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Wednesday, February 15, 2023

बीबीसी पर छापे के पीछे की कहानी क्या है?

दिल्ली के एचटी हाउस में स्थित बीबीसी का दफ्तर

मंगलवार को दुनिया के मीडिया प्लेटफॉर्मों पर यह खबर आग की तरह फैल गई कि ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (बीबीसी) के दिल्ली और मुंबई कार्यालयों पर
आयकर विभाग के छापे चल रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया और अखबारों की सुर्खियाँ बनने के अलावा इस विषय पर टीका-टिप्पणियाँ हो रही हैं। कांग्रेस समेत देश के ज्यादातर विरोधी दलों ने इन छापों की निंदा की है। कांग्रेस ने इसे अघोषित आपातकाल बताया है, वहीं बीजेपी का कहना है कि सारी कार्रवाई नियमों के तहत हो रही है और अगर किसी ने कुछ गलत नहीं किया है तो उसे डरने की जरूरत नहीं है। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा है कि इनकम टैक्स विभाग समय-समय पर सर्वे करता है। विभाग आपको इस विषय पर आगे की जानकारी दे देगा। ब्रिटेन की सरकार ने कहा कि इस मामले पर वह नजर बनाए हुए है। मीडिया का एक हिस्सा और राजनेता इस छापे को हाल में जारी की गई बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री से जोड़कर दखे रहे हैं।

कांग्रेस के महासचिव केसी वेणुगोपाल ने आयकर विभाग की कार्रवाई पर कहा, "ये निराशा का धुआं है और ये दर्शाता है कि मोदी सरकार आलोचना से डरती है।" उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा, "हम डराने-धमकाने के इन हथकंडों की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं। यह अलोकतांत्रिक और तानाशाही रवैया अब और नहीं चल सकता।" दूसरी तरफ बीजेपी प्रवक्ता गौरव भाटिया ने बीबीसी को दुनिया का भ्रष्ट, बकवास कॉरपोरेशन बताया। उन्होंने कहा, भारत एक ऐसा देश है जहाँ हर संस्था को मौक़ा दिया जाता है। तब तक, जब तक आप ज़हर नहीं उगलेंगे। तलाशी क़ानून के दायरे में हैं और इसकी टाइमिंग का सरकार से कोई लेना देना नहीं है।

एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने कहा कि हम इस तलाशी को लेकर "बहुत चिंतित" हैं। सरकार की नीतियों या सरकारी संस्थानों की आलोचना करने वाले मीडिया संस्थानों को डराने और परेशान करने के लिए सरकारी एजेंसियों के इस्तेमाल के प्रचलन का ही यह क्रम है। प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया ने भी बयान जारी करके इस कार्रवाई की आलोचना की है। प्रेस क्लब ने सरकार की कार्रवाई पर चिंता जताई है और कहा है कि इससे भारत की छवि को नुक़सान पहुँचेगा। मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने अधिकारियों पर बीबीसी को डराने का आरोप लगाया।

अंतिम समाचार मिलने तक दूसरे दिन भी सर्वे चल रहा  है और माना जा रहा है कि यह काम दो-तीन दिन तक चलेगा। मंगलवार की सुबह करीब सवा 11 बजे इनकम टैक्स की टीम बीबीसी के दिल्ली दफ्तर में पहुंची और सर्वे का काम शुरू किया। इनकम टैक्स की टीम में 15 से 20 अधिकारी मौजूद हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार बीबीसी के खातों और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स को चेक करने में लंबा वक्त लग सकता है। ऐसे में इनकम टैक्स विभाग की कार्रवाई लंबी चल सकती है। अधिकारियों ने बताया कि सर्वे अंतरराष्ट्रीय कराधान और बीबीसी की सहायक कंपनियों के ‘‘ट्रांसफर प्राइसिंग’’ से संबंधित मुद्दों की जांच के लिए किया गया है। अतीत में इस विषय पर बीबीसी को नोटिस दिया गया था, लेकिन उसने उस पर गौर नहीं किया और उसका पालन नहीं किया। उसने अपने मुनाफे के खास हिस्से को दूसरी जगह भेजा। उन्होंने कहा कि विभाग, बीबीसी के कारोबारी संचालन से जुड़े दस्तावेजों पर गौर कर रहा है।

इस बीच बीबीसी ने कहा कि वह इनकम टैक्स अधिकारियों के साथ पूरा सहयोग कर रहा है। बीबीसी प्रेस ऑफिस की ओर से एक बयान में कहा गया है, ''हम अपने कर्मचारियों का मदद कर रहे हैं. हमें उम्मीद है कि स्थिति जल्द से जल्द सामान्य हो जाएगी… हमारा आउटपुट और पत्रकारिता से जुड़ा काम सामान्य दिनों की तरह चलता रहेगा। हम अपने ऑडियंस को सेवा देने के लिए प्रतिबद्ध हैं।''

आयकर विभाग के अनुसार बीबीसी पर वित्तीय अनियमितता और टैक्स चोरी का आरोप है। ट्रांसफर प्राइसिंग नॉर्म्स और इंटरनेशनल टैक्सेशन के नियमों के उल्लंघन का भी आरोप है। विभाग ने बीबीसी से बैलेंस शीट और लेनदेन के ब्योरे की माँग की है। इस सिलसिले में बीबीसी के वित्त वर्ष 2012-13 के बाद किए गये सभी लेन-देन की जांच हो सकती है। मंगलवार को जब छापे की कार्रवाई शुरू हुई तो बीबीसी के कर्मचारियों को परिसर के अंदर एक विशेष स्थान पर अपने फोन रखने के लिए कहा गया था। कुछ कंप्यूटरों को जब्त कर लिया गया है वहीं कुछ कर्मचारियों के मोबाइल फोनों का क्लोन बनाया जा रहा है।

बीबीसी दफ्तर पर छापे की खबर फैलते ही मध्य दिल्ली के कस्तूरबा गांधी मार्ग स्थित बीबीसी कार्यालय के बाहर भारी संख्या में राहगीरों और मीडिया कर्मियों की भीड़ जमा हो गई। मुंबई में बीबीसी का कार्यालय सांताक्रुज में है। सर्वे के नियमों के तहत, आयकर विभाग केवल कंपनी के व्यावसायिक परिसर की ही जांच करता है और इसके प्रवर्तकों या निदेशकों के आवासों और अन्य स्थानों पर छापा नहीं मारता।

बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री

बीबीसी ने हाल में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर एक डॉक्यूमेंट्री का प्रसारण किया था। टह डॉक्यूमेंट्री भारत में प्रसारण के लिए नहीं थी, पर देश में लोगों ने इसे इंटरनेट से डाउनलोड करके कई जगह इसका प्रदर्शन किया। यह डॉक्यूमेंट्री 2002 के गुजरात दंगों पर थी। उस समय भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। डॉक्यूमेंट्री में कई लोगों ने गुजरात दंगों के दौरान नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सवाल उठाए थे।

केंद्र सरकार ने इस डॉक्यूमेंट्री को प्रोपेगैंडा और औपनिवेशिक मानसिकता के साथ भारत-विरोधी बताते हुए भारत में इसे ऑनलाइन शेयर करने से ब्लॉक करने की कोशिश की थी। बीबीसी ने कहा था कि भारत सरकार को इस डॉक्यूमेंट्री पर अपना पक्ष रखने का मौक़ा दिया गया था, लेकिन सरकार की ओर से इस पेशकश पर कोई जवाब नहीं मिला। बीबीसी का कहना है कि "इस डॉक्यूमेंट्री पर पूरी गंभीरता के साथ रिसर्च किया गया, कई आवाज़ों और गवाहों को शामिल किया गया और विशेषज्ञों की राय ली गई और हमने बीजेपी के लोगों समेत कई तरह के विचारों को भी शामिल किया।"

बीबीसी का सर्वे क्यों?

