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Thursday, July 18, 2024

खुलकर सामने आने लगा बीजेपी का यूपी-टकराव


उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार और संगठन को लेकर जो विवाद पैदा हुआ है, वह लखनऊ से अब दिल्ली पहुँच गया है। बुधवार को प्रदेश के पार्टी अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद यह स्पष्ट हो गया कि केंद्रीय नेतृत्व ने इसे गंभीरता से लिया है। इसके एक दिन पहले चौधरी और राज्य के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से भी मुलाकात की थी।

हाल में हुए लोकसभा-चुनाव में बीजेपी की सीटों की संख्या 62 से गिरकर 33 रह जाने के बाद सवाल उठ रहे हैं कि क्या संगठनात्मक कारण भी इस विफलता के पीछे रहे हैं? केशव मौर्य बार-बार यह क्यों कह रहे हैं कि संगठन, सरकार से बड़ा है, कार्यकर्ता का दर्द मेरा दर्द है, संगठन से कोई बड़ा नहीं, कार्यकर्ता ही गौरव है। इस आशय की बातें उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखी हैं और उन्हें हटाया भी है।

मीडिया स्रोतों के अनुसार केंद्रीय नेतृत्व ने मौर्य से कहा है कि उन्हें ऐसे बयानों से बचना चाहिए, जिनसे पार्टी की राजनीतिक संभावनाओं को धक्का लगे। राज्य में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिलकर अपनी स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में पार्टी संगठन स्थिति के बिगड़ने से रोकने की दिशा में सक्रिय हो गया है। उधर नकारात्मक खबरों के दबाव में सरकार ने अपने दो फैसलों को वापस ले लिया है। कुकरैल परियोजना के प्रस्तावित तोड़फोड़ को रोकने और अध्यापकों की हाजिरी को डिजिटाइज करने के फैसले।

Tuesday, April 16, 2024

बीजेपी की जीत में सबसे बड़ी भूमिका उत्तर भारत की होगी


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 17वीं लोकसभा के अंतिम सत्र में खड़े होकर आत्मविश्वास के साथ कहा, अबकी बार 400 पार। अकेले बीजेपी को 370 सीटें मिलेंगी और एनडीए गठबंधन चार सौ का आँकड़ा पार करेगा। ज्यादातर पर्यवेक्षकों की और चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों की राय है कि इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी एकबार फिर से जीतकर आने वाली है। भारतीय राजनीति के गणित को समझना बहुत सरल नहीं है। फिर भी करन थापर और रामचंद्र गुहा जैसे अपेक्षाकृत भाजपा से दूरी रखने वाले टिप्पणीकारों को भी लगता है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार तीसरी बार बन सकती है।

कुछ पर्यवेक्षक इंडिया गठबंधन की ओर देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि भाजपा जीत भी जाए, पर इंडिया गठबंधन के कारण यह जीत उतनी बड़ी नहीं होगी, जैसा दावा किया जा रहा है। पर समय के साथ यह गठबंधन गायब होता जा रहा है।  पंजाब, पश्चिम बंगाल, असम, केरल और जम्मू-कश्मीर में गठबंधन के सिपाही एक-दूसरे पर तलवारें चला रहे हैं।  

मोटी राय यह है कि भारतीय जनता पार्टी की विजय में उत्तर के राज्यों की भूमिका सबसे बड़ी होगी। इन 10 राज्यों और दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख और चंडीगढ़ के केंद्र-शासित क्षेत्रों में कुल मिलाकर 245 लोकसभा सीटें हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को इनमें से 163 सीटों पर सफलता मिली थी और 29 सीटों पर उसके सहयोगी दल जीतकर आए थे। उत्तर की इस सफलता के बाद गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, असम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य हैं, जहाँ से पार्टी को बेहतर परिणाम मिलते हैं।

एनडीए और इंडिया की संरचना में फर्क है। एनडीए के केंद्र में बीजेपी है। यहाँ शेष दलों की अहमियत अपेक्षाकृत कम है। इंडिया के केंद्र में कांग्रेस है, पर उसमें परिधि के दलों का हस्तक्षेप एनडीए के सहयोगी दलों की तुलना में ज्यादा है। जेडीयू और  तृणमूल अब अलग हैं और केरल में वामपंथी अलग। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का और बिहार में राजद का दबाव कांग्रेस पर रहेगा। हालांकि कांग्रेस ने दोनों राज्यों में क्रमशः 17 और 9 सीटें हासिल कर ली हैं, पर उसका स्ट्राइक रेट चिंता का विषय है।

गणित और रसायन

इंडिया गठबंधन ने उस गणित को गढ़ने का प्रयास किया है, जिसके सहारे बीजेपी के प्रत्याशियों के सामने विरोधी दलों का एक ही प्रत्याशी खड़ा हो। पर अभी तक यह सब हुआ नहीं है। मोटे तौर पर यह वन-टु-वन का गणित है। यानी बीजेपी के प्रत्याशियों के सामने विपक्ष का एक प्रत्याशी। हालांकि ऐसा हुआ नहीं है, फिर भी कल्पना करें कि बीजेपी को देशभर में 40 फीसदी तक वोट मिलें, तो क्या शेष 60 प्रतिशत वोट बीजेपी-विरोधी होंगे?

