Wednesday, July 24, 2024

बांग्लादेश का छात्र-आंदोलन यानी खतरे की घंटी


बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी नौकरियों के आरक्षण में भारी कटौती करके देश में लगी हिंसा की आग को काफी हद तक शांत कर दिया है. अलबत्ता इस दौरान बांग्लादेश की विसंगतियाँ भी उजागर हुई हैं. इस अंदेशे की पुष्टि भी कि देश में ऐसी ताकतें हैं, जो किसी भी वक्त सक्रिय हो सकती हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने कोटा बहाली पर हाईकोर्ट के 5 जून के आदेश को खारिज करते हुए आरक्षण को पूरी तरह खत्म जरूर नहीं किया है, पर उसे 54 फीसदी से घटाकर केवल 7 फीसदी कर दिया है. अदालत ने कहा है कि सरकारी नौकरियों में 93 फीसदी भर्ती योग्यता के आधार पर होगी.

शेष सात में से पाँच प्रतिशत मुक्ति-योद्धा कोटा, एक प्रतिशत अल्पसंख्यक कोटा और एक प्रतिशत विकलांगता-तृतीय लिंग कोटा होगा. सरकार चाहे तो इस कोटा को बढ़ा या घटा सकती है.

अदालत में छात्रों का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील शाह मंजरुल हक़ ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 104 के अनुसार, इस कोटा व्यवस्था के लिए अंतिम समाधान दे दिया है. सुनवाई के दौरान सरकारी वकील ने भी हाईकोर्ट के फ़ैसले को रद्द करने की माँग की थी.

Thursday, July 18, 2024

खुलकर सामने आने लगा बीजेपी का यूपी-टकराव


उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार और संगठन को लेकर जो विवाद पैदा हुआ है, वह लखनऊ से अब दिल्ली पहुँच गया है। बुधवार को प्रदेश के पार्टी अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद यह स्पष्ट हो गया कि केंद्रीय नेतृत्व ने इसे गंभीरता से लिया है। इसके एक दिन पहले चौधरी और राज्य के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से भी मुलाकात की थी।

हाल में हुए लोकसभा-चुनाव में बीजेपी की सीटों की संख्या 62 से गिरकर 33 रह जाने के बाद सवाल उठ रहे हैं कि क्या संगठनात्मक कारण भी इस विफलता के पीछे रहे हैं? केशव मौर्य बार-बार यह क्यों कह रहे हैं कि संगठन, सरकार से बड़ा है, कार्यकर्ता का दर्द मेरा दर्द है, संगठन से कोई बड़ा नहीं, कार्यकर्ता ही गौरव है। इस आशय की बातें उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखी हैं और उन्हें हटाया भी है।

मीडिया स्रोतों के अनुसार केंद्रीय नेतृत्व ने मौर्य से कहा है कि उन्हें ऐसे बयानों से बचना चाहिए, जिनसे पार्टी की राजनीतिक संभावनाओं को धक्का लगे। राज्य में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिलकर अपनी स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में पार्टी संगठन स्थिति के बिगड़ने से रोकने की दिशा में सक्रिय हो गया है। उधर नकारात्मक खबरों के दबाव में सरकार ने अपने दो फैसलों को वापस ले लिया है। कुकरैल परियोजना के प्रस्तावित तोड़फोड़ को रोकने और अध्यापकों की हाजिरी को डिजिटाइज करने के फैसले।

Wednesday, July 17, 2024

भारत-पाक क्रिकेट-रिश्तों में रुकावट कहाँ है?


भारत-पाकिस्तान के राजनीतिक-रिश्ते किसी भी सतह पर हों, इसमें दो राय नहीं कि खेल का मैदान दोनों को जोड़ता है. खेल ही नहीं, सिनेमा, संगीत, खानपान, पहनावा, साहित्य, भाषा और उसके मुहावरे हमें जोड़ते हैं.

भारत-पाक सांस्कृतिक-रिश्तों को सामान्य और आवागमन को आसान बना दीजिए और देखिए कि क्या चमत्कार होता है. दोनों क्रिकेट के दीवाने देश हैं. हम जिस गंगा-जमुनी संस्कृति की बातें सुनते हैं, वह इन्हीं मैदानों और मंचों पर पनपती है.

राजनीतिक रिश्ते जब टूटते हैं, तब सबसे ज्यादा नुकसान संस्कृति को होता है. भारतीय भूखंड में रहने वालों का हित इस बात में है कि उनकी संस्कृति सुरक्षित रहे और शांति बनी रहे. यदि ऐसा नहीं है, तो उसके कारण हमें खेल या संस्कृति में नहीं राजनीति में खोजने होंगे. आप पाएंगे कि सबसे बड़ा कारण वह कृत्रिम-विभाजन है, जिसने हमें पहले दो और फिर तीन देशों में तब्दील कर दिया.

बड़ा धक्का

हाल में मिली एक खबर के मुताबिक चैंपियंस ट्रॉफी क्रिकेट प्रतियोगिता में खेलने के लिए के लिए टीम इंडिया के पाकिस्तान जाने की संभावना लगभग नहीं है. बीसीसीआई चाहती है कि भारत के मैचों की मेजबानी दुबई या श्रीलंका करें. इसके लिए वह आईसीसी से अनुरोध करेगी.  

पाकिस्तान के दर्शकों और खेल-प्रशासन के लिए यह बड़ा धक्का है. इससे पहले एशिया कप में ऐसा ही हुआ था. भारत ने अपने सभी मैच श्रीलंका में खेले थे. दोनों देशों ने बरसों से हॉकी या क्रिकेट की द्विपक्षीय सीरीज नहीं खेली है.

