Wednesday, November 11, 2020

बीजेपी की रणनीतिक सफलता

बिहार के विधानसभा चुनावों के अलावा कुछ राज्यों के उप चुनावों के परिणामों के रुझान से एक स्पष्ट निष्कर्ष है कि भारतीय जनता पार्टी अपनी ताकत बढ़ाने में सफल हुई है। वह भी ऐसे मौके पर जब राज्य में 15 साल की एंटी-इनकंबैंसी है और कोरोना की महामारी ने घेर रखा है। इस सफलता ने उसकी रणनीति को धार प्रदान की है। बिहार में नीतीश के नेतृत्व को नहीं, बीजेपी को सफलता मिली है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अंतिम परिणाम नहीं आए थे, बल्कि बुधवार 11 नवंबर की सुबह तक भी चुनाव आयोग ज्यादातर क्षेत्रों में मतगणना जारी का ही संकेत दे रहा है। अलबत्ता इतना स्पष्ट हो चुका है कि एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिल गया है। यों मंगलवार की रात राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता ने परिणाम घोषित करने की प्रक्रिया को लेकर आपत्ति व्यक्त की थी। शायद वह अपनी हार की पेशबंदी थी। इस चुनाव ने बीजेपी की संगठनात्मक क्षमता का परिचय जरूर दिया है, साथ ही जेडीयू के साथ उसके कुछ अंतर्विरोधों को भी उभारा है। चिराग पासवान की पार्टी लोजपा ने अपना नुकसान तो किया ही नीतीश कुमार को भी भारी नुकसान पहुँचाया। उनकी इस रणनीति के रहस्य पर से परदा उठाने की जरूरत है। 

 बिहार ने इतने काँटे का मुकाबला पहले नहीं देखा था। बिहार में ही नहीं बीजेपी को राज्यों के उप चुनावों में जो सफलता मिली है, उससे पश्चिम बंगाल और असम में उसके प्रतिस्पर्धियों की धड़कने बढ़ गई होंगी। इस परिणाम के साथ बीजेपी अब पश्चिम बंगाल और असम में बढ़े हुए आत्मविश्वास के साथ जाएगी। दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्तर पर उसकी प्रतिस्पर्धी पार्टी कांग्रेस को लगातार विफलता मिल रही है। कांग्रेस को उम्मीद थी कि बिहार में सफलता हासिल करके वह अपने कार्यकर्ता का मनोबल बढ़ाने में कामयाब होगी, पर उसे अपेक्षित सफलता मिल नहीं पाई। बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक के चुनाव ने कांग्रेस को धक्का लगाया है। उत्तर प्रदेश में भी उसका पुनरोदय होता नजर नहीं आता है।  

ज्यादातर एग्जिट पोल के निष्कर्षों को गलत साबित करते हुए बिहार में एनडीए ने अपना झंडा फिर से गाड़ा है। राज्य की संसदीय सीट वाल्मीकि नगर में हुए उप चुनाव में भी जेडीयू के प्रत्याशी सुनील कुमार कांग्रेस के प्रवेश कुमार से काफी आगे चल रहे थे। राज्य में पहली बार बीजेपी का संख्याबल अपने सहयोगी दल जेडीयू से ज्यादा ही नहीं हुआ है, बल्कि वह एक वक्त पर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती हुई नजर आ रही थी। कमोबेश उसका संख्याबल राजद के आसपास ही रहेगा।   

पार्टी ने मध्य प्रदेश विधानसभा में न केवल बहुमत प्राप्त कर किया है, बल्कि अपनी स्थिति को पहले से बेहतर बनाया है। कर्नाटक, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, झारखंड और तेलंगाना में भी उसकी स्थिति सुधरी है। मतगणना की गति धीमी है, इसलिए इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अंतिम रूप से परिणाम प्राप्त हो नहीं पाए थे। अलबत्ता रुझानों से स्पष्ट है कि एनडीए और खासतौर से भारतीय जनता पार्टी की स्थिति बेहतर हो रही है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल ने अपेक्षित सफलता हासिल की है, पर कांग्रेस इस गठबंधन में कमजोर कड़ी साबित हुई।  

इसबार कोरोना के कारण बिहार में मतदान केंद्रों की संख्या 65,000 से बढ़ाकर 1.06 लाख कर दी गई थी। ईवीएम की संख्या पहले के मुकाबले ड्योढ़ी हो गई। एक हॉल में गिनती करने वाली टेबलों की संख्या आधी कर दी गई। इन बातों का असर चुनाव परिणामों में विलंब के रूप में दिखाई पड़ रहा है। बहरहाल देर शाम तक बिहार की तस्वीर स्पष्ट होने लगी थी। पहली नजर में लगता था कि नीतीश कुमार की सरकार को एंटी-इनकंबैंसी और खासतौर से कोरोना के कारण काफी नुकसान होगा, पर ऐसा हुआ नहीं।