2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा गठबंधन इसी गणित के आधार पर हुआ था, जो फेल हो गया। सपा-बसपा गठजोड़ के पहले 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठजोड़ भी विफल रहा था। 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा, रालोद, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा), महान दल और जनवादी पार्टी (समाजवादी) का गठबंधन आंशिक रूप से सफल भी हुआ, पर वह गठजोड़ अब नहीं है। ऐसा कोई सीधा गणित नहीं है कि पार्टियों की दोस्ती हुई, तो वोटरों की भी हो जाएगी।

Tuesday, January 24, 2023

मुसलमानों के करीब जाने के भाजपा-प्रयास


करीब दो दशक तक मुसलमानों की नाराजगी का केंद्र बने नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी बीजेपी ने मुसलमानों के साथ जुड़ने की कोशिशें शुरू की हैं। इंडियन एक्सप्रेस की संवाददाता लिज़ मैथ्यूस ने खबर दी है कि पार्टी ने 60 ऐसी लोकसभा सीटों को छाँटा है, जहाँ 2024 के चुनाव में मुसलमान-प्रत्याशियों को आजमाया जा सकता है। ऐसी खबरें काफी पहले से हवा में हैं कि बीजेपी ने पसमांदा मुसलमानों को आकर्षित करने का फैसला किया है। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक केवल पसमांदा ही नहीं मुसलमानों के कुछ दूसरे वर्गों को पार्टी ने अपने साथ जोड़ने का प्रयास शुरू किया है। पार्टी फिलहाल इसके सहारे बड़ी संख्या में वोट पाने या सफलता पाने की उम्मीद नहीं कर रही है, बल्कि यह मुसलमानों के बीच भरोसा पैदा करने और अपने हमदर्दों को तैयार करने का प्रयास है।

नरेंद्र मोदी ने हाल में दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कहा कि पार्टी के नेताओं को मुसलमानों के प्रति अभद्र टिप्पणी करने से बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि देश में कई समुदाय भाजपा को वोट नहीं देते हैं, लेकिन इसके बाद भी उन्हें (भाजपा कार्यकर्ताओं को) उनके प्रति नफरत नहीं दिखानी चाहिए, बल्कि बेहतर तालमेल स्थापित कर बेहतर व्यवहार बनाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने मुसलमानों में पसमांदा और बोहरा समुदाय के लोगों के ज्यादा करीब जाने की बात भी कही।

पर्यवेक्षक मानते हैं कि बीजेपी अब स्थायी ताकत के रूप में उभर रही है। उसका प्रयास अब अपने सामाजिक आधार को बढ़ाने का है। इसके पहले प्रधानमंत्री ने हैदराबाद कार्यकारिणी में भी कुछ इसी तरह की बात कही थी। यह सवाल अपनी जगह है कि नरेंद्र मोदी को इस तरह का बयान क्यों देना पड़ा, और क्या उनके इन बयानों के बाद मुसलमानों के प्रति भाजपा नेताओं के नफरती बयानों में कमी आएगी?

मुसलमानों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार की इस नसीहत के पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा कि हिंदू समाज हजारों साल से गुलाम रहा है, अब उसमें जागृति आ रही है। इस वजह से कभी-कभी हिंदू समुदाय की ओर से आक्रामक व्यवहार दिखाई पड़ता है। उन्होंने इसे ठीक तो नहीं बताया, लेकिन परोक्ष रूप से इस बात का समर्थन किया कि हिंदू समुदाय का यह आक्रोश इतिहास को देखते हुए सही है। कुछ लोग इन दोनों बातों को एक-दूसरे के विपरीत मान रहे हैं।

Sunday, July 24, 2022

इतिहास का सुनहरा अध्याय द्रौपदी मुर्मू


देश के 15वें राष्ट्रपति के रूप में श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक है। जनजातीय समाज से वे देश की पहली राष्ट्रपति बनने जा रही हैं। इसके अलावा वे देश की दूसरी महिला राष्ट्रपति होंगी। उनकी विजय भारतीय राजनीति और समाज की भावी दिशा की ओर इशारा कर रही है। हमारा लोकतंत्र वंचित और हाशिए के समाज को बढ़ावा दे रहा है। और यह भी कि सामाजिक रूप से पिछड़े और गरीब तबकों के बीच प्रतिभाशाली राजनेता, विचारक, अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक, लेखक, कलाकार और खिलाड़ी मौजूद हैं, जो देश का नाम ऊँचा करेंगे। उन्हें बढ़ने का मौका दीजिए।

जबर्दस्त समर्थन

यह चुनाव राजनीतिक-स्पर्धा भी थी। जिस तरह से उन्हें विरोधी सांसदों और विधायकों के वोट मिले हैं, उससे भी देश की भावना स्पष्ट होती है। उनकी उम्मीदवारी का 44 छोटी-बड़ी पार्टियों ने समर्थन किया था, पर ज्यादा महत्वपूर्ण है, विरोधी दलों की कतार तोड़कर अनेक सांसदों और विधायकों का उनके पक्ष में मतदान करना। भारतीय राज-व्यवस्था में यह अलग किस्म की बयार है। तमाम मुश्किलों और मुसीबतों का सामना करते हुए देश के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने वाली इस महिला को देश ने जो सम्मान दिया है, वह अतुलनीय है।

मास्टर-स्ट्रोक

राजनीतिक दृष्टि से यह चुनाव बीजेपी का मास्टर-स्ट्रोक साबित हुआ है। जैसे ही द्रौपदी मुर्मू का नाम सामने आया, पूरे देश ने उनके नाम का स्वागत किया। इसका प्रमाण और इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है क्रॉस वोटिंग। सबसे अधिक क्रॉस वोटिंग असम में हुई। असम में 22 और मध्य प्रदेश में 19 क्रॉस वोट पड़े। 126 सदस्यीय असम विधानसभा से उन्हें 104 वोट मिले। असम विधानसभा में एनडीए के 79 सदस्य हैं। मतदान के दौरान विधानसभा के दो सदस्य अनुपस्थित भी थे। राजनीतिक दृष्टि से यह भारतीय जनता पार्टी को मिली भारी सफलता और विरोधी दलों की रणनीति की भारी पराजय है। बावजूद इस सफलता के, उन्हें मिले एकतरफा समर्थन की यह राजनीतिक-तस्वीर पूरे देश की नहीं है। चार राज्यों में उन्हें कुल वोटों की तुलना में 12.5 फीसदी या उससे भी कम वोट मिले। सबसे कम केरल में उन्हें 0.7 फीसदी मत मिले, जहां एकमात्र विधायक ने उनके पक्ष में वोट डाला। तेलंगाना में उन्हें केवल 2.6 फीसदी वोट मिले। पंजाब में 7.3 फीसदी और दिल्ली में 12.5 फीसदी। अलबत्ता तमिलनाडु में 31 फीसदी वोट मिले, जिसकी वजह अद्रमुक का समर्थन है।

विरोधी बिखराव

यह परिणाम देश की पहली महिला आदिवासी के राष्ट्रपति बनने की कहानी तो है ही, साथ ही विरोधी दलों के आपसी मतभेद और अलगाव को भी दिखाता है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर ने श्रीमती मुर्मू का समर्थन करके उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के गठबंधन की एकजुटता के लिए चुनौती पेश कर दी है। उधर तृणमूल कांग्रेस द्वारा उप राष्ट्रपति पद के चुनाव में मार्गरेट अल्वा का समर्थन न करने की घोषणा के बाद विरोधी दलों का यह बिखराव और ज्यादा खुलकर सामने आ गया है। प्रकारांतर से ममता बनर्जी श्रीमती मुर्मू का विरोध नहीं कर पाईं। उन्होंने कहा था,  हमें बीजेपी की उम्मीदवार के बारे में पहले सुझाव मिला होता, तो इस पर सर्वदलीय बैठक में चर्चा कर सकते थे। द्रौपदी मुर्मू संथाल-समुदाय से आती हैं। पश्चिम बंगाल के 70 फ़ीसदी आदिवासी संथाल हैं। उन्हें पश्चिम बंगाल के अपने आदिवासी मतदाता को यह समझाना होगा कि उन्होंने मुर्मू का समर्थन क्यों नहीं किया।

Friday, July 1, 2022

शिंदे को क्या पता था कि वे मुख्यमंत्री बनेंगे?


महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने एक तीर से कई निशाने लगाए हैं। एक, उद्धव ठाकरे को कमजोर कर दिया। पार्टी उद्धव ठाकरे को पाखंडी साबित करना चाहती है। वह बताना चाहती है कि 2019 में उद्धव ठाकरे केवल मुख्यमंत्री पद हासिल करने को लालायित थे, जिसके लिए उन्होंने चुनाव-पूर्व गठबंधन को तोड़ा और अपने वैचारिक प्रतिस्पर्धियों के साथ समझौता किया।

बीजेपी पर सरकार गिराने का जो कलंक लगा है कि उसने शिवसेना की सरकार गिराई, उसे धोने के लिए उसने शिवसेना का मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री को उनका डिप्टी बनाया है। इस प्रकार वह त्याग की प्रतिमूर्ति भी बनी आई है। फिलहाल उसकी रणनीति है कि बालासाहेब ठाकरे की विरासत का दावा करने की उद्धव ठाकरे की योजनाओं को विफल किया जाए। बालासाहेब ठाकरे ने सरकारी पद हासिल नहीं करने का जो फैसला किया था, उद्धव ठाकरे ने उसे खुद पर लागू नहीं किया। वे न केवल मुख्यमंत्री बने, बल्कि अपने बेटे को मंत्रिपद भी दिया, जिनके पास कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था।

शिंदे को पता था?

आज के इंडियन एक्सप्रेस ने एक खबर छापी है कि बीजेपी नेतृत्व ने शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का निश्चय कर रखा था और इस बात से शिंदे को शुरू में ही अवगत करा दिया गया था। पर गुरुवार की शाम शपथ ग्रहण के समय पैदा हुए भ्रम से लगता है कि देवेंद्र फडणवीस को इस बात की जानकारी नहीं थी। इस वजह से जेपी नड्डा और अमित शाह को उप-मुख्यमंत्री पद को लेकर सफाई देनी पड़ी। बीजेपी फडणवीस को भी सरकार में चाहती है, ताकि सरकार पर उसका नियंत्रण बना रहे।

फडणवीस योग्य प्रशासक हैं। उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। बीजेपी को 2024 के चुनाव के पहले अपने कई मेगा-प्रोजेक्ट पूरे करने हैं। इनमें बुलेट ट्रेन की परियोजना भी है। वे यदि सरकार से बाहर रहते, तो उनके माध्यम से सरकार चलाना उसपर नियंत्रण रखना गैर-सांविधानिक होता। उससे गलत संदेश जाता और बदमज़गी पैदा होती। पर यह भी लगता है कि उन्हें पूरी तस्वीर का पता नहीं था। इस दौरान वे दो बार दिल्ली गए और अमित शाह तथा जेपी नड्डा से उनकी मुलाकात भी हुई, पर शायद उन्हें सारी योजना का पता नहीं था। गुरुवार की शाम उन्होंने ही शिंदे को मुख्यमंत्री बनाए जाने की घोषणा की थी। उन्होंने तब कहा था कि मैं सरकार से बाहर रहूँगा। ऐसा इसीलिए हुआ होगा क्योंकि उन्हें पूरी जानकारी नहीं थी।

उनकी इस घोषणा ने राजनीतिक पंडितों को चौंका दिया था। इसके कुछ देर बाद जो कुछ हुआ, वह ज़्यादा चौंकाने वाला था। चिमगोइयाँ शुरू हो गई कि उनके पर कतरे गए हैं। फडणवीस ने उसी समय अपने एक ट्वीट से स्पष्ट किया कि मैं पार्टी का अनुशासित सिपाही हूँ। सवाल यह भी है कि उन्होंने यह क्यों कहा कि मैं सरकार में शामिल नहीं होऊँगा? क्या इस विषय पर उनका नेतृत्व के साथ संवाद नहीं हुआ था?

पारिवारिक विरासत

काफी पर्यवेक्षक मान रहे हैं कि केवल शिंदे की मदद से शिवसेना की पारिवारिक विरासत को झपटना आसान नहीं होगा। पर भारतीय राजनीति में ऐसे उदाहरण हैं, जब आक्रामक और उत्साही नेताओं ने पारिवारिक विरासत की परवाह नहीं की। 1989 में मुलायम सिंह ने चौधरी चरण सिंह की विरासत के बावजूद अजित सिंह को परास्त किया। उसके पहले 1987 में जयललिता ने एमजी रामचंद्रन की विरासत को जीता।

