इस साल फरवरी में हुए पुलवामा कांड के ठीक बीस साल
पहले पाकिस्तानी सेना कश्मीरी चरमपंथियों की आड़ में कारगिल की पहाड़ियों पर कब्जा
जमा रही थी। यह एक अप्रत्याशित प्रयास था, धोखाधड़ी का। भारतीय सेना ने उस प्रयास
को विफल किया और कारगिल की पहाड़ियों पर फिर से तिरंगा फहराया, पर इस युद्ध ने
भारतीय रक्षा-नीति को आमूल बदलने की प्रेरणा दी। साथ ही यह सीख भी दी कि भविष्य
में पाकिस्तान पर किसी भी रूप में विश्वास नहीं करना चाहिए।
कारगिल के बाद भी भारत ने पाकिस्तान के प्रति काफी लचीली
नीति को अपनाया था। परवेज मुशर्रफ को बुलाकर आगरा में उनके साथ बात की, पर परिणाम
कुछ नहीं निकला। सन 1947 के बाद से पाकिस्तान ने कश्मीर को हथियाने के कम से कम
तीन बड़े प्रयास किए हैं। तीनों में कबायलियों, अफगान मुजाहिदों और कश्मीरी जेहादियों
के लश्करों की आड़ में पाकिस्तानी फौज पूरी तरह शामिल थी। कारगिल की परिघटना भी उन्हीं
प्रयासों का एक हिस्सा थी।
बालाकोट में नई लक्ष्मण रेखा
कारगिल के बाद मुम्बई, पठानकोट, उड़ी और फिर पुलवामा
जैसे कांडों के बाद पहली बार भारत ने 26 फरवरी को बालाकोट की सीधी कार्रवाई की है।
यह नीतिगत बदलाव है। बालाकोट के अगले दिन पाकिस्तानी वायुसेना ने नियंत्रण रेखा को
पार किया। यह टकराव ज्यादा बड़ा रूप ले सकता था, पर अंतरराष्ट्रीय प्रभाव और दबाव
में भारत ने अपने आप को रोक लिया, पर अब एक नई रेखा खिंच गई है। भारत अब कश्मीर के
तथाकथित लश्करों, जैशों और हिज्बों के खिलाफ सीधे कार्रवाई करेगा।
3 मई, 1999 को
पहली बार हमें कारगिल में पाकिस्तानी कब्जे की खबरें मिलीं और 26 जुलाई को पाकिस्तानी
सेना आखिरी चोटी से अपना कब्जा छोड़कर वापस लौट गई। करीब 50 दिन की जबर्दस्त लड़ाई
के बाद भारतीय सेना ने इन चोटियों पर कब्जा जमाए बैठी पाकिस्तानी सेना को एक के
बाद एक पीछे हटने को मजबूर कर दिया। इसके साथ ऑपरेशन विजय पूरा हुआ।
पाकिस्तानी सेना ने
अपने नियमित सैनिकों को नागरिकों के भेस में नियंत्रण रेखा को पार करके इन चोटियों
पर पहुँचाया और करीब दस साल से चले आ रहे भारत-विरोधी छाया युद्ध को एक नया आयाम
दिया। ऊंची पहाड़ियों पर यह अपने किस्म का सबसे बड़ा युद्ध हुआ है। इसमें विजय
हासिल करने के लिए हमें युद्ध ने भारतीय
रक्षा-प्रतिष्ठान को एक बड़ा सबक दिया।
इस युद्ध में
भारतीय सेना के 500 से ज्यादा सैनिक शहीद हुए। चोटी पर बैठे दुश्मन को हटाने के
लिए तलहटी से किस तरह वे ऊपर गए होंगे, इसकी कल्पना करना भी आसान नहीं है। वायुसेना
के लड़ाकू विमानों और हेलिकॉप्टरों ने भी इसमें भाग लिया। सरकार ने 25 मई को इसकी
अनुमति दी, पर ‘ऑपरेशन सफेद सागर’ के पहले ही
दिन 26 मई को परिस्थितियों का अनुमान
लगाने में गलती हुई और एक मिग-21 विमान दुश्मन की गोलाबारी का शिकार हुआ। एक
मिग-27 दुर्घटनाग्रस्त हुआ। इसके अगले रोज 27 मई को हमारा एक एमआई-17 हेलिकॉप्टर
गिराया गया।
वायुसेना का महत्व
