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Saturday, March 2, 2024

बीजेपी की पहली सूची जारी

 


भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनावों के लिए 195 प्रत्याशियों की पहली सूची जारी कर दी है। इस सूची में 34 नाम ऐसे हैं, जो केंद्रीय मंत्रिपरिषद के सदस्य हैं। इसमें वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गांधी नगर से अमित शाह, लखनऊ से राजनाथ सिंह, नागपुर से नितिन गडकरी चुनाव लड़ेंगे। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला और दो पूर्व मुख्यमंत्रियों का नाम इस लिस्ट में शामिल हैं। वहीं पहली सूची में 28 महिला उम्मीदवारों को नाम है। इसके साथ ही 50 से कम उम्र के 47 उम्मीदवारों का नाम ऐलान किया है।

बीजेपी के उम्मीदवारों की पहली लिस्ट में अजा के 27, अजजा के 18 और ओबीसी के 57 उम्मीदवार हैं। इसमें यूपी से 51, बंगाल से 20, एमपी से 24, गुजरात से 15, राजस्थान से 15, केरल से 12 तेलंगाना से 9, असम से 11 झारखंड से 11, छत्तीसगढ़ से 11 उम्मीदवारों को टिकट मिला है। दिल्ली से पाँच, जम्मू कश्मीर दो, उत्तराखंड तीन, गोवा एक, त्रिपुरा एक, अंडमान और निकोबार एक और दमन दीव एक सीट पर नाम की घोषणा की गई है।

उत्तर प्रदेश

यूपी में मुजफ्फरनगर से संजीव बालियान को टिकट दिया गया है। इसके साथ नोएडा से महेश शर्मा, मथुरा से हेमा मालिनी, आगरा से एसपी सिंह बघेल, एटा से राजवीर सिंह, आंवला धर्मेंद्र कश्यप, शाहजहाँपुर से अरुण सागर, खीरी अजय मिश्रा टेनी, सीतापुर से राजेश वर्मा, हरदोई से जयप्रकाश रावत, उन्नाव से साक्षी महाराज, लखनऊ से राजनाथ सिंह, अमेठी से स्मृति ईरानी, फर्रुखाबाद से मुकेश राजपूत, कन्नौज से सुब्रत पाठक, जालौन से भानुप्रताप वर्मा, झांसी से अनुराग शर्मा, बांदा आरके सिंह पटेल और फतेहपुर से साध्वी निरंजन ज्योति को उम्मीदवार बनाया गया है। इसके साथ ही गोरखपुर से रवि किशन, आजमगढ़ से दिनेश लाल यादव 'निरहुआ' और चंदौली से महेंद्र नाथ पांडेय को टिकट दिया गया है।

Sunday, December 31, 2023

विधानसभा चुनाव और 2024 के संकेत

तीन हिंदी भाषी राज्यों में जीत के बाद बीजेपी ने बड़ी तेजी से लोकसभा चुनाव की रणनीतियों पर काम शुरू कर दिया है। तीन राज्यों के नए मुख्यमंत्रियों के चयन से यह बात साफ हो गई है कि पार्टी ने लोकसभा चुनाव ही नहीं, उसके बाद की राजनीति पर भी विचार शुरू कर दिया है। विशेषज्ञों के कयासों को ग़लत साबित करते हुए बीजेपी ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में न सिर्फ जीत हासिल की, बल्कि नए मुख्यमंत्रियों के रूप में तीन नए चेहरों को आगे बढ़ाकर चौंकाया है। संभवतः पार्टी का आशय है कि हमारे यहाँ व्यक्ति से ज्यादा संगठन का महत्व है। हम नेता बना सकते हैं।

तीनों राज्यों में बीजेपी की सफलता के पीछे अनेक कारण हैं। मजबूत नेतृत्व, संगठन-क्षमता, संसाधन, सांस्कृतिक-आधार और कल्याणकारी योजनाएं वगैरह-वगैरह। इनमें शुक्रिया मोदीजी को भी जोड़ लीजिए। यानी मुसलमान वोटरों को खींचने के प्रयासों में भी उसे आंशिक सफलता मिलती नज़र आ रही है।  

राजस्थान में पहली बार विधायक बने भजनलाल शर्मा, मध्य प्रदेश में मोहन यादव और छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय के नामों की दूर तक चर्चा नहीं थी। इनका नाम नहीं था, पर पार्टी अब इनके सहारे नएपन का आभास देगी। उसे कितनी सफलता मिलेगी, यह तो मई 2024 में ही पता लगेगा, पर इतना साफ है कि पार्टी पुरानेपन को भुलाना और नएपन को अपनाना चाहती है। पुराने नेताओं का कोई हैंगओवर अब नहीं है। दूसरी तरफ पार्टी को इस बात का भरोसा भी है कि वह लोकसभा चुनाव आसानी से जीत जाएगी। उसने इंड गठबंधन या इंडिया को चुनौती के रूप में लिया ही नहीं।

Sunday, December 10, 2023

सेमीफाइनल बीजेपी के नाम


बीजेपी की जीत के बाद दिल्ली स्थित बीजेपी मुख्यालय में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा, मैं लगातार कहता रहा हूं कि मेरे लिए देश में चार जातियां ही सबसे बड़ी जातियां हैं। मैं जब इन जातियों की बात करता हूं, तो इसमें स्त्रियाँ, युवा, किसान और गरीब परिवार हैं। इन चार जातियों को सशक्त करने से ही देश सशक्त होने वाला है। उन्होंने यह भी कहा कि कई लोग कह रहे हैं कि इस हैट्रिक ने लोकसभा चुनाव की हैट्रिक की गारंटी दे दी है।

तीन हिंदी भाषी राज्यों में जीत के बाद लगता है कि बीजेपी अब लोकसभा चुनाव की रणनीतियों पर काम करेगी। 2018 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी इन तीनों हिंदी भाषी राज्यों में हार गई थी, पर 2019 के लोकसभा चुनावों में इन्हीं राज्यों से पार्टी को जबर्दस्त सफलता मिली। इस लिहाज से वह पहले की तुलना में बेहतर स्थिति में है, पर उसके सामने इसबार इंडी या इंडिया गठबंधन होगा। सच यह भी है कि इंड गठबंधन खुद अंतर्विरोधों का शिकार है। बीजेपी की सफलता के पीछे अनेक कारण हैं। मजबूत नेतृत्व, संगठन-क्षमता, संसाधन, सांस्कृतिक-आधार और कल्याणकारी योजनाएं वगैरह-वगैरह। इनमें शुक्रिया मोदीजी को भी जोड़ लीजिए।

