अमेरिका में चुनाव के बाद पहली बार डोनाल्ड ट्रंप कुछ भाषणों और ट्वीटों से संकेत मिला है कि उन्होंने अपनी हार भले ही न स्वीकार की हो, पर यह मान लिया है कि अगली सरकार उनकी नहीं होगी। अलबत्ता उन्होंने यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि अगली सरकार किसकी होगी। बहरहाल उन्होंने जो बिडेन का नाम नहीं लिया। ट्रंप की पराजय क्यों हुई और वे हार नहीं मान रहे हैं, तो इसके पीछे कारण क्या हैं, ऐसे विषयों को छोड़कर हमें आगे बढ़ना चाहिए।
अब यह देखने का वक्त है कि डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बिडेन की नीतियाँ क्या होंगी। और यह भी कि वे भारतीय नजरिए से कैसे राष्ट्रपति साबित होंगे। साबित होंगे या नहीं, यह बाद में पता लगेगा, पर वे पहले से भारत के मित्र माने जाते हैं। बराक ओबामा के कार्यकाल में जो बिडेन उपराष्ट्रपति थे और भारत के साथ अच्छे रिश्ते बनाने के जबर्दस्त समर्थक। उन्होंने पहले सीनेट की विदेशी मामलों की समिति के अध्यक्ष के रूप में और बाद में उपराष्ट्रपति के रूप में भारत-समर्थक नीतियों को आगे बढ़ाया। उपराष्ट्रपति बनने के काफी पहले सन 2006 में उन्होंने कहा था, ‘मेरा सपना है कि सन 2020 में अमेरिका और भारत दुनिया में दो निकटतम मित्र देश बनें।’ यह सपना अब पूरा हो रहा है।
कहना मुश्किल है
कि जो बिडेन घरेलू नीतियों के संदर्भ में कितने सफल होंगे, पर उनका वैश्विक अनुभव बहुत अच्छा है। सन 1972 में वे सीनेट में पहली बार चुने गए थे। तबसे सन 2009 में उपराष्ट्रपति बनने तक वे दो बार सीनेट की विदेश संबंध
समिति के सभापति रहे। उन्होंने दुनियाभर का भ्रमण किया। उनकी वैश्विक समझ बहुत
अच्छी है। वैश्विक मामलों में वे इस समय अमेरिका के सबसे अनुभवी राजनेताओं में एक
हैं।
हम मानें या न
मानें अमेरिका की वैश्विक भूमिका है। वहाँ के राष्ट्रपति की आंतरिक नीतियाँ जितनी
महत्वपूर्ण होती हैं, उतनी ही महत्वपूर्ण उसकी विदेश-नीति होती है। जो बिडेन की
विजय के बाद अमेरिकी पत्रिका ‘न्यूयॉर्कर’ में रॉबिन राइट ने अपने
लेख में पेरिस की पहली महिला मेयर एन हिडाल्गो के ट्वीट को उधृत किया है, ‘अमेरिका की वापसी का स्वागत है।’
पिछले चार साल
में अमेरिका को लेकर दुनियाभर के देशों में खास किस्म की वितृष्णा जन्म ले रही थी।
इस आलेख में लेखक ने लंदन के रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स या चैटम हाउस
के निदेशक रॉबिन निबलेट ने कहा, ज्यादातर देश मुकाबले
ट्रंप के बिडेन से ज्यादा खुश रहेंगे। यहाँ तक कि जापान भी जो, उनके करीब होने का प्रदर्शन करता था। ट्रंप की अनिश्चितता
और धौंसपट्टी के उनके अंदाज की वजह से उनके प्रति गहरी वितृष्णा लोगों में है।
फिर भी ट्रंप ने
सब गलतियाँ ही नहीं की हैं। अमेरिका के प्रतिष्ठित थिंकटैंक कौंसिल ऑन फॉरेन
रिलेशंस के अध्यक्ष रिचर्ड हास ने कौंसिल की पत्रिका फॉरेन अफेयर्स में लिखा है, चीन की कारोबारी नीतियों पर सवाल उठाकर, यूक्रेन को घातक हथियार देकर, कनाडा और
मैक्सिको के साथ व्यापारिक समझौते करके और इसरायल तथा अरब देशों के बीच रिश्तों को
