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Wednesday, January 27, 2021

अब आंदोलन किधर जाएगा?

किसान-आंदोलन के दौरान दिल्ली में हुई की कवरेज पर नजर डालें, तो कोलकाता का टेलीग्राफ केंद्र सरकार के खिलाफ और आंदोलन के समर्थन में साफ दिखाई पड़ता है। इस आंदोलन में नक्सली और खालिस्तानी तत्वों के शामिल होने की खबरों को अभी तक अतिरंजना कहा जाता था। ज्यादातर दूसरे अखबारों ने हिंसा की भर्त्सना की है। इंडियन एक्सप्रेस ने अपने संपादकीय में लिखा है कि देश के 72वें गणतंत्र दिवस पर राजधानी में अराजक (लुम्पेन) भीड़ का लालकिले के प्राचीर से ऐसा ध्वज फहराना जो राष्ट्रीय ध्वज नहीं है, गंभीर सवाल खड़े करता है। इन सवालों का जवाब किसान आंदोलनकारियों को देना है।

संयुक्त किसान मोर्चा ने खुद को समाज-विरोधी तत्वों से अलग कर लिया है, और न्हें अवांछित करार दिया है, पर इतना पर्याप्त नहीं है। वह ट्रैक्टर मार्च के हिंसक होने पर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। इस हिंसा ने किसानों के आंदोलन को धक्का पहुँचाया है और इस आंदोलन के सबसे बड़े दावे को धक्का पहुँचाया है कि आंदोलन शालीन और शांतिपूर्ण रहा है। काफी हद तक इस नेता-विहीन आंदोलन के नेताओं ने इस रैली के पहले कहा था कि तयशुदा रास्तों पर ही मार्च होगा। ऐसा हुआ नहीं और भीड़ बेकाबू हो गई।…छह महीने पहले जबसे यह आंदोलन शुरू हुआ है, यह नेता-विहीन है। इस बात को इस आंदोलन की ताकत माना गया। पहचाना चेहरा आंदोलन के उद्देश्यों (तीन कृषि कानूनों की वापसी) पर फोकस करने का काम करता। अब मंगलवार की हिंसा के बाद आंदोलन ने अपने ऊपर इस आरोप को लगने दिया है कि यह नेता-विहीनता, दिशाहीनता बन गई है। उधर सरकार भी यह कहकर बच नहीं सकती कि हमने तो कहा था कि हिंसा हो सकती है।

Tuesday, January 26, 2021

भारतीय राष्ट्र-राज्य को चुनौती

 


यह तस्वीर भारतीय राष्ट्र-राज्य के सामने खड़े खतरे की ओर इशारा करती है। दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन के सूत्रधार कौन हैं और उनकी मंशा क्या है, इसका अनुमान मैं नहीं लगा सकता, पर आंदोलन बहुत हठी है। साथ ही मुझे समझ में आता है कि इसके पीछे कोई ताकत जरूर है। बेशक बहुसंख्यक किसान हिंसक नहीं थे, पर कुछ लोग जरूर गलत इरादों से आए थे। यह आंदोलन केंद्र सरकार के लिए जितनी बड़ी समस्या पैदा कर गया है, अब उतनी ही बड़ी समस्या अमरिंदर सिंह की पंजाब सरकार के सामने खड़ी होगी। लालकिले पर झंडा लगाना मोटे तौर अपराध है, पर तिरंगे का अपमान ज्यादा बड़ा अपराध है।

Thursday, February 27, 2020

दिल्ली की हिंसा: पहले सौहार्द फिर बाकी बातें


दिल्ली की हिंसा को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शांति की अपील की है. अपील ही नहीं नेताओं की जिम्मेदारी बनती है कि वे इस इलाके में जाकर जनता के विश्वास को कायम करें. शनिवार से जारी हिंसा के कारण मरने वालों की संख्या 20 हो चुकी है. इनमें एक पुलिस हैड कांस्टेबल शामिल है. दिल्ली पुलिस के एक डीसीपी गंभीर रूप से घायल हुए हैं. कहा जा रहा है कि दिल्ली में 1984 के दंगों के बाद इतने बड़े स्तर पर हिंसा हुई है. यह हिंसा ऐसे मौके पर हुई है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के दौरे पर आए हुए थे और एक दिन वे दिल्ली में भी रहे.
हालांकि हिंसा पर काफी हद तक काबू पा लिया गया है, पर उसके साथ कई तरह के सवाल उठे हैं. क्या पुलिस के खुफिया सूत्रों को इसका अनुमान नहीं था? क्या प्रशासनिक मशीनरी के सक्रिय होने में देरी हुई? सवाल यह भी है कि आंदोलन चलाने वालों को क्या इस बात का अनुमान नहीं था कि उनकी सक्रियता के विरोध में भी समाज के एक तबके के भीतर प्रतिक्रिया जन्म ले रही है? यह हिंसा नागरिकता कानून के विरोध में खड़े हुए आंदोलन की परिणति है. आंदोलन चलाने वालों को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है, पर उसकी भी सीमा रेखा होनी चाहिए.