माना जाता है कि राज्यों के चुनावों में स्थानीय नेतृत्व की प्रतिष्ठा और राज्य से जुड़े दूसरे मसले भी होते हैं, पर लोकसभा चुनाव में मोदी का जादू काम करता है। बहरहाल इसबार के विधानसभा चुनावों में भी मोदी की गारंटी ने काम किया है। मध्य प्रदेश में लोकसभा की 29, राजस्थान में 25, छत्तीसगढ़ में 11, तेलंगाना में 17 और मिज़ोरम में एक सीट है। इन सीटों को जोड़ दिया जाए तो इनका योग 83 हो जाता है। इन परिणामों के निहितार्थ और 2024 के चुनावों पर पड़ने वाले असर के लिहाज से देखने के लिए यह समझना जरूरी है कि बीजेपी की इस असाधारण सफलता के पीछे के कारण क्या हैं।

बीजेपी की जीत में ‘शुक्रिया मोदीजी’ की भूमिका


बीजेपी की जीत के बाद दिल्ली स्थित बीजेपी मुख्यालय में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा, मैं लगातार कहता रहा हूं कि मेरे लिए देश में चार जातियां ही सबसे बड़ी जातियां हैं. मैं जब इन जातियों की बात करता हूं, तो इसमें स्त्रियाँ, युवा, किसान और गरीब परिवार हैं. इन चार जातियों को सशक्त करने से ही देश सशक्त होने वाला है. उन्होंने यह भी कहा कि कई लोग कह रहे हैं कि इस हैट्रिक ने लोकसभा चुनाव की हैट्रिक की गारंटी दे दी है.

तीन हिंदी भाषी राज्यों में जीत के बाद लगता है कि बीजेपी अब लोकसभा चुनाव की रणनीतियों पर काम करेगी. उसे बेशक सफलता मिल गई, पर नहीं मिलती तब भी वह निराश नहीं होती. 2018 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी इन तीनों हिंदी भाषी राज्यों में हार गई थी, पर 2019 के लोकसभा चुनावों में इन्हीं राज्यों से पार्टी को जबर्दस्त सफलता मिली. बीजेपी की सफलता के पीछे अनेक कारण हैं. मजबूत नेतृत्व, संगठन-क्षमता, संसाधन, सांस्कृतिक-आधार और कल्याणकारी योजनाएं वगैरह-वगैरह. इनमें शुक्रिया मोदीजी को भी जोड़ लीजिए.

माना जाता है कि राज्यों के चुनावों में स्थानीय नेतृत्व की प्रतिष्ठा और राज्य से जुड़े दूसरे मसले भी होते हैं, पर लोकसभा चुनाव में मोदी का जादू काम करता है. बहरहाल इसबार के विधानसभा चुनावों में भी मोदी की गारंटी ने काम किया है. चुनाव-परिणामों के निहितार्थ और 2024 के चुनावों पर पड़ने वाले असर के लिहाज से देखने के लिए यह समझना जरूरी है कि बीजेपी की इस असाधारण सफलता के पीछे के कारण क्या हैं.

Sunday, May 14, 2023

कांग्रेस की जीत और भविष्य के संकेत


कर्नाटक में संशयों से घिरी भारतीय जनता पार्टी को दक्षिण भारत में अपने एकमात्र दुर्ग में पराजय का सामना करना पड़ा है। यह आलेख लिखे जाने तक पूरे परिणाम आए नहीं थे, पर यह लगभग साफ है कि कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलेगा। गौर से देखें, तो पाएंगे कि कांग्रेस का वोट करीब 5 प्रतिशत बढ़ा है। 2018 में वह 38 प्रश था, जो अब 43 प्रश हो गया है। बीजेपी का मत कमोबेश वही 36 प्रश है, जितना 2018 में था। जेडीएस का मत 18.4 से घटकर 13.3 प्रतिशत हो गया है। उसमें करीब पाँच फीसदी की गिरावट है। जेडीएस का घटा वोट कांग्रेस को मिला और परिणामों में इतना अंतर आ गया। इन परिणामों में कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए महत्वपूर्ण संदेश छिपे हैं। बीजेपी के लिए इस हार से उबरना मुश्किल नहीं है, पर कांग्रेस हारती, तो उसका उबरना मुश्किल था। उसने स्पष्ट बहुमत हासिल करके मुकाबले को ही नहीं जीता, यह जीत उसके लिए निर्णायक मोड़ साबित होगी। ऐसा भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने चुनाव में सफलता का टेंपलेट हासिल कर लिया है, जिसे वह अब दूसरे राज्यों में दोहरा सकती है। पर यह नहीं मान लेना चाहिए कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी के प्रति जनता के बदले हुए मूड का यह संकेत है। लोकसभा चुनाव के मुद्दे अलग होते हैं। साल के अंत में तेलंगाना, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम विधानसभाओं के चुनाव भी होंगे। मिजोरम को छोड़ दें, तो शेष सभी राज्य महत्वपूर्ण हैं। रणनीति में धार देने के कई मौके बीजेपी को मिलेंगे।   

स्थानीय नेतृत्व

इस जीत के बाद कांग्रेस का जैकारा सुनाई पड़ा है कि यह राहुल गांधी की जीत है। उनकी भारत-जोड़ो यात्रा की विजय है। यह बात मल्लिकार्जुन खड़गे से लेकर सिद्धरमैया तक ने कही है। ध्यान से देखें, यह स्थानीय नेतृत्व की विजय है। राज्य के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे का पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर होना महत्वपूर्ण साबित हुआ, पर कांग्रेस की जीत के पीछे राष्ट्रीय नेतृत्व की भूमिका सीमित है। खड़गे को भी कन्नाडिगा के रूप में देखा गया। वे राज्य के वोटरों से कन्नड़ भाषा में संवाद करते हैं। कांग्रेस ने कन्नड़-गौरव, हिंदी-विरोध नंदिनी-अमूल और उत्तर-दक्षिण भावनाओं को बढ़ाने का काम भी किया। इन बातों का असर आप देख सकते हैं। दूसरी तरफ बीजेपी के नेतृत्व की भूमिका देखें। 2021 में येदियुरप्पा को जिस तरह हटाया गया, वह क्या बताता है?

कांग्रेस की उपलब्धि

हिमाचल जीतने के बाद कर्नाटक में भी विजय हासिल करना कांग्रेस की उपलब्धि है। अब वह राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों में ज्यादा उत्साह के साथ उतरेगी। मल्लिकार्जुन खड़गे को इस बात का श्रेय मिलेगा कि उन्होंने अपने गृहराज्य में पार्टी को जीत दिलाई। कांग्रेस के पास यह आखिरी मौका था। कर्नाटक जाता, तो बहुत कुछ चला जाता। राहुल और खड़गे के अलावा कर्नाटक में कांग्रेस के सामाजिक-फॉर्मूले की परीक्षा भी थी। यह फॉर्मूला है अल्पसंख्यक, दलित और पिछड़ी जातियाँ। इसकी तैयारी सिद्धरमैया ने सन 2015 से शुरू कर दी थी, जब उन्होंने राज्य की जातीय जनगणना कराई। उसके परिणाम घोषित नहीं हुए, पर सिद्धरमैया ने पिछड़ों और दलितों को 70 फीसदी आरक्षण देने का वादा जरूर किया। आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा सकता था, पर उन्होंने कहा कि हम इसे 70 फीसदी करेंगे। ऐसा तमिलनाडु में हुआ है, पर इसके लिए संविधान के 76 वां संशोधन करके उसे नवीं अनुसूची में रखा गया, ताकि अदालत में चुनौती नहीं दी जा सके। कर्नाटक में यह तबतक संभव नहीं, जबतक केंद्र की स्वीकृति नहीं मिले।

कांग्रेसी महत्वाकांक्षा

लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस मज़बूत पार्टी के रूप में उभरना चाहती है। इसी आधार पर वह विरोधी गठबंधन का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करना चाहती है। साथ ही वह इसे बीजेपी के पराभव की शुरूआत के रूप में भी देख रही है। इस विजय से उसके कार्यकर्ताओं का उत्साहवर्धन हुआ है। राज्य में पार्टी सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार दोनों शीर्ष नेता अपने चुनाव जीत गए हैं, जबकि भारतीय जनता पार्टी के कई मंत्री परास्त हुए हैं। निवृत्तमान मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई जरूर जीत गए हैं। अंतिम समय में बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में गए जगदीश शेट्टार हार गए हैं, जबकि लक्ष्मण सावडी को जीत मिली है। देखना यह भी होगा कि इस विजय से क्या बीजेपी-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन की संभावनाएं बेहतर होंगी? क्या शेष विरोधी दल कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करेंगे? इस प्रश्न का उत्तर लोकसभा चुनाव के ठीक पहले ही मिलेगा। अभी चार राज्यों के चुनाव परिणामों का इंतजार और करें।  

Sunday, March 19, 2023

कब तक चलेगा संसदीय गतिरोध?


संसद के दोनों सदनों में पूरे सप्ताह गतिरोध जारी रहा। जिस तरह के हालात हैं, उन्हें देखते हुए लगता नहीं कि सोमवार को भी स्थिति में सुधार होगा। कांग्रेस के नेतृत्व में विरोधी दल अडाणी-हिंडनबर्ग विवाद में जेपीसी की मांग पर अडिग हैं। दूसरी तरफ राहुल गांधी के बयानों को बीजेपी राष्ट्रीय-अपमान का विषय और विदेशी जमीन से भारतीय संप्रभुता पर हमला बता रही है। वह चाहती है कि लंदन में कही गई अपनी बातों पर राहुल गांधी माफी माँगें। लगता यह भी है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही इस गतिरोध को जारी रखना चाहते हैं। 

इस गतिरोध के ज्यादातर प्रसंग 2024 के चुनाव में दोनों तरफ के तीरों का काम करेंगे। गृहमंत्री अमित शाह ने शुक्रवार को कहा कि विपक्ष वार्ता के लिए आगे आए तो गतिरोध को दूर किया जा सकता है। दोनों पक्ष लोकसभा अध्यक्ष के साथ बैठें। उन्हें दो कदम आगे आना चाहिए और हम उससे भी दो कदम आगे बढ़ाएंगे, तब संसद चलेगी। उन्होंने इसके बाद कहा, आप केवल संवाददाता सम्मेलन कीजिए और कुछ न कीजिए, ऐसा नहीं चलता।

दोनों तरफ से हंगामा

हंगामा दोनों तरफ से है। ऐसा कम होता है, जब सत्तापक्ष गतिरोध पैदा करे। खबर यह भी है कि बीजेपी लंदन की टिप्पणी के लिए राहुल गांधी को सदन से निलंबित या निष्कासित करने पर भी विचार कर रही है। यह गंभीर बात है, पर ऐसा क्यों सोचा जा रहा है? इससे तो राहुल गांधी का राजनीतिक कद बढ़ेगा? एक धारणा है कि विरोधी दलों का मुख्य चेहरा राहुल गांधी को बनाने से बीजेपी को लाभ है, क्योंकि इससे विपक्ष में बिखराव होगा। दूसरे बीजेपी खुद को राष्ट्रवाद की ध्वजवाहक और कांग्रेस को राष्ट्रवाद-विरोधी साबित करने में सफल होगी। राष्ट्रवाद के प्रश्न पर बीजेपी खुद को उत्पीड़ित साबित करती है। 2019 में पुलवामा कांड के बाद ऐसा ही हुआ। राहुल पर ध्यान केंद्रित करने से अडाणी प्रसंग से भी ध्यान हटेगा। देखना यह भी होगा कि कांग्रेस पार्टी अडाणी-हिंडनबर्ग मामले को कितनी दूर तक ले जाएगी?  इससे लगता है कि संसदीय गतिरोध दोनों पक्षों के लिए उपयोगी है। दोनों पार्टियों ने शुक्रवार और शनिवार को अगले सप्ताह की गतिविधियों और रणनीतियों पर विचार किया है। इस ब्रेक के बाद यह देखना रोचक होगा कि गतिरोध आगे बढ़ेगा या मामला सुलझेगा।

मोदी बनाम राहुल

कानून मंत्री किरण रिजिजू का यह बयान ध्यान देने योग्य है किदेश से जुड़ा कोई मसला हम सब के लिए चिंता का विषय है…अगर कोई देश का अपमान करेगा तो हम इसे सहन नहीं कर सकते।’ उधर कांग्रेस के राज्यसभा के सांसद के सी वेणुगोपाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ गरिमा हनन से संबंधित कार्रवाई करने की मांग की है। वेणुगोपाल ने कहा कि प्रधानमंत्री ने संसद में राहुल और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ अपमानजनक और असंसदीय भाषा का इस्तेमाल किया है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री ने परिवार औरनेहरू नाम का जो उल्लेख किया था, उसे पार्टी ने उठाया है। बहरहाल कांग्रेस पार्टी के पास संसद में लड़ने की सीमित शक्ति है, वह इस मामले को सड़क पर ले जाएगी। राजनीतिक दृष्टि से बीजेपी भी चाहेगी कि मामला मोदी बनाम राहुल गांधीबनकर उभरे।  

Friday, January 6, 2023

2024 में संभव है बीजेपी को हराना: डेरेक ओ’ब्रायन


कतरनें यानी मीडिया में जो इधर-उधर प्रकाशित हो रहा है, उसके बारे में अपने पाठकों को जानकारी देना. ये कतरनें केवल जानकारी नहीं है, बल्कि विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए हैं.

तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओब्रायन ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 2024 में बीजेपी को हराया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि लोकसभा चुनाव को अनेक राज्यों के विधानसभा चुनावों को रूप में जोड़ा जाए। जब भी किसी इलाके की मजबूत पार्टी से बीजेपी को सामना करना पड़ा, तो वह कमज़ोर साबित हुई है। उन्होंने लिखा है कि मैं जानबूझकर क्षेत्रीय पार्टी (रीज़नल पार्टी) शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि बहुत सी पार्टियों को राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता मिली हुई है। यदि आप हिमाचल प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश या तेलंगाना के चुनाव परिणामों को जोड़कर उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित करें, तो पाएंगे कि बीजेपी को 240 तक पहुँचने में भी मुश्किल होगी। मई, 2021 में पश्चिम बंगाल में क्या हुआ था? मोदी और अमित शाह दोनों ने ज़ोर लगा दिया, पर हार गए। पूरा लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

…और यह है बीजेपी की रणनीति

आज के इंडियन एक्सप्रेस में लिज़ मैथ्यूस की लंबी रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है, जिसमें बताया गया है कि 2024 के लिए बीजेपी की रणनीति क्या है। इसके अनुसार पार्टी ने अपने बूथ-स्तर के कार्यकर्ता से लेकर केंद्रीय मंत्रिस्तर के नेता तक को अपनी संगठनात्मक प्रक्रिया का हिस्सा बनाया है। गृहमंत्री अमित शाह मानते हैं कि मजबूत संगठन के बगैर बीजेपी अपनी जीत को दोहरा नहीं पाएगी। पार्टी ने पिछले साल अपनी लोकसभा प्रवास योजना शुरू कर दी है, जिसके तहत मंत्रियों सहित पार्टी के नेताओं को उन मुश्किल चुनाव-क्षेत्रों की जिम्मेदारी दी है, जहाँ 2019 में पार्टी दूसरे नंबर पर रही या बहुत मामूली अंतर से जीती थी। शुरू में ऐसे 144 चुनाव-क्षेत्र तय किए गए थे, जिनकी संख्या अब 160 हो गई है। 2019 में पार्टी ने 436 स्थानों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से 303 पर उसे जीत मिली। इस प्रकार 133 पराजित और 11 मामूली अंतर से जीती गई सीटों के आधार पर 144 की संख्या बनी थी, जिसे अब 160 कर लिया गया है। पूरी रिपोर्ट पढ़ें यहाँ

आसान नहीं है वैकल्पिक ऊर्जा की राह

अगर वर्ष 2022 ने दुनियाभर के नीति-निर्माताओं को कुछ सिखाया है तो वह यह कि उन्हें अपनी स्वच्छ ऊर्जा नीतियों को लेकर व्यावहारिक होना जरूरी था। रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध सभी विकसित और विकासशील देशों के लिए एक कड़वे सच को पहचानने जैसा था, क्योंकि ये देश इस बात को लेकर बड़े आश्वस्त थे कि वे कोयले से बहुत ही जल्दी निजात पा लेंगे और हाइड्रोकार्बन पर अपनी निर्भरता को बड़ी तेजी से कम करने में सफल हो जाएंगे। मगर वर्ष ने कोयले की मांग और कीमत दोनों को और बढ़ा दिया।

विकसित देश जैसे अमेरिका और जर्मनी अब फिर से ईंधन की ओर रुख कर रहे हैं और कोयले के बंद पड़े संयंत्रों को फिर से शुरू कर रहे हैं। विशेष रूप से, पश्चिमी यूरोप इस बात को समझ गया है कि अगर इसे सस्ती दरों पर प्राकृतिक गैसों की आपूर्ति नहीं मिलती तो उसे सौर और पवन ऊर्जाओं से मदद नहीं मिलने वाली है। इसने यह भी पाया है कि पारंपरिक ऊर्जा आपूर्ति में रुकावट आने से लीथियम और निकल जैसे खनिजों की कीमतें बढ़ जाएंगी। बिजनेस स्टैंडर्ड में पढ़ें प्रसेनजित दत्ता का आलेख


Friday, August 19, 2022

आक्रामक बीजेपी और विरोधी गठबंधन-राजनीति की बढ़ती चुनौतियाँ

लोकसभा चुनाव में अब दो साल से भी कम का समय बचा है, पर राष्ट्रीय राजनीति का परिदृश्य स्पष्ट नहीं है। दो प्रवृत्तियाँ एक साथ देखने को मिल रही हैं। भारतीय जनता पार्टी की बढ़ती आक्रामकता और विरोधी-एकता के प्रयासों में बढ़ता असमंजस। महाराष्ट्र में हुआ सत्ता-परिवर्तन विरोधी गठबंधन राजनीति के लिए स्तब्धकारी साबित हुआ। राष्ट्रपति-चुनाव को दौरान भी दोनों प्रवृत्तियाँ एक साथ देखने को मिली।

Thursday, August 11, 2022

नीतीश को पीएम-प्रत्याशी बनाने और राष्ट्रीय गठबंधन के दावों के पीछे जल्दबाजी है

सतीश आचार्य का एक पुराना कार्टून

बिहार में सरकार बन जाने के बाद दो सवाल खड़े हुए हैं। स्वाभाविक रूप से पहला सवाल होना चाहिए था कि क्या नई सरकार, पिछली सरकार से बेहतर साबित होगी
? आश्चर्यजनक रूप से यह दूसरा सवाल बन गया है। उसकी जगह पहला सवाल है कि क्या नीतीश कुमार 2024 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए विरोधी दलों के सर्वमान्य प्रत्याशी होंगे? सर्वमान्य का एक मतलब यह भी है कि क्या बिहार का महागठबंधन विरोधी दलों का राष्ट्रीय महागठबंधन बनेगा? जैसा कि प्रशांत किशोर मानते हैं कि यह परिघटना राज्य-केंद्रित है, इससे 2024 के चुनाव को लेकर राष्ट्रीय-निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते हैं।

