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Sunday, October 27, 2019

एग्जिट पोल हास्यास्पद क्यों?


महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद एक पुराना सवाल फिर उठ खड़ा हुआ है कि हमारे यहाँ एग्जिट पोल की विश्वसनीयता कितनी है? यह सवाल इसलिए क्योंकि अक्सर कहा जाता है कि ओपीनियन पोल के मुकाबले एग्जिट पोल ज्यादा सही साबित होते हैं, क्योंकि इनमें वोट देने के फौरन बाद मतदाता की प्रतिक्रिया दर्ज कर ली जाती है। कई बार ये पोल सच के करीब होते हैं और कई बार एकदम विपरीत। ऐसा क्यों होता है? सवाल इनकी पद्धति को लेकर उतना नहीं हैं, जितने इनकी मंशा को लेकर हैं। भारतीय मीडिया अपनी विश्वसनीयता को खो रहा है। इसमें एग्जिट और ओपीनियन पोल की भी भूमिका है।
इसबार महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में एग्जिट पोल ने जो बताया था, परिणाम उससे हटकर आए। एक पोल ने परिणाम के करीब का अनुमान लगाया था, पर उसके परिणाम को भी बारीकी से पढ़ें, तो उसमें झोल नजर आने लगेगा। एक्सिस माई इंडिया-इंडिया टुडे के पोल ने महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना की सरकार बनने के संकेत तो दिए थे, लेकिन प्रचंड बहुमत के नहीं। इस पोल ने भाजपा-नीत महायुति को 166-194, कांग्रेस-एनसीपी अघाड़ी को 72-90 और अन्य को 22-34 सीटें दी थीं। वास्तविक परिणाम रहे 161, 98 और 29। यानी भाजपा+ को अनुमान की न्यूनतम सीमा से भी कम, कांग्रेस+ को अधिकतम सीमा से भी ज्यादा और केवल अन्य को सीमा के भीतर सीटें मिलीं।

Wednesday, October 23, 2019

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की पाँच खास बातें


एक्ज़िट पोल एकबार फिर से महाराष्ट्र में एनडीए की सरकार बनने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। सभी का निष्कर्ष है कि विधानसभा की 288 सीटों में से दो तिहाई से ज्यादा भाजपा-शिवसेना गठबंधन की झोली में गिरेंगी। देश की कारोबारी राजधानी मुंबई के कारण महाराष्ट्र देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में एक है। लोकसभा में सीटों की संख्या के लिहाज से उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण राज्य महाराष्ट्र है। चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा—शिवसेना की ‘महायुति’ और कांग्रेस—राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ‘महा-अघाड़ी' के बीच है। फिलहाल लगता है कि यह मुकाबला भी बेमेल है। चुनाव का विश्लेषण करते वक्त परिणामों से हटकर भी महाराष्ट्र की कुछ बातों पर ध्यान में रखना चाहिए।
1.भाजपा-शिवसेना संबंध
महाराष्ट्र की राजनीति का सबसे रोचक पहलू है भारतीय जनता पार्टी के रिश्तों का ठंडा-गरम पक्ष। इसमें दो राय नहीं कि इनकी ‘महायुति’ राज्य में अजेय शक्ति है, पर इस युतिको बनाए रखने के लिए बड़े जतन करने पड़ते हैं। इसका बड़ कारण है दोनों पार्टियों की वैचारिक एकता। एक विचारधारा से जुड़े होने के बावजूद शिवसेना महाराष्ट्र केंद्रित दल है। शिवसेना ने 2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़कर अकेले चुनाव लड़ा, पर इससे उसे नुकसान हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने इस बीच अपने आधार का विस्तार भी कर लिया। एक समय तक राज्य में शिवसेना बड़ी पार्टी थी, पर आज स्थिति बदल गई है और भारतीय जनता पार्टी अकेले सरकार बनाने की स्थिति में नजर आने लगी है। एक जमाने में जहाँ सीटों के बँटवारे में भाजपा दूसरे नंबर पर रहती थी, वहाँ अब वह पहले नंबर पर रहती है। एक जमाने में मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री पद का फैसला भी सीटों की संख्या पर होता था। इस चुनाव के बाद महायुति की सरकार बनने के पहले का विमर्श महत्वपूर्ण होगा। सन 2014 में दोनों का गठबंधन टूट गया था, पर इसबार दोनों ने फिर से मिलकर चुनाव लड़ा है। दोनों पार्टियों के अनेक बागी नेता भी मैदान में हैं।
2.कांग्रेस-राकांपा रिश्ते
महायुति के समांतरमहा-अघाड़ी के दो प्रमुख दलों के रिश्ते भी तनाव से भरे रहते हैं। शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़कर 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया था। दोनों दलो के बीच तबसे ही दोस्ती और दुश्मनी के रिश्ते चले आ रहे हैं। दोनों पार्टियों ने राज्य में मिलकर 15 साल तक सरकार चलाई। एनसीपी केंद्र में यूपीए सरकार में भी शामिल रही, पर दोनों के बीच हमेशा टकराव रहा। संयोग से कांग्रेस और एनसीपी दोनों की राजनीति उतार पर है। दोनों ही दलों में चुनाव के ठीक पहले अनुशासनहीनता अपने चरम पर थी। यह बात चुनाव परिणामों को प्रभावित करेगी। यह बात दोनों दलों के केंद्रीय नेतृत्व की कमजोरी को भी व्यक्त करती है। 

