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Thursday, June 22, 2023

विरोधी-एकता को लेकर पटना की बैठक के पहले उठते सवाल


अगले आम चुनाव की रणनीति बनाने के लिए 23 जून को पटना में विपक्षी पार्टियों की मीटिंग के लिए जारी तैयारियों के बीच खींचतान के भी संकेत मिल रहे हैं। यह खींचतान कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से जुड़ी है। आम आदमी पार्टी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एक चिट्ठी लिख कर कहा है कि मीटिंग में सबसे पहले 'दिल्ली अध्यादेश' पर बात होनी चाहिए। वहीं इस बैठक में ममता बनर्जी के भाषण पर सबका ध्यान रहेगा। इस बैठक में देश भर से 20 विपक्षी पार्टियों के शीर्ष नेता शामिल हो रहे हैं, जिसमें बीजेपी के ख़िलाफ़ एक साझा एक्शन प्लान पर बात होनी है। बीजू जनता दल, तेलुगु देसम, वाईएसआर कांग्रेस, अकाली दल जैसी कुछ पार्टियों ने इस एकता में दिलचस्पी नहीं दिखाई है।

यह बैठक भले ही बुलाई नीतीश कुमार ने है, पर उन्हें ममता बनर्जी ने प्रेरित किया है। विरोधी दलों की एकता पर सभी दलों की सिद्धांततः सहमति है, पर नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और के चंद्रशेखर राव के दृष्टिकोण कुछ अलग हैं। चंद्रशेखर राव तो इस बैठक में शामिल ही नहीं हो रहे हैं। सब जानते हैं कि तेलंगाना में उनका मुकाबला कांग्रेस पार्टी से है।

Monday, June 5, 2023

विरोधी-एकता के असमंजस


आगामी 12 जून को पटना में प्रस्तावित विरोधी दलों की एकता-बैठक एक बार फिर से स्थगित हो गई है। हालांकि इसकी अगली तारीख तय नहीं है, पर संभावना है कि अब यह बैठक 23 जून को हो सकती है। इसका स्थान भी पटना के बजाय कहीं और हो सकता है। इसे शिमला में भी किया जा सकता है। कांग्रेस पहले से 23 जून की बात कह रही थी, पर जेडीयू ने 12 जून की घोषणा कर दी थी।

विरोधी-एकता की एक परीक्षा संसद के मॉनसून सत्र में होगी, जब दिल्ली की प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़े अध्यादेश का स्थान लेने वाला विधेयक पेश किया जाएगा। बहरहाल 12 जून की बैठक में शामिल होने के लिए 16 पार्टियों ने सहमति दी थी, जिनमें आम आदमी पार्टी भी शामिल है। इस बैठक को लेकर नीतीश कुमार के अलावा अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, शरद पवार इसे लेकर काफी उत्साहित हैं।

हिंदी बेल्ट

ममता बनर्जी ने एक वीडियो जारी करके पटना आने और बैठक में शामिल होने का बयान भी दिया है। ममता बनर्जी ने कहा कि पटना में होने वाली विपक्ष की एकता की बैठक से हिंदी बेल्ट में बेहतर असर होगा। हालांकि ममता ने इस बात को खुलकर नहीं कहा है, पर जो बातें सामने आ रही हैं, उनसे संकेत मिलता है कि उन्होंने ही नीतीश कुमार को सलाह दी थी कि आप अपनी तरफ से पहल करें। 12 जून की बैठक उसी पहल का परिणाम थी। ममता बनर्जी सत्तर के दशक में जय प्रकाश नारायण की पहल का इस सिलसिले में उदाहरण देती हैं।

Thursday, March 30, 2023

सोमवार को चेन्नई में दिखाई पड़ेगी विरोधी दलों की एकता

साभार सतीश आचार्य का पुराना कार्टून

कर्नाटक विधानसभा के चुनाव की घोषणा होने और राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता जाने के साथ विरोधी दलों की एकता के प्रयासों में फिर से तेजी आ गई है। सोमवार 3 अप्रेल को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने 16 विरोधी दलों की बैठक बुलाई है। जिन दलों को निमंत्रण दिया गया है, उनमें बीजू जनता दल और वाईएसआर कांग्रेस भी शामिल है। वे आएंगे या नहीं इसे लेकर कयास हैं। ये दोनों दल अभी तक विरोधी दलों के किसी भी गठबंधन में शामिल होने से बचते रहे हैं।

वाईएसआर कांग्रेस ने गुरुवार को कहा भी है कि हमें बुलाया नहीं गया है और हम शामिल भी नहीं होंगे। बीजद ने भी बैठक में भाग लेने के बारे में कुछ भी नहीं कहा है। अलबत्ता इस सम्मेलन के आयोजनकर्ताओं का कहना है कि बीजद के राज्यसभा मुख्य सचेतक सस्मित पात्रा बैठक में शामिल होंगे। विरोधी दलों के नेता यह भी मानते हैं कि ये दोनों दल एनडीए के करीब रहते हैं। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार जब सस्मित पात्रा से संपर्क किया गया, तो उन्होंने कहा कि मैं कह नहीं सकता कि बीजद इस बैठक में शामिल होगा या नहीं। मेरे पास इसमें हिस्सा लेने के बारे में कोई जानकारी नहीं है।

