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Tuesday, February 26, 2013

हंगामा करने मात्र से आतंक को हराना सम्भव नहीं


हैदराबाद के बम धमाके जब हुए हैं तब हमारी संसद का सत्र चल रहा है। धमाकों की गूँज संसद में सुनाई भी पड़ी है। उम्मीद करनी चाहिए कि राष्ट्रीय राजनीति इन धमाकों  के निहितार्थ को जनता का सामने रखेगी और कोई समाधान पेश करेगी। यह मानने के पहले हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि आतंकी गतिविधियाँ फिलंहाल हमारे जीवन का हिस्सा हैं। इन्हें पूरी तरह खत्म करने का दावा नहीं किया जा सकता, पर समाधान खोजा जा  सकता है। न्यूयॉर्क और लंदन से लेकर मैड्रिड तक धमाकों के मंज़र देख चुके हैं। भारत के मुकाबले अमेरिका आतंकवादियों का ज़्यादा बड़ा निशाना है, पर 9/11 के बाद अमेरिका ने दूसरा मौका धमाका-परस्तों को नहीं दिया। बेशक हम उतने समृद्ध नहीं। भौगोलिक रूप से हमारी ज़मीन पर दुश्मन का प्रवेश आसान है। इन बातों के बावज़ूद हमें खुले दिमाग से कुछ मसलों पर विचार करना चाहिए। खासतौर से इस बात को ध्यान में रखते हुए कि भारत आर्थिक बदलाव के महत्वपूर्ण दौर से गुज़र रहा है और नए प्रकार की राष्ट्र-रचना का काम चल रहा है। तथ्य यह है कि नवम्बर 2008 में मुम्बई धमाकों और उसके बाद छह शहरों में हुए धमाकों में से किसी की तह तक हम नहीं पहुँच पाए। बावजूद इसके कि हमने नेशनल इंटेलिजेंस एजेंसी बनाई है, जिसका काम सिर्फ आतंकवादी मामलों की जाँच करना है। दिल्ली हाईकोर्ट धमाकों में भी कोई बड़ी प्रगति नहीं हो पाई। आमतौर पर धमाकों के पीछे इंडियन मुजाहिदीन या हूजी का हाथ माना जाता है जो प्रकारांतर से लश्करे तैयबा से जुड़ते हैं। हाल में हिन्दुत्ववादी संगठनों का हाथ भी देखा गया है। आतंकवाद से सुरक्षा के दो पहलू हैं। एक है कार्रवाई से पहले की खुफिया सूचना और दूसरा है जाँच। हम दोनों जगह नाकाम हैं।
हैदराबाद धमाकों के राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक निहितार्थ को एक-एक करके देखें तो कुछ सकारात्मक और कुछ नकारात्मक बातें सामने आएंगी। धमाकों की खबर के साथ ही मीडिया हरकत में आ गया जैसा कि हमेशा होता है। रात के पौने नौ बजे अपने आप को सबसे तेज़ कहने वाले चैनल ने मरने वालों की संख्या  24 पर पहुँचा दी थी। यह संख्या दूसरे चैनलों के अनुमानों की दुगनी थी और अब तक के अनुमानों से भी ज्यादा है। दूसरे चैनल बम धमाकों की संख्या दो या तीन के बीच अटके थे वहीं इस चैनल पर इससे ज्यादा का अंदेशा व्यक्त किया जा रहा था। धमाकों का उद्देश्य अफरा-तफरी फैलाने का था तो मीडिया का काम उसे बढ़ाने का नहीं होना चाहिए। न्यूयॉर्क पर हुए आतंकी हमले की कवरेज को देखें तो आप पाएंगे कि मीडिया ने अव्यवस्था और अराजकता के बजाय व्यवस्था को दिखाने की कोशिश की। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की ऊँची इमारत की सीढ़ियों में दो कतारें अपने आप बन गईं। एक कतार में लोग उतर रहे थे और दूसरी कतार में राहतकर्मी ऊपर जा रहे थे। आपने लाशों की तस्वीरें देखी भी नहीं होंगी। इसके विपरीत मुम्बई पर हुए आतंकी हमले की भारतीय मीडिया कवरेज ने पाकिस्तान में बैठे आतंकियों को मदद पहुँचाई। आतंकियों और उन्हें निर्देश देने वालों के फोन-संदेशों ने इस बात की पुष्टि की। ज़रूरत इस बात की है कि मीडियाकर्मियों को इन स्थितियों में कवरेज का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
दूसरा पाठ प्रशासनिक व्यवस्था का है। गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे के वक्तव्य से लगता है कि सरकार के पास कुछ शहरों में धमाकों के अंदेशे की खुफिया जानकारी थी। जानकारी इतनी साफ हो कि किस वक्त पर कहाँ हमला हो सकता है तो हमला हो ही नहीं पाता। पर मोटा अंदेशा हो तो पेशबंदी की जा सकती है। हैदराबाद में क्या पेशबंदी थी, अभी यह स्पष्ट नहीं है। लगता है कि सुरक्षा-व्यवस्था को इसका गुमान नहीं  था। इसे इंटेलिजेंस फेल होना कहते हैं। इंटेलिजेंस या खुफियागीरी कई तरह से होती है। इसमें तकनीक का इस्तेमाल होता है, दूसरे देशों या