सरकारी अधिकारियों के अनुसार यह सर्वे यह पता करने के लिए किया जा रहा है कि बीबीसी ने अवैध तरीके से लाभ तो प्राप्त नहीं किए हैं, जिनमें टैक्स शामिल है। बीबीसी लगातार जानबूझकर ट्रांसफर प्राइसिंग नियमों का उल्लंघन करता रहा है। एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को वस्तु या सेवा की कीमत देकर उसके हस्तांतरण को, ट्रांसफर प्राइस कहा जाता है। किसी बहुराष्ट्रीय ग्रुप के अलग-अलग पक्षों के बीच व्यावसायिक हस्तांतरण पर वही नियम लागू नहीं होते, जो दो स्वतंत्र फर्मों के बीच हुए हस्तांतरण पर लागू होते हैं। आयकर विभाग के अनुसार ट्रांसफर प्राइसिंग सामान्यतः सहयोगी उपक्रमों के बीच हुए हस्तांतरण के मूल्य होते हैं, जो दो स्वतंत्र उपक्रमों के बीच के हुए हस्तांतरण से भिन्न शर्तों पर होते हैं।

उदाहरण के लिए क कंपनी किसी वस्तु को 100 रुपये में खरीदती है और किसी अन्य देश में अपनी सहयोगी ख कंपनी को 200 रुपये में बेचा, जिसने उसे खुले बाजार में 400 रुपये में बेच दिया। यदि क ने उस वस्तु को सीधे बेचा होता, तो उसे 300 रुपये का लाभ होता, पर उसे ख के मार्फत बेचने पर उसे 100 का लाभ होगा और शेष लाभ ख को मिलेगा। इस प्रकार 200 रुपये का लाभ देश में मौजूद ख को मिला। वह वस्तु 200 रुपये की कीमत (ट्रांसफर प्राइस) पर बेची गई है न कि बाजार मूल्य (400 रुपये) पर।

ट्रांसफर प्राइसिंग से फर्क यह पड़ता है कि इस लेनदेन में पितृ कंपनी (या उसकी सहायक कंपनी) अपर्याप्त कर योग्य आय या अतिरिक्त हानि प्राप्त करती है। आयकर विभाग की वैबसाइट के अनुसार पितृ-कंपनी ऊँचे ट्रांसफर प्राइस की मदद से उन देशों में स्थित अपनी सहायक कंपनियों से ज्यादा लाभ हासिल कर सकती हैं, जहाँ टैक्स की दरें ऊँची हैं। और जिन देशों में टैक्स की दरें कम हैं वहाँ ट्रांसफर प्राइस कम रखकर सहायक कंपनी का लाभ बढ़ा सकती हैं।

इसी प्रकार जिन देशों में टैक्स की दरें ज्यादा हैं, वहाँ की पितृ-संस्था उस देश की सहायक कंपनी को जहाँ टैक्स बहुत कम है, कम मुनाफे पर माल बेच सकती है। इसके बाद सहायक कंपनी उस उत्पाद को आर्म्स लेंग्थ प्राइस पर बेच देती है। इसके बाद बढ़े हुए मुनाफे पर बहुत कम टैक्स पड़ेगा। इससे सरकार को राजस्व और विदेशी मुद्रा की हानि होगी। भारत के आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 92 एफ(2) में आर्म्स लेंग्थ प्राइस अनियंत्रित शर्तों वाली वह कीमत बताई गई है, जो ऐसे दो पक्षों के बीच हुए विनिमय में ली गई हो, जो आपस में सहयोगी नहीं है। आर्म्स लेंग्थ प्राइस कैसे तय होगा, इसकी व्याख्या धारा 92 सी(1) में की गई है। 

Saturday, October 1, 2022

बंद होना चाहिए नफ़रती बहसों का ज़हरीला कारोबार

मीडिया की सजगता या अतिशय सनसनी फैलाने के इरादों के कारण पिछले कुछ महीनों से देश में जहर-बुझे बयानों की झड़ी लग गई। अक्सर लोग इसे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हैं, पर जब यह सुरुचि और स्वतंत्रता का दायरा पार कर जाती है, तब उसे रोकने की जरूरत होती है। हेट स्पीच का नवीनतम सुप्रीम कोर्ट से आया है। अदालत ने काफी कड़े शब्दों में चैनलों के एंकरों को फटकार लगाई है और इससे जुड़े सभी पक्षों से कहा है कि वे रास्ता बताएं कि किस तरह से इस आग को बुझाया जाए।

हालांकि देश में आजादी के पहले से ऐसे बयानों का चलन रहा है, पर 1992 में बाबरी विध्वंस के कुछ पहले से इन बयानों ने सामाजिक जीवन के ज्यादा बड़े स्तर पर प्रभावित किया है। इस परिघटना के समांतर टीवी का प्रसार बढ़ा और न्यूज़ चैनलों ने अपनी टीआरपी और कमाई बढ़ाने के लिए इस ज़हर का इस्तेमाल करना शुरू किया है। नब्बे के दशक में लोग गलियों-चौराहों और पान की दुकानों ज़हर बुझे भाषणों के टेपों को सुनते थे। विडंबना है कि हेट स्पीच रोकने के लिए देश में तब भी कानून थे और आज भी हैं, पर किसी को सजा मिलते नहीं देखा गया है।

सब मूक-दर्शक

गत 21 सितंबर को जस्टिस केएम जोसफ और जस्टिस हृषीकेश रॉय की बेंच ने हेट-स्पीच से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि यह एंकर की जिम्मेदारी है कि वह किसी को नफरत भरी भाषा बोलने से रोके। बेंच ने पूछा कि इस मामले में सरकार मूक-दर्शक क्यों बनी हुई है, क्या यह एक मामूली बात है? यही प्रश्न दर्शक के रूप में हमें अपने आप से भी पूछना चाहिए। यदि यह महत्वपूर्ण मसला है, तो टीवी चैनल चल क्यों रहे हैं? हम क्यों उन्हें बर्दाश्त कर रहे हैं? मूक-दर्शकतो हम और आप हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि सामान्य नागरिकों के भीतर चेतना का वह स्तर नहीं है, जो विकसित लोकतंत्र में होना चाहिए।

Sunday, September 25, 2022

भिंडी-बाजार क्यों बने टीवी स्टूडियो?


सुप्रीम कोर्ट ने इस हफ्ते एक ऐसे मसले को उठाया है, जिसपर बातें तो लगातार हो रही हैं, पर व्यवहार में कुछ हो नहीं रहा है। अदालत ने हेट-स्पीच से भरे टॉक शो और रिपोर्टों को लेकर टीवी चैनलों को फटकार लगाई है। गत 21 सितंबर को जस्टिस केएम जोसफ और जस्टिस हृषीकेश रॉय की बेंच ने हेट-स्पीच से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि यह एंकर की जिम्मेदारी है कि वह किसी को नफरत भरी भाषा बोलने से रोके। बेंच ने पूछा कि इस मामले में सरकार मूक-दर्शक क्यों बनी हुई है, क्या यह एक मामूली बात है? यही प्रश्न दर्शक के रूप में हमें अपने आप से भी पूछना चाहिए। यदि यह महत्वपूर्ण मसला है, तो टीवी चैनल चल क्यों रहे हैं? हम क्यों उन्हें बर्दाश्त कर रहे हैं? मूक-दर्शकतो हम और आप हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि सामान्य नागरिकों के भीतर चेतना का वह स्तर नहीं है, जो विकसित लोकतंत्र में होना चाहिए।