एनडीए में बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर आई है। सहयोगी दल जेडीयू अब उससे पीछे है। बीजेपी को जहाँ 20 या उससे ज्यादा सीटों का लाभ मिल रहा है, वहीं जेडीयू को 25 से 30 के बीच सीटों का नुकसान हो रहा है। इसके दो बड़े कारण समझ में आते हैं। मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार को एंटी इनकंबैंसी का सीधे सामना करना पड़ा। दूसरे कोरोना और फिर प्रवासी मजदूरों की भागदौड़ का सबसे ज्यादा प्रभाव बिहार पर पड़ा। अर्थव्यवस्था की मंदी का बोझ भी उनपर आया।

एनडीए की आंतरिक राजनीति ने भी नीतीश कुमार को नुकसान पहुँचाया। लोक जनशक्ति पार्टी ने इसबार अकेले लड़ने का फैसला किया। चिराग पासवान के नेतृत्व में इस पार्टी ने जेडीयू के प्रत्याशियों के वोट काटने का काम किया। कुछ विश्लेषक मानते हैं कि बीजेपी ने नीतीश कुमार के कद को छोटा करने के लिए चिराग को बढ़ावा दिया है। हालांकि पार्टी के राज्य नेतृत्व से लेकर प्रधानमंत्री तक ने कहा है कि नीतीश ही मुख्यमंत्री बनेंगे, पर यह सवाल उठ रहा है कि नीतीश के हाथों में क्या कमान रहेगी?

एनडीए के अंतर्विरोधों की तरह महागठबंधन की विसंगतियाँ भी हैं। राजद के तेजस्वी यादव को मीडिया के एक तबके ने भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश करना शुरू कर दिया था। तेजस्वी युवा हैं, पर वैचारिक रूप से हाल के वर्षों में उनकी ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है, जिससे उनकी परिपक्वता का पता लगे। तमाम हवाबाजी के बावजूद वे  2015 की स्थिति तक नहीं पहुँच पाए हैं। उनके पास लालू यादव के समय का जातीय फॉर्मूला है। जबकि नीतीश कुमार को बिहार में विकास की लहर लाने का श्रेय जाता है। केंद्र सरकार के ग्रामीण कार्यक्रमों के अलावा उनकी सरकार ने राज्य में लड़कियों को साइकिलें देकर महिलाओं वोटरों का विश्वास जीता है। इससे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता।

कांग्रेस इस महागठबंधन की कमजोर कड़ी साबित हुई है। उसे 70 सीटें देना महागठबंधन के लिए नुकसानदेह साबित हुआ। सन 2015 के चुनाव में महागठबंधन का हिस्सा होने के कारण वह 27 सीटें जीती थीं। वह बड़ी सफलता थी। इसबार वह 70 सीटों पर लड़ी और बड़ी सफलता की आशा लेकर आई थी। ऐसा नहीं हुआ। उससे बेहतर प्रदर्शन भाकपा माले, भाकपा और माकपा का रहा, जिन्होंने कम सीटों पर लड़कर बेहतर स्ट्राइक रेट से सफलता हासिल की। खासतौर से माले की सफलता उल्लेखनीय है। राज्य में असदुद्दीन ओवेसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिसें इत्तहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने खाता खोलकर उत्तर भारत में प्रवेश किया है।    

बिहार के अलावा बीजेपी ने मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में अपनी संगठन क्षमता का परिचय दिया है। मध्‍य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान सरकार को चलाए रखने के लिए कम से कम नौ सीटों की जरूरत है। जबकि पार्टी उसकी दुगनी से ज्यादा सीटें जीतने की ओर बढ़ रही है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में हुए बदलाव पर जनता की मुहर लग गई है। गुजरात विधानसभा उप चुनाव में आठ की आठों सीटों पर बीजेपी विजय की ओर है। जिन आठ सीटों पर उप चुनाव हुए हैं, वे कांग्रेसी विधायकों के इस्तीफे देने के कारण खाली हुई हैं। कर्नाटक और मणिपुर में बीजेपी की सफलता उसकी दीर्घकालीन राजनीति में मददगार होगी।

उत्तर प्रदेश में जिन सात सीटों पर उपचुनाव हुए हैं, उनमें से एक सीट सपा के पास और छह सीटें भाजपा के पास पहले से थीं। इसबार भी वही स्थिति रही है। छत्तीसगढ़, झारखंड और हरियाणा में उसे आंशिक सफलता भी नहीं मिली। हरियाणा की बरोदा सीट पर बीजेपी के प्रत्याशी और प्रसिद्ध पहलवान योगेश्वर दत्त को कांग्रेस के इंदुराज नरवाल ने पराजित कर दिया है। यह सीट कांग्रेस विधायक कृष्णा हुड्डा के निधन से खाली हुई थी। इससे राज्य सरकार की स्थिति पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ेगा। किसान आंदोलन और कोरोना के कारण पैदा हुई नकारात्मक स्थितियों को देखते हुए यह परिणाम अप्रत्याशित नहीं है। अलबत्ता कांग्रेस की इस जीत से पार्टी में भूपेंद्र हुड्डा की स्थिति और मजबूत होगी।

हरिभूमि में प्रकाशित

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