हरियाणा विधानसभा चुनाव की पाँच खास बातें


हरियाणा में मतदान हो चुका है। गुरुवार को पता भी लग जाएगा कि कौन जीता और कौन हारा। हार और जीत के अलावा कुछ ऐसी बातें हैं, जिनपर गौर करने की जरूरत होगी।
1.भावी राजनीति की दिशा
हरियाणा विधानसभा के 2014 के चुनाव परिणामों से कई मायनों में सबको हैरत हुई थी। लोकसभा चुनाव में बीजेपी में कुल दस में से सात सीटें जीती थीं। प्रेक्षक यह समझना चाहते थे कि यह जीत कहीं तुक्का तो नहीं थी। लोकसभा चुनाव के बाद हुए 13 राज्यों के उप चुनावों से कुछ प्रेक्षकों ने निष्कर्ष निकाला कि ‘मोदी मैजिक’ ख़त्म हो गया। हरियाणा ने इस संभावना को गलत सिद्ध किया था। हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम विस्मयकारी थे। इनके बाद ही लगा कि केवल लोकसभा में ही नहीं उत्तर भारत में राज्यों की राजनीति में भी बड़ा उलट-फेर होने वाला है। गठबंधन सहयोगियों के बगैर हरियाणा में मिली सफलता से भाजपा का आत्मविश्वास और महत्वाकांक्षाएं बढ़ीं। इसबार का चुनाव भारतीय जनता पार्टी की इस ताकत का परीक्षण है। हरियाणा के जातीय समीकरण पिछले चुनाव में बिगड़ गए थे। उनकी स्थिति क्या है, इस चुनाव में पता लगेगी। राज्य की 90 में से 35 सीटों पर जाट मतदाता का वर्चस्व है। सवाल है कि वह है किसके साथ?
2.विरोधी ताकत कौन?
एक्ज़िट पोल बता रहे हैं कि राज्य में बीजेपी पिछली बार से भी ज्यादा बड़ी ताकत बनकर उभरेगी। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि मुख्य विरोधी दल कौन सा होगा? हरियाणा में पार्टियों के बनने और बिगड़ने का लंबा इतिहास है। यहाँ विशाल हरियाणा पार्टी, हरियाणा विकास पार्टी, हरियाणा जनहित कांग्रेस और इनेलो बनीं और फिर पृष्ठभूमि में चली गईं। पाँच साल पहले तक कांग्रेस और इनेलो दो बड़ी ताकतें होती थीं। पर 2014 के विधानसभा में दोनों का पराभव हो गया। जनता पार्टी के लोकदल घटक की प्रतिनिधि इनेलो सीट और वोट प्रतिशत के आधार पर पिछले विधानसभा चुनाव के पहले तक दूसरे नंबर की ताकत थी। बाद में इनेलो और कांग्रेस दोनों आंतरिक टकराव की शिकार हुईं हैं। इस चुनाव से पता लगेगा कि इन दलों की ताकत क्या है और राज्य की राजनीति किस दिशा में जा रही है। लोकसभा के पिछले चुनावों के पहले उम्मीद थी कि विरोधी दल कोई बड़ा मोर्चा बनाने में कामयाब होंगे। ऐसा नहीं हुआ। चुनाव के ठीक पहले प्रदेश कांग्रेस के शिखर नेतृत्व में हुए बदलाव के परिणामों पर भी नजर रखनी होगी।