मीडिया की आँधी

चौराहों, नुक्कड़ों और भिंडी-बाजार के स्वर और शब्दावली विद्वानों की संगोष्ठी जैसी शिष्ट-सौम्य नहीं होती। पर खुले गाली-गलौज को तो मछली बाजार भी नहीं सुनता। वह भाषा सोशल मीडिया में पहले प्रवेश कर गई थी, अब मुख्यधारा के मीडिया में भी सुनाई पड़ रही है। मीडिया की आँधी ने सूचना-प्रसारण के दरवाजे भड़ाक से  खोल दिए हैं। बेशक इसके साथ ही तमाम ऐसी बातें सामने आ रहीं हैं, जो हमें पता नहीं थीं। कई प्रकार के सामाजिक अत्याचारों के खिलाफ जनता की पहलकदमी इसके कारण बढ़ी है, पर सकारात्मक भूमिका के मुकाबले उसकी नकारात्मक भूमिका चर्चा में है। हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हामी हैं, पर नहीं जानते कि इससे जुड़ी मर्यादाएं भी हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिश लगाने के जोखिम भी हैं।

अभिव्यक्ति की आज़ादी

अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जरूरी है, लेकिन टीवी पर अभद्र भाषा बोलने की आजादी नहीं दी जा सकती है। संविधान के अनुच्छेद 19(1) ए के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीम नहीं है। उसपर विवेकशील पाबंदियाँ हैं। सिनेमाटोग्राफिक कानूनों के तहत सेंसरशिप की व्यवस्था भी है। पर समाचार मीडिया को लाइव प्रसारण की जो छूट मिली है, उसने अति कर दी है। टीवी मीडिया और सोशल मीडिया बिना रेग्युलेशन के काम कर रहे हैं। उनका नियमन होना चाहिए। इन याचिकाओं पर अगली सुनवाई 23 नवंबर को होगी। कोर्ट ने केंद्र को निर्देश दिया है कि वह स्पष्ट करे कि क्या वह हेट-स्पीच पर अंकुश लगाने के लिए विधि आयोग की सिफारिशों पर कार्रवाई करने का इरादा रखती है।

परिभाषा नहीं

देश में हेट-स्पीच से निपटने के लिए कई तरह के कानूनों का इस्तेमाल होता है, पर किसी में हेट-स्पीच को परिभाषित नहीं किया गया है। केंद्र सरकार अब पहले इसे परिभाषित करने जा रही है। विधि आयोग की सलाह है कि जरूरी नहीं कि सिर्फ हिंसा फैलाने वाली स्पीच को हेट-स्पीच माना जाए। इंटरनेट पर पहचान छिपाकर झूठ और आक्रामक विचार आसानी से फैलाए जा रहे हैं। ऐसे में भेदभाव बढ़ाने वाली भाषा को भी हेट-स्पीच के दायरे में रखा जाना चाहिए। सबसे ज्यादा भ्रामक जानकारियां फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सएप जैसे प्लेटफॉर्मों के जरिए फैलती हैं। इनके खिलाफ सख्त कानून बनने से कानूनी कार्रवाई का रास्ता खुलेगा, पर फ्री-स्पीच के समर्थक मानते हैं कि एंटी-हेट-स्पीच कानून का इस्तेमाल विरोधियों की आवाज दबाने के लिए किया जा सकता है।

Thursday, August 18, 2022

The Hindu के हिंदी-प्रेम के पीछे क्या है?

चेन्नई से प्रकाशित अखबार द हिंदू के संपादक सुरेश नंबथ ने गत 15 अगस्त को ट्वीट किया, ‘@the_hindu in Hindi; from today, our editorials will be available in Hindi.’ पहली नज़र में लगा कि शायद यह अखबार हिंदी में भी निकलने वाला है। गौर से देखने पर पता लगता है कि फिलहाल तो ऐसा नहीं है। हो सकता है कि ऐसा करने के बारे में विचार किया जा रहा हो। हुआ यह है कि अखबार की वैबसाइट पर संपादकीय के साथ हिंदी का एक पेज और जोड़ दिया गया है। अंग्रेजी अखबार के संपादकीयों का हिंदी अनुवाद भी अब उपलब्ध हैं।

हिंदू की वैबसाइट पर मैंने इस हिंदी पेज को खोजने की कोशिश की, तो नहीं मिला, पर सुरेश नंबथ ने जो लिंक दिया है, उसके सहारे आप अब तक प्रकाशित सभी संपादकीयों को पढ़ सकते हैं। सुरेश नंब के ट्वीट पर हिंदी के कुछ पाठकों और पत्रकारों ने काफी दिलचस्पी दिखाई और इसका स्वागत किया। यह स्वागत इस अंदाज़ में था कि शायद यह अखबार हिंदी में आने वाला है।

हिंदू से उम्मीदें

ऐसा कभी हो, तो बड़ी अच्छी बात होगी, क्योंकि इसमें दो राय नहीं कि गुणवत्ता के लिहाज से हिंदू अच्छा अखबार है। हिंदी अखबारों की गुणवत्ता का, खासतौर से देश-दुनिया से जुड़ी संजीदा जानकारी का जिस तरह से ह्रास हुआ है, उसके कारण लोगों को हिंदू से उम्मीदें हैं। काफी लोग उसके वामपंथी झुकाव और राजनीतिक-दृष्टिकोण के मुरीद हैं। पर इन बातों के साथ कई तरह के किंतु-परंतु जुड़े हैं।

हिंदी में बंगाल के आनंद बाजार पत्रिका और केरल के मलयाला मनोरमा ग्रुप ने भी प्रवेश करने की कोशिश की है। आनंद बाजार पत्रिका को प्रिंट में तो सफलता नहीं मिली, पर उनका टीवी चैनल जरूर एक हद तक सफल हुआ है। हिंदी में हिंदू के प्रकाशन की संभावना का जिक्र होते ही काफी लोगों का ध्यान गया है। एक जमाने में खबरें आती थीं कि स्टेट्समैन समूह हिंदी में नागरिक नाम से अखबार निकालना चाहता है। ऐसा हुआ नहीं। पर हिंदी वाले अच्छे और संजीदा मीडिया का इंतजार करते रहते हैं।

हिंदी-शहरों में हिंदू

हिंदू तमिल-जीवन और समाज के भीतर से निकला अखबार है, जिसमें हिंदी के प्रति अनुग्रह बहुत कम है, बल्कि हिंदी-विरोधी स्वर उस क्षेत्र में सबसे तीखे हैं। उसका तमिल-संस्करण भी है। वह दक्षिण की दूसरी भाषाओं को छोड़कर हिंदी-संस्करण क्यों निकालना चाहेगा?  वह केरल और तमिलनाडु में सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है। विकीपीडिया के अनुसार, इस समय यह भारत के 11 राज्यों के 21 स्थानों से प्रकाशित होता है। इनमें दक्षिण भारत के छोटे-बड़े शहरों के अलावा दिल्ली, मुंबई, कोलकाता वगैरह भी समझ में आते हैं, पर मोहाली, लखनऊ, इलाहाबाद और पटना के नाम पढ़कर हैरत होती है और इसका मतलब भी समझ में आता है।

Friday, December 24, 2021

पत्रकारिता के नाम ममता बनर्जी का यह कैसा संदेश है?


