दिल्ली के चांदनी चौक से
विधायक अलका लांबा ने आम आदमी पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया और कांग्रेस
में शामिल हो गई हैं.
उन्होंने एक ट्वीट में
अपने इस इस्तीफ़े की घोषणा की.
उनके इस्तीफ़े के कारण
स्पष्ट हैं कि पिछले कई महीने से वो लगातार पार्टी से दूर हैं. उन्होंने राजीव
गांधी के एक मसले पर भी अपनी असहमति दर्ज की थी.
उनकी बातों से यह भी समझ
आता था कि वो कम से कम आम आदमी पार्टी से जुड़ी नहीं रह पाएंगी, फिर सवाल उठता है कि वो कहां जातीं, तो कांग्रेस पार्टी एक बेहतर विकल्प था,
क्योंकि वो वहां से ही आई थीं.
एक अरसे की चुप्पी के बाद आम आदमी पार्टी ने अपनी
राजनीति का रुख फिर से आंदोलन की दिशा में मोड़ा है. इस बार निशाने पर दिल्ली के
उप-राज्यपाल अनिल बैजल हैं. वास्तव में यह केंद्र सरकार से मोर्चाबंदी है.
पार्टी की पुरानी राजनीति नई पैकिंग में नमूदार है. पार्टी
को चुनाव की खुशबू आने लगा है और उसे लगता है कि पिछले एक साल की चुप्पी से उसकी
प्रासंगिकता कम होने लगी है.
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत पार्टी के कुछ बड़े
नेताओं के धरने के साथ ही सत्येंद्र जैन का आमरण अनशन शुरू हो चुका है. हो सकता है
कि यह आंदोलन अगले कुछ दिनों में नई शक्ल है.
चुप्पी हानिकारक है
सन 2015 में जबरदस्त बहुमत से जीतकर आई आम आदमी सरकार
और उसके नेता अरविंद केजरीवाल ने पहले दो साल नरेंद्र मोदी के खिलाफ जमकर मोर्चा
खोला. फिर उन्होंने चुप्पी साध ली. शायद इस चुप्पी को पार्टी के लिए ‘हानिकारक’ समझा जा रहा है.
आम आदमी पार्टी की रणनीति, राजनीति और विचारधारा के केंद्र में
आंदोलन होता है. आंदोलन उसकी पहचान है. मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल जनवरी
2014 में भी धरने पर बैठ चुके हैं. पिछले कुछ समय की खामोशी और ‘माफी
प्रकरण’ से लग रहा था कि
उनकी रणनीति बदली है.
केंद्र की दमन नीति
इसमें दो राय नहीं कि केंद्र सरकार ने ‘आप’ को प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं खोया. पार्टी के
विधायकों की बात-बे-बात गिरफ्तारियों का सिलसिला चला. लाभ के पद को लेकर बीस
विधायकों की सदस्यता खत्म होने में प्रकारांतर से केंद्र की भूमिका भी थी.
‘आप’ का आरोप है कि
केंद्र सरकार सरकारी अफसरों में बगावत की भावना भड़का रही है. संभव है कि अफसरों
के रोष का लाभ केंद्र सरकार उठाना चाहती हो, पर गत 19 फरवरी
को मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ जो हुआ, उसे देखते हुए
अफसरों की नाराजगी को गैर-वाजिब कैसे कहेंगे?
भाजपा-विरोधी दलों की राष्ट्रीय-एकता की खबरों
के बीच एक रोचक सम्भावना बनी है कि क्या राष्ट्रीय राजधानी में आम आदमी पार्टी और
कांग्रेस का भी गठबंधन होगा? हालांकि दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष
अजय माकन ने ऐसी किसी सम्भावना से इंकार किया है, पर राजनीति में ऐसे इंकारों का
स्थायी मतलब कुछ नहीं होता.
पिछले महीने कर्नाटक में जब एचडी कुमारस्वामी
के शपथ ग्रहण समारोह में अरविंद केजरीवाल और सोनिया-राहुल एक मंच पर खड़े थे, तभी
यह सवाल पर्यवेक्षकों के मन में कौंधा था. इसके पहले सोनिया गांधी विरोधी दलों की
एकता को लेकर जो बैठकें बुलाती थीं, उनमें अरविन्द केजरीवाल नहीं होते थे. कर्नाटक
विधान-सौध के बाहर लगी कुर्सियों की अगली कतार में सबसे किनारे की तरफ वे भी बैठे
थे.