मनोबल बढ़ेगा

बेशक बिहार के परिदृश्य से विरोधी दलों का मनोबल ऊँचा होगा। इसे विरोधी महागठबंधन का प्रस्थान-बिंदु भी मान सकते हैं, पर उसके लिए थोड़ा इंतजार करना होगा। अभी हम उत्साह देख रहे हैं। नई सरकार से कुछ लोग निराश भी होंगे। उन अंतर्विरोधों को सामने आने दीजिए। मीडिया में अभी से खबरें हैं कि तेजस्वी बेहतर मुख्यमंत्री साबित होते। बिहार की राजनीति जाति और संप्रदाय-केंद्रित है। राज्य में सौ से ज्यादा अति-पिछड़े वर्ग हैं, जिनका नेतृत्व विकसित हो रहा है। इन नए नेताओं की मनोकामना का अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता है।

बीजेपी अकेली

महागठबंधन के समर्थक इस बात से खुश हैं कि सात दलों के उनके गठबंधन के सामने बीजेपी अकेली है। कौन जाने कुछ महीनों बाद बीजेपी के साथ कुछ दल आ जाएं। बहुत ज्यादा दलों के गठजोड़ के जोखिम भी हैं। अभी यह भी देखना होगा कि जेडीयू और राजद के रिश्ते किस प्रकार के रहेंगे। जेडीयू के भीतर के हालचाल भी पता लगने चाहिए। गठबंधन जब बनता है, तब जो उत्साहवर्धक बातें की जाती हैं, उनके व्यावहारिक-प्रतिफलन का इंतजार भी करना चाहिए।

जल्दबाजी

पहली नज़र में लगता है कि नीतीश कुमार को पीएम प्रत्याशी बनाने और महागठबंधन को राष्ट्रीय मोर्चा की शक्ल देने की कोशिश जल्दबाजी में की जा रही है। इसकी घोषणा राष्ट्रीय जनता दल या जेडीयू कैसे कर सकते हैं? दोनों की राष्ट्रीय राजनीति में क्या भूमिका है? नीतीश कुमार ने खुलकर कभी नहीं कहा कि मैं प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनना चाहता हूँ, पर 10 अगस्त को उन्होंने शपथ लेने के बाद यह कहकर एक नई पहेली पेश कर दी कि मैं 2024 के बाद मुख्यमंत्री पद पर नहीं रहूँगा।

चौबीस या पच्चीस?

बिहार विधानसभा के चुनाव तो 2025 में होने हैं, 2024 में नहीं। लोकसभा चुनाव नहीं, तो 2024 से उनका आशय और क्या हो सकता है? नीतीश कुमार को पीएम मैटीरियल के तौर पर स्थापित करने की कोशिश बरसों पहले से की जा रही है। 2013 में जब नरेंद्र मोदी का नाम बीजेपी के नेता के रूप में लाने की कोशिश की जा रही थी, तब नीतीश कुमार ने उनका विरोध करते हुए कहा था कि देश का प्रधानमंत्री धर्म-निरपेक्ष और उदारवादी होना चाहिए। एक तरह से 2014 में उन्होंने खुद को मोदी के बराबर खड़ा करने की कोशिश की थी, पर वे सफल नहीं हुए। इसके लिए राष्ट्रीय-स्तर पर जो वजन चाहिए, वह उनके पास नहीं था।

कितनी मनोकामनाएं?

नीतीश की छवि अच्छे प्रशासक की भी है, पर अच्छा प्रशासक होना पीएम पद का प्रत्याशी नहीं बनाता। उसके लिए राजनीतिक-प्रभाव और विरोधी दलों के बीच सहमति की जरूरत होगी। नीतीश कुमार 2024 के चुनाव में कितने प्रत्याशियों को जिताकर लोकसभा में ला सकेंगे? पीएम-प्रत्याशी बनने की मनोकामना कुछ और नेताओं के मन में है। उन सबके बीच एक सर्वसम्मत प्रत्याशी का नाम तय करने की प्रक्रिया काफी जटिल होगी। उसमें सबसे बड़ी भूमिका कांग्रेस की होगी, क्योंकि बीजेपी के बाद वह अकेली पार्टी है, जिसकी उपस्थिति देशभर में है।

कांग्रेस का महत्व

हालांकि कांग्रेस के सांसदों की संख्या छोटी है, पर उसकी राष्ट्रीय उपस्थिति बीजेपी से भी बेहतर है। पीएम-प्रत्याशी तो बाद की बात है, पहले देखना होगा कि क्या विरोधी दलों का कोई ऐसा मोर्चा बनना संभव है, जिसमें कांग्रेस, एनसीपी, तृणमूल, सीपीएम, सीपीआई, सीपीएमएल, राजद, जेडीयू, सपा, बसपा, टीआरएस, तेदेपा वगैरह-वगैरह हों?

 

 

Wednesday, August 10, 2022

अब किस दिशा में जाएगी बिहार की राजनीति?

तेलंगाना टुडे में सुरेंद्र का कार्टून

काफी समय से चर्चा थी कि नीतीश कुमार एक बार फिर पाला बदलेंगे, पर शायद उन्हें सही मौके और ऐसे ट्रिगर की तलाश थी, जिसे लेकर वे अपना रास्ता बदलते। यों इसकी संभावना काफी पहले से व्यक्त की जा रही थी। जब जेडीयू के अंदर आरसीपी सिंह पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा, तब इसकी पुष्टि होने लगी। उसके पहले बिहार विधानसभा के शताब्दी समारोह के निमंत्रण पत्र में नीतीश कुमार का नाम नहीं डाला गया, तब भी इस बात का इशारा मिला था कि टूटने की घड़ी करीब है।

बहरहाल बदलाव हो चुका है, इसलिए ज्यादा बड़ा सवाल है कि राज्य की राजनीति अब किस दिशा में बढ़ेगी? क्या तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी ज्यादा समझदार हुई है? कांग्रेस की भूमिका क्या होगी? शेष छोटे दलों का व्यवहार कैसा रहेगा वगैरह?