पश्चिम बंगाल सरकार और पत्रकारों के रिश्तों से जुड़ी दो खबरें हाल में पढ़ने को मिलीं। दोनों हालांकि दो विपरीत दिशाओं में थीं, पर दोनों के पीछे इरादा एक ही नज़र आ रहा था। सत्ताधारी की तारीफ करोगे तो वह आपको खुशी देगा, नहीं करोगे तो वह आपको खुश नहीं रहने देगा। सिद्धांत तो यह कहता है कि पत्रकार की जिम्मेदारी तथ्यों के आधार पर समाचार और विचारों को प्रकाशित करने की होती है। विज्ञापन पाना या प्रचार करना उसका काम नहीं है। दूसरी तरफ विचार और अभिव्यक्ति की मर्यादा को बनाए रखने के लिए उसकी जिम्मेदारियाँ भी हैं, जो उसे सकारात्मकता से जोड़ती हैं। जरूरी होने पर ताकतवर से भिड़ने का साहस भी रखता है। दूसरी तरफ राजनीति और सत्ता की सैद्धांतिक-मर्यादा कहती है कि राज-शक्ति का इस्तेमाल न तो वैचारिक दमन के लिए हो और न प्रचार को
खरीदने के लिए।

सेवा करो, मेवा पाओ

हाल में ममता बनर्जी का एक वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें वे कह रही हैं कि अखबारों को विज्ञापन चाहिए, तो सकारात्मक खबरें लिखें। सकारात्मक का मतलब है सरकार के पक्ष में। यह बात उन्होंने छिपाकर नहीं, एक सम्मेलन में खुलेआम कही है। उन्होंने यह भी कहा है कि स्थानीय अखबारों को विज्ञापन हासिल करने हैं, तो ज़िला मजिस्ट्रेट के दफ्तर में पॉजिटिव खबरों वाली प्रतियाँ जमा करें। फिर उन्हें विज्ञापन मिलेंगे। सकारात्मक और नकारात्मक खबरों का अर्थ बहुत व्यापक है। किसी भी सकारात्मक सूचना को तथ्यों में तोड़-मरोड़ करके नकारात्मक बनाया जा सकता है। जीवन के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष भी होते हैं। पर यह चर्चा फिलहाल कवरेज के राजनीतिक निहितार्थ तक सीमित है।

Friday, September 3, 2021

जिस दौर में ‘झूठ का बोलबाला’ हो उस दौर में सच की लड़ाई कौन और कैसे लड़ेगा?


सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि मीडिया का एक वर्ग देश को बदनाम करने वाली खबरों को साम्प्रदायिक रंग देता है। देश में हर चीज इस वर्ग को साम्प्रदायिकता के पहलू से नजर आती है। इससे देश की छवि खराब हो रही है। अदालत ने यह भी पूछा है कि क्या केंद्र ने निजी चैनलों के नियमन की कभी कोशिश भी की है? इसके पहले गत 28 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि सत्य को ताकतवर बनाए बगैर लोकतंत्र की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।

विचार-अभिव्यक्ति और सूचना तथा समाचार से जुड़ी इन बातों का जवाब नागरिकों को नहीं व्यवस्था को देना है। सुप्रीम कोर्ट भी उसी व्यवस्था का अंग है। सरकार के तीनों अंगों में उसकी भी महत्वपूर्ण भूमिका है। सवाल है कि जिस देश में चार करोड़ से ज्यादा मुकदमे लम्बित हों, वहाँ ऊँची सैद्धांतिक बातों का मतलब क्या है। जब झूठ बोलने से व्यक्ति को लाभ मिलता हो, तो वह सच की लड़ाई कैसे लड़ेगा?  अदालतों को सवाल उठाने के साथ-साथ रास्ते भी बताने चाहिए। बहरहाल यह बहस लम्बी है और इसे आगे बढ़ाने की जरूरत है।

साम्प्रदायिकता का पानी

प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और एएस बोपन्ना की पीठ फर्जी खबरों के प्रसारण पर रोक के लिए जमीयत उलमा-ए-हिंद की याचिका सहित कई याचिकाओं पर गत 2 सितम्बर को सुनवाई कर रही थी। जमीयत ने अपनी याचिका में निज़ामुद्दीन स्थित मरकज़ में पिछले साल धार्मिक सभा से संबंधित फर्जी खबरें फैलाने से रोकने और इसके लिए जिम्मेदार लोगों पर कड़ी कार्रवाई करने का केंद्र को निर्देश देने का अनुरोध किया है।

अदालत ने वैैब पोर्टलों और यूट्यूब सहित इंटरनेट मीडिया पर परोसी जाने वाली फर्जी खबरों पर गम्भीर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि वे केवल शक्तिशाली आवाजों को सुनते हैं। किसी मामले में ट्विटर, फेसबुक और यूट्यूब से जवाब मांगा जाए, तो वह जवाबदेही से पल्ला झाड़ लेते हैं। न्यायाधीशों, संस्थानों के खिलाफ बिना किसी जवाबदेही के कई चीजें लिखी जाती हैं।

उच्चतम न्यायालय इंटरनेट मीडिया तथा वेब पोर्टल समेत ऑनलाइन सामग्री के नियमन के लिए हाल में लागू सूचना प्रौद्योगिकी नियमों की वैधता के खिलाफ विभिन्न उच्च न्यायालयों में लम्बित याचिकाओं को सर्वोच्च अदालत में स्थानांतरित करने की केंद्र की याचिका पर छह हफ्ते बाद सुनवाई करने के लिए भी राजी हो गया है।

मीडिया की जवाबदेही

सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश रमना ने कहा, मुझे यह नहीं मालूम कि ये इंटरनेट मीडिया, ट्विटर और फेसबुक आम लोगों को कहां जवाब देतेे हैं। वे कभी जवाब नहीं देते। कोई जवाबदेही नहीं है। वे खराब लिखते हैं और जवाब नहीं देते और कहते हैं कि यह उनका अधिकार है। वैब पोर्टल और यूट्यूब चैनलों पर फर्जी खबरों तथा छींटाकशी पर कोई नियंत्रण नहीं है। अगर आप यूट्यूब देखेंगे तो पाएंगे कि कैसे फर्जी खबरें आसानी से प्रसारित की जा रही हैं और कोई भी यूट्यूब पर चैनल शुरू कर सकता है। याचिका दायर करने वाले एक पक्ष का ओर से पेश हुए वकील संजय हेगड़े ने कहा कि ट्विटर ने उनके अकाउंट को निलम्बित कर दिया था। मैंने इस सिलसिले में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की है।

Wednesday, June 16, 2021

मंदिर की जमीन के सौदे का आरोप लगाने वाले अपने ही जाल में उलझे


अयोध्या में राम मंदिर से जुड़ी जमीन की खरीद में घोटाले का आरोप लगाने वाले अपने ही जाल में उलझ गए लगते हैं। पंद्रह मिनट में दो करोड़ से साढ़े अठारह करोड़ का जो आरोप लगाया गया है, वह तथ्यों की जमीन पर टिक नहीं पाएगा। आरोप लगाने वालों को कम से कम बुनियादी होमवर्क जरूर करना चाहिए। आम आदमी पार्टी और सपा के साथ कांग्रेस ने भी इन आरोपों के साथ खुद को जोड़कर जल्दबाजी की है। आरोपों की बुनियाद कच्ची साबित हुई और वे फुस्स हुए, तो इन्हें लगाने वालों के हाथ भी हाथ जलेंगे। इन सभी पार्टियों पर आरोप लगता रहा है कि मंदिर निर्माण में अड़ंगे लगाने की वे कोशिशें करती रहती हैं।

वायरल आरोप

पिछले तीन-चार दिनों में दो खबरों ने तेजी से सिर उठाया और फिर उतनी ही तेजी से गुम हो गईं। इन दोनों खबरों पर जमकर राजनीतिक प्रतिक्रियाएं आईं। लानत-मलामत हुई और जब गर्द-गुबार साफ हुआ तो किसी ने न तो सफाई देने की कोशिश की और न गलती मानी। पहली खबर एक बुजुर्ग मुसलमान व्यक्ति की पिटाई और फिर उनकी दाढ़ी काटने से जुड़ी थी। दूसरी खबर अयोध्या में राम जन्मभूमि के निर्माण के सिलसिले में जमीन की खरीदारी को लेकर थी। दोनों ही खबरों में काफी राजनीतिक मसाला था, इसलिए सोशल मीडिया के साथ-साथ मुख्यधारा के मीडिया में जमकर शोर मचा।