प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए 17 जुलाई 2017
देश की राजनीति के लिहाज़ से सोमवार को दो बड़ी घटनाएं होंगी. पहला दिल्ली में सोलहवीं संसद का चौथा मॉनसून सत्र शुरू होगा, और दूसरा दिल्ली और देश के सभी राज्यों की राजधानियों में देश के चौदहवें राष्ट्रपति के चुनाव के लिए वोट डाले जाएंगे.
ऐसे में सहज जिज्ञासा होती है कि इस चुनाव का औपचारिकता से ज़्यादा कोई मतलब भी है या नहीं? लगता है कि बीजेपी गठबंधन के प्रत्याशी रामनाथ कोविंद यह चुनाव जीत जाएंगे.
सवाल है कि नए राष्ट्रपति के आगमन से बीजेपी गठबंधन सरकार की स्थिति में क्या बदलाव आएगा? क्या मोदी सरकार की स्थिति बेहतर हो जाएगी?
प्रणब मुखर्जी कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं में से एक थे. उनके कार्यकाल में भी मोदी सरकार को कभी परेशानी नहीं हुई.
हाल में नरेंद्र मोदी ने उन्हें कृतज्ञता में पिता-तुल्य माना और कहा, 'मेरे जीवन का बहुत बड़ा सौभाग्य रहा कि मुझे प्रणब दा की उँगली पकड़ कर दिल्ली की ज़िंदगी में ख़ुद को स्थापित करने का मौका मिला.'
राष्ट्रपति का चुनाव हालांकि राजनीतिक गतिविधि है, पर उसके नाटकीय निहितार्थ नहीं होते. ज़्यादा से ज़्यादा सत्तारूढ़ दल के रसूख का पता लगता है. आमतौर पर उसके नतीजों का पहले से अनुमान होता है.
इस पद की संवैधानिक भूमिका भी काफी हद तक औपचारिक है. कहते हैं कि वह केवल 'रबर स्टांप' है. पर बदलते राजनीतिक माहौल को देखते हुए यह भूमिका कुछ ख़ास मौकों पर महत्वपूर्ण भी हो सकती है.
यह पहला मौक़ा है, जब एमसीडी के चुनावों ने इतने बड़े स्तर पर देशभर का ध्यान अपनी ओर खींचा है. वजह है इसमें शामिल तीन प्रमुख दलों की भूमिका. तीनों पर राष्ट्रीय वोटर की निगाहें हैं.
सहज रूप से नगर निगम के चुनाव में साज-सफाई और दूसरे नागरिक मसलों को हावी रहना चाहिए था, पर प्रचार में राजनीतिक नारेबाज़ी का ज़ोर रहा.
सवाल तीन हैं. क्या एमसीडी की इनकम्बैंसी के ताप से बीजेपी को 'मोदी का जादू' बचा ले जाएगा? क्या 'आप' की धाक बदस्तूर है? और क्या कांग्रेस की वापसी होगी?
नतीजे जो भी हों विलक्षण होंगे, क्योंकि दिल्ली का वोटर देश के सबसे समझदार वोटरों में शुमार होता है.
साल 2012 में जिस वक़्त एमसीडी को तीन टुकड़ों में बाँटा जा रहा था, तब दिल्ली में शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी. उस वक्त विभाजन के पीछे प्रशासनिक कारणों के अलावा राजनीतिक हित भी नजर आ रहे थे.
कांग्रेस को लगता था कि इस तरह से एमसीडी पर क़ाबिज होने के विकल्प बढ़ जाएंगे. पर कांग्रेस को उसका लाभ कभी नहीं मिला.
एमसीडी के साल 1997 से 2012 तक के चार में से तीन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत हुई है.
साल 2002 में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तब एमसीडी की 134 में से 107 सीटें कांग्रेस ने जीत कर पहला करारा राजनीतिक संदेश दिया था. उस चुनाव में बीजेपी को केवल 17 सीटें मिलीं थीं.
उसके पहले 1997 के चुनाव में बीजेपी को 79 और कांग्रेस को 45 सीटें मिलीं थीं. साल 2007 के चुनाव में कुल सीटों की संख्या बढ़कर 272 हो गई.
इस साल अप्रैल में ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए क़ानून बनने की राह निजी विधेयक की मदद से खुली थी. राज्यसभा ने द्रमुक सांसद टी शिवा के इस आशय के विधेयक को पास किया.