सामान्य बनाकर ट्रंप ने अच्छे काम भी किए हैं।
बहरहाल पिछले चार
साल में जिस तरह ‘अमेरिका फर्स्ट’ के चक्कर में अमेरिका ने दुनिया की तरफ देखना
बंद कर दिया था, वह दौर खत्म होगा। अटलांटिक पार यूरोप के साथ
बेहतर रिश्तों की वापसी होगी। जिन अंतरराष्ट्रीय संधियों-समझौतों से ट्रंप ने हाथ
खींच लिया था, उनकी वापसी भी हो सकती है। जैसे कि जलवायु
परिवर्तन को लेकर 2015 की पेरिस संधि। कोविड-19 के इस दौर में ट्रंप ने जिस तरह झटके से विश्व स्वास्थ्य
संगठन का साथ छोड़ा था, शायद वह फैसला भी बदलेगा।
रूस के साथ
शस्त्र नियंत्रण संधि न्यू स्टार्ट को बिडेन और आगे बढ़ाने पर सहमत हो सकते हैं, जिसकी अवधि आगामी फरवरी में खत्म हो रही है। वे ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और रूस तथा चीन के
साथ मिलकर ईरान के साथ हुए न्यूक्लियर डील को फिर से शुरू कर सकते हैं। इस डील की
बात 2015 में हुई थी, जिसे 2018 में ट्रंप ने मंजूरी नहीं दी। देखना यह भी होगा कि रूस के
साथ उनके रिश्ते किस तरह के बनेंगे। ट्रंप के रिश्ते इसरायली प्रधानमंत्री
बेंजामिन नेतन्याहू के साथ बहुत अच्छे थे। ट्रंप ने नेतन्याहू की कई अभिलाषाओं को
पूरा किया। क्या बिडेन भी उसी रास्ते पर जाएंगे? बिडेन की विजय पर
नेतन्याहू के ट्वीट में बहुत गर्मजोशी देखी जा कती है।
बिडेन को अपनी
नीतियों के प्रतिपादन के लिए प्रतिनिधि सदन और सीनेट के समर्थन की जरूरत भी होगी।
फिलहाल प्रतिनिधि सदन में डेमोक्रेटिक पार्टी को बहुमत मिल गया है, पर सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी बेहतर है। 5 जनवरी को जॉर्जिया की दो सीटों का फैसला होना है।
डेमोक्रेटिक पार्टी को हद से हद दोनों सीटें मिल भी गईं तो सदन में दोनों पक्षों
की संख्या 50-50 हो जाएगी। लगता है कि सीनेट पर अभी रिपब्लिकन
का बहुमत रहेगा, जो बिडेन के लिए शुभ नहीं।
भारत की दृष्टि
से हमारे पास कुछ पुराने प्रसंग हैं। उन्होंने 2006 में जब भारत को लेकर अपने सपने
का जिक्र किया था, तब न्यूक्लियर डील पर बातचीत चल रही थी और बराक ओबामा
राष्ट्रपति नहीं बने थे, बल्कि सीनेटर थे। ओबामा
के मन में डील को लेकर हिचक थी। ऐसे में बिडेन ने सीनेट में डेमोक्रेट और
रिपब्लिकन पार्टियों के सदस्यों को साथ लेकर 2008 में अमेरिकी संसद से
न्यूक्लियर डील के प्रस्ताव को पास कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
उपराष्ट्रपति
बनने के बाद बिडेन ने भारत-अमेरिका भागीदारी का जबर्दस्त समर्थन किया। उसी दौरान
अमेरिका ने आधिकारिक रूप से माना कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का
स्थायी सदस्य बनाया जाना चाहिए। ओबामा-बिडेन सरकार ने ही भारत को अपनी संसद से
‘मेजर डिफेंस पार्टनर’ दर्ज दिलवाया। वह पहला मौका था, जब अमेरिका ने अपने परंपरागत मित्र देशों के दायरे से बाहर
निकल कर किसी देश को यह दर्जा दिया था।
सन 2016 में जब ओबामा प्रशासन का कार्यकाल खत्म होने वाला था, दोनों देशों ने ‘लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट
(लेमोआ)’ पर दस्तखत किए थे। रक्षा संबंधों के लिहाज से यह बुनियादी समझौता था।
