Sunday, September 30, 2018

पाकिस्तान से निरर्थक डिबेट

पाकिस्तान में इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में बेहतरी की जो उम्मीदें बन रहीं थीं, वे फिर धराशायी हुईं हैं। ऐसा पहले भी होता रहा है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में दोनों विदेशमंत्रियों के भाषणों से यह साफ है। इस सालाना डिबेट से कुछ नहीं होने वाला। वस्तुत: पाकिस्तान को ज्यादा भाव देना बंद करना चाहिए। वह अपने अंतर्वरोधों से खुद गड्ढे में गिरेगा। अगले एक दशक में दुनिया का सीन बदलने जा रहा है। हमें उसके बारे में सोचना चाहिए। आतंकवाद हमारी बड़ी चिंता जरूर है, पर वह हमारी अकेली समस्या नहीं है। जबतक पाकिस्तान में सेना या 'डीप स्टेट' का बोलबाला है, उसके रुख में बुनियादी बदलाव नहीं होगा। महासभा की बैठक के हाशिए पर विदेश मंत्रियों की मुलाकात उम्मीद जरूर थी, पर इस किस्म की बैठकों के लिए भी न्यूनतम सौहार्द का माहौल होना चाहिए। वह नहीं है।

इमरान खान के पत्र की प्रतिक्रिया में भारत ने विदेशमंत्रियों की मुलाकात को स्वीकार कर भी लिया था, पर तीन पुलिसकर्मियों के अपहरण और उनकी हत्या और फिर बीएसएफ के एक जवान की गर्दन काटने की खबर आने के बाद देश में गुस्से की लहर दौड़ना स्वाभाविक था। इस धूर्तता का पता गत 24 जुलाई को पाकिस्तान के डाक-तार विभाग विभाग द्वारा जारी 20 डाक टिकटों की एक सीरीज से भी लगता है। इन डाक टिकटों में कश्मीर की गतिविधियों को रेखांकित किया गया है। इनमें एक डाक टिकट बुरहान वानी का स्वतंत्रता सेनानी के रूप में महिमामंडन करता है, जबकि भारत उसे आतंकवादी मानता है। ज़ाहिर है कि पाकिस्तान कश्मीर में अपनी गतिविधियों को सही मानता है। इन बातों को देखते हुए यदि भारत सरकार बातचीत की पहल करेगी, तो उसे देश की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा। पाकिस्तान कश्मीर में अपनी गतिविधियाँ बढ़ाकर बातचीत का दबाव बनाना चाहता है। उसकी दिलचस्पी कश्मीर में है, सहयोग, सद्भाव और कारोबार में नहीं। बातचीत किसी न किसी स्तर पर हमेशा चलती है और भविष्य में भी चलेगी, पर उसका समारोह तभी मनेगा जब उसका माहौल होगा।

भाषणों की कड़वाहट बताती है कि रिश्तों में बेहतरी की उम्मीद निरर्थक है। अलबत्ता भारत को वैश्विक स्तर पर अपनी स्थिति को बेहतर बनाना चाहिए। हम मजबूत नहीं होंगे, तो प्रतिस्पर्धी हमें आँखें दिखाएंगे। सुषमा स्वराज ने पर्यावरण रक्षा के वैश्विक प्रयासों और उनमें भारत की भूमिका का जिक्र किया और संरा सुरक्षा परिषद में अपनी दावेदारी का भी। उन्होंने कहा, पाकिस्तान न सिर्फ आतंकवाद को बढ़ावा देता है बल्कि वह इसे नकारता भी है। पाकिस्तानी विदेशमंत्री ने कहा, शांति तब तक नहीं होगी जब तक संयुक्त राष्ट्र के समझौतों के तहत समाधान नहीं होता। सुषमा स्वराज ने कहा, 91/1 का मास्टरमाइंड तो मारा गया, लेकिन 26/11 का मांस्टरमाइंड पाकिस्तान में छुट्टा घूम रहा है। सवाल है कि दुनिया क्या चाहती है? अमेरिका पर हमला आतंकवाद, तो हमपर हमला क्या है? जैशे मोहम्मद और लश्करे तैयबा क्या हैं? हम चाहते हैं कि आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक संधि हो। दुनिया आतंकवाद का रोना तो रोती है, पर उसकी परिभाषा तक तय नहीं करती। रास्ता एक है, पहले दुनिया हमारा महत्व माने, फिर आगे बात करें।

बदलते समाज के फैसले

सुप्रीम कोर्ट के कुछ बड़े फैसलों के लिए पिछला हफ्ता याद किया जाएगा। इस हफ्ते कम के कम छह ऐसे फैसले आए हैं, जिनके गहरे सामाजिक, धार्मिक, न्यायिक और राजनीतिक निहितार्थ हैं। संयोग से वर्तमान मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल का यह अंतिम सप्ताह भी था। उनका कार्यकाल इसलिए महत्वपूर्ण रहा, क्योंकि वे देश के पहले ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं, जिनके खिलाफ संसद के एक सदन में महाभियोग की सूचना दी गई और यह मामला सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर भी गया। उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे मामले आए, जिन्हें लेकर राजनीति और समाज में तीखे मतभेद हैं। इनमें जज लोया और अयोध्या के मामले शामिल हैं। ये बदलते भारतीय समाज के अंतर्विरोध हैं, जो अदालती फैसलों में नजर आ रहे हैं।

Tuesday, September 18, 2018

मोदी के ‘स्वच्छाग्रह’ के राजनीतिक मायने

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 सितंबर से स्वच्छता ही सेवा अभियानशुरू किया है, जो 2 अक्टूबर तक चलेगा. इस 2 अक्टूबर से महात्मा गांधी का 150वाँ जयंती वर्ष भी शुरू हो रहा है. व्यापक अर्थ में यह गांधी के अंगीकार का अभियान है, जिसके सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ भी हैं. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने गांधी, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं को अपने साथ जोड़ा है. उनके कार्यक्रमों पर चलने की घोषणा भी की है. यह एक प्रकार की 'सॉफ्ट राजनीति' है. इसका प्रभाव वैसा ही है, जैसा योग दिवस का है. मोदी ने गांधी को अंगीकार किया है, जिसका विरोध कांग्रेस नहीं कर सकती. 
अगले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 31 अक्टूबर को स्टैच्यू ऑफ यूनिटी (सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति) का प्रतिमा का अनावरण भी करेंगे, जो दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा है. पिछले चार साल में नरेंद्र मोदी सरकार ने न केवल कांग्रेस के सामाजिक आधार को ध्वस्त करने की कोशिश की है, बल्कि उसके लोकप्रिय मुहावरों को भी छीना है. