनीतिक असहमतियों को देश-द्रोह का दर्जा देना चाहिए? इस मामले के कुछ पहलुओं की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हो रही है। जिस बेंच में सुनवाई हो रही है उसके एक सदस्य जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा है, ‘असहमति, लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है। असहमति को अनुमति नहीं दी गई तो प्रेशर कुकर फट सकता है।’

पिछले 71 वर्षों में भारतीय लोकतंत्र ऐसे सेफ्टी वॉल्वों की वजह से सुरक्षित है। इसमें राष्ट्र-राज्य की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। क्या वर्तमान राजनीतिक सत्ता-प्रतिष्ठान के फैसले चरमपंथी हैं? क्या उसके पहले के सत्ता-प्रतिष्ठान की रीति-नीति फर्क थी? इस चर्चा के दौरान तथ्य सामने आएंगे। जिनके आधार पर हमें आमराय बनाने का मौका मिलेगा। लोकतांत्रिक विकास का यह भी एक दौर है। जरूरी है कि इस बहस को राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ाएं।

Friday, May 20, 2011

बुनियाद के पत्थरों को डरना क्या



चुनाव परिणाम आते ही पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि करके केन्द्र सरकार ने राजनैतिक नासमझी का परिचय दिया है। पेट्रोल कम्पनियों के बढ़ते घाटे की बात समझ में आती है, पर इतने दिन दाम बढ़ाए बगैर काम चल गया तो क्या कुछ दिन और रुका नहीं जा सकता था? इसका राजनैतिक फलितार्थ क्या है? यही कि वामपंथी पार्टियाँ इसका विरोध करतीं थीं। वे हार गईं। अब मार्केट फोर्सेज़ हावी हो जाएंगी।  इधर दिल्ली में मदर डेयरी ने दूध की कीमतों में दो रुपए प्रति लिटर की बढ़ोत्तरी कर दी। उसके पन्द्रह दिन पहले अमूल ने कीमतें बढ़ाईं थीं। इस साल खरबूजे 30 रुपए, आम पचास रुपए, तरबूज पन्द्रह रुपए और सेब सौ रुपए के ऊपर चल रहे हैं। ककड़ी और खीरे भी गरीबों की पहुँच से बाहर हैं।

Friday, March 25, 2011

नाच सही या आँगन टेढ़ा



सन 1957 के आम चुनाव राष्ट्रीय-पुनर्गठन के बाद हुए थे। केरल का जन्म भी उसी दौरान हुआ था। उस प्रदेश की विधानसभा का वह पहला चुनाव था। प्रदेश की 126 सीटों में से कम्युनिस्ट पार्टी 60 में जीती। कांग्रेस को 43, प्रजा समाजवादी पार्टी को 9 और निर्दलीय उम्मीदवारों को 15 सीटें मिलीं। पाँच निर्दलीय उम्मीदवारों की मदद से ईएमएस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में दुनिया की पहली लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई कम्युनिस्ट सरकार सामने आई। कांग्रेस पार्टी इस अपमान को सहन नहीं कर पाई और बहुत जल्द इस सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। सरकार रही न रही, पर उसका बनना एक महत्वपूर्ण घटना थी। देश के आकाश पर लाल झंडा इसके बाद कई बार लहराया। खासतौर से बंगाल में 34 साल तक सरकार चलाकर वामपंथियों ने दूसरे किस्म का रिकॉर्ड बनाया, जो भारतीय राजनीति में ही नहीं दुनिया की राजनीति में अतुलनीय है।