एकता के सूत्र

बहरहाल बैठक के आयोजकों के अनुसार डीएमके की इस बैठक में शामिल होने के लिए कांग्रेस, जेएमएम, राजद, जेडीयू, तृणमूल कांग्रेस, सपा, वाईएसआरसीपी, बीजद, नेकां, बीआरएस, कम्युनिस्ट पार्टी, माकपा, राकांपा, आम आदमी पार्टी, आईयूएमएल, एमडीएमके को आमंत्रित किया गया है। अब पहली बार मोदी विरोध के नाम पर ही सही कम से कम 14 या 15 दल अब एक साथ बैठने को तैयार नज़र आ रहे हैं।

Friday, December 24, 2021

पत्रकारिता के नाम ममता बनर्जी का यह कैसा संदेश है?


पश्चिम बंगाल सरकार और पत्रकारों के रिश्तों से जुड़ी दो खबरें हाल में पढ़ने को मिलीं। दोनों हालांकि दो विपरीत दिशाओं में थीं, पर दोनों के पीछे इरादा एक ही नज़र आ रहा था। सत्ताधारी की तारीफ करोगे तो वह आपको खुशी देगा, नहीं करोगे तो वह आपको खुश नहीं रहने देगा। सिद्धांत तो यह कहता है कि पत्रकार की जिम्मेदारी तथ्यों के आधार पर समाचार और विचारों को प्रकाशित करने की होती है। विज्ञापन पाना या प्रचार करना उसका काम नहीं है। दूसरी तरफ विचार और अभिव्यक्ति की मर्यादा को बनाए रखने के लिए उसकी जिम्मेदारियाँ भी हैं, जो उसे सकारात्मकता से जोड़ती हैं। जरूरी होने पर ताकतवर से भिड़ने का साहस भी रखता है। दूसरी तरफ राजनीति और सत्ता की सैद्धांतिक-मर्यादा कहती है कि राज-शक्ति का इस्तेमाल न तो वैचारिक दमन के लिए हो और न प्रचार को
खरीदने के लिए।

सेवा करो, मेवा पाओ

हाल में ममता बनर्जी का एक वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें वे कह रही हैं कि अखबारों को विज्ञापन चाहिए, तो सकारात्मक खबरें लिखें। सकारात्मक का मतलब है सरकार के पक्ष में। यह बात उन्होंने छिपाकर नहीं, एक सम्मेलन में खुलेआम कही है। उन्होंने यह भी कहा है कि स्थानीय अखबारों को विज्ञापन हासिल करने हैं, तो ज़िला मजिस्ट्रेट के दफ्तर में पॉजिटिव खबरों वाली प्रतियाँ जमा करें। फिर उन्हें विज्ञापन मिलेंगे। सकारात्मक और नकारात्मक खबरों का अर्थ बहुत व्यापक है। किसी भी सकारात्मक सूचना को तथ्यों में तोड़-मरोड़ करके नकारात्मक बनाया जा सकता है। जीवन के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष भी होते हैं। पर यह चर्चा फिलहाल कवरेज के राजनीतिक निहितार्थ तक सीमित है।

Friday, December 3, 2021

कांग्रेस के बगैर क्या ममता सफल होंगी?

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बुधवार 1 दिसंबर को मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता शरद पवार से मुलाक़ात के बाद पत्रकारों से कहा, "यूपीए क्या है? कोई यूपीए नहीं है।" पत्रकारों ने उनसे पूछा था कि क्या शरद पवार को यूपीए का नेतृत्व करना चाहिए? इसके जवाब में ममता बनर्जी ने यूपीए पर ही सवाल उठा दिया। साथ ही कांग्रेस को लगभग खारिज करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि सभी क्षेत्रीय पार्टियां साथ आ जाएं तो बीजेपी को आसानी से हराया जा सकता है। हालांकि तृणमूल कांग्रेस 2012 में ही यूपीए से अलग हो चुकी थी, पर यूपीए का अस्तित्व आज भी बना हुआ है, पर उससे जुड़े कई सवाल हैं। मसलन महाराष्ट्र में महाराष्ट्र विकास अघाड़ी की सरकार है यूपीए की नहीं।

तृणमूल नेताओं का कहना है पार्टी के विस्तार को कांग्रेस के खिलाफ कदम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। पर ममता बनर्जी ने बयान दिया कि बीजेपी से लड़ने की इच्छा रखने वाले हर नेता का वह स्वागत करेंगी। साफ है कि पार्टी की रणनीति में यह नया बदलाव है। अलबत्ता ममता बनर्जी ने महाराष्ट्र में जो आक्रामक मुद्रा अपनाई उससे बीजेपी के बजाय विरोधी दलों में तिलमिलाहट नजर आ रही है।

