कैसे होता है हिन्दी पत्रकारों का मूल्यांकन
प्रमोद जोशी
जब से अखबारों ने खुद को वेजबोर्ड के सैलरी स्ट्रक्चर से अलग किया है, अप्रेल-मई के महीने सालाना वेतन संशोधन के लिहाज से महत्वपूर्ण होते हैं। दफ्तरों में इंक्रीमेंट्स और प्रमोशन चर्चा के विषय होते हैं। चैनलों में भी ऐसा ही होता होगा। पत्रकारों की भरती, उनके प्रशिक्षण और मूल्यांकन की पद्धति के बारे में आमतौर पर चर्चा नहीं होती। सहयोगियों की संख्या छोटी हो तो कोई सम्पादक आमने-सामने की रोज़मर्रा मुलाकात से अपने साथी के गुण-दोष को समझ सकते हैं, पर अब सम्पादकीय विभाग बड़े होते जा रहे हैं। किसी एक व्यक्ति के लिए आसान काम नहीं है कि वह अपने साथियों के बारे में राय कायम करे। हालांकि यह मसला एचआर विभाग का है, पर एचआर के पास तमाम विभागों के लिए दशा-निर्देश हो सकते हैं, सम्पादकीय विभाग के लिए नहीं होते। किसी एचआर विभाग ने कोशिश भी की है तो उसे सम्पादकीय विभाग की मदद लेनी पड़ी होगी। परफॉर्मेंस इवैल्यूएशन सिस्टम किसी भी विभाग की सफलता या विफलता का बड़ा कारण बन सकता है।
इसे हम परफॉर्मेंस इवैल्यूएशन से तब जोड़ते हैं, जब व्यक्ति सम्पादकीय विभाग में काम कर रहा हो। पर जब उसे सम्पादकीय विभाग में शामिल करना होता है तभी मानक तैयार हो जाते हैं। हमें कैसा व्यक्ति पत्रकार के रूप में चाहिए? ऐसा जो बहुत दूर से खबर को सूंघ सकता हो। खबर के तमाम पहलुओं को समझ सकता हो। खेल पत्रकार हो तो खेल की बारीकियाँ और बिजनेस पत्रकार हो तो बिजनेस को समझता हो। उसके सामान्य ज्ञान, आईक्यू, व्यक्तित्व, इनीशिएटव की परख अलग होती है। हमारे पास भी कई तरह के काम हैं। रिपोर्टिंग के लिए अलग और डेस्क के लिए अलग तरह के गुण चाहिए। ग्रैफिक प्रेज़ेंटेशन और विज़ुएलाइज़ेशन नई ब्रांच है। रिसर्च और रेफरेंस के लिए अलग तरह के लोग चाहिए। दुर्भाग्य से हिन्दी अखबार इसमें काफी पिछड़े हैं। लिखने की शैली और भाषा के मामले में हाल में गिरावट आई है। रिपोर्टिंग में क्राइम की कवरेज के लिए अलग किस्म का व्यक्ति चाहिए और पॉलिटिक्स के लिए अलग किस्म का। यह सूची लम्बी हो जाएगी। मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ कि अखबार की गुणवत्ता को स्थापित करने के लिए ज़रूरी मानक क्या हों, इसकी सूची बनाने की कोशिश होनी चाहिए।
सम्पादकीय विभागों में पद आमतौर पर काम को व्यक्त नहीं करते, रुतबे को बताते हैं। एक ज़माने में चीफ सब एडीटर अखबार का सबसे मुख्य कार्यकर्ता होता था। वह एडीशन का इंचार्ज होता था। सम्पादक और समाचार सम्पादक की अनुपस्थिति में सबसे ज़िम्मेदार व्यक्ति। समय के साथ नए पद बने हैं। इन पदों के नाम अनेक हैं। भूमिकाएं किसी की स्पष्ट नहीं हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से इनपुट और आउटपुट शब्द लेकर उन्हें अखबारों पर लागू करने का क्रांतिकारी काम भी कर लिया, दोनों मीडिया के फर्क को समझे बगैर। ऐसा अंग्रेज़ी अखबारों के मुकाबले हिन्दी अखबारों में ज़्यादा है। काम की प्रोसेस और वर्कफ्लो का भ्रम देश में विकसित हो रहे एडीटोरियल सॉफ्टवेयर्स में नज़र आता है। हिन्दी अखबार बड़ी गहराई तक मल्टिपल एडीशन पर काम करते हैं। उन्हें एक ओर अखबार की केन्द्रीय परिभाषा चाहिए वहीं, जबर्दस्त स्थानीयता। चंडीगढ़ और राँची के पाठक में ज़मीन-आसमान का फर्क है। इस एकता और भिन्नता को साफ-साफ परिभाषित करने की ज़रूरत है। उसके अनुरूप ही सहयोगियों के सिलेक्शन, ट्रेनिंग और एप्रेज़ल के नियम बनेंगे।