पीएम मैटीरियल

क्या नीतीश कुमार 2024 में प्रधानमंत्री पद के लिए विरोधी दलों के प्रत्याशी बनकर उभरना चाहते हैं?  राहुल गांधी, ममता बनर्जी, केसीआर और अरविंद केजरीवाल की मनोकामना भी शायद यही है। बहरहाल आरसीपी सिंह ने दो ऐसी बातें कहीं जो नीतीश के कट्टर विरोधी भी नहीं करते। उन्होंने कहा, "नीतीश कुमार कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते, सात जनम तक नहीं।" यह भी कि, "जनता दल यूनाइटेड डूबता जहाज़ है। आप लोग तैयार रहिए।" इन बातों से भी नीतीश कुमार को निजी तौर चोट लगी।

मंगलवार की शाम एक पत्रकार ने प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी से जुड़ा सवाल किया, तो नीतीश ने कहा, नो कमेंट। 2014 से कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार में पीएम मैटीरियल है। जेडीयू संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने इस बार भी गठबंधन से अलग होने से पहले प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि नीतीश कुमार में प्रधानमंत्री बनने के तमाम गुण हैं।

नीतीश कुमार को नज़दीक से जानने वाले कई नेताओं ने तसदीक की है कि प्रधानमंत्री पद की चर्चा होने पर नीतीश खुश होते हैं। आरसीपी सिंह तो उनके बहुत क़रीब रहे हैं। वे उनके मनोभावों को समझते हैं। बीजेपी के राज्यसभा सांसद सुशील मोदी ने ट्वीट किया, यह सरासर सफ़ेद झूठ है कि भाजपा ने बिना नीतीश जी की सहमति के आरसीपी को मंत्री बनाया था। यह भी झूठ है कि जेडीयू को बीजेपी तोड़ना चाहती थी। बल्कि जेडीयू ही तोड़ने का बहाना खोज रही थी।

क्षेत्रीय दलों का भविष्य

उधर 31 जुलाई को बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा कि आने वाले दिनों में सभी क्षेत्रीय दल ख़त्म हो जाएंगे। फिर जिस तरह से महाराष्ट्र में बीजेपी ने शिवसेना को तोड़ा, उसे लेकर भी नीतीश कुमार सशंकित थे। 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू को प्राप्त सीटों में भारी गिरावट भी एक इशारा था। ऊपर कही गई ज्यादातर बातें निजी या पार्टी के हितों को लेकर हैं, जो वास्तविकता है। पर राजनीति पर विचारधारा का कवच चढ़ा हुआ है, जिसका जिक्र अब हो रहा है। यूनिफॉर्म सिविल कोड और तीन तलाक़ जैसे मुद्दों पर और हाल में अग्निवीर कार्यक्रम को लेकर भी उनका दृष्टिकोण बीजेपी के नजरिए से अलग था। जातीय जनगणना को लेकर भी नीतीश कुमार का रास्ता अलग था।

नई ऊर्जा

माना जा रहा है कि इस उलटफेर से विरोधी पार्टियों में नई ऊर्जा देखने को मिलेगी। करीब-करीब ऐसी ही बात 2015 में जब पहली बार महागठबंधन बना तब कही गई थी। हालांकि उस ऊर्जा की हवा नीतीश कुमार ने ही 2017 में निकाल दी। उसके बाद 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जोड़ी भी विफल रही। पर 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद जेडीएस और कांग्रेस की सरकार बन गई, तब एकबार फिर ऊर्जा नजर आने लगी। पर वह ऊर्जा ज्यादा देर चली नहीं। सवाल है कि क्या अब लालू और नीतीश की जोड़ी सफल होगी? इसका जवाब नई सरकार के पहले छह महीनों में मिलेगा। महागठबंधन लंबे समय तक बना रहा और उसके भीतर टकराव नहीं हुआ, तो बिहार की राजनीति में बदलाव होगा। पर इसकी विपरीत प्रतिक्रिया भी होगी।

मित्र-विहीन भाजपा

तेजस्वी यादव ने कहा है कि हिंदी पट्टी वाले राज्यों में बीजेपी का अब कोई भी अलायंस पार्टनर नहीं बचा। उन्होंने कहा, बीजेपी किसी भी राज्य में अपने विस्तार के लिए क्षेत्रीय पार्टियों का इस्तेमाल करती है, फिर उन्हीं पार्टियों को ख़त्म करने के मिशन में जुट जाती है। बिहार में भी यही करने की कोशिश हो रही थी। राजनीति में ऐसा ही होता है। बीजेपी का विस्तार होगा तो किसकी कीमत पर? उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने सपा का विस्तार किया तो गायब कौन हुआ? कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी।

बिहार में भी दो दशक पहले बीजेपी की ताकत क्या थी और आज क्या है? पार्टनर एक-दूसरे के करीब आते हैं, तो अपने हित के लिए आते हैं। नीतीश कुमार और बीजेपी एक-दूसरे के करीब अपने हितों के लिए आए थे। और आज नीतीश कुमार राजद के पास गए हैं, तो इसलिए कि वे 2024 और उससे आगे की राजनीति में खड़े रह सकें।

ताकत बढ़ी

बीजेपी के समर्थक मानते हैं कि फौरी तौर पर राज्य में धक्का जरूर लगा है, पर दीर्घकालीन दृष्टि से बीजेपी के लिए यह फ़ायदे की बात है। बीजेपी खेमे में 2020 के चुनाव परिणाम को लेकर नाराज़गी थी कि जेडीयू को 122 सीटें नहीं दी गई होती, तो बीजेपी अकेले दम पर सरकार बना सकती थी। देखना यह है कि बिहार की जातीय संरचना में अब बीजेपी क्या करती है। नीतीश कुमार के कारण कुर्मी वोट का एक आधार उसके साथ था। इसके अलावा अति-पिछड़े वोटर भी एनडीए के साथ थे। क्या पार्टी बिहार के जातीय-समूहों के बीच से नए नेतृत्व को खोज पाएगी? इसका जवाब मिलने में भी कम से कम छह महीने लगेंगे।

 

 