इन विमानों के
गिरने के बाद ही यह बात समझ में आ गई थी कि शत्रु पूरी तैयारी के साथ है। उसके पास
स्टिंगर मिसाइलें हैं। हेलिकॉप्टरों को फौरन कार्रवाई से हटाया गया। वायुसेना ने
अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना शुरू किया। 30 मई के बाद वायुसेना ने मिरा-2000
विमानों से लेजर आधारित गाइडेड बमों का प्रयोग शुरू किया। काफी ऊंचाई से ये विमान
अचूक निशाना लगाने लगे।
दुर्भाग्य से मिराज-2000
के साथ आई लेजर बमों की किट कारगिल के ऑपरेशन के लिए उपयुक्त नहीं पाई गई। ऐसे में
वायुसेना के तकनीशियनों ने अपने कौशल से उपलब्ध लेजर किटों का इस्तेमाल किया। जून
के महीने में इन हवाई हमलों की संख्या बढ़ती गई और भारतीय विमानों ने दूर से न
केवल चोटियों पर जमे सैनिकों को निशाना बनाया, साथ ही नियंत्रण रेखा के दूसरी तरफ
बनाए गए उनके भंडारागारों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया।
जुलाई आते-आते स्थितियाँ
काफी नियंत्रण में आ गईं। भारत के बहादुर इनफेंट्री सैनिकों ने एक-एक इंच करते हुए
पहाड़ियों पर फिर से कब्जा कायम किया, जिसमें उनकी सहायता तोपखाने की जबर्दस्त
गोलाबारी ने की। कश्मीरी उग्रवाद की आड़ में इस घुसपैठ को बढ़ावा देने के पीछे
पाकिस्तानी सेना का सामरिक उद्देश्य हिंसा को भड़काना था, जिसे वे जेहाद कहते हैं,
ताकि दुनिया का ध्यान कश्मीर के विवाद की ओर जाए।
द्रास, मुश्कोह
घाटी और काक्सर सेक्टर में उनका फौजी लक्ष्य था, श्रीनगर-लेह राष्ट्रीय मार्ग 1ए
को कारगिल जिले से अलग करना ताकि भारत को लेह से जोड़ने वाली जीवन-रेखा कट जाए और
सियाचिन ग्लेशियर के पश्चिम में स्थित साल्तोरो रिज की रक्षा करने वाली भारतीय
सेना को रसद मिलना बंद हो जाए।
एक और सैनिक
लक्ष्य था, कश्मीर घाटी और पीर पंजाल पर्वत माला के दक्षिण के डोडा क्षेत्र में
अमरनाथ की पहाड़ियों तक घुसपैठ का एक नया रास्ता खोला जा सके। सियाचिन ग्लेशियरों
की पट्टी से लगी बटालिक और तुर्तक घाटी में पाकिस्तानी सेना एक मजबूत बेस बनाना
चाहती थी, जिससे कि श्योक नदी घाटी के रास्ते से बढ़ते हुए वह भारत की सियाचिन
ब्रिगेड से एकमात्र सम्पर्क को काट दे।
निशाना था सियाचिन
इन लक्ष्यों के
अलावा पाकिस्तानी सेना यह भी चाहती थी कि कारगिल जिले में नियंत्रण रेखा के भारतीय
क्षेत्र पर कब्जा कर लिया जाए, ताकि इसके बाद मोल-भाव किया जा सके। खासतौर से
सियाचिन क्षेत्र से भारतीय सेना की वापसी सुनिश्चित की जा सके। कारगिल अभियान के
पीछे सबसे बड़ी कामना था सियाचिन को हथियाना, जो 1984 से भारतीय सेना के नियंत्रण
में है। तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वेद प्रकाश मलिक ने अपनी पुस्तक ‘कारगिल-एक अभूतपूर्व विजय’ में लिखा है कि पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ का एक प्रमुख
कारण और सैन्य उद्देश्य सियाचिन ग्लेशियर पर फिर से कब्जा जमाना था।