लेमोआ के बाद दोनों देशों के बीच कोमकासा और बेका समझौते हुए हैं, जिनकी पृष्ठभूमि ओबामा-बिडेन सरकार ने डाली थी। ओबामा और
बिडेन ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत का साथ दिया था। बिडेन की प्रचार
सामग्री में कहा गया है कि दक्षिण एशिया में आतंकवाद और सीमा-पार आतंकवाद को कत्तई
माफ नहीं किया जाएगा। इसमें पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद शब्द नहीं है, पर आशा है कि जब भारत-पाकिस्तान रिश्तों के संदर्भ में बात
होगी, तब उनके प्रशासन का वही रुख होगा, जो अतीत में रहा है।
हमारे और अमेरिका
के रिश्ते जितने महत्वपूर्ण होते हैं, उतने ही महत्वपूर्ण
अमेरिका और पाकिस्तान के हैं। पाकिस्तान खुद को चीन का ‘आयरन फ्रेंड’ मानता है, पर अमेरिका का पल्लू भी पकड़ कर रखता है। अमेरिका को भी
पाकिस्तान की जरूरत है। अफगानिस्तान पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए वह
पाकिस्तान का इस्तेमाल करता है।
पाकिस्तान की
दिलचस्पी अमेरिका में इस समय दो और कारणों से है। उसकी देनदारी बहुत ज्यादा है। उसे विश्व बैंक
की सहायता चाहिए, जिसमें अमेरिका की महत्वपूर्ण भूमिका है। फिर
पाकिस्तान पर एफएटीएफ की काली छाया है। उसे फरवरी तक का समय मिला है। ओबामा
प्रशासन के दौर में भी पाकिस्तान को ‘ग्रे सूची’ में डाला गया था। वह 2012 से 2015 तक इस सूची में रहा। उस
समय ओबामा के साथ उपराष्ट्रपति जो बिडेन थे,
इसलिए उसे कई तरह
के अंदेशे हैं।
बिडेन की जीत के
बाद तमाम देशों के नेताओं ने उन्हें बधाई-संदेश भेजे हैं। पाकिस्तान के इमरान खान
का संदेश कुछ अलग है। इमरान ने अपने संदेश में कहा है, मैं आपके साथ मिलकर अवैध
‘टैक्स हेवन’ खत्म करना चाहता हूँ। यह बात मार्के की है। इमरान को आज टैक्स हेवन
देशों की फिक्र हो रही है, जबकि उसके मनी लाउंडरिंग कानून एफएटीएफ की जाँच के
दायरे में हैं।
अमेरिका ने
अफगानिस्तान की समस्या को पाकिस्तान के साथ जोड़कर रखा है। ओबामा प्रशासन का कहना
था कि अफगानिस्तान में स्थिरता कायम करना पाकिस्तान की जिम्मेदारी है, क्योंकि अस्थिरता के लिए वह जिम्मेदार है। ट्रंप भी कमोबेश
इसी नीति पर चले, पर व्यक्तिगत रूप से उनकी भूमिका अटपटी रही। कश्मीर के संदर्भ
में उन्होंने बार-बार कहा मैं मध्यस्थता करने को तैयार हूँ। भारत हर बार नामंजूर
करता रहा। उन्होंने अफगानिस्तान के विकास कार्यों में भारतीय सहायता का मजाक भी
उड़ाया।
भारत को ज्यादा
चिंता मानवाधिकारों को लेकर होगी। पिछले साल अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद बिडेन ने कश्मीर में
मानवाधिकार को लेकर भारतीय नीतियों की आलोचना की थी। उस समय वे विरोधी दल के नेता
थे। देखना होगा कि अब राष्ट्रपति बनने के बाद क्या वे उसी स्वर में बात करेंगे? उपराष्ट्रपति कमला हैरिस मानवाधिकारों की जबर्दस्त समर्थक
हैं।
एंटनी ब्लिंकेन बनेंगे बिडेन के विदेश मंत्री?
https://thewire.in/diplomacy/joe-biden-narendra-modi-india-us-relations
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