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Sunday, May 26, 2019

क्या यह इस्लामोफोबिया है?

लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत को लेकर वैश्विक मीडिया में कहा जा रहा है कि यह ‘हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी’ की जीत है। खासतौर से मुस्लिम देशों के मीडिया में चिंताएं भी व्यक्त की गई हैं। इतना ही नहीं मोदी की इस जीत को पश्चिमी देशों में प्रचलित ‘इस्लामोफोबिया’ यानी मुसलमानों से नफरत की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जा रहा है। भारत के विश्लेषक नहीं समझ पा रहे हैं कि इसे साम्प्रदायिकता कहा जाए, राष्ट्रवाद, देश-भक्ति या वहाबी इस्लाम के विरोध में हिंदू-प्रतिक्रिया या कुछ और? यह पुलवामा और बालाकोट के कारण है या कश्मीर में चल रहे घटनाक्रम पर देश के नागरिकों की लोकतांत्रिक टिप्पणी है?

क्या हम इन सवालों से मुँह मोड़ सकते हैं? वोटरों ने इन्हें महत्वपूर्ण माना है। उसे साम्प्रदायिकता का नाम देने से बात खत्म नहीं होगी। मान लिया कि बीजेपी की कोशिश वोटरों को भरमा कर वोट लेने तक सीमित है, पर भरमाया किसी उस बात पर ही जा सकता है, जिसके पीछे कोई आधार हो। वोटर को जरूर कुछ बातें परेशान करती हैं, तभी वह इतना खुलकर सामने आया है। सच है कि दुनियाभर में चरम राष्ट्रवाद की हवाएं बहने लगी है। पर क्यों? यह क्रिया की प्रतिक्रिया भी है। दुनिया को समझदार बनाने की कोशिशें करनी होंगी। आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, पर दुनिया में धर्म के नाम पर जितनी खूँरेजी हुई है, वह सामान्य नहीं है।

समझदारी के उदाहरण भी हमारे सामने हैं। गत 15 मार्च को न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर की दो मस्जिदों में हुए हत्याकांड ने दो तरह के संदेश एकसाथ दुनिया को दिए। इस घटना ने गोरे आतंकवाद के नए खतरे की ओर दुनिया का ध्यान खींचा था, वहीं न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने जिस तरह से अपने देश की मुस्लिम आबादी को भरोसा दिलाया, उसकी दुनियाभर में तारीफ हुई। यकीनन मुम्बई हमले के बाद पाकिस्तान सरकार ने लश्करे तैयबा के खिलाफ कार्रवाई की होती, तो भारत के लोगों के मन में इतनी कुंठा नहीं होती।