ये विधेयक इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि लगभग 45 साल बाद किसी सदन ने निजी विधेयक पास किया था. पिछले हफ़्ते राज्यसभा में 14 निजी विधेयक पेश किए गए और लोकसभा में 30. इनमें सरकारी हिंदी को आसान बनाने, बढ़ते प्रदूषण पर रोक लगाने, मतदान को अनिवार्य करने से लेकर इंटरनेट की 'लत' रोकने तक के मामले हैं.
राज्यसभा सदस्य कनिमोझी सदन में मृत्युदंड ख़त्म करने से जुड़ा विधेयक लाना चाहती हैं जिसके प्रारूप पर अभी विचार-विमर्श हो रहा है. कांग्रेस सांसद शशि थरूर धारा 377 में बदलाव के लिए विधेयक ला रहे हैं.
निजी विधेयक सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं और सरकार का ध्यान किसी ख़ास पहलू की ओर खींचते हैं.
जागरूकता के प्रतीक रहे भारतीय संसद के पहले 18 साल में 14 क़ानूनों का निजी विधेयकों की मदद से बनना और उसके बाद 45 साल तक किसी क़ानून का नहीं बनना किस बात की ओर इशारा करता है? क़ानून बनाने की ज़िम्मेदारी धीरे-धीरे सरकार के पास चली गई है.
निजी विधेयक क़ानून बनाने से ज़्यादा सामाजिक जागरुकता की ओर इशारा करते हैं और इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है.
भारतीय संसद क़ानून बनाती है. शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत पर वह कार्यपालिका से स्वतंत्र है, पर उस तरह नहीं जैसी अमरीकी अध्यक्षात्मक प्रणाली है.
हमारी संसद में सरकारी विधेयकों के अलावा सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से विधेयक पेश करने का अधिकार है लेकिन विधायिका का काफ़ी काम कार्यपालिका यानी सरकार ही तय करती है. एक तरह से पार्टी लाइन ही क़ानूनों की दिशा तय करती है.
संसद के शीतकालीन सत्र के पहले सरकार और विपक्ष ने मोर्चेबंदी कर ली है. पहले दो दिन मोर्चे पर शांति रहेगी, पर उसके बाद क्या होगा कहना मुश्किल है. फिलहाल सत्र को लेकर उम्मीदों से ज़्यादा अंदेशे नज़र आते हैं.
सरकार इस सत्र में ज़रूरी विधेयकों को पास कराना चाहती है. उसने विपक्ष की तरफ सहयोग का हाथ भी बढ़ाया है. प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय सभा में जीएसटी जैसे विधेयक को देश के लिए महत्वपूर्ण बताया है.
इधर, लोकसभा अध्यक्ष ने गरिमा बनाए रखने की आशा के साथ सांसदों को पत्र लिखा है. पर क्या इतने भर से विपक्ष पिघलेगा?
मॉनसून सत्र पूरी तरह हंगामे का शिकार हो गया. लोकसभा में कांग्रेस के 44 में से 25 सदस्यों का निलंबन हुआ. इस बार तो बिहार विधानसभा चुनाव में जीत से विपक्ष वैसे भी घोड़े पर सवार है.
सत्र के पहले दिन 'संविधान दिवस' मनाया जाएगा. सन 1949 की 26 नवंबर को हमारे संविधान को स्वीकार किया गया था. देश में इस साल से 'संविधान दिवस' मनाने की परंपरा शुरू की जा रही है.
इस साल डॉ. भीमराव आंबेडकर की 125वीं जयंती भी है. सत्र के पहले दो दिन संविधान-चर्चा को समर्पित हैं. यानी शेष संसदीय कर्म सोमवार 30 नवंबर से शुरू होगा.
असहिष्णुता को लेकर जो बहस सड़क पर है, वह अब संसद में प्रवेश करेगी. यहाँ बहस किस रूप में होगी और उसका प्रतिफल क्या होगा यह देखना ज़्यादा महत्वपूर्ण है. ख़ासतौर से राज्यसभा में जहाँ सरकार निर्बल है.
सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने राज्यसभा और कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने लोकसभा में असहिष्णुता पर चर्चा का नोटिस दिया है. येचुरी चाहते हैं कि नियमावली 168 के तहत इस पर चर्चा हो और सदन 'देश में व्याप्त असहिष्णुता के माहौल की निंदा का प्रस्ताव' पास करे.