Thursday, June 30, 2022

लम्बी योजना का हिस्सा है शिंदे का राजतिलक


महाराष्ट्र में सत्ता-परिवर्तन में विस्मय नहीं हुआ, पर मुख्यमंत्री के रूप में एकनाथ शिंदे की नियुक्ति महत्वपूर्ण है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस बात की घोषणा की कि एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री होंगे। फडणवीस इस सरकार से बाहर रहेंगे। फडणवीस ने कहा, उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस और एनसीपी की बात को तवज्जोह दी इसलिए इन विधायकों ने आवाज़ बुलंद की। यह बग़ावत नहीं है।

पहले संभावना जताई जा रही थी कि देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री होंगे और शिंदे को उप मुख्यमंत्री का पद मिल सकता है। लेकिन फडणवीस ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में सबको चौंकाते हुए घोषणा की कि एकनाथ शिंदे बनेंगे महाराष्ट्र के सीएम। इस घोषणा के बाद पर्यवेक्षक अपने-अपने अनुमान लगा रहे हैं कि शिंदे को मुख्यमंत्री पद देने का अर्थ क्या है।

फौरी तौर पर माना जा रहा है कि इस फैसले से शिवसेना की बची-खुची ताकत को धक्का लगेगा और शायद कुछ लोग और उद्धव ठाकरे का साथ छोड़कर इधर आएं। उद्धव ठाकरे के अलावा निशाना शरद पवार भी हैं। ठाकरे के पास अब शरद पवार से जुड़े रहने का ही विकल्प है। अक्तूबर में होने वाले बृहन्मुम्बई महानगरपालिका चुनाव में बीजेपी ठाकरे की शिवसेना को हराना चाहती है। ऐसा हुआ, तो ठाकरे परिवार का वर्चस्व काफी कम हो जाएगा। अब अगली कोशिश होगी, चुनाव आयोग से असली शिवसेना का प्रमाणपत्र पाना।   

एकनाथ शिंदे ने आज उद्धव ठाकरे के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि पचास विधायक एक अलग भूमिका निभाते हैं, जिसका अर्थ है कि उन्हें आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है। शिंदे और उनके साथी लगातार कह रहे हैं कि हम शिवसेना से बाहर नहीं गए हैं, बल्कि वास्तविक शिवसेना हम ही हैं।

Wednesday, November 11, 2020

बीजेपी की रणनीतिक सफलता

बिहार के विधानसभा चुनावों के अलावा कुछ राज्यों के उप चुनावों के परिणामों के रुझान से एक स्पष्ट निष्कर्ष है कि भारतीय जनता पार्टी अपनी ताकत बढ़ाने में सफल हुई है। वह भी ऐसे मौके पर जब राज्य में 15 साल की एंटी-इनकंबैंसी है और कोरोना की महामारी ने घेर रखा है। इस सफलता ने उसकी रणनीति को धार प्रदान की है। बिहार में नीतीश के नेतृत्व को नहीं, बीजेपी को सफलता मिली है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अंतिम परिणाम नहीं आए थे, बल्कि बुधवार 11 नवंबर की सुबह तक भी चुनाव आयोग ज्यादातर क्षेत्रों में मतगणना जारी का ही संकेत दे रहा है। अलबत्ता इतना स्पष्ट हो चुका है कि एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिल गया है। यों मंगलवार की रात राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता ने परिणाम घोषित करने की प्रक्रिया को लेकर आपत्ति व्यक्त की थी। शायद वह अपनी हार की पेशबंदी थी। इस चुनाव ने बीजेपी की संगठनात्मक क्षमता का परिचय जरूर दिया है, साथ ही जेडीयू के साथ उसके कुछ अंतर्विरोधों को भी उभारा है। चिराग पासवान की पार्टी लोजपा ने अपना नुकसान तो किया ही नीतीश कुमार को भी भारी नुकसान पहुँचाया। उनकी इस रणनीति के रहस्य पर से परदा उठाने की जरूरत है। 

Tuesday, November 26, 2019

शिवसेना का राजनीतिक ‘यू-टर्न’ उसे कहाँ ले जाएगा?


महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस सरकार को अब विधानसभा में शक्ति परीक्षण को पार करना है। यदि वह उसमें सफल हुई, तब भी शासन चलाने की कई तरह की चुनौतियाँ हैं। विफल रही, तब दूसरे प्रकार के सवाल हैं। इन सबके बीच बुनियादी सवाल है कि शिवसेना का भविष्य क्या है? क्या वह भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सफल हो सकेगी? क्या उसके पास कोई स्वतंत्र विचारधारा है? क्या कांग्रेस और एनसीपी का विचारधारा के स्तर पर उसके साथ कोई मेल है? सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के बीच खड़ा हुआ विवाद क्या केवल मुख्यमंत्री पद के कारण है या शिवसेना की किसी रणनीति का अंग है?