गाजियाबाद के 72 वर्षीय अब्दुल समद सैफी की पिटाई और दाढ़ी कटने का एक वीडियो वायरल होने के एक दिन बाद, गाजियाबाद पुलिस ने दावा किया कि यह ‘व्यक्तिगत दुश्मनी’ का मामला था। कुछ लोग उनसे नाराज़ थे क्योंकि उन्होंने एक व्यक्ति को तावीज’ दी थी, जिससे अभीप्सित परिणाम नहीं मिला। उनकी पिटाई के वीडियो में वायरल करने वालों ने आवाज बंद कर दी थी, जिससे पता नहीं लग रहा था कि पीटने की वजह क्या थी।

उसके बाद इन सज्जन के साथ बातचीत का एक और वीडियो जारी हुआ, जिसमें इनके मुख से कहलवाया गया था कि पीटने वाले जय श्रीराम बोलने के लिए मजबूर कर रहे थे। यह वीडियो जिन सज्जन के सौजन्य से आया था उनके कमरे की दीवार पर लगी तस्वीर बता रही थी कि वे एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ता हैं। यहाँ से कहानी में लोच आ गया और मीडिया की मुख्यधारा ने इस मामले की तफतीश से हाथ खींच लिया।

Tuesday, June 15, 2021

जी-7 ने ‘इंटरनेट-शटडाउन’ पर शब्दावली भारत के सुझाव पर बदली?

बाएं आज के हिन्दू की लीड और दाएं कोलकाता के टेलीग्राफ की लीड

रविवार को सम्पन्न हुए जी-7 के शिखर सम्मेलन में भारत ने खुले समाज से जुड़े एक संयुक्त घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। इसे लेकर कल भारतीय मीडिया में टिप्पणियाँ थीं कि भारत ने इंटरनेट शटडाउन-विरोधी इस घोषणापत्र पर दस्तखत कैसे कर दिए, जबकि 2019 में उसने जम्मू-कश्मीर में शटडाउन किया था। आज के हिन्दू की लीड है कि भारत के कहने पर इस घोषणापत्र की भाषा बदली गई और इसमें राष्ट्रीय-सुरक्षा को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ऊपर रखा गया है।

मूलतः इस घोषणापत्र में ऑनलाइन और ऑफलाइन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने की बातें हैं, ताकि लोग भय और शोषण-मुक्त माहौल में रह सकें। इस घोषणापत्र में इन स्वतंत्रताओं में इंटरनेट की भूमिका को खासतौर से रेखांकित किया गया है। इस विषय पर चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि लोकतंत्र और वैचारिक स्वतंत्रता की रक्षा के साथ भारत की सभ्यतागत प्रतिबद्धता है।

भारत ने इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने के पहले इस विषय पर अपनी राय भी रखी थी। मई के महीने में जी-7 विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि वैचारिक स्वतंत्रता की रक्षा के साथ-साथ इस स्वतंत्रता के दुरुपयोग, खासतौर से फ़ेकन्यूज़ और डिजिटल छेड़छाड़ के खतरों से बचने की जरूरत भी होगी।

हिन्दू की खबर के अनुसार भारत सरकार के सूत्रों का कहना है कि भारत के जोरदार-विरोध के बाद इंटरनेट-शटडाउन की आलोचना से जुड़ी शब्दावली में संशोधन किया गया। अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद राज्य में काफी समय तक इंटरनेट और मोबाइल टेलीफोन सेवाएं बंद रहीं। उसके बाद नागरिकता कानून के विरोध में हुए आंदोलन और जनवरी, 2021 में दिल्ली में किसान-आंदोलन के दौरान दिल्ली और असम में भी ऐसी पाबंदियाँ लगाई गई थीं। दुनिया के कुछ और देशों में भी इंटरनेट शटडाउन हुआ है। इसमें हांगकांग का शटडाउन उल्लेखनीय है।

Tuesday, May 11, 2021

आँकड़ों की बाजीगरी और पश्चिमी देशों के मीडिया की भारत के प्रति द्वेष-दृष्टि


भारत पर आई आपदा को लेकर अमेरिका और यूरोप के तमाम देशों ने मदद भेजी है। करीब 16 साल बाद हमने विदेशी सहायता को स्वीकार किया है। आत्मनिर्भरता से जुड़ी भारतीय मनोकामना के पीछे वह आत्मविश्वास है, जो इक्कीसवीं सदी के भारत की पहचान बन रहा है। इस आत्मविश्वास को लेकर पश्चिमी देशों में एक प्रकार का ईर्ष्या-भाव भी दिखाई पड़ रहा है। खासतौर से कोविड-19 को लेकर पश्चिमी देशों की मीडिया-कवरेज में वह चिढ़ दिखाई पड़ रही है।

पिछले साल जब देश में पहली बार लॉकडाउन हुआ था और उसके बाद यह बात सामने आई कि सीमित साधनों के बावजूद भारत ने कोरोना का सामना मुस्तैदी से किया है, तो दो तरह की बातें कही गईं। एक तो यह कि भारत संक्रमितों की जो संख्या बता रहा है, वह गलत है। दूसरे लॉकडाउन की मदद से संक्रमण कुछ देर के लिए रोक भी लिया, तो लॉकडाउन खुलते ही संक्रमणों की संख्या फिर बढ़ जाएगी।

भारत की चुनौतियाँ

बहुत सी रिपोर्ट शुद्ध अटकलबाजियों पर आधारित थीं, पर अमेरिका की जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी और सेंटर फॉर डिजीज डायनैमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी की ओर से पिछले साल मार्च में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के लिए आने वाला समय चुनौतियों से भरा होगा। रिपोर्ट के अनुसार देश की स्वास्थ्य सुविधाओं में बहुत कमी है। देश में लगभग 10 लाख वेंटीलेटरों की जरूरत पड़ेगी, जबकि उपलब्धता 30 से 50 हजार ही है। अमेरिका में 1.60 लाख वेंटीलेटर भी कम पड़ रहे हैं, जबकि वहां की आबादी भारत से कम है।

Thursday, April 29, 2021

त्रासद समय में पश्चिमी मीडिया का रुख


दुनिया के किसी भी देश ने कोविड-19 की भयावहता को उस शिद्दत से महसूस नहीं किया, जिस शिद्दत से भारत के लोग इस वक्त महसूस कर रहे हैं। अमेरिका के थिंकटैंक कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस की वैबसाइट पर ग्लोबल हैल्थ जैसे विषयों पर लिखने वाली लेखिका क्लेरी फेल्टर ने लिखा है कि इस दूसरी लहर के महीनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने देश की कमजोर स्वास्थ्य-प्रणाली को मजबूत करने का मौका खो दिया। वर्तमान संकट का उल्लेख करते हुए उन्होंने इस बात का उल्लेख भी किया है कि भारत सरकार अब ऑनलाइन आलोचना को सेंसर कर रही है। इस आपदा पर पश्चिमी देशों, कम से कम उनके मीडिया का दृष्टिकोण कमोबेश ऐसा ही है। भारत सरकार ने इस विदेशी हमले का अनुमान भी नहीं लगाया था। अब विदेशमंत्री एस जयशंकर ने दुनियाभर में फैले अपने राजदूतों तथा अन्य प्रतिनिधियों से कहा है कि वे इस सूचना-प्रहार का जवाब दें। 

