बीमा संशोधन
अधिनियम पास होने के बाद आर्थिक उदारीकरण से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अध्याय पूरा हो
गया। पर इसके पास होने की प्रक्रिया ने हमारे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक
अंतर्विरोधों को खोलकर रख दिया। क्या वजह थी कि पिछले छह साल से यह विधेयक अटका
पड़ा था? भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ने अपने-अपने मौकों पर इसका कभी समर्थन
और कभी विरोध किया। इस बार विदेशी निवेश की सीमा 26 से बढ़ाकर 49 फीसदी करने का
मामला था। यह तमाशा तब भी हुआ था जब इस क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोला गया। 1997
में जब चिदम्बरम वित्त मंत्री थे, बीमा निजीकरण के बिल का भाजपा ने विरोध किया। जब अपनी सरकार
आई तो उसने बीमा में विदेशी पूँजी के दरवाजे खोले। उस वक्त कांग्रेस ने उसका विरोध
किया। और जब यूपीए ने विदेशी पूँजी निवेश की सीमा बढ़ाने की कोशिश की तो भाजपा ने
उसका विरोध किया। और जब भाजपा सरकार आई तो कांग्रेस ने अपने ही विधेयक का विरोध
किया। बेशक हर बार कोई न कोई तर्क उनके पास होता है।