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Thursday, September 14, 2023

हिंदी का विस्तार और आपकी भूमिका


हर साल हम 14 सितंबर को हिंदी दिवस का समारोह मनाते हैं। हालांकि यह हिंदी के सरकारीकरण का दिन है, फिर भी बड़ी संख्या में लोगों का अपनी भाषा से प्रेम इस बहाने व्यक्त होता है। खासतौर से सरकारी दफ्तरों में तमाम लोग हिंदी के काम को व्यक्तिगत प्रयास से और बड़े उत्साह के साथ करते हैं। बेशक वाचिक भाषा के रूप में हिंदी का विस्तार हुआ है। यानी कि मनोरंजन, खेल और राजनीति की भाषा वह बनी है। वह पैन इंडियन भाषाभी बन गई है। मतलब मुंबइया, कोलकाता, बेंगलुरु और हैदराबादी हिंदी की शैलियाँ बनती जा रही हैं। पर ज्ञान-विज्ञान की भाषा के रूप में उसका वैसा विकास नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए। हमें सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों नहीं हुआ।

खबरिया और मनोरंजन चैनलों की वजह से हिंदी जानने वालों की तादाद बढ़ी है। हिंदी सिनेमा की वजह से तो वह थी ही। सच यह भी है कि हिंदी की आधी से ज्यादा ताकत गैर-हिंदी भाषी जन के कारण है। गुजराती, मराठी, पंजाबी, बांग्ला और असमिया इलाकों में हिंदी को समझने वाले काफी पहले से हैं। भारतीय राष्ट्रवाद को विकसित करने में हिंदी की भूमिका को सबसे पहले बंगाल से समर्थन मिला था। 1875 में केशव चन्द्र सेन ने अपने पत्र ’सुलभ समाचार’ में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने की बात उठाई थी।

बंकिम चन्द्र चटर्जी भी हिंदी को ही राष्ट्रभाषा मानते थे। महात्मा गांधी गुजराती थे, फिर भी दक्षिण अफ्रीका से उन्होंने अंग्रेजी में अपना अखबार निकाला, तो उसमें हिंदी, तमिल और गुजराती को भी जगह दी। दो पीढ़ी पहले के हिंदी के श्रेष्ठ पत्रकारों में अमृत लाल चक्रवर्ती, माधव राव सप्रे, बाबूराव विष्णु पराडकर, लक्ष्मण नारायण गर्दे, सिद्धनाथ माधव आगरकर और क्षितीन्द्र मोहन मित्र जैसे अहिंदी भाषी थे।

जैसे-जैसे हिंदी का विस्तार हो रहा है, उसके अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं। दक्षिण के लोगों को भी समझ मे आ गया है कि बच्चों के बेहतर करिअर के लिए हिंदी का ज्ञान भी ज़रूरी है। इसलिए नहीं कि हिंदी में काम करना है। इसलिए कि हिंदी इलाके में नौकरी करनी है तो उधर की भाषा का ज्ञान होना ही चाहिए। हिंदी की जानकारी होने से एक फायदा यह होता है कि किसी तीसरी भाषा के इलाके में जाएं और वहाँ अंग्रेजी जानने वाला भी न मिले तो हिंदी की मदद मिल जाती है। पर राजनीतिक कारणों से उसका विरोध भी होता है।

हिंदी को आज पूरे देश का स्नेह मिल रहा है और उसे पूरे देश को जोड़ पाने वाली भाषा बनने के लिए जिस खुलेपन की ज़रूरत है, वह भी उसे मिल रहा है। यानी भाषा में शब्दों, वाक्यों और मुहावरों के प्रयोगों को स्वीकार किया जा रहा है। पाकिस्तान को और जोड़ ले तो हिंदी या उर्दू बोलने-समझने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। यह इस भाषा की ताकत है।