देखना होगा कि पीठासीन अधिकारी किस नियम के तहत इस विषय पर चर्चा को स्वीकार करते हैं. फिलहाल सरकार घिरी हुई है. सम्मान वापसी ने उसकी छवि को पहले से बिगाड़ रखा है.
भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के सहारे बनी आम आदमी पार्टी अपने गठन के समय से ही अंतर्विरोधों की शिकार है. वह सत्ता और आंदोलन की राजनीति में अंतर नहीं कर पा रही है.
पार्टी 'एक नेता' और 'आंतरिक लोकतंत्र के अंतर्विरोध' को सुलझा नहीं पा रही है. इसके कारण वह देश के दूसरे इलाक़ों में प्रवेश की रणनीति बना नहीं पा रही है.
पार्टी की पंजाब शाखा इसी उलझन में है, जहाँ हाल में उसके केंद्रीय नेतृत्व ने (दूसरे शब्दों में अरविंद केजरीवाल) दो सांसदों को निलंबित करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है.
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दिल्ली के बाद पंजाब में पार्टी का अच्छा प्रभाव है. संसद में उसकी उपस्थिति पंजाब के कारण ही है, जहाँ से लोक सभा में चार सदस्य हैं.
पंजाब में कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी के नेता मानते हैं कि उन्हें सबसे बड़ा ख़तरा 'आप' से है.
'आप' का सेल्फ गोल
पंजाब की जनता को भी 'आप' में विकल्प नज़र आता है.
उम्मीद थी कि अकाली सरकार के ख़िलाफ़ 'एंटी इनकम्बैंसी' को देखते हुए वहाँ कांग्रेस पार्टी अपने प्रभाव का विस्तार करेगी, पर वह भी धड़ेबाज़ी की शिकार है.
ऐसे में 'आप' की संभावनाएं बेहतर हैं, पर लगता है कि यह पार्टी भी सेल्फ़ गोल में यक़ीन करती है.
पार्टी ने हाल में पटियाला के सासंद धर्मवीर गांधी और फ़तेहगढ़ साहिब से जीतकर आए हरिंदर सिंह ख़ालसा को अनुशासनहीनता के आरोप में निलंबित किया है. दोनों का मज़बूत जनाधार है.
मनमुटाव की शुरुआत
केजरीवाल और प्रशांत भूषण के टकराव के दौरान इस मनमुटाव की शुरुआत हुई थी. तब से धर्मवीर गांधी योगेंद्र यादव के साथ हैं. शुरू में हरिंदर सिंह खालसा का रुख़ साफ़ नहीं था, पर अंततः वे भी केंद्रीय नेतृत्व के ख़िलाफ़ हो गए.
इन दोनों नेताओं को समझ में आता है कि प्रदेश में लहर उनके पक्ष में है. दूसरी ओर पार्टी नेतृत्व को लगता है कि पार्टी से अलग होने के बाद किसी नेता की पहचान क़ायम नहीं रहती.
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, याक़ूब मेमन और पंजाब के गुरदासपुर के एक थाने पर हुए हमले के कारण मीडिया का ध्यान कुछ देर के लिए बंट गया.
इस वजह से मुख्यधारा की राजनीति कुछ देर के लिए ख़ामोश है.
दो-तीन रोज़ में जब सन्नाटा टूटेगा तब हो सकता है कि मसले और मुद्दे बदले हुए हों, पर तौर-तरीक़े वही होंगे.
मॉनसून सत्र का हंगामा
हंगामा, गहमागहमी और शोर हमारी राजनीति के दिल-ओ-दिमाग़ में है.
एक धारणा है कि इसमें संजीदगी, समझदारी और तार्किकता कभी थी भी नहीं. पर जैसा शोर, हंगामा और अराजकता आज है, वैसी पहले नहीं था.
क्या इसे राजनीति और मीडिया के ‘ग्रास रूट’ तक जाने का संकेतक मानें?
शोर, विरोध और प्रदर्शन को ही राजनीति मानें? क्या हमारी सामाजिक संरचना में अराजकता और विरोध ताने-बाने की तरह गुंथे हुए हैं?
संसद के मॉनसून सत्र के शुरुआती दिनों में अनेक सदस्य हाथों में पोस्टर-प्लेकार्ड थामे टीवी कैमरा के सामने आने की कोशिश करते रहे.
कैमरा उनकी अनदेखी कर रहा था, इसलिए उन्होंने स्पीकर के आसपास मंडराना शुरू किया या जिन सदस्यों को बोलने का मौक़ा दिया गया उनके सामने जाकर पोस्टर लगाए ताकि टीवी दर्शक उन्हें देखें.
हमने मान लिया है कि संसद में हंगामा राजनीतिक विरोध का तरीक़ा है और यह हमारे देश की परम्परा है. इसलिए लोकसभा टीवी को इसे दिखाना भी चाहिए.
लोकतांत्रिक विरोध को न दिखाना अलोकतांत्रिक है.
पिछले हफ़्ते कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा था कि लोकसभा में कैमरे विपक्ष का विरोध नहीं दिखा रहे हैं. सिर्फ़ सत्तापक्ष को ही कैमरों में दिखाया जा रहा है.
उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि मोदी सरकार विपक्ष की आवाज़ दबा देना चाहती है.
मेरा बनाम तेरा भ्रष्टाचार
कांग्रेस की प्रतिज्ञा है कि जब तक सरकार भ्रष्टाचार के आरोप से घिरे नेताओं को नहीं हटाएगी, तब तक संसद नहीं चलेगी.
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने व्यापमं मामले की सीबीआई जाँच की माँग को मंज़ूर करके फ़िलहाल अपने ऊपर बढ़ते दबाव को कम कर दिया है.
इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी की मुश्किलों के कम होने के बजाय बढ़ने के ही आसार हैं.
व्यापमं मामला हाई कोर्ट में है. मुख्यमंत्री ने अदालत को सीबीआई जांच के लिए पत्र लिखने की घोषणा की है.
इस हफ्ते यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी आएगा. राज्य सरकार वहाँ भी सीबीआई जाँच की माँग करेगी.
पढ़ें विस्तार से
ऐसा लग रहा है कि अचानक भाजपा के घोटालों की वर्षा होने लगी है. चार राज्यों के भाजपा मुखिया कांग्रेस के निशाने पर हैं.
इनमें शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह पर सीधे आरोप हैं. वहीं महाराष्ट्र के देवेंद्र फड़नवीस को पंकजा मुंडे और विनोद तवाड़े के कारण घेरा गया है.
21 जुलाई से संसद का सत्र शुरू हो रहा है. सरकार के सामने भूमि अधिग्रहण और जीएसटी जैसे महत्वपूर्ण विधेयकों को पास कराने की ज़िम्मेदारी है.
लेकिन लगता है कि घोटालों का शोर बड़ा होगा.
भाजपा का सूर्यास्त?
क्या भाजपा के पराभव और कांग्रेस के उदय का समय आ गया है? क्या इतने सुनहरे मौके का कांग्रेस फायदा उठाएगी?
भाजपा की गिरती छवि पर संशय नहीं, कांग्रेस की क़ाबलियत पर शक ज़रूर है. फ़िलहाल राज्यों के सहारे केंद्र सरकार पर दबाव बनाने में कांग्रेस पार्टी काफी हद तक सफल हुई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मनमोहन सिंह से ज़्यादा मौन हैं, बल्कि विदेश यात्रा पर निकल गए हैं. दूसरी ओर सोनिया और राहुल सामने नहीं आते.
यह काम दिग्विजय सिंह, रणदीप सुरजेवाला, चिदम्बरम, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और जयराम रमेश वगैरह को सौंपा गया है.
खास मौकों पर सन्नाटा
क्या वजह है कि सोनिया, राहुल और प्रियंका महत्वपूर्ण मौकों पर नेपथ्य में चले जाते हैं? विश्व योग दिवस पर ये तीनों अज्ञातवास पर थे.
भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई में सोनिया, प्रियंका और राहुल को पार्टी पीछे रखती है. गरीबी, धर्म निरपेक्षता और पूँजीवाद के सैद्धांतिक प्रसंगों पर ही वे बोलते हैं.
वजह शायद यह है कि वे जैसे ही भाजपा के ‘भ्रष्टाचार’ शब्द का उच्चारण करते हैं, उनपर पलटवार होता है. इससे बचने की यह रणनीति है.
व्यापमं घोटाले को मध्य प्रदेश के गलियारों से निकाल कर दिल्ली तक लाने के अलावा भी कांग्रेस ने होमवर्क किया है.