राहुल पर हमला

कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व पर सीधा हमला बोलते हुए ममता ने कहा कि ज्यादातर समय विदेश में बिताते हुए आप राजनीति नहीं कर सकते। उनका इशारा राहुल गांधी की तरफ था। ममता ने कहा, "आज जो परिस्थिति चल रही है देश में, जैसा फासिज्म चल रहा है, इसके ख़िलाफ़ एक मज़बूत वैकल्पिक ताक़त बनानी पड़ेगी, अकेला कोई नहीं कर सकता है, जो मज़बूत है उसे लेकर करना पड़ेगा।"

ममता बनर्जी इन दिनों पश्चिम बंगाल के बाहर राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा ले रही हैं। उन्होंने स्वयं बाहर के कई दौरे किए हैं और विरोधी दलों के नेताओं से मुलाक़ात की है। राजनीतिक विश्लेषक इसे ममता बनर्जी की विपक्ष की राजनीति में कांग्रेस की जगह लेने की कोशिश के रूप में देखते हैं। साथ ही यह भी कि ममता बनर्जी अपनी स्थिति को मजबूत बना रही हैं, ताकि आने वाले समय में उन्हें कांग्रेस के साथ सौदेबाजी करनी पड़े, तो अच्छी शर्तों पर हो। 

ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस यूपीए का हिस्सा रही है, लेकिन साल 2012 में वे इससे अलग हो गईं। पर कांग्रेस के साथ मनमुटाव उसके भी काफी पहले से शुरू हो चुका था। सन 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में यह साफ नजर आने लगा, जब ममता बनर्जी और मुलायम सिंह ने मिलकर एपीजे अब्दुल कलाम का नाम आगे कर दिया था। 2014 और फिर 2019 चुनावों में बीजेपी की जीत के बाद ये गठबंधन सिमट गया है.

क्या है यूपीए?

2004 में बनीं राजनीतिक परिस्थितियों के जवाब में कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए बना था। चार वामदलों- सीपीएम, सीपीआई, आरएसपी और फॉरवर्ड ब्लॉक ने गठबंधन का समर्थन तो किया लेकिन सरकार में शामिल नहीं हुए. वामदलों ने सरकार का समर्थन करने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम-सीएमपी) पर हस्ताक्षर किए। यह समझौता 14 मई 2004 को हुआ था।

Monday, November 29, 2021

तृणमूल ने कांग्रेस से दूरी बनाई


 इस साल के शुरू में लगता था कि तृणमूल पार्टी तो गई। पश्चिम बंगाल के चुनाव में उसकी पराजय का मतलब था उसके समूचे राजनीतिक आधार का सफाया। पर अब लगता है कि यह पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर खड़ी हो रही है और बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस का विकल्प भी बनने को उत्सुक है। हालांकि त्रिपुरा के स्थानीय निकाय चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को भारी विजय मिली है, पर तृणमूल कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरी है। यानी त्रिपुरा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, अब दूसरे नंबर की पार्टी भी नहीं रही, जबकि पश्चिम बंगाल की तरह त्रिपुरा भी उसका गढ़ था।

विरोधी दलों के साझा बयान में
तृणमूल का नाम नहीं
अब तृणमूल कांग्रेस गोवा में अपनी किस्मत आजमाने जा रही है। पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरी बार चुनाव जीत जाने के बाद उसका आर्थिक आधार भी अपेक्षाकृत मजबूत है। देश में राजनीतिक धन-संकलन की व्यवस्था अपारदर्शी होने के कारण केवल अनुमान ही लगाए जा सकते हैं कि पैसा किस तरह आया होगा।

उधर विरोधी एकता का सवाल पहले ही दिन खड़ा हो गया है। राज्यसभा में कांग्रेसटीएमसी और शिवसेना के 12 सदस्यों को अनुशासनहीनता के आरोप में पूरे सत्र के लिए निलंबित करने की कार्रवाई के विरुद्ध विरोधी दल एकसाथ खड़े नजर आ रहे हैं, पर इस एकता में भी पेच नजर आ रहा है।

इन सांसदों को निलंबित करने के मामले में विपक्षी दलों ने संयुक्त बयान जारी किया है। हालांकि टीएमसी के सांसदों का निलंबन भी हुआ है, पर विपक्षी दलों की ओर से जारी संयुक्त बयान में टीएमसी शामिल नहीं है। बयान में 12 सांसदों के निलंबन के फैसले की निंदा की गई है और इसे अलोकतांत्रिक निलंबन करार दिया है। निलंबन के बाद कई सांसदों ने इस फैसले पर आपत्ति जताई है। विरोधी दलों ने कल यानी 30 नवंबर को कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के दफ्तर में बैठक बुलाई है।

Saturday, November 27, 2021

ममता अब राष्ट्रीय-राजनीति में उतरेंगी, कांग्रेस और बीजेपी दोनों का विकल्प बनेंगी?


ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने पिछले कुछ वर्षों में जो गतिविधियाँ की उन्हें देखते हुए उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं की भनक लगती थी, पर पिछले एक हफ्ते की गतिविधियों से लगता है कि वे अब खुलकर इस मैदान में हैं और भारतीय जनता पार्टी के विकल्प के रूप में कांग्रेस के बजाय खुद को पेश करने जा रही हैं। यह बात उनकी पार्टी के हित में जरूर है, पर कांग्रेस के लिए चिंता का विषय है।

जानकारों का यह भी कहना है कि ममता बनर्जी ने कांग्रेस के नेताओं को तोड़ा है, कुछ समय बाद बीजेपी के भी कई क्षुब्ध नेताओं को भी तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने का रास्ता नजर आ सकता है। यशवंत सिन्हा पहले ही शामिल हो चुके हैं, जबकि तृणमूल कांग्रेस कई अन्य 'क्षुब्ध' बीजेपी नेताओं से संपर्क बना रही है. हाल में ममता बनर्जी ने अपने दिल्ली दौरे के दौरान भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी से मुलाकात की। टीएमसी सांसद अभिषेक बनर्जी के दिल्ली आवास पर हुई बैठक के बाद राजनीतिक गलियारों में अटकलें लगाई जाने लगी कि भाजपा नेता स्वामी टीएमसी में शामिल होने वाले हैं। अलबत्ता स्वामी ने इन आरोपों को नकार दिया।

ममता बनर्जी ने भविष्य में मुम्बई यात्रा का कार्यक्रम भी बनाया है। वहाँ शरद पवार और शिवसेना के उद्धव ठाकरे के साथ वे एक लंबे अर्से से संपर्क में हैं। शरद पवार वर्षों से यह बात कह रहे हैं कि कांग्रेस से टूटी पार्टियों को एकसाथ आना चाहिए। तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अलावा आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस भी ऐसी ही एक पार्टी है।

मेघालय में बगावत

हाल में अपने दो दिन के दौरे पर आई ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी से मुलाकात नहीं की, तो पत्रकारों ने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों हुआ। उन्होंने जो जवाब दिया, उससे लगता है कि वे कांग्रेस से टकराव मोल लेने को तैयार हैं। उन्होंने कहा कि सोनिया गांधी से मुलाकात करने की कोई सांविधानिक जिम्मेदारी नहीं है। मुलाकात न होने की तुलना में दोनों के रिश्तों में कड़वाहट के ज्यादा बड़े कारण मेघालय में पैदा हुए हैं, जहाँ पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा समेत कांग्रेस पार्टी के 17 में 12 विधायक तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए हैं।

Tuesday, June 22, 2021

आज की बैठक के पीछे हैं एनसीपी और तृणमूल की चुनावी महत्वाकांक्षाएं

 


नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के प्रमुख शरद पवार तृणमूल कांग्रेस के यशवंत सिन्हा की पहल पर आज दिल्ली में बुलाई गई बीजेपी-विरोधी बैठक में कांग्रेस और वामदलों के शामिल होने की सम्भावनाएं कम हैं। इस बैठक के पहले सुबह एनसीपी के राष्ट्रीय पदाधिकारियों की बैठक भी होने जा रही है। दूसरी तरफ कश्मीर को लेकर प्रधानमंत्री द्वारा 24 जून को बुलाई गई बैठक के सिलसिले में गुपकार समूह की बैठक भी आज हो रही है।

यशवंत सिन्हा ने इस बैठक की खबर को मीडिया में मिले महत्व पर हैरत जाहिर की है। उनके विचार से यह मामूली बैठक है। इसके पहले राष्ट्र मंच की बैठकों पर कोई ध्यान नहीं देता था। यह बैठक शरद पवार के घर पर नहीं हुई होती, तो शायद इसबार भी इसपर ध्यान नहीं जाता। और बैठक हो रही है, तो कुछ बातें भी होंगी। बहरहाल आज की बैठक उस फेडरल फ्रंट की तैयारी लगती है, जिसकी पेशकश 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले टीआरएस के चंद्रशेखर राव ने की थी और जिसका समर्थन ममता बनर्जी और नवीन पटनायक ने किया था।

यह गतिविधि उत्तर प्रदेश के चुनाव के पहले हो रही है। तृणमूल कांग्रेस की कामना उत्तर प्रदेश में प्रवेश करने की है। आम आदमी पार्टी ने भी उत्तर प्रदेश के मंसूबे बाँध रखे हैं। देखना होगा कि इस वक्त इस मोर्चे में शामिल होने को उत्सुक कितने दल हैं। क्या समाजवादी पार्टी भी इसमें शामिल होगी? नवाब मलिक ने जो सूची जारी की है, उसमें अखिलेश यादव का नाम नहीं है।

Thursday, May 6, 2021

राष्ट्रीय स्तर पर ममता बनर्जी क्या विरोधी दलों की नेता बनेंगी?