न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने पहले पेज पर दिल्ली में जलती चिताओं की एक विशाल तस्वीर छापी। लंदन के गार्डियन ने लिखा, द सिस्टम हैज़ कोलैप्स्ड। लंदन टाइम्स ने कोविड-19 को लेकर मोदी-सरकार की जबर्दस्त आलोचना करते हुए एक लम्बी रिपोर्ट छापी, जिसे ऑस्ट्रेलिया के अखबार ने भी छापा और उस खबर को ट्विटर पर बेहद कड़वी भाषा के साथ शेयर किया गया। पश्चिमी मीडिया में असहाय भारत की तस्वीर पेश की जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख टेड्रॉस गैब्रेसस ने कहा, भारत की दशा को व्यक्त करने के लिए हृदय-विदारक शब्द भी हल्का है।

Monday, April 26, 2021

टेलीविजन के भविष्य का परिदृश्य

 


वनिता कोहली-खांडेकर /  04 25, 2021

देश में टेलीविजन का भविष्य क्या है? क्या यह ग्रामीण क्षेत्रों का माध्यम बनकर रह जाएगा? ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) की ओर से हाल में जारी आंकड़ों को देखकर तो ऐसा ही लग रहा है। आंकड़ों के मुताबिक टेलीविजन देखने वाले भारतीयों की तादाद 19.7 करोड़ घरों में 83.6 करोड़ से बढ़कर 21 करोड़ घरों में 89.2 करोड़ पहुंच गई। इनमें से 11.9 करोड़ घरों के 50.8 करोड़ लोग ग्रामीण जबकि 9.1 करोड़ घरों के 38.4 करोड़ लोग शहरी हैं।

 यदि वर्ष 2016, 2018 और 2020 के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि टीवी के आधे से कुछ अधिक दर्शक और घर हमेशा से ग्रामीण भारत में रहे। लेकिन राजस्व जुटाने की दृष्टि से अहम यानी टीवी देखने में बिताए गए समय के हिसाब से देखें तो शहरी भारत आगे है। विज्ञापन से जुड़ा राजस्व इसी से तय होता है। एक शहरी दर्शक आमतौर पर 4 घंटे 27 मिनट टीवी देखता है जबकि ग्रामीण दर्शक तीन घंटे 43 मिनट। इसकी एक वजह कम नमूने लेना या बिजली की दिक्कत भी हो सकती है। लब्बोलुआब यह है कि ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में काफी लोग टीवी देखते हैं। टीवी अ भी 1,38,300 करोड़ रुपये के भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग में दर्शकों और राजस्व के मामले में सबसे बड़ा हिस्सेदार है। यानी देश भर में टीवी देखने वाले घरों में टीवी देखने में बढ़ता समय वृद्धि का हिस्सा है।

बिजनेस स्टैंडर्ड में पढ़ें पूरा आलेख


Friday, April 23, 2021

यूट्यूब-पत्रकारिता के खुलते दरवाजे


यूट्यूब-पत्रकारिता ने अभिव्यक्ति और सूचना के द्वार खोले हैं। अनेक पत्रकारों के चैनल सामने आए हैं। खबरों और विचार से ही नहीं जीवन के सभी क्षेत्रों से जुड़े चैनल सामने आ रहे हैं। यह बहुत अच्छा है और इससे बहुत सी नई बातों को सामने आने का मौका मिल रहा है। जीवन, समाज, संस्कृति, पर्यटन, खान-पान जैसे तमाम विषयों पर बहुत अच्छी बातें डिजिटल मीडिया के मार्फत दिखाई पड़ रही हैं। स्थानीय स्तर पर ऐसी जगहों से खबरें आ रहीं हैं, जहाँ मुख्यधारा के पत्रकार तैनात नहीं होते हैं। 

बावजूद इसके मुझे विचार और अभिव्यक्ति को लेकर एक खतरा दिखाई पड़ रहा है। वह खतरा हर जगह है और यूट्यूब पर और ज्यादा है। आप फेसबुक पर भी देखें। कई तरह के खेमे हैं। वे खेमों में ही यकीन करते हैं। संतुलित राय में बहुत कम लोगों की दिलचस्पी है। हाँ प्रचार के लिए सत्य-निष्ठा और ऑब्जेक्टिविटी जैसे शब्दों का इस्तेमाल सभी करते हैं और इससे  कोई किसी को रोक नहीं सकता।

बहरहाल यह व्यक्तियों की प्राथमिकता पर निर्भर करता है कि वे किस राय को चुनते हैं, पर खेमेबाज़ी किस तरह विचार को प्रभावित करती है, इसे आप यूट्यूब पर देखें। यूट्यूब पर विज्ञापन दो आधार पर मिलते हैं। एक, आपके सब्स्क्राइबर कितने हैं और दूसरे आपके वीडियो को कितने लोगों ने देखा। इसका व्यावहारिक अर्थ है कि यूट्यूब पर आप किसी राजनीतिक, व्यावसायिक या किसी अन्य प्रकार के समूह से जुड़ें, और उसके लिए काम करें। सफलता की सम्भावनाएं तभी ज्यादा हैं।

एक जमाने में चुनाव के एक- दो महीने पहले से छोटे-छोटे अखबार निकलने लगते थे। वैसा ही है। यह वही प्रचारक-पत्रकारिता है, जिसे लेकर मेरे मन में मुख्यधारा की पत्रकारिता को लेकर पहले से अंदेशा है। मूल्यों का यह अंतर्विरोध भारत में सदा से रहा है। मेरे पास विदेशी पत्रकारिता का अनुभव नहीं है। अलबत्ता कुछ प्रसंग जरूर याद हैं, जब पत्रकारिता की मूल्य-बद्धता की परीक्षा हुई। ऐसी ही परीक्षा भारत में भी हुई है। चूंकि 1947 के पहले की हमारी पत्रकारिता राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी रही, इसलिए बहुत सी बातें उसमें ही छिपी रह गईं।

Thursday, April 22, 2021

दूसरी लहर और सरकारी भूमिका पर सवाल

 


देश में कोविड-19 संक्रमण की दूसरी लहर इस साल 28 मार्च को होली के चार-पाँच दिन बाद तक कम से कम उत्तर भारत के लोगों को नजर नहीं आ रही थी। पिछले 15 दिनों में इसकी शिद्दत का पता लगा और पिछले एक हफ्ते में इसकी भयावहता सामने आई है। बीमारों की असहायता को देखते हुए स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर जनता की नाराजगी जायज है। पहली नजर में इसके लिए सरकारें ही जिम्मेदार हैं। पर इसे राजनीतिक रंग देना भी ठीक नहीं। कई तरह की गलत सूचनाएं पिछले कुछ दिनों में राजनेताओं के ट्विटर हैंडलों से जारी हुई हैं। शायद उन्हें लगता है कि इसका राजनीतिक लाभ उन्हें मिलेगा।  

आज के टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने सम्पादकीय में खासतौर से ऑक्सीजन की कमी का उल्लेख किया है। अखबार ने लिखा है कि कोविड-19 के इलाज रेमडेसिविर जैसी दवा की उतना भूमिका नहीं है, जितनी बड़ी भूमिका ऑक्सीजन की है। पर पिछले एक साल में ज्यादा अस्पतालों ने हवा से ऑक्सीजन एकत्र करने वाले संयंत्रों को नहीं लगाया। अब जब इस मामले की समीक्षा करने का समय आएगा, तब केंद्र और राज्य सरकारों को सार्वजनिक-स्वास्थ्य पर कम बजट का जवाब देना होगा। उधर ऑक्सीजन की सप्लाई को लेकर राज्यों के बीच विवाद खड़े हो गए हैं। केंद्र को इसमें समन्वय करना होगा। साथ ही राजनीति को पीछे रखना होगा।

