आमतौर पर नया साल नई उम्मीदें और नए सपने लेकर आता है, पर इसबार नया साल कई तरह के सवाल लेकर आया है। इनमें से ज्यादातर सवाल पिछले साल फरवरी में रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद से पैदा हुई परिस्थितियों से जुड़े हैं। यह लड़ाई मामूली साबित नहीं हुई। पिछले साल फरवरी में समझा जा रहा था कि कुछ दिन में खत्म हो जाएगी। लड़ाई न केवल जारी है, बल्कि उसने दुनिया की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है। दो साल से महामारी की शिकार दुनिया को उम्मीद थी कि शायद अब गाड़ी फिर से पटरी पर वापस आएगी, पर ऐसा हुआ नहीं। इस लड़ाई ने विश्व-व्यवस्था को लेकर कुछ बुनियादी धारणाएं ध्वस्त कर दीं। इनमें सबसे बड़ी धारणा यह थी कि अब देशों के बीच लड़ाइयों का ज़माना नहीं रहा। यूक्रेन के बाद ताइवान को लेकर चीनी गर्जन-तर्जन को देखते हुए सारे सिद्धांत बदल रहे हैं। दक्षिण चीन सागर में चीन संरा समुद्री कानून संधि का खुला उल्लंघन करके विश्व-व्यवस्था को चुनौती दे रहा है।
टूटती धारणाएं
माना जा रहा था कि जब दुनिया के सभी देशों का
आपसी व्यापार एक-दूसरे से हो रहा है, तब युद्ध की
स्थितियाँ बनेंगी नहीं, क्योंकि सब एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यह
धारणा भी थी कि जब पश्चिमी देशों के साथ चीन की अर्थव्यवस्था काफी जुड़ गई है,
तब मार्केट-मुखी चीन इस व्यवस्था को तोड़ना नहीं चाहेगा। पर हो कुछ
और रहा है। एक गलतफहमी यह भी थी कि अमेरिका और पश्चिमी देशों की आर्थिक-पाबंदियों
का तोड़ निकाल पाना किसी देश के बस की बात नहीं।
उसे भी रूस ने ध्वस्त कर दिया है। रूस का साथ देने वाले देश भी दुनिया में
हैं। मसलन भारत के साथ रूस ने रुपये के माध्यम से व्यापार शुरू कर दिया है। चीन के
साथ उसका आर्थिक सहयोग पहले से ही काफी मजबूत है। ईरान के साथ भी रूस के अच्छे
कारोबारी रिश्ते हैं।
विश्व-व्यवस्था
ज्यादा बड़ी समस्या वैश्विक-व्यवस्था यानी ग्लोबल ऑर्डर से जुड़ी है। आज की विश्व-व्यवस्था की अघोषित धुरी है अमेरिका और उसके पीछे खड़े पश्चिमी देश। इसकी शुरुआत पहले विश्व-युद्ध के बाद से हुई है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने लीग ऑफ नेशंस के मार्फत ‘नई विश्व-व्यवस्था’ कायम करने का ठेका उठाया। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद गठित संयुक्त राष्ट्र और दूसरी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के पीछे अमेरिका है। उसके पहले उन्नीसवीं सदी में एक और अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स मुनरो ने अमेरिका के महाशक्ति बनने की घोषणा कर दी थी। बीसवीं सदी में अमेरिका और उसके साथ वैश्विक-थानेदार बने रहे, पर यह अनंतकाल तक नहीं चलेगा। 2021 में अफगानिस्तान में हुई अमेरिका की अपमानजनक पराजय के बाद 2022 में यूक्रेन में भी अमेरिकी-नीतियाँ विफल ही हैं। साथ ही उसके परंपरागत यूरोपीय मित्र भी पूरी तरह उसके साथ नहीं है। इसकी वजह है खुली हुई आर्थिक-व्यवस्था। शीतयुद्ध के दौर में अर्थव्यवस्थाएं पूरी तरह अलग थीं। आज यूरोप के देश अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए रूस पर आश्रित हैं। पूँजी निवेश के लिए वे चीन का मुँह देख रहे हैं। यह भी जरूरी नहीं कि उसी तौर-तरीके से चले जैसे अभी तक चला आ रहा था। दुनिया के सामने इस समय महामारी के अलावा मुद्रास्फीति, आर्थिक मंदी से लेकर जलवायु परिवर्तन तक के खतरे खड़े हैं। दूसरी तरफ इनका सामना करने वाली वैश्विक-व्यवस्था कमज़ोर पड़ रही है, यह बात भी यूक्रेन-युद्ध ने साबित की है।