पश्चिम बंगाल के चुनावों में हिंसा पहले भी होती रही है, पर इसबार चुनाव के
बाद भी हिंसा जारी है। चुनाव परिणाम आने के बाद कम से कम 15 लोगों की मौत की पुष्ट
खबरें हैं। ज्यादातर राजनीतिक मौतें हैं। इस हिंसा के कारणों का विश्लेषण करना सरल
काम नहीं है, पर इस राज्य की पिछले सात-दशक के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो यह
स्पष्ट है कि इस राज्य में हिंसा का नाम राजनीति और राजनीति के मायने हिंसा हैं।
सन 2011 में जब अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को जबर्दस्त जीत दिलाकर जब ममता
बनर्जी सत्ता के घोड़े पर सवार हुईं थीं, तब उनका ध्येय-वाक्य था ‘पोरीबोर्तन।’ आज उनके विरोधी इस ध्येय-वाक्य से
लैस होकर उनके घर के दरवाजे पर खड़े हैं। बंगाल की हिंसा के पीछे एक बड़ा कारण है
यहाँ के निवासियों की निराशा। सत्ताधारियों की विफलता।
देश में आधुनिक राजनीतिक-प्रशासनिक और शैक्षिक संस्थाओं का सबसे पहले जन्म
बंगाल में हुआ। पर साठ और सत्तर के दशक में इसी बंगाल में नक्सलबाड़ी ने देश का
ध्यान खींचा था। उसके केन्द्र में हिंसा थी। बंगाल की वर्तमान हिंसा की जड़ों में
उस वामपंथी हिंसा की क्रिया-प्रतिक्रियाएं ही हैं।
ममता की हिंसा
ममता बनर्जी स्वयं हिंसा के इस पुष्पक विमान पर सवार होकर आईं थीं। उन्होंने
सीपीएम की हिंसा पर काबू पाने में सफलता प्राप्त की थी। उसका आगाज़ सिंगुर के
आंदोलन में हुआ था। सीपीएम ने राज्य की बुनियादी समस्याओं के समाधान की दिशा में
राज्य के औद्योगीकरण का जो रास्ता खोजा था, ममता बनर्जी ने उसके छिद्रों के सहारे
सत्ता के गलियारों में प्रवेश कर लिया था। आज उनके विरोधी उनके ही औजारों को हाथ
में लिए खड़े हैं। सिंगुर में ही उनका राजनीतिक आधार कमजोर होता नजर आ रहा है। हाल
में उन्होंने पार्टी की एक आंतरिक बैठक में कहा कि लोकसभा चुनाव में सिंगुर की हार शर्मनाक है। हमने
सिंगुर को खो दिया। सिंगुर, हुगली लोकसभा सीट का
हिस्सा है। वहाँ इसबार बीजेपी की लॉकेट चटर्जी ने जीत दर्ज की है।