Tuesday, February 2, 2021

बजट की कवरेज


देश के पत्रकारों और उनके संस्थानों की राजनीतिक समझ को लेकर अतीत में जो धारणाएं थीं, वे समय के साथ बदल रही हैं। मैं यहाँ मीडिया शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि मीडिया में इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया भी आ जाते हैं, जिन्हें मैं यहाँ शामिल करना नहीं चाहता। प्रिंट मीडिया के पास अपेक्षाकृत सुगठित मर्यादा और नीति-सिद्धांत रहे हैं, भले ही उनमें कितनी भी गिरावट आई हो, पर खबरें और विचार लिखने का एक साँचा बना हुआ है। दूसरी तरफ अखबारों के दृष्टिकोण भी झलकते रहे हैं, भले ही वे संपादकों के व्यक्तिगत रुझान-झुकाव के कारण हों या मालिकों के कारण। मसलन इन दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबारों को एक हद तक तटस्थ और मौका पड़ने पर सरकार की तरफ झुका हुआ माना जाता है। इंडियन एक्सप्रेस प्रायः सरकार से दूरी रखता है, पर आर्थिक नीतियों में सरकार का समर्थन भी करता है।

हिन्दू पर वामपंथी होने का बिल्ला है और टेलीग्राफ पर बुरी तरह मोदी-विरोधी होने की छाप है। यह छवि सायास ग्रहण की गई है। यह प्रबंधन के समर्थन के बगैर संभव नहीं है, पर इसी कंपनी के एबीपी न्यूज की कवरेज बताती है कि मीडिया कंपनियाँ किस तरह अपने बाजार और ग्राहकों का ख्याल रखती हैं।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारों पर भले ही गोदी मीडिया की छाप लगी हो, पर प्रिंट में ज्यादातर पत्रकार आपको सत्ता-विरोधी मिलेंगे। इस अर्थ में मोदी-विरोधी। कभी दूसरी सरकार आएगी, तो उसके भी विरोधी। यह उनकी सहज दृष्टि है। आप दिल्ली के या किसी और शहर के प्रेस क्‍लब में इस बात का जायजा ले सकते हैं। बहरहाल आज की बजट कवरेज में आपको केवल बजट की कवरेज ही नहीं मिलेगी, बल्कि अखबारों का रुझान भी दिखाई पड़ेगा। इन बातों की विसंगतियों पर भी ध्यान दीजिएगा। मसलन हिंदू की कवरेज में कॉरपोरेट हाउसों के विचार को काफी जगह दी गई है। पर संपादकीय पेज पर अपनी परंपरागत विचारधारा से जुड़े रहने का आग्रह है। फिर भी संपादकीय के रूप में अखबार का आधिकारिक वक्तव्य सीपी चंद्रशेखर के लीड आलेख से अलग लाइन पर है।

ये कुछ मोटे बिंदु हैं। बजट पर व्यापक चर्चा मैं सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबलिटी (सीबीजीए) की वैबसाइट पर जाकर पढ़ता हूँ, जो 4 फरवरी को होगी। फिलहाल आज की कवरेज की कुछ तस्वीरों को शेयर करने के साथ कुछ संपादकीय टिप्पणियाँ पढ़ने का सुझाव दूँगा, जो इस तरह हैं:-

बिजनेस स्टैंडर्ड का संपादकीय

व्यापक यथास्थिति, कुछ सुधार

यदि महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर बात की जाए तो प्रथमदृष्ट्या बजट में कुछ खास बदलाव नहीं नजर आता। हां, सरकार के राजकोषीय रूढ़िवाद और उसकी व्यय नीति तथा कई मोर्चों पर सुधार को लेकर उसकी सकारात्मक इच्छा में अवश्य परिवर्तन नजर आया। इनमें सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को लेकर व्यापक बदलाव, बीमा कंपनियों में विदेशी स्वामित्व बढ़ाने, सरकारी परिसंपत्तियों का स्वामित्व परिवर्तन, सरकारी बैंकों का निजीकरण और नई परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनी (बैड बैंक) जैसा पहले खारिज किया गया वित्तीय क्षेत्र सुधार और विकास वित्त संस्थान शामिल हैं। इनमें से अंतिम दो उपाय तो ऐतिहासिक रूप से नाकाम रहे हैं लेकिन शेष का स्वागत किया जाना चाहिए। शेयर बाजार उत्साहित है क्योंकि सुधारों का प्रस्ताव रखा गया और एकबारगी उपकर भी नहीं लगा है जबकि इसकी आशंका थी। स्थिर कर नीति अपने आप में एक बेहतर बात है लेकिन बजट को लेकर किए गए वादों से इतर उसके वास्तविक प्रस्ताव शायद उत्साह को कम कर दें।

Monday, January 25, 2021

सावधान, निधि राजदान की तरह आप भी हो सकते हैं ‘फिशिंग’ के शिकार


एनडीटीवी की पूर्व पत्रकार निधि राजदान ने हाल में ट्वीट करके अपने साथ हुई ऑनलाइन धोखाधड़ी की जानकारी दी है। पिछले साल एनडीटीवी के 21 साल के करिअर को उन्होंने इस विश्वास पर छोड़ दिया था कि उन्हें अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के अध्यापन का ऑफर मिला है। राजदान ने ट्वीट के साथ नत्थी अपने बयान में लिखा, मुझे यह यकीन दिलाया गया था कि सितंबर में मुझे हार्वर्ड विवि में अध्यापन शुरू करने का मौका मिलेगा। जब मैं नए काम पर जाने की तैयारी कर रही थी, तो बताया गया कि कोरोना की महामारी के कारण कक्षाएं जनवरी में शुरू होंगी।

इस मामले में हो रही देरी को लेकर उन्हें गड़बड़ी का अंदेशा होने लगा, जो अंत में सही साबित हुआ। निधि ने अपने ट्वीट में लिखा कि मैं बहुत ही गंभीर फिशिंग हमले की शिकार हुई हूँ। निधि राजदान के इस ट्वीट के बाद कई तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं, ज्यादातर की प्रकृति राजनीतिक है। इस प्रकरण के नैतिक और कानूनी निहितार्थ पर इस आलेख में विचार करने का इरादा नहीं है। केवल फिशिंग, सायबर हमलों और उनकी प्रकृति का परिचय देने का उद्देश्य है।

जानकारियाँ दे दीं

एक बात जो निधि राजदान ने अपने ट्वीट में लिखी वह है, इस हमले के पीछे के लोगों ने चालाकी से मुझसे जुड़ी जानकारियाँ हासिल कीं और संभव है कि उन्होंने मेरे उपकरणों (कंप्यूटर, फोन वगैरह), ईमेल/ सोशल मीडिया एकाउंट वगैरह तक भी घुसपैठ कर ली हो। फिशिंग एक प्रकार की ठगी और आपराधिक कारनामा है। इंटरनेट-अपराधों का दायरा वैश्विक है। यह पता लगाना आसान नहीं होता कि वे कहाँ से संचालित किए जा रहे हैं। बेशक धोखाधड़ी के पीछे कोई शातिर दिमाग है। पता नहीं उसने अपने फुटप्रिंट छोड़े हैं या नहीं। उसका उद्देश्य क्या है? ऐसे तमाम सवाल है, अलबत्ता इस मामले ने फिशिंग के एक नए आयाम की ओर दुनिया का ध्यान जरूर खींचा है।

Tuesday, November 3, 2020

पश्चिम एशिया पर सबसे विश्वसनीय पत्रकार रॉबर्ट फिस्क का निधन

 


पश्चिम एशिया को विश्वसनीय तरीके से कवर करने के लिए प्रसिद्ध पत्रकार रॉबर्ट फिस्क (Robert Fisk)  के निधन की खबर भारत के बहुत कम पत्रकारों की दिलचस्पी का विषय रही। उनका ज्यादा से ज्यादा इस बात के लिए उल्लेख हुआ कि उन्होंने ओसामा बिन लादेन का तीन बार इंटरव्यू किया था। अरबी भाषा बोलने वाले रॉबर्ट फिस्क पश्चिमी दुनिया के उन इने-गिने पत्रकारों में से एक रहे हैं, जिन्होंने करीब 40 साल तक इस इलाके को काफी गहराई से कवर किया। फिस्क 12 वर्ष से ज्यादा समय तक अंग्रेज़ी अख़बार द इंडिपेंडेंट के लिए पश्चिम एशिया के रिपोर्टर रहे। उन्हें मिडिल ईस्ट की कवरेज के कारण कई ब्रिटिश और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। उन्हें सात बार ब्रिटेन का वार्षिक अंतरराष्ट्रीय पत्रकार पुरस्कार भी मिला। विभिन्न युद्धों पर उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।