संगठनों की सूचनाओं को एकत्र किया जाता है और जनता से सीधे प्राप्त जानकारियों को हासिल किया जाता है। इसे मानवीय या ह्यूमन इंटेलिजेंस कहते हैं। हमारे यहाँ ह्यूमन इंटेलिजेंस बेहद कमज़ोर है। इसके सामाजिक और प्रशासनिक दोनों कारण हैं। मसलन हैदराबाद में अमोनियम नाइट्रेट से बम बनाया गया था। यह सबसे आसानी से मिलने वाला विस्फोटक है जो खेती के काम भी आता है। इसकी बिक्री को नियंत्रित करने के साथ-साथ इसके विक्रेताओं से सम्पर्क रखने और उन्हें प्रशिक्षित करने की ज़रूरत भी होगी। पर हम यह काम नहीं कर पाए हैं। हमने जानकारियों का नेशनल ग्रिड (नैट ग्रिड) बनाया है, पर लगता है जानकारियों के विश्लेषण की पद्धति तैयार नहीं की। इससे भी बड़ी बात यह है कि पुलिस बलों के पास पर्याप्त लोग नहीं हैं, जो अपने इलाके की जनता से दोस्ताना रिश्ता रखें। उन्हें इसके लिए प्रशिक्षित भी नहीं किया गया है। इसी महीने सुप्रीम कोर्ट में एक लोक याचिका के संदर्भ में तमाम तथ्य सामने आए हैं कि किस तरीके से हमारे नेता वीआईपी सुरक्षा के नाम लाल बत्ती, एक्स-वाई-जेड सुरक्षा की तलाश में रहते हैं। इसके कारण जनता की सुरक्षा पीछे रह जाती है। खुफिया एजेंसियों में युवा खून की ज़रूरत भी है। अधिकतर एजेंसियों में 50 से ऊपर की उम्र के लोग यह काम कर रहे हैं, जबकि आतंकी संगठन किशोरों को आकर्षित कर रहे हैं। इसमें भी दो राय नहीं कि बेरोज़गारी और गरीबी ने किशोरों को भ्रमित कर दिया है। उन्हें सकारात्मक रास्ते पर लाने की जिम्मेदारी व्यवस्था की है। और भ्रष्टाचार पर काबू पाने की ज़रूरत भी है, क्योंकि आतंकियों के पास पैसा हथियार बैकडोर से आते हैं।
राजनीतिक दृष्टि से देखें तो हमारे सामने सबसे बड़ा उदाहरण है नेशनल काउंटर टैररिज़्म सेंटर (एनसीटीसी)। पिछले साल फरवरी में सरकार ने अचानक इसे बनाने की घोषणा कर दी। इसपर कुछ राज्य सरकारों ने इसमें अड़ंगा लगा दिया। यदि हमें एनसीटीसी की ज़रूरत है तो उसके राजनीतिक निहितार्थ को जल्द से जल्द समझ कर इसका रास्ता साफ करना चाहिए। पिछले एक साल में यह मामला जस का तस है। हैदराबाद की घटना क्या मजलिसे इत्तहादुल मुस्लिमीन के विधायक अकबरुद्दीन ओवेसी के भाषण का परिणाम थी? लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने यह सवाल उठाया है। उनका यह भी कहना था कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में सरकार और भाजपा का दृष्टिकोण एक नहीं है। यह चिंतनीय वक्तव्य है। इन दो दलों का नहीं पूरे देश का दृष्टिकोण एक होना चाहिए। यह आम जनता की सुरक्षा का सवाल है। बेशक जब अकबरुद्दीन ओवेसी का ज़िक्र होगा तो प्रवीण तोगड़िया का भी होगा। राजनीतिक दलों को इस मामले की संवेदनशीलता को समझना चाहिए। 
एक महत्वपूर्ण पहलू अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है। इस बात तक की तह तक पहुँचने की ज़रूरत है कि पाकिस्तान में कराची प्रोजेक्टनाम से लश्करे तैयबा का वह गिरोह चल रहा है या नहीं जिसका उद्देश्य भारत में अराजकता फैलाना है। कराची प्रोजेक्ट के बारे में डेविड कोल हैडली ने अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफबीआई को जानकारी दी थी। यह प्रोजेक्ट 2003 से चल रहा था और अनुमान है कि आज भी सक्रिय है। लश्करे तैयबा अपने नए नाम दारुल उद दावा के रूप में सक्रिय है और हाफिज सईद दिफा-ए-पाकिस्तान कौंसिल के नाम से कट्टरपंथी आंदोलन चला रहे हैं। मुम्बई धमाकों के सिलसिले में पाकिस्तान सरकार के आश्वासन के बावज़ूद वहाँ से आए आयोग की जानकारी को पाकिस्तान की अदालत ने साक्ष्य नहीं माना। और अब एक नए आयोग की व्यवस्था की जा रही है, जो इस मामले की तफतीश से जुड़े लोगों से बात करेगा। इतना साफ है कि पाकिस्तान की नागरिक सरकार इतनी ताकतवर नहीं है कि वह लश्करे तैयबा पर काबू पा सके। हाफिज सईद पर अमेरिका की ओर से 10 मिलियन डॉलर के इनाम की घोषणा के बाद से उसके हौसले बढ़े ही हैं, कम नहीं हुए। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में हम तभी जीत सकते हैं जब सामाजिक और राजनीतिक रूप से एक और प्रशासनिक रूप से कुशल हों।