2013 में पाकिस्तान की टीम आखिरी बार द्विपक्षीय क्रिकेट सीरीज खेलने आई थी. उसके बाद से इन दोनों टीमों के बीच सिर्फ आईसीसी या फिर एसीसी प्रतियोगिताओं में ही मैच हुए हैं. भारत ने 2008 के बाद से पाकिस्तान में आयोजित होने वाली प्रतियोगिताओं में भाग लेना भी बंद कर दिया है.

ऐसा भी नहीं है कि भारत ने पाकिस्तान में खेलना पूरी तरह बंद कर दिया है. इस साल फरवरी में डेविस कप टेनिस प्रतियोगिता के अपने मैच खेलने के लिए भारतीय टीम पाकिस्तान गई थी, पर टेनिस और क्रिकेट की लोकप्रियता में फर्क है और उनके राजनीतिक-सामाजिक प्रभावों में भी अंतर है.

Wednesday, July 10, 2024

ईरान के राष्ट्रपति पेज़ेश्कियान के सामने ‘सुधार’ से जुड़ी चुनौतियाँ


राष्ट्रपति-चुनाव में सुधारवादी और मध्यमार्गी नेता मसूद पेज़ेश्कियान की विजय के साथ ही सवाल पूछे जाने लगे हैं कि क्या अपने देश की विदेश और सामाजिक-नीतियों में वे बड़े बदलाव कर पाएंगे? अधिकतर पर्यवेक्षक मानते हैं कि फौरन किसी बड़े बदलाव की उम्मीद उनसे नहीं करनी चाहिए, पर यह भी मानते हैं कि जनादेश बदलाव के लिए है. सवाल है कि कैसा बदलाव?

पेज़ेश्कियान ने अपने चुनाव-प्रचार के दौरान पश्चिमी देशों के साथ रचनात्मक-संवाद की बातें कई बार कही हैं. माना जा रहा है कि 2015 में हुए और 2018 में टूटे नाभिकीय-समझौते पर वे देर-सबेर फिर से बातचीत शुरू कर सकते हैं. संभवतः जावेद ज़रीफ उनके विदेशमंत्री बनेंगे, जो अतीत में इस समझौते के मुख्य-वार्ताकार रहे हैं.

सच यह भी है कि ईरान में बुनियादी फैसले राष्ट्रपति के स्तर पर नहीं होते. पेज़ेश्कियान ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान बदलाव की बातें ज़रूर की हैं, पर आमूल बदलाव का कोई वायदा नहीं किया है. वे जो भी करेंगे, व्यवस्था के भीतर रहकर ही करेंगे. बदलाव आएगा भी, तो व्यवस्था के भीतर से और शायद धीरे-धीरे.  

सुधारवाद की परीक्षा

देश में सुधारवादियों का भी जनाधार है और व्यवस्था इतनी कठोर नहीं है कि उनकी अनदेखी करे. पेज़ेश्कियान भी सावधानी से कदम रखेंगे. वे मध्यमार्गी हैं. उनकी तुलना में मीर हुसेन मौसवी और पूर्व राष्ट्रपति अली अकबर हाशमी रफसंजानी की बेटी फाज़ेह हाशमी रफसंजानी ज्यादा बड़े स्तर पर सुधारों की माँग कर रहे हैं.   

Friday, July 5, 2024

बाबा-संस्कृति का विद्रूप

चित्र मीडिया विजिल से साभार

बाबाओं और संतों से जुड़े सवाल एकतरफा नहीं हैं। या तो हम इन्हें सिरे से खारिज करते हैं या गुणगान की अति करते हैं। यह हमारे अर्ध-आधुनिक समाज की समस्या है
, जो केवल बाबाओं-संतों तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में है और खासतौर से इसे हम राजनीति के हरेक खेमे में देख सकते हैं। संतों का आज मतलब वही नहीं है, जो कभी कबीर, रैदास, दादू दयाल, मलूकदास, गुरुनानक वगैरह के साथ जुड़ा था। और ज्यादातर लोग आज संतों के पास अपनी समस्याओं के समाधान से जुड़े अंधविश्वासों से प्रेरित होकर जाते हैं, सामाजिक कल्याण के लिए नहीं।

यह केवल हिंदुओं तक सीमित नहीं है। चमत्कारी और भूत-प्रेतों के इलाज के नाम पर दूसरे धर्मावलंबियों को भी इसके दायरे में आप देख सकते हैं। एक ओर आस्था और अंधविश्वास हैं और दूसरी ओर जीवन को अतार्किक मशीनी तरीके से देखने वाली ‘प्रगतिशीलता’ का विद्रूप है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से यह विसंगति पल्लवित हुई और मीडिया ने इसे पुष्पित होने का मौका दिया। दोनों मनुष्य के विकास की देन हैं।

वैश्विक बाजारवाद और आधुनिक विज्ञानवाद के दौर में परंपरागत धार्मिकता को धीरे-धीरे खत्म होना चाहिए, पर हो इसके विपरीत रहा है। धार्मिक आडंबर (अंग्रेजी में कहें तो रिलीजियोसिटी) बढ़ रहे हैं। चुनाव-प्रणाली सांप्रदायिक पहचान के मध्य-युगीन मूल्यों को भड़का रही है। अचानक दुनिया में धार्मिक पहचान के रूप में पहनावे की भूमिका बढ़ी है।