Saturday, October 17, 2020

विवाद का विषय क्यों बनीं रुक्मिणी कैलीमाची की 'कैलीफैट' रिपोर्ट

न्यूयॉर्क टाइम्स की प्रसिद्ध रिपोर्टर रुक्मिणी कैलीमाची को अलकायदा और इस्लामिक स्टेट की जबर्दस्त रिपोर्टिंग के कारण ख्याति मिली है। ये रिपोर्ट पॉडकास्टिंग पत्रकारिता के मील का पत्थर साबित हुई हैं। अब कनाडा में इन जानकारियों के एक सूत्रधार की गिरफ्तारी के बाद रुक्मिणी विवाद के घेरे में आ गई हैं। विवाद उनकी रिपोर्टिंग या जानबूझकर की गई किसी गलती के कारण नहीं है, बल्कि उस व्यक्ति की धोखाधड़ी से जुड़ा है, जिसकी बातों के आधार पर रिपोर्ट तैयार की गई थीं। इन जानकारियों के आधार पर रुक्मिणी की इन रिपोर्टों को पिछले एक दशक के सबसे उल्लेखनीय पत्रकारीय कर्म में शामिल किया गया है। साथ ही रुक्मिणी की साख बेहद विश्वसनीय रिपोर्टर के रूप में स्थापित हो गई थी। फिलहाल दोनों पर सवालिया निशान हैं और अब इस बात की पड़ताल हो रही है कि ऐसा हो कैसे गया। 

Thursday, October 8, 2020

टीआरपी की घातक प्रतिद्वंद्विता

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की टीआरपी प्रतिद्वंद्विता ऐसे मोड़ पर पहुँच गई है, जहाँ पत्रकारिता की साख गिरनी ही गिरनी है। यह बात केवल मुम्बई में टीआरपी बटोरने के सिलसिले में पैसे के इस्तेमाल से ही जुड़ी नहीं है। सच यह है कि टीआरपी के इस वात्याचक्र के पहले केबल टीवी नेटवर्क से जुड़ने के लिए जिस तरह से पैसे का इस्तेमाल होता रहा है, वह अपने आप में बहुत खराब है। मीडिया के कारोबार में पैसे का खेल इसकी साख को डुबो रहा है।


टीआरपी के खेल के साथ-साथ मीडिया की सनसनीखेज प्रवृत्ति उसकी साख को धक्का पहुँचा रही है। चैनलों के संवाददाता मदारियों और बाजीगरों जैसी हरकतें कर रहे हैं। स्टूडियो में भारी शोर-गुल के बीच उत्तेजक बहसें हो रही हैं, जिन्हें अच्छी तरह से सुनना भी मुश्किल है।

मीडिया के तीन मंच इस दौर में सबसे ज्यादा चर्चा में हैं। पहला है मुख्यधारा का प्रिंट मीडिया, दूसरी टीवी और तीसरा सोशल मीडिया। इन तीनों की गुणवत्ता में ह्रास हुआ है। पर तीनों में एक बुनियादी फर्क है। भारत के प्रिंट मीडिया के पास करीब दो सौ साल का इतिहास है। उसके अलावा वैश्विक पत्रकारिता का करीब तीन सौ साल से ज्यादा का अनुभव है। इस लम्बे कालखंड में अखबारों ने अपने ऊपर संयम और संतुलन की कुछ मर्यादा रेखाएं खींची हैं। टीवी की पत्रकारिता अपेक्षाकृत नई है। उसके पास साख गिरने और बचाने का लम्बा अनुभव नहीं है।

Sunday, June 7, 2020

भविष्य का मीडिया

MBA diary: The future of media | Which MBA? | The Economist

अखबारों का रूपांतरण किस तरह किया जा सकता है, इसे देखने के लिए दुनिया के अखबारों की गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए. एक बात तय है कि कागज के बजाय अब सूचनाएं वैब पर आ रही हैं. भविष्य के माध्यम क्या होंगे, यह बताना मुश्किल है, पर उसकी दिशा देखी जा सकती है. दूसरे सूचना के माध्यमों में अब प्रिंट, टीवी और रेडियो यानी लिखित-पठित और दृश्य-श्रव्य दोनों का समावेश होगा. यही वैब की ताकत है. अब ज्यादातर अखबार वैब पर आ गए हैं और वे वीडियो, वैबकास्ट और लिखित तीनों तरह की सामग्रियाँ पेश कर रहे हैं. तीनों के अलग-अलग प्रभाव हैं और यही समग्रता मीडिया की विशेषता बनेगी. जहाँ तक साख का सवाल है, यह मीडिया संस्थान पर निर्भर करेगा कि उसकी दिलचस्पी किस बात में है. मैं इस पोस्ट के साथ हिन्दू की एक क्लिप शेयर कर रहा हूँ, जिसमें भारत-चीन सीमा विवाद की पृष्ठभूमि है. ऐसी छोटी क्लिप से लेकर घंटे-दो घंटे की बहसें आने वाले वक्त में अखबारों की वैबसाइटों में मिलेंगी.

https://www.thehindu.com/news/national/india-china-border-standoff/article31755218.ece?homepage=true&fbclid=IwAR2jK-rNsCbxUQ1Nad1BMLgJ38T5T-FYdu-XVaSskm857Fjxib_0VkZ0_qY

Friday, May 29, 2020

उफ भारत माता!

प्रवासी मजदूरों की बदहाली से जुड़ा एक वीडियो इन दिनों वायरल हुआ है, जिसमें एक स्त्री की लाश के पास उसकी छोटी सी बच्ची चादर खींच रही है. यह हृदय विदारक वीडियो किसी के भी मन को विह्वल कर जाएगा. ट्विटर पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आईं.  ज्यादातर प्रतिक्रियाएं दया और करुणा से भरी हैं. पर यह मामला करुणा से ज्यादा हमारे विवेक को झकझोरने वाला होना चाहिए. ऐसा कैसे हो गया? क्या इनके आासपास लोग नहीं थे? क्या उस महिला को पीने का पानी देने वाला भी कोई नहीं था? 


दया और करुणा से भरी प्रतिक्रियाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएं  राजनीतिक नेताओं की हैं. किसी ने बच्चों की मदद की पेशकश की. उन्हें पालने-पोसने की जिम्मेदारी ली. अच्छी बात है, पर सवाल अपनी जगह है. इस मदद को पाने के लिए एक माँ को बदहाली में मरना होता है. क्या आपकी राजनीति इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं है? ऐसी मदद का दशमांश भी सामान्य समय में मिल गया होता, तो शायद उसकी मौत नहीं होती. ऐसी परिस्थितियाँ क्यों पैदा हुईं? परिस्थितियों का लाभ उठाने वाले तमाम हाथ हैं, पर बुनियादी सवाल का जवाब देने कोई आगे नहीं आता. क्यों? जो जवाब आएंगे भी वे ज्यादातर राजनीतिक हैं. शायद यही वजह है कि आज तमाम कहानियाँ हमारे सामने हैं, जिनमें ज्योति की कहानी भी एक है, जो पीपली लाइव की याद दिला रही है. हमारी करुणा और दया प्रचार चाहती है. हम बुनियादी सवालों पर जाना ही नहीं चाहते.