Sunday, October 6, 2019

चुनाव के पहले लड़खड़ाती कांग्रेस


इस साल हुए लोकसभा चुनाव के बाद के राजनीतिक परिदृश्य का पता इस महीने हो रहे महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनावों से लगेगा। दोनों राज्यों में सभी सीटों पर प्रत्याशियों के नाम तय हो चुके हैं, नामांकन हो चुके हैं और अब नाम वापसी के लिए एक दिन बचा है। दोनों ही राज्यों में एक तरफ भारतीय जनता पार्टी के बढ़ते हौसलों की और दूसरी तरफ कांग्रेस के अस्तित्व-रक्षा से जुड़े सवालों की परीक्षा है। एक प्रकार से अगले पाँच वर्षों की राजनीति का यह प्रस्थान-बिंदु है।
कांग्रेस के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए कहीं न कहीं अपने पैर जमाने होंगे। ये दोनों राज्य कुछ साल पहले तक कांग्रेस के गढ़ हुआ करते थे। अब दोनों राज्यों में उसे अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। इन चुनावों में उसकी संगठनात्मक सामर्थ्य के अलावा वैचारिक आधार की परीक्षा भी है। पार्टी कौन से नए नारों को लेकर आने वाली है? क्या वह लोकसभा चुनाव में अपनाई गई और उससे पहले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में तैयार की गई रणनीति को दोहराएगी?

Saturday, October 5, 2019

कांग्रेस के लिए अशनि संकेत



लोकसभा चुनाव में मिली भारी पराजय के बाद कांग्रेस पार्टी को संभलने का मौका भी नहीं मिला था कि कर्नाटक और तेलंगाना में बगावत हो गई। राहुल गांधी के इस्तीफे के कारण पार्टी के सामने केंद्रीय नेतृत्व और संगठन को फिर से खड़ा करने की चुनौती है। फिलहाल सोनिया गांधी को फिर से सामने लाने के अलावा पार्टी के पास कोई विकल्प नहीं था। अब पहले महाराष्ट्र और हरियाणा और उसके बाद झारखंड और फिर दिल्ली में विधानसभा चुनावों की चुनौती है। इनका आगाज़ भी अच्छा होता नजर नहीं आ रहा है।
महाराष्ट्र में संजय निरुपम और हरियाणा में अशोक तँवर के बगावती तेवर प्रथम ग्रासे मक्षिका पातः की कहावत को दोहरा रहे हैं। महाराष्ट्र में संजय निरुपम भले ही बहुत बड़ा खतरा साबित न हों, पर हरियाणा में पहले से ही आंतरिक कलह के कारण लड़खड़ाती कांग्रेस के लिए यह अशुभ समाचार है। संजय और अशोक दोनों का कहना है कि पार्टी के वफादार कार्यकर्ताओं की उपेक्षा हो रही है। दोनों की बातों से लगता है कि पार्टी में राहुल गांधी के वफादारों की अनदेखी की जा रही है।