Tuesday, September 14, 2010

मस्ती और मनोरंजन की हिन्दी


1982 में दिल्ली में हुए एशिया खेलों के उद्घाटन समारोह में टीमों का मार्च पास्ट हिन्दी के अकारादिक्रम से हुआ था। इस बार कॉमनवैल्थ खेलों में भी शायद ऐसा हो। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समारोहों में विमर्श की भाषा भले ही अंग्रेजी होती हो, पृष्ठभूमि पर लगे पट में हिन्दी के अक्षर भी होते हैं। ऐसा इसलिए कि इस देश की राजभाषा देवनागरी में लिखी हिन्दी है। हमें खुश रखने के लिए इतना काफी है। 14 सितम्बर के एक हफ्ते बाद तक सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के दफ्तरों में हिन्दी दिवस मनाया जाता है। सरकारी दफ्तरों में तमाम लोग हिन्दी के काम को व्यक्तिगत प्रयास से और बड़े उत्साह के साथ करते हैं। और अब दक्षिण भारत में भी हिन्दी का पहले जैसा विरोध नहीं है। दक्षिण के लोगों को समझ मे आ गया है कि बच्चों के बेहतर करिअर के लिए हिन्दी का ज्ञान भी ज़रूरी है। इसलिए नहीं कि हिन्दी में काम करना है। इसलिए कि हिन्दी इलाके में नौकरी करनी है तो उधर की भाषा का ज्ञान होना ही चाहिए। हिन्दी की जानकारी होने से एक फायदा यह होता है कि किसी तीसरी भाषा के इलाके में जाएं और वहाँ अंग्रेजी जानने वाला भी न मिले तो हिन्दी की मदद मिल जाती है।

खबरिया और मनोरंजन चैनलों की वजह से भी हिन्दी जानने वालों की तादाद बढ़ी है। हिन्दी सिनेमा की वजह से तो वह थी ही। हमें इसे स्वीकार करना चाहिए कि हिन्दी की आधी से ज्यादा ताकत गैर-हिन्दी भाषी जन के कारण है। गुजराती, मराठी, पंजाबी, बांग्ला और असमिया इलाकों में हिन्दी को समझने वाले काफी पहले से हैं। भारतीय राष्ट्रवाद को विकसित करने में हिन्दी की भूमिका को सबसे पहले बंगाल से समर्थन मिला था। सन 1875 में केशव चन्द्र सेन ने अपने पत्र सुलभ समाचार में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने की बात उठाई। बंकिम चन्द्र चटर्जी भी हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा मानते थे। महात्मा गांधी गुजराती थे। दो पीढ़ी पहले के हिन्दी के श्रेष्ठ पत्रकारों में अमृत लाल चक्रवर्ती, माधव राव सप्रे, बाबूराव विष्णु पराडकर, लक्ष्मण नारायण गर्दे, सिद्धनाथ माधव आगरकर और क्षितीन्द्र मोहन मित्र जैसे अहिन्दी भाषी थे।

हिन्दी को आज पूरे देश का स्नेह मिल रहा है और उसे पूरे देश को जोड़ पाने वाली भाषा बनने के लिए जिस खुलेपन की ज़रूरत है, वह भी उसे मिल रहा है। यानी भाषा में शब्दों, वाक्यों और मुहावरों के प्रयोगों को स्वीकार किया जा रहा है। पाकिस्तान को और जोड़ ले तो हिन्दी या उर्दू बोलने-समझने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। यह इस भाषा की ताकत है। हिन्दी का यह विस्तार उसे एक धरातल पर ऊपर ले गया है, पर वह उतना ही है, जितना कहा गया है। यानी बोलने, सम्पर्क करने, बाजार से सामान या सेवा खरीदने, मनोरंजन करने की भाषा। विचार-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और साहित्यिक हिन्दी का बाजार छोटा है। 

बांग्ला, मराठी, तमिल, मलयालम या दूसरी अन्य भाषाओं का राष्ट्रवाद अपनी भाषा को बिसराने की सलाह नहीं देता। हिन्दी का अपना राष्ट्रवाद उतना गहरा नहीं है। ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और सामान्य ज्ञान के विषयों की जानकारी के लिए अंग्रेजी का सहारा है। हिन्दी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं का पाठक विचार-विमर्श के लिए अपनी भाषा को छोड़ना नहीं चाहता। आनन्द बाज़ार पत्रिका और मलयाला मनोरमा बंगाल और केरल के ज्यादातर घरों में जाते हैं। अंग्रेजी अखबारों के पाठक यों तो चार या पाँच महानगरों में केन्द्रित हैं, पर मराठी, तमिल, बांग्ला और कन्नड़ परिवार में अंग्रेजी अखबार के साथ अपनी भाषा का अखबार भी आता है। हिन्दी शहरी पाठक का हिन्दी अखबार के साथ वैसा जुड़ाव नहीं है। एक ज़माने तक हिन्दी घरों में धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, पराग, नन्दन और सारिका जैसी  पत्रिकाएं जातीं थीं। उनके सहारे पाठक अपने लेखकों से जुड़ा था। ऊपर गिनाई सात पत्रिकाओं में से पाँच बन्द हो चुकी हैं। बांग्ला का देश बन्द नहीं हुआ, तमिल का आनन्द विकटन बन्द नहीं हुआ। हिन्दी क्षेत्र का शहरी पाठक अंग्रेजी अखबार लेता है रुतबे के लिए। बाकी वह कुछ नहीं पढ़ता। टीवी देखता है,  पेप्सी या कोक पीता है, पीत्ज़ा खाता है। वह अपवार्ड मोबाइल है। 