Tuesday, August 9, 2022

बिहार का धुँधला परिदृश्य


बिहार का राजनीतिक-परिदृश्य अभी तक अस्पष्ट है। राज्य के ज्यादातर दलों के पास गठबंधनों के इतने अच्छे-बुरे अनुभव हैं कि वे सावधानी से कदम बढ़ा रहे हैं। सत्ता-समीकरण इसबार बदले तो वे काफी दूर तक जाएंगे। नहीं बदले, तो उनमें कुछ बुनियादी बदलाव होंगे। पर सबसे महत्वपूर्ण यह देखना होगा कि नीतीश कुमार ने परिस्थितियों का आकलन किस प्रकार किया है और बीजेपी की योजना क्या है। राज्य में जो हो रहा है, उसका स्रोत कहाँ है वगैरह

हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि हमारा गठबंधन दुरुस्त है, पर नीतीश कुमार को समझाने उसका कोई वरिष्ठ नेता इसबार पटना नहीं गया है। जो भी बातें हैं, वह या तो फोन पर हो रही हैं या दिल्ली और पटना में बैठे नेताओं के मार्फत। इस प्रसंग से जुड़े ज्यादातर दलों की बैठकें चल रही हैं। सब इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि नीतीश कुमार की अगली घोषणा क्या होगी।

जेडीयू ने बीजेपी से अलग होने का साफ संकेत दे दिया है। इस संकेत का मतलब क्या है? क्या यह फौरी तौर पर धमकी है या दृढ़-निश्चय? क्या उन्हें राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर जाने में अपना बेहतर भविष्य दिखाई पड़ रहा है या वे केंद्रीय-मंत्रिमंडल में बेहतर भागीदारी चाहते हैं? क्या बीजेपी के रणनीतिकार नीतीश कुमार की भंगिमाओं को सही पढ़ पा रहे हैं या वे ये वे अंधेरे में हैं? 

Monday, August 8, 2022

बिहार की नई राजनीतिक पहेली


बिहार में जेडीयू और बीजेपी गठबंधन की दरार अब साफ दिखाई पड़ रही है। रविवार 7 अगस्त को नीतीश कुमार के नीति आयोग की बैठक में नहीं गए और सोमवार को जेडीयू ने आरोप लगाया है कि नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ साज़िश रची जा रही है। इस विवाद के शुरू होने के साथ ही दोनों पार्टियों के लोकसभा चुनाव साथ में लड़ने को लेकर भी सवाल खड़े हो गए थे।
बिहार में विधानसभा चुनाव 2025 में होंगे, पर तबतक गठबंधन चलेगा या नहीं, यह सवाल खड़ा हो रहा है। इस समय राज्य के राजनीतिक-गठबंधन के टूटने को लेकर कयास जरूर है, पर यह टूट आसान नहीं लग रही है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि टूट चाहता कौन है। 

भाजपा और जदयू के बीच दूरी बढ़ने की शुरुआत कुछ महीने पहले हुई थी। जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर नीतीश कुमार भाजपा से अलग-थलग नजर आए और उन्होंने विपक्षी दलों के साथ जाति आधारित जनगणना की मांग की। कुछ महीने पूर्व नीतीश पीएम की कोरोना पर बुलाई गई बैठक से दूर रहे। हाल में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के सम्मान में दिए गए भोज, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के शपथ ग्रहण समारोह से भी दूरी बनाई। इससे पहले गृह मंत्री अमित शाह की ओर से बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक से दूरी बनाने के बाद अब नीति आयोग की बैठक से भी दूर रहे।

सोनिया गांधी से बात

ताजा विवाद जेडीयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह पर बेहिसाब संपत्ति और अनियमितताओं के आरोपों से शुरू हुआ है और आज खबरें हैं कि नीतीश कुमार ने सोनिया गांधी से फोन पर बात की है। मीडिया में खबरें हैं कि पिछले 15 दिनों में उनकी एकबार नहीं तीन बार सोनिया गांधी बात हुई है। मंगलवार को राजद और जदयू ने विधानमंडल दल की बैठक बुलाई है। पहले राजद और फिर जदयू की बैठक होगी।

जेडीयू ने शनिवार को आरसीपी सिंह को कारण बताओ नोटिस भेजा था, जिसके बाद आरसीपी सिंह ने पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया। आरसीपी सिंह ने कहा कि जेडीयू डूबता हुआ जहाज़ है, हमारे जितने साथी हैं वे जल्द ही कूद जाएँगे और जहाज़ जल्दी डूब जाएगा। आरसीपी सिंह जेडीयू से एकमात्र नेता थे, जो पार्टी की ओर से केंद्र में मंत्री बने थे, जिसके लिए नीतीश कुमार की सहमति नहीं थी।

इस बार जेडीयू ने उन्हें राज्यसभा का टिकट नहीं दिया और वे मंत्री भी नहीं रहे। आरसीपी सिंह के बयान पर जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ़ ललन सिंह ने रविवार को कहा, ''जदयू डूबता हुआ जहाज़ नहीं, बल्कि दौड़ता हुआ जहाज़ है और आने वाले समय में पता लग जाएगा। कुछ लोग उस जहाज़ में छेद करना चाहते थे। नीतीश कुमार ने ऐसे षड्यंत्रकारियों को पहचान लिया।

Sunday, March 13, 2022

‘फूल-झाड़ू’ की सफलता के निहितार्थ


घरों की सफाई में काम आने वाली ‘फूल-झाड़ू’ राजनीतिक रूपक बनकर उभरी है। पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों से तीन बातें दिखाई पड़ रही हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं थी। वहीं, कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है, जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। तीसरे, पंजाब में आम आदमी पार्टी की असाधारण सफलता ने ध्यान खींचा है। चार राज्यों में भाजपा की असाधारण सफलता साल के अंत में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को भी प्रभावित और अंततः 2024 के लोकसभा चुनाव को भी। इस परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा सकता है, खासतौर से उत्तर प्रदेश में। पंजाब में आम आदमी पार्टी के पक्ष में आए इतने बड़े जनादेश के कारण राष्ट्रीय राजनीति में उसकी भूमिका बढ़ेगी। वहीं पुराने राजनीतिक दलों से निराश जनता के सामने उपलब्ध विकल्पों का सवाल खड़ा हुआ है। पंजाब में तमाम दिग्गजों की हार की अनदेखी नहीं की जा सकती। पर आम आदमी पार्टी अपेक्षाकृत नई पार्टी है। क्या वह पंजाब के जटिल प्रश्नों का जवाब दे पाएगी

उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण

हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश की सफलता इन सब पर भारी है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। उसे यह जीत तब मिली है, जब भाजपा-विरोधी राजनीति ने पूरी तरह कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, बीजेपी की सफलता है। महामारी की तीन लहरों, शाहीनबाग की तर्ज पर उत्तर प्रदेश के शहरों में चले नागरिकता-कानून विरोधी आंदोलन, किसान आंदोलन, लखीमपुर-हिंसा और आर्थिक-कठिनाइयों से जुड़ी नकारात्मकता के बावजूद योगी आदित्यनाथ सरकार को लगातार दूसरी बार फिर से गद्दी पर बैठाने का फैसला वोटर ने किया है। पिछले तीन-चार दशक में ऐसा पहली बार हुआ है। बीजेपी को मिली सीटों की संख्या में पिछली बार की तुलना में करीब 50 की कमी आई है। बावजूद इसके कि वोट प्रतिशत बढ़ा है। 2017 में भाजपा को जो वोट प्रतिशत 39.67 था, वह इसबार 41.3 है। समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत भी बढ़ा है। उसे 32.1 प्रतिशत वोट मिले हैं, जो 2017 में 21.82 प्रतिशत थे। यह उसके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसकी कीमत बीएसपी और कांग्रेस ने दी है। कांग्रेस का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 2.33 प्रतिशत है, जो 2017 में 6.25 प्रतिशत था। बसपा का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 12.8 है, जो 2017 में 22 से ज्यादा था। राष्ट्रीय लोकदल का प्रतिशत 3.36 प्रतिशत है, जो 2017 में 1.78 प्रतिशत था। ध्रुवीकरण का लाभ सपा+ को मिला जरूर, पर वह इतना नहीं है कि उसे बहुमत दिला सके।

पंजाब का गुस्सा

उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड में भी बीजेपी को लगातार दूसरी बार सफलता मिली है, जो इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ सीधे दो दलों के बीच मुकाबला होता है। इसे कांग्रेस के पराभव के रूप में भी देखना होगा, क्योंकि पिछले साल केरल में वाम मोर्चा ने कांग्रेस को हराकर लगातार दूसरी बार जीत हासिल की थी। इसी क्रम में पंजाब, मणिपुर और गोवा में कांग्रेस की पराजय को देखना चाहिए, जहाँ वह या तो सत्ताच्युत हुई है या उसने सबसे बड़े दल की हैसियत को खोया है। आम आदमी पार्टी ने पंजाब की 117 सीटों में से 92 पर जीत हासिल की है। कांग्रेस 18 सीट के साथ दूसरे स्थान पर रही। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दो सीटों से लड़े थे। दोनों में हार गए। उनके प्रतिस्पर्धी नवजोत सिंह सिद्धू भी हार गए। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, अमरिंदर सिंह और राजिंदर कौर भट्टल को भी हार का सामना करना पड़ा। लगता है कि पंजाब की जनता परम्परागत राजनीति को फिर से देखना नहीं चाहती। आम आदमी पार्टी नई पार्टी है। फिलहाल उसकी स्लेट साफ है, पर अब उसकी परख होगी। 

Thursday, October 28, 2021

फिलहाल बीजेपी को हिला पाना कांग्रेस के बस की बात नहीं: प्रशांत किशोर


प्रशांत किशोर का कहना है कि भारतीय जनता पार्टी अभी दशकों तक ताकतवर बनी रहेगी। राहुल गांधी को यदि लगता है कि मोदी की लोकप्रियता कम हो रही है, तो वे गलत सोच रहे हैं। प्रशांत किशोर की कंसल्टेंसी संस्था इंडियन पोलिटिकल एक्शन कमेटी (आईपीएसी) इन दिनों तृणमूल कांग्रेस के साथ है और उन्होंने यह बात गोवा में कही है।

इसके पहले प्रशांत किशोर ने इस महीने के शुरू में कहा था कि कांग्रेस पार्टी यदि समझती है कि लखीमपुर खीरी के घटनाक्रम के बाद राहुल और प्रियंका गांधी की आक्रामक मुद्रा से पार्टी का पुनरुद्धार हो जाएगा, तो यह गलत सोच है। प्रशांत किशोर के ताजा बयान बता रहे हैं कि उनकी कांग्रेस पार्टी से दूसरी बन चुकी है, जबकि पिछले महीने तक ऐसा लग रहा था कि शायद वे कांग्रेस पार्टी में बाकायदा शामिल हो जाएं।

जुलाई के महीने में खबरें थीं कि प्रशांत किशोर के साथ राहुलसोनिया और प्रियंका गांधी की एक साथ हुई मुलाक़ात काफ़ी सुर्खियाँ बटोर रही है। समाचार पत्रों से लेकर तमाम न्यूज़ चैनल में सूत्र बता रहे थे कि 'कुछ बड़ाहोने वाला है। यह 'बड़ाक्या हैइसके बारे खुल कर कोई कुछ नहीं बता रहा था। चारों की मुलाक़ात की आधिकारिक पुष्टि भी अंततः हो गई। और लगने लगा कि यह बड़ा प्रशांत किशोर हैं, जो कांग्रेस में बाकायदा शामिल हो सकते हैं। कांग्रेस में उनके शामिल होने की खबर इतने जोरदार तरीके से सुनाई पड़ी है कि राहुल गांधी की करीबी मानी जाने वाली एक नेता ने ट्वीट करके इस खबर का स्वागत भी कर दिया। इसके फौरन बाद यह ट्वीट डिलीट कर दिया गया। पार्टी सूत्रों ने बताया कि इस मुलाकात का अनुरोध प्रशांत किशोर ने किया था। यह मुलाकात चार घंटे तक चली थी।  

इस साल के शुरू में पश्चिम बंगाल में हुए विधान सभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की सफलता के बाद से प्रशांत किशोर का महत्व बढ़ा है। इस बीच तृणमूल कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी गतिविधियाँ बढ़ा दी हैं। गोवा में गतिविधियाँ भी पार्टी के बढ़ते कदमों की ओर इशारा कर रही है।

प्रशांत किशोर का कहना है कि बीजेपी अब भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण बनी रहेगी। वह जीते या हारे उसका वैसा ही महत्व बना रहेगा, जैसा स्वतंत्रता के बाद के पहले 40 वर्षों तक था। जैसे ही कोई पार्टी 30 फीसदी या ज्यादा वोट जीतने लग जाती है, तब उसका मतलब होता है कि जल्द ही उसका महत्व खत्म होने वाला नहीं है।