बंगाल के चुनाव-परिणाम आने के बाद यह बात उठने लगी है कि क्या ममता बनर्जी को राष्ट्रीय स्तर पर आगे रखने का समय आ गया है। क्या कांग्रेस के बजाय तृणमूल कांग्रेस विपक्ष के अग्रिम दस्ते की भूमिका निभा सकती है? एनसीपी के प्रमुख शरद पवार एक अरसे से कांग्रेस से टूटे हुए दलों की एकता स्थापित करने के प्रयास कर रहे हैं। इसबार के चुनाव के ठीक पहले उन्होंने ममता बनर्जी का समर्थन किया था, जबकि कांग्रेस भी बंगाल के चुनाव मैदान में थी। वे मार्च में ममता की रैली में भी शामिल होने वाले थे, पर आए नहीं।

ममता बनर्जी पिछले कई साल से शिवसेना के सम्पर्क में भी हैं। चूंकि शिवसेना का गठबंधन बीजेपी के साथ चल रहा था, इसलिए ममता बनर्जी ने खुलेआम शिवसेना के नेताओं के साथ उपस्थिति दर्ज नहीं कराई। राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यू, जेडीएस और आम आदमी पार्टी के नेताओं के साथ भी उनका अच्छा सम्पर्क है। बावजूद इन बातों के ममता के नेतृत्व से जुड़े कुछ सवाल हैं।

पहला सवाल है कि ममता के नेतृत्व में विरोधी दलों की एकता का मतलब क्या है? क्या इसमें कांग्रेस भी शामिल होगी? इसका मतलब क्या? ममता यूपीए में शामिल होंगी या यूपीए ममता को अपना नेता बनाएगा? दूसरे ममता पर बंगाल की नेता का ठप्पा लगा है। बीजेपी के खिलाफ उन्होंने ‘आमार बांग्ला’ और बीजेपी के ‘बाहरी लोग’ का सवाल उठाया था। इसका लाभ उन्हें मिला, पर उत्तर भारत के हिन्दी इलाकों और गुजरात के वोटर के मन में भारतीय राष्ट्र-राज्य की जो छवि है, उसमें क्षेत्रीयता की एक सीमित भूमिका है। कमजोर हिन्दी और सीमित राष्ट्रीय अपील का उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है, लेकिन मोदी के मुकाबले खड़े होने का लाभ भी उन्हें मिलेगा।

Monday, May 3, 2021

बंगाल के परिणामों का राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा असर होगा

रविवार को जब बंगाल के चुनाव परिणाम आ ही रहे थे, तभी खबर आई कि तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने आरामबाग स्थित भाजपा कार्यालय में आग लगा दी। बंगाल की राजनीतिक संस्कृति में यह बात सामान्य लगती है, पर क्या तृणमूल इसे आगे भी चला पाएगी? क्या बंगाल के तृणमूल-मॉडल को जनता का समर्थन मिल गया है? या यह ममता बनर्जी के चुनाव-प्रबंधन की विजय है?

बंगाल के इस परिणाम का देश के राजनीतिक भविष्य पर गहरा असर होने वाला है। इसका बीजेपी और उसके संगठन, कांग्रेस और उसके संगठन तथा विरोधी दलों के गठबंधन पर असर होगा। ममता बनर्जी अब राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के मुकाबले में उतरेंगी। वे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को जितनी बड़ी चुनौती पेश करेंगी, उतनी ही बड़ी चुनौती कांग्रेस और उसके नेता-परिवार के लिए खड़ी करेंगी।

विरोधी-राजनीति

दूसरी तरफ विरोधी दल यदि ममता बनर्जी के नेतृत्व में गोलबंद होंगे, तो इससे कांग्रेस की राजनीति भी प्रभावित होगी। सम्भव है राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ममता के नेतृत्व को स्वीकार कर ले, पर उसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा, यह भी देखना होगा। राहुल का मुकाबला अब ममता से भी है। इसकी शुरूआत इस चुनाव के ठीक पहले शरद पवार ने कर दी थी। वे एक अरसे से इस दिशा में प्रयत्नशील थे।

Friday, April 30, 2021

बंगाल में ‘पोरिबोर्तोन’ की आहट


पश्चिम बंगाल में आठवें चरण का मतदान पूरा हो जाने के बाद देर रात तक चैनलों पर एग्जिट पोल का अटकल-बाजार लगा रहा, जिसमें चार राज्यों को लेकर करीब-करीब एक जैसी राय थी, पर बंगाल को लेकर दो विपरीत राय थीं। शेष चार राज्यों को लेकर आमतौर पर सहमति है, केवल सीटों की संख्या को लेकर अलग-अलग राय हैं।

वस्तुतः इन पाँच राज्यों में से बंगाल के परिणाम देश की राजनीति को सबसे ज्यादा प्रभावित करेंगे। यहाँ का बदलाव देश की राजनीति में कुछ दूसरे बड़े बदलावों का रास्ता खोलेगा। कांग्रेस के भीतर नेतृत्व को लेकर चल रही बहस और तीखी होगी। साथ ही यूपीए की संरचना में भी बड़े बदलाव हो सकते हैं।

बंगाल में पिछले छह दशकों से अराजक राजनीति ने गहराई तक जड़ें जमा ली हैं। आर्थिक गतिविधियाँ नहीं होने के कारण राजनीति ही व्यवसाय बन गई है। सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ता ही सरकारी धन के इस्तेमाल का माध्यम बनते हैं। इसकी परम्परा सीपीएम के शासन से पड़ी है। कोई भी काम कराने में स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं की भूमिका होती है। गाँवों में इतनी हिंसा के पीछे भी यही राजनीति है। राजनीति ने यहाँ के औद्योगीकरण में भी अड़ंगे लगाए। इस संस्कृति को बदलने की जरूरत है।

बंगाल का नारा है पोरिबोर्तोन। सन 2011 में ममता बनर्जी इसी नारे को लगाते हुए सत्ता में आईं थीं और अब यही नारा उनकी कहानी का उपसंहार लिखने की तैयारी कर रहा है। बंगाल के एग्जिट पोल पर नजर डालें, तो इस बात को सभी ने माना है कि राज्य में तृणमूल कांग्रेस का पराभव हो रहा है और भारतीय जनता पार्टी का उभार। यानी कांग्रेस-वाममोर्चा गठबंधन के धूल-धूसरित होने में किसी को संदेह नहीं है।

Friday, December 25, 2020

बीजेपी-विरोध के अंतर्विरोध


ज्यादातर विरोधी दलों के निशाने पर होने के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर कोई महामोर्चा नहीं बन पाना, अकेला ऐसा बड़ा कारण है, जो भारतीय जनता पार्टी को क्रमशः मजबूत बना रहा है। अगले साल पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में यह बात नजर आएगी, पर उसकी एक झलक इस समय भी देखी जा सकती है।

बीजेपी के खिलाफ रणनीति में एक तरफ ममता बनर्जी मुहिम चला रही हैं, वहीं सीपीएम ने कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर 11 पार्टियों का जो संयुक्त बयान जारी किया है, उसमें तृणमूल का नाम नहीं है। यह बयान केंद्र सरकार के कृषि-कानूनों के विरोध में है। इसपर उन्हीं 11 पार्टियों के नाम हैं, जिन्होंने किसान-आंदोलन के समर्थन में 8 दिसंबर के भारत बंद का समर्थन किया था।

Tuesday, June 18, 2019

‘फायरब्रैंड छवि’ बनी ममता की दुश्मन


Image result for mamata banerjeeपश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की फायरब्रैंड छवि खुद उनकी ही दुश्मन बन गई है. हाल में हुए लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को लगे धक्के से उबारने की कोशिश में उन्होंने कुछ ऐसी बातें कह दीं है जिनसे वे गहरे संकट में फँस गईं हैं. उनकी कर्ण-कटु वाणी ने देशभर के डॉक्टरों को उनके खिलाफ कर दिया है. हालांकि ममता को अब नरम पड़ना पड़ा है, पर वे हालात को काबू कर पाने में विफल साबित हुई हैं. इस पूरे मामले को राजनीतिक और साम्प्रदायिक रंग देने से उनकी छवि को धक्का लगा है. इन पंक्तियों प्रकाशित होने तक यह आंदोलन वापस हो भी सकता है, पर इस दौरान जो सवाल उठे हैं, उनके जवाब जरूरी हैं.   
कोलकाता से शुरु हुए इस आंदोलन ने देखते ही देखते राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन का रूप ले लिया. दिल्ली के एम्स जैसे अस्पतालों से कन्याकुमारी तक धुर दक्षिण के डॉक्टर तक विरोध का झंडा लेकर बाहर निकल आए हैं. डॉक्टरों के मन में अपनी असुरक्षा को लेकर डर बैठा हुआ है, वह एकसाथ निकला है. इस डर को दूर करने की जरूरत है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने सोमवार को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया है. सम्भव है कि इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक स्थितियाँ सुधर जाएं, पर हालात का इस कदर बिगड़ जाना बड़ी बीमारी की तरफ इशारा कर रहा है. इस बीमारी का इलाज होना चाहिए.

Sunday, May 19, 2019

बंगाल की हिंसा और ममता का मिज़ाज

कोलकाता में बीजेपी रैली के दौरान हुए उत्पात और ईश्वर चंद्र विद्यासागर कॉलेज में हुई हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार है और प्रतिमा किसने तोड़ी, ऐसे सवालों पर बहस किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचने वाली है। इस प्रकरण से दो बातें स्पष्ट हुई हैं कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस का काफी कुछ दाँव पर लगा है। दूसरे यह कि पिछले कुछ वर्षों से राज्य में चल रही तृणमूल की बाहुबली राजनीति का जवाब बीजेपी ही दे सकती है। यों मोदी विरोधी मानते हैं कि बीजेपी को रोकने की सामर्थ्य ममता बनर्जी में ही है। किसमें कितनी सामर्थ्य है, इसका पता 23 मई को लगेगा। पर ममता को भी अपने व्यक्तित्व को लेकर आत्ममंथन करना चाहिए।

ममता बनर्जी पिछले दो वर्षों से राष्ट्रीय क्षितिज पर आगे आने का प्रयत्न कर रही हैं। सन 2016 में उन्होंने ही सबसे पहले नोटबंदी के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया था। कांग्रेस ने उनका अनुगमन ही किया। राष्ट्रीय परिघटनाओं पर सबसे पहले उनकी प्रतिक्रिया आती है। दिल्ली की रैलियों में वे शामिल होती हैं, पर सावधानी के साथ। व्यक्तिगत रूप से वे उन आंदोलनों में शामिल होती है, जिनका नेतृत्व उनके पास होता है। कांग्रेसी नेतृत्व वाले आंदोलनों में खुद जाने के बजाय अपने किसी सहयोगी को भेजती हैं।

Monday, February 11, 2019

ममता के पराभव का दौर


अंततः कोलकाता के पुलिस-कमिश्नर राजीव कुमार को सीबीआई के सामने पेश होना पड़ा। इसके पहले इस परिघटना ने जो राजनीतिक शक्ल ली, वह परेशान करने वाली है। अभी तक हम सीबीआई के राजनीतिक इस्तेमाल की बातें करते रहे हैं, पर इस मामले में राज्य पुलिस के राजनीतिक इस्तेमाल का उदाहरण भी है। गत 3 फरवरी को सीबीआई ने राजीव कुमार के घर जाने का फैसला अचानक नहीं किया। उन्हें पिछले डेढ़ साल में चार समन भेजे गए थे। चौथा समन दिसम्बर 2018 में गया था। राज्य पुलिस और सीबीआई के बीच पत्राचार हुआ था।

सीबीआई के फैसले पर भी सवाल हैं। जब सीबीआई के नए डायरेक्टर आने वाले थे, तब अंतरिम डायरेक्टर के अधीन इतना बड़ा फैसला क्यों हुआ? पर सीबीआई पूछताछ करने गई थी, गिरफ्तार करने नहीं। तब मीडिया में ऐसी खबरें किसने फैलाईं कि उन्हें गिरफ्तार किया जाने वाला है? फिर राज्य पुलिस के कुछ अफसरों का मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ धरने पर बैठने को क्या कहेंगे? यह बात अपने आप में आश्चर्यजनक है कि किसी पुलिस-प्रमुख से पूछताछ के लिए सीबीआई के सामने समन जारी करने की नौबत आ जाए।

विस्मय है कि आर्थिक अपराध को विरोधी दल राजनीतिक चश्मे से देख रहे हैं। इस बात से आँखें मूँद रहे हैं कि पुलिस को राज्य सरकार के एजेंट के रूप में तब्दील कर दिया गया है। यह सिर्फ बंगाल में नहीं हुआ है, हर राज्य में ऐसा है। सुप्रीम कोर्ट ने सन 2006 में पुलिस सुधार के निर्देश जारी किए थे, उनपर आजतक अमल नहीं हुआ है। सन 2013 में इशरत जहाँ के मामले में सीबीआई और आईबी के बीच जबर्दस्त मतभेद पैदा हो गया था। केन्द्र की यूपीए सरकार ने गुजरात के बीजेपी-नेताओं को घेरने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया।  आज हमें उसका दूसरा रूप देखने को मिल रहा है।

Sunday, August 5, 2018

ममता बनर्जी की राष्ट्रीय दावेदारी

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी साल के बारहों महीने किसी न किसी वजह से खबरों में रहती हैं। इन दिनों वे दो कारणों से खबरों में हैं। एक, उन्होंने असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की प्रक्रिया का न केवल विरोध किया है, बल्कि कहा है कि इससे देश में गृहयुद्ध (सिविल वॉर) की स्थिति पैदा हो जाएगी। यह उत्तेजक बयान है और इसके पीछे देश के ‘टुकड़े-टुकड़े’ योजना के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। दूसरे से वे अचानक दिल्ली पहुँचीं और विरोधी दलों की एकता को लेकर विचार-विमर्श शुरू कर दिया। वे जितनी तेजी से दिल्ली में सक्रिय रहीं, उससे अनुमान लगाया जा रहा है कि वे भी प्रधानमंत्री पद की दावेदार हैं।

ममता बनर्जी लोकप्रिय नेता हैं और बंगाल में उनका दबदबा कायम है। पर उनकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल हैं। पिछले दो दशक में उनकी गतिविधियों में कई तरह के उतार-चढ़ाव आए हैं। केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने हाल में असमें में घुसपैठ को लेकर ममता के 4 अगस्त 2005 के एक बयान का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने आज से उलट बातें कहीं थीं। राजनीति में बयान अक्सर बदलते हैं, पर ममता की विसंगतियाँ बहुत ज्यादा हैं। वे अपनी आलोचना तो बर्दाश्त करती ही नहीं हैं। दूसरे वे जिस महागठंधन के सहारे राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश करना चाहती हैं, उसे अपने राज्य में बनने नहीं देंगी। 

Sunday, September 24, 2017

ममता की अड़ियल राजनीति

बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार दुर्गापूजा और मुहर्रम साथ-साथ होने के कारण राजनीतिक विवाद में फँस गई है। सरकार ने फैसला किया था कि साम्प्रदायिक टकराव रोकने के लिए 30 सितम्बर और 1 अक्तूबर को दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन नहीं होगा। इस फैसले का विरोध होना ही था। यह विरोध केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी ने नहीं किया, वाममोर्चा ने भी किया। आम मुसलमान की समझ से भी मुहर्रम और दुर्गा प्रतिमा विसर्जन साथ-साथ होने में कोई दिक्कत नहीं थी। यह ममता बनर्जी का अति उत्साह था।  

ममता बनर्जी नहीं मानीं और मामला अदालत तक गया। कोलकाता हाईकोर्ट ने अब आदेश दिया है कि सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि मुहर्रम के जुलूस भी निकलें और दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन भी हो। इस आदेश पर उत्तेजित होकर ममता बनर्जी ने कहा, मेरी गर्दन काट सकते हैं, पर मुझे आदेश नहीं दे सकते। शुरू में लगता था कि वे हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएंगी। अंततः उन्हें बात समझ में आई और संकेत मिल रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट जाने का इरादा उन्होंने छोड़ दिया है। 

Wednesday, May 24, 2017

‘दीदी’ का बढ़ता राष्ट्रीय रसूख

बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद भी ममता बनर्जी की राष्ट्रीय अभिलाषा दबी-छिपी नहीं है. पिछले साल नवंबर में नोटबंदी के बाद सबसे पहले उसके खिलाफ आंदोलन उन्होंने ही शुरू किया. उनकी पार्टी का नाम अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस है. वे साबित करती रही हैं कि क्षेत्रीय नहीं, राष्ट्रीय नेता हैं. सन 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में मुलायम सिंह के साथ मिलकर अपनी पसंद के प्रत्याशियों के नाम की पेशकश सबसे पहले उन्होंने ही की थी. इस बार भी वे पीछे नहीं हैं. पिछले हफ्ते वे इस सिलसिले में सोनिया गांधी और विपक्ष के कुछ नेताओं से बात करके गईं हैं. राष्ट्रपति पद के चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के बाद तीसरे नंबर पर वोट तृणमूल कांग्रेस के पास हैं.

ममता की राजनीति टकराव मोल लेने की है. इस तत्व ने भी उनका रसूख बढ़ाया है. बंगाल में इसी आक्रामक शैली से उन्होंने सीपीएम को मात दी. नरेंद्र मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन की योजना में भी उनकी केंद्रीय भूमिका हो सकती है. बहरहाल हाल में ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के सात नगरपालिका क्षेत्रों में हुए चुनावों की वजह से भी खबरों में हैं. इन चुनावों का राष्ट्रीय राजनीति के साथ कोई बड़ा रिश्ता नहीं है, पर कुछ कारणों से ये चुनाव राष्ट्रीय खबर बने.

Sunday, December 4, 2016

कहीं उल्टा न पड़े ममता का तैश और तमाशा

ममता बनर्जी की छवि तैश में रहने वाली नेता की है। मूलतः वे स्ट्रीट फाइटर हैं। उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने वाम मोर्चा के मजबूत गढ़ को गिरा कर दिखा दिया। और यही तथ्य उन्हें लगातार उत्तेजित बनाकर रखता है। वाम मोर्चा अब सत्ता से बाहर है, पर ममता स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स की साख बनाए रखने के लिए उन्हें कुछ न कुछ करते रहना पड़ता है। केंद्र सरकार के नोटबंदी कार्यक्रम ने उन्हें इसका मौका दिया है।

Sunday, April 7, 2013

अलोकप्रियता के ढलान पर ममता की राजनीति

राजनेता वही सफल है जो सामाजिक जीवन की विसंगतियों को समझता हो और दो विपरीत ताकतों और हालात के बीच से रास्ता निकालना जानता हो। ममता बनर्जी की छवि जुनूनी, लड़ाका और विघ्नसंतोषी की है। संसद से सड़क तक उनके किस्से ही किस्से हैं। पिछले साल रेल बजट पेश करने के बाद दिनेश त्रिवेदी को उन्होंने जिस तरह से हटाया, उसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती। उनकी तुलना जयललिता, मायावती और उमा भारती से की जाती है। कई बार इंदिरा गांधी से भी। मूलतः वे स्ट्रीट फाइटर हैं। उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने वाम मोर्चा के 34 साल पुराने मजबूत गढ़ को गिरा कर दिखा दिया। पर लगता है कि वे गिराना जानती हैं, बनाना नहीं। इन दिनों बंगाल में अचानक उनकी सरकार के खिलाफ आक्रोश भड़क उठा है। सीपीएम की छात्र शाखा एसएफआई के नेता सुदीप्तो गुप्ता की मौत इस गुस्से का ट्रिगर पॉइंट है। यह सच है कि वे कोरी हवाबाजी से नहीं उभरी हैं। उनके जीवन में सादगी, ईमानदारी और साहस है। वे फाइटर के साथ-साथ मुख्यमंत्री भी हैं और सात-आठ मंत्रालयों का काम सम्हालती हैं। यह बात उनकी जीवन शैली से मेल नहीं खाती। फाइलों में समय खपाना उनका शगल नहीं है। उन्होंने सिर्फ अपने बलबूते एक पार्टी खड़ी कर दी, यह बात उन्हें महत्वपूर्ण बनाती है, पर इसी कारण से उनका पूरा संगठन व्यक्ति केन्द्रित बन गया है।