हिन्दी का इस्तेमाल हम जिन कामों के लिए करते हैं उसके लिए जिस हिन्दी की ज़रूरत है, वह बन ही रही है। उसमें आसान और आम शब्द आ रहे हैं। पर हिन्दी दिवस हम सरकारी हिन्दी के लिए मनाते हैं। वह हिन्दी राष्ट्रवाद का दिवस नहीं है। इसे समझना चाहिए हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा है। मनोरंजन के बाद हिन्दी राष्ट्र का एक और शगल है, राजनीति। लोकसभा में जब भी किसी अविश्वास प्रस्ताव पर बहस होती है सबसे अच्छे भाषण हिन्दी में होते हैं। बौद्धिकता के लिहाज से अच्छे नहीं, भावनाओं और आवेशों में। लफ्फाज़ी में। हिन्दी राष्ट्र में तर्क, विवेक और विचार की जगह आवेशों और मस्ती ने ले ली है। मुझे पिछले दिनों रेलवे की हिन्दी सलाहकार समिति की एक बैठक में भाग लेने का मौका मिला। उसमें कई वक्ताओं ने सलाह दी कि रेलवे को आसान हिन्दी का इस्तेमाल करना चाहिए। वास्तव में संज्ञान में कोई बात लाने के मुकाबले जानकारी में लाना आसान और बेहतर शब्द है। ऐसे तमाम शब्द हैं जो रेलवे के पब्लिक एड्रेस सिस्टम में इस्तेमाल होते हैं, जो सामान्य व्यक्ति के लिए दिक्कत तलब हो सकते हैं। उनकी जगह आसान शब्द होने चाहिए। उस बैठक में किसी ने रेलवे-बजट की भाषा का सवाल उठाया। उसे भी आसान भाषा में होना चाहिए। बजट को आसान भाषा में तैयार करना उतना आसान नहीं है, जितना आसान पब्लिक एनाउंसमेंट में आसान भाषा का इस्तेमाल करना है।


संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार हिन्दी देश की राजभाषा है, पर संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार ही अनन्त काल तक अंग्रेजी देश की राजभाषा के रूप में काम करती रहेगी। हिन्दी के जबर्दस्त उभार और प्रसार के बावजूद इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि केवल उसे राजभाषा बनाने के लिए एक ओर तो समूचे देश की स्वीकृति की ज़रूरत है, दूसरे उसे इस काबिल बनना होगा कि उसके मार्फत राजकाज चल सके। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में अंग्रेजी का ही इस्तेमाल होता है। ज्यादातर बौद्धिक कर्म की भाषा अंग्रेजी है। हिन्दी पुस्तकालय की भाषा नहीं है। उसे समृद्ध बनाने की ज़िम्मेदारी भारत सरकार की है। संविधान का अनुच्छेद 351 इस बात को कहता है, पर सरकार 14 से 21 सितम्बर तक हिन्दी सप्ताह मनाने के अलावा और क्या कर सकती है? तमाम फॉर्मों के हिन्दी अनुवाद हो चुके हैं। चिट्ठियाँ हिन्दी में लिखी जा रहीं हैं। दफ्तरों के दस्तावेजों में हिन्दी के काम की प्रगति देखी जा सकती है, पर वास्तविकता किसी से छिपी नहीं है। हमारा संविधान हिन्दी के विकास में ज़रूर मददगार होता बशर्ते हिन्दी का समाज अपनी भाषा की इज्जत के बारे में सोचता। 


समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित