दूरसंचार विभाग ने स्मार्टफोन कंपनियों को ‘संचार साथी’ एप्लीकेशन को अनिवार्य रूप से प्री-लोड करने के अपना आदेश वापस लेकर अच्छा काम किया है। इसे लागू करने का बेहतर तरीका यही था कि लोगों पर छोड़ दिया जाता कि वे चाहें, तो इसे डाउनलोड कर लें और न चाहें, तो न करें। इसके फायदों को देखते हुए वह खुद ही लोकप्रिय हो जाएगा। हाँ, फायदों की जानकारी लोगों को जरूर दी जानी चाहिए थी। इसे लेकर गोपनीयता और संभावित निगरानी को लेकर चिंताएं पैदा हुई, जिनके पीछे भले ही कोई आधार नहीं रहा होगा, पर वे वाजिब थीं। संचार मंत्रालय ने अब बुधवार को एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा, ‘सरकार ने मोबाइल निर्माताओं के लिए प्री-इंस्टॉलेशन को अनिवार्य नहीं बनाने का निर्णय लिया है।’
मतलब यह भी नहीं है कि सरकार साइबर अपराधों को रोकने की अपनी जिम्मेदारी से हाथ धो ले। वस्तुतः यह साख का सवाल है। पिछले सोमवार को ही सुप्रीम कोर्ट ने देशभर से सामने आए डिजिटल अरेस्ट के मामलों की देशभर में जाँच की जिम्मेदारी सीबीआई को सौंपी है। मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत की बेंच ने सुनवाई के दौरान कहा, डिजिटल अरेस्ट तेजी से बढ़ता साइबर क्राइम है। इसमें ठग खुद को पुलिस, कोर्ट या सरकारी एजेंसी का अधिकारी बताकर वीडियो/ऑडियो कॉल के जरिए पीड़ितों, खासकर सीनियर सिटिजन को धमकाते हैं और उनसे पैसे वसूलते हैं।
