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Wednesday, February 3, 2021

आठ नए शहरों का विकास होगा


शहरी क्षेत्रों के विस्तार की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार आठ नए शहर विकसित करेगी। 15वें वित्त आयोग ने भी आठ राज्यों में आठ नए शहर बसाने के लिए आठ हजार करोड़ रुपये देने की सिफारिश की है। शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी कई मौकों पर कह चुके हैं कि 2030 तक देश की 40 फीसद आबादी के शहरों में निवास करने की संभावना है।

केंद्रीय आवास एवं शहरी मामलों के सचिव दुर्गा शंकर मिश्र ने संवाददाताओं को बताया कि अपने तरह की इस पहली परियोजना के क्रियान्वयन के लिए मंत्रालय जल्द ही विस्तृत रूपरेखा जारी करेगा। यह पूछे जाने पर कि क्या ये शहर ग्रीनफील्ड परियोजना का हिस्सा होंगे, तो मिश्र ने कहा, 'हां, हम नए शहर विकसित करने के बारे में एक प्रणाली बनाएंगे…सरकार इसके लिए एक रूपरेखा तैयार करेगी, जिसमें छह महीने से एक साल तक का समय लग सकता है।'

देश में पिछले कई वर्षों से कोई भी नया शहर नहीं बसाया गया है। वित्त आयोग ने नए शहरों को बसाने के लिए आठ हजार करोड़ रुपये मंजूर किए हैं। हर नए शहर के लिए एक हजार करोड़ रुपये होंगे। देश को नए शहरों की जरूरत है। जब तक हमारे पास नियोजित शहर नहीं होंगे, विकास के नतीजे नहीं मिलेंगे। मिश्र ने शहरों के बाहर के सटे इलाकों को विकसित किए जाने के भी संकेत दिए।

Tuesday, February 2, 2021

बजट की कवरेज


देश के पत्रकारों और उनके संस्थानों की राजनीतिक समझ को लेकर अतीत में जो धारणाएं थीं, वे समय के साथ बदल रही हैं। मैं यहाँ मीडिया शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि मीडिया में इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया भी आ जाते हैं, जिन्हें मैं यहाँ शामिल करना नहीं चाहता। प्रिंट मीडिया के पास अपेक्षाकृत सुगठित मर्यादा और नीति-सिद्धांत रहे हैं, भले ही उनमें कितनी भी गिरावट आई हो, पर खबरें और विचार लिखने का एक साँचा बना हुआ है। दूसरी तरफ अखबारों के दृष्टिकोण भी झलकते रहे हैं, भले ही वे संपादकों के व्यक्तिगत रुझान-झुकाव के कारण हों या मालिकों के कारण। मसलन इन दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबारों को एक हद तक तटस्थ और मौका पड़ने पर सरकार की तरफ झुका हुआ माना जाता है। इंडियन एक्सप्रेस प्रायः सरकार से दूरी रखता है, पर आर्थिक नीतियों में सरकार का समर्थन भी करता है।

हिन्दू पर वामपंथी होने का बिल्ला है और टेलीग्राफ पर बुरी तरह मोदी-विरोधी होने की छाप है। यह छवि सायास ग्रहण की गई है। यह प्रबंधन के समर्थन के बगैर संभव नहीं है, पर इसी कंपनी के एबीपी न्यूज की कवरेज बताती है कि मीडिया कंपनियाँ किस तरह अपने बाजार और ग्राहकों का ख्याल रखती हैं।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारों पर भले ही गोदी मीडिया की छाप लगी हो, पर प्रिंट में ज्यादातर पत्रकार आपको सत्ता-विरोधी मिलेंगे। इस अर्थ में मोदी-विरोधी। कभी दूसरी सरकार आएगी, तो उसके भी विरोधी। यह उनकी सहज दृष्टि है। आप दिल्ली के या किसी और शहर के प्रेस क्‍लब में इस बात का जायजा ले सकते हैं। बहरहाल आज की बजट कवरेज में आपको केवल बजट की कवरेज ही नहीं मिलेगी, बल्कि अखबारों का रुझान भी दिखाई पड़ेगा। इन बातों की विसंगतियों पर भी ध्यान दीजिएगा। मसलन हिंदू की कवरेज में कॉरपोरेट हाउसों के विचार को काफी जगह दी गई है। पर संपादकीय पेज पर अपनी परंपरागत विचारधारा से जुड़े रहने का आग्रह है। फिर भी संपादकीय के रूप में अखबार का आधिकारिक वक्तव्य सीपी चंद्रशेखर के लीड आलेख से अलग लाइन पर है।

ये कुछ मोटे बिंदु हैं। बजट पर व्यापक चर्चा मैं सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबलिटी (सीबीजीए) की वैबसाइट पर जाकर पढ़ता हूँ, जो 4 फरवरी को होगी। फिलहाल आज की कवरेज की कुछ तस्वीरों को शेयर करने के साथ कुछ संपादकीय टिप्पणियाँ पढ़ने का सुझाव दूँगा, जो इस तरह हैं:-

बिजनेस स्टैंडर्ड का संपादकीय

व्यापक यथास्थिति, कुछ सुधार

यदि महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर बात की जाए तो प्रथमदृष्ट्या बजट में कुछ खास बदलाव नहीं नजर आता। हां, सरकार के राजकोषीय रूढ़िवाद और उसकी व्यय नीति तथा कई मोर्चों पर सुधार को लेकर उसकी सकारात्मक इच्छा में अवश्य परिवर्तन नजर आया। इनमें सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को लेकर व्यापक बदलाव, बीमा कंपनियों में विदेशी स्वामित्व बढ़ाने, सरकारी परिसंपत्तियों का स्वामित्व परिवर्तन, सरकारी बैंकों का निजीकरण और नई परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनी (बैड बैंक) जैसा पहले खारिज किया गया वित्तीय क्षेत्र सुधार और विकास वित्त संस्थान शामिल हैं। इनमें से अंतिम दो उपाय तो ऐतिहासिक रूप से नाकाम रहे हैं लेकिन शेष का स्वागत किया जाना चाहिए। शेयर बाजार उत्साहित है क्योंकि सुधारों का प्रस्ताव रखा गया और एकबारगी उपकर भी नहीं लगा है जबकि इसकी आशंका थी। स्थिर कर नीति अपने आप में एक बेहतर बात है लेकिन बजट को लेकर किए गए वादों से इतर उसके वास्तविक प्रस्ताव शायद उत्साह को कम कर दें।

Monday, February 1, 2021

तेज संवृद्धि और आर्थिक सुधार

 


मेरी बात पढ़ने के पहले बीबीसी हिंदी की इस रिपोर्ट को पढ़ें:

पहले से सब जानते थे कि ये इस सदी का अनोखा बजट होगा। संकट से जूझ रही देश की अर्थव्यवस्था को इस बजट से ढेरों उम्मीदें थीं। सवाल थे कि आर्थिक गतिविधियों को एक बार फिर पटरी पर कैसे लाया जाएगा? संसाधनों और जीडीपी कम होने को देखते हुए और राजकोषीय घाटे के बीच संतुलन बनाकर कैसे कोई बोल्ड कदम लिया जाएगा? ज़्यादातर अर्थशास्त्रियों को उम्मीद थी कि ये एक बोल्ड बजट होना चाहिए, खपत पर ख़ास तौर से ध्यान होना चाहिए, खर्च पर विशेष ध्यान होना चाहिए और ज़्यादा से ज़्यादा पैसों का आवंटन किया जाए, चाहे उसके लिए कर्ज़ या घाटे की सीमा का उल्लंघन करना पड़े। उन्हें ये भी अपेक्षा थी कि रोज़गार बढ़ाने के लिए और अर्थव्यवस्था को तेज़ गति देने के लिए सरकार को एक साहसिक कदम लेना पड़ेगा। इस परिप्रेक्ष्य में इस बजट को देखा जा रहा था और वित्त मंत्री ने उसी के अनुसार सोमवार को ये बजट पेश किया। बीबीसी हिंदी में पढ़ें यह रिपोर्ट विस्तार से

 निर्मला सीतारमन के बजट में दो बातें साफ दिखाई पड़ रही हैं। पहली, तेज संवृद्धि का इरादा और दूसरे आर्थिक सुधारों की दिशा में तेज कदम। इन फैसलों का क्रियान्वयन कैसा होता है और देश की राजनीति और उद्योग-व्यापार इन्हें किस रूप में लेते हैं, यह भी देखना होगा।

खर्चों की भरमार

वर्ष 2020-21 के बजट में जहाँ पूँजीगत व्यय (कैपेक्स एक्सपेंडिचर) 4.12 लाख करोड़ रुपये था, वहीं इसबार वह 5.54 लाख करोड़ रुपये है, जो इस बजट का 15.91 प्रतिशत है। पिछले साल के बजट में यह परिव्यय बजट का 13.55 प्रतिशत था। पूँजीगत परिव्यय का मतलब होता है, वह धनराशि जो भविष्य में इस्तेमाल के लिए परिसम्पदा के निर्माण पर खर्च होती है। जैसे कि सड़कें और अस्पताल वगैरह। राजस्व परिव्यय में सूद चुकाना, कर्मचारियों का वेतन देना और इसी प्रकार के भुगतान जो सरकार करती है। हाल के वर्षों में सरकार का पूँजीगत व्यय कम होता जा रहा था। सन 2004-05 के बजट में यह 19.3 फीसदी की ऊँचाई तक जा पहुँचा था। सन 2019-20 में यह न्यूनतम स्तर 12.11 प्रतिशत पर पहुँच गया था। इस बजट के पहले का उच्चतम स्तर 2007-08 के बजट में 18.02 प्रतिशत था। इसका मतलब है कि इस साल इंफ्रास्ट्रक्चर तथा निर्माण कार्यों पर भारी परिव्यय होगा। 2020-21 में राजकोषीय घाटा जीडीपी का 9.5% रहने का अनुमान है। वित्तमंत्री के अनुसार 2021-22 में राजकोषीय घाटा जीडीपी का 6.8% रहने का अनुमान है, जबकि 2025-26 तक राजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.5% लाने का लक्ष्य है। पिछले बजट में इस साल का लक्ष्य 3.5 प्रतिशत का था, पर कोरोना के कारण सारे अनुमान गलत साबित हुए। इतने भारी राजकोषीय घाटे के बावजूद भारी खर्च का जोखिम मोल लेना साहस की बात है और इसका दीर्घकालीन लाभ इस साल देखने को मिलेगा।

आर्थिक सुधार

पिछले कई वर्षों से देखा जा रहा है कि वित्तमंत्री का बजट भाषण खत्म होते-होते देश का शेयर बाजार धड़ाम से गिरने लगता है। इस बार ऐसा नहीं हुआ, बल्कि उसमें जबर्दस्त उछाल आया। किसी वित्तमंत्री ने निजीकरण की बात बहुत खुलकर कही है। उन्होंने कहा कि बीमा कंपनियों में एफडीआई यानी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को 49% से बढ़ाकर 74% करने का प्रावधान किया गया है। उन्होंने भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) के शेयर बाज़ार में उतारे जाने की घोषणा की। साल 2021-22 में जीवन बीमा निगम का आईपीओ लेकर आएँगे, जिसके लिए इसी सत्र में ज़रूरी संशोधन किए जा रहे हैं। राज्य सरकारों के उपक्रमों के विनिवेश की अनुमति दी जाएगी।

लंबे समय से घाटे में चल रही कई सरकारी कंपनियों का निजीकरण होगा। इनमें बीपीसीएल (भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड), एयर इंडिया, आईडीबीआई, एससीआई (शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया), सीसीआई (कॉटन कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया), बीईएमएल और पवन हंस के निजीकरण की घोषणा की गई है। अगले दो वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण की बात भी है ताकि राजस्व बढ़ाया जा सके। इन सभी कंपनियों के विनिवेश की प्रक्रिया साल 2022 तक पूरी कर ली जाएगी।

सीतारमण ने कहा, बेकार एसेट्स आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में योगदान नहीं करते हैं। मेरा अनुमान है कि विनिवेश से साल 2021-22 तक हमें 1.75 लाख करोड़ रुपए मिलेंगे। घाटे में चल रही सरकारी कंपनियों के विनिवेश से उन्हें घाटे से तो उबारा ही जा सकेगा, साथ ही रेवेन्यू भी बढ़ाया जा सकेगा। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारें लगभग हर बजट में विनिवेश का ऐलान ज़रूर करती हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं कि बेचने में कामयाब हो ही जाए। एयर इंडिया इसका ताज़ा उदाहरण है।