एप्रेज़ल के लिए आमतौर पर अंक देने की पद्धति विकसित की गई है। यह जिस सिद्धांत पर बनी है, वह सम्पादकीय विभाग पर पूरी तरह लागू नहीं होता। इसमें मूलतः पहले पूरे बिजनेस के, फिर विभाग के, फिर सेक्शन और व्यक्ति के सालाना लक्ष्य निर्धारित होते हैं। ये लक्ष्य यदि विज्ञापन के लिए हैं तो रुपए में और यदि सेल्स के हैं तो उसकी फिगर में होंगे। सम्पादकीय विभाग के लक्ष्य क्या होंगे। जो संख्यात्मक लक्ष्य हैं, उन्हें टैंजिबल कह सकते हैं। उन्हें संख्या में दर्शाया जा सकता है। सम्पादकीय विभाग के अनेक काम नॉन टैंजिबल हैं। उन्हें टैंजिबल कैसे बनाया जाय इसपर विचार की ज़रूरत है। यों दुनिया में पुस्तकों, लेखन यहाँ तक कि पत्रकारिता के पुरस्कार दिए जाते हैं। उसके लिए कोई पद्धति अपनाई जाती है। जिम्नास्टिक और कुश्ती की प्रतियोगिताओं में एक से ज्यादा जज अंक देते हैं, जिनका औसत निकालकर अंकों पर फैसले करते हैं। हम इसी प्रकार के क्षेत्रों से मूल्यांकन पद्धतियों को ले सकते हैं। मूल्यांकन पद्धति को पारदर्शी बनाने की ज़रूरत भी होगी। जिस व्यक्ति का मूलायंकन किया जा रहा है, उसे पता होना चाहिए कि उसका गुण क्या है और दोष क्या। यह बात साफ और यथा सम्भव लिखत रूप में बताई जानी चाहिए।
पत्रकार के चुनाव के पहले पता होना चाहिए कि हमें किस प्रकार का व्यक्ति चाहिए। उसे प्रशिक्षण की ज़रूरत है तो इन-हाउस प्रशिक्षण का प्रबंध भी होना चाहिए। प्रशिक्षण के मॉड्यूल अखबार की वास्तविक नीतियों और स्टाइल के तहत होगे। ये नीतियाँ क्या हैं, यह भी स्पष्ट होना चाहिए। कुछ अखबार रिसर्च कराते हैं। यह रिसर्च आमतौर पर मार्केटिंग विभाग के नेतृत्व में होती है। निश्चित रूप से यह उपयोगी होगी, पर यह सम्पादकीय विभाग की रिसर्च नहीं हो सकती। एक उदाहरण के लिए मैं हाल में हिन्दी अखबारों की भाषा का देना चाहूँगा। दिल्ली के जिस अखबार ने इसकी शुरूआत की वह मार्केटिंग रिसर्च कराता ही नहीं। इसे पाठक ने स्वीकार कर लिया, क्योंकि उसके पास विकल्प नहीं। बाकी अखबारों ने इसका अंधानुकरण शुरू कर दिया। भाषा को आसान बनाने पर किसी को आपत्ति नहीं होगी, पर मेरा विचार है कि आम पाठक अपनी भाषा के विद्रूप को पसंद नहीं करेगा। कुछ अखबारों ने ट्रेनीज़ की भरती का काम शुरू किया है। इस भरती को कैसे संचालित किया जाय और उसके पर्चे कैसे बनें यह वचार का विषय है। 1983 में जब जनसत्ता शुरू हुआ था प्रभाष जोशी ने पत्रकारों की भर्ती की एक छलनी बनाई थी। ‘जनसत्ता’ के साथ उसी वक्त लखनऊ में ‘नवभारत टाइम्स’ शुरू हुआ था। राजेन्द्र माथुर ने वहाँ खुद भरती की थी। उनका और जनसत्ता का लिखित परीक्षण फर्क था, पर दोनों की इच्छा अच्छे पत्रकारों को सामने लाने की थी। अब तो हिन्दी अखबार काफी बड़े हैं। उन्हें पहल करनी चाहिए। यह प्रफेशनल काम है।
पत्रकारों की भरती के तीन-चार तरीके हैं। एक तो पत्रकारिता विद्यालय के प्लेसमेंट सैल अपने छात्रों को इंट्रोड्यूस करते हैं। दूसरे पत्रकार इंटर्नशिप के दौरान सम्पर्क बनाकर अपने लिए रास्ता बनाते हैं। तीसरे सम्पादकीय विभाग के किसी सीनियर सहयोगी के परिचितों का आना। इससे ऊपर है राजनेताओं और रसूख वालों की पैरवी। सीनियर पत्रकारों का आवागमन व्यक्तिगत रिश्तों के आधार पर ज्यादातर होता है। इधर भास्कर समूह के बारे में खबर है कि वे टेलेंट हंट चलाते हैं और नए लोगों को ट्रेनिंग भी देते हैं। दरअसल जो उद्यमी अपने अखबार को भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं, उन्हें अपनी ह्यूमन रिसोर्स के बारे में सोचना चाहे। सच यह है कि हिन्दी में अच्छे पत्रकारों का टोटा है। उन्हें तैयार करना चाहिए। इससे अखबारों की शक्ल बदलेगी। यारी-दोस्ती, व्यक्तिगत पसंद-नापसंद और किसी लॉबी से जुड़ा होना माने नहीं रखता। सिर्फ परफॉर्मेंस माने रखता है। पर यह बात तब तक बेमानी है जब तक परफॉर्मेंस की परख करने वाली पारदर्शी व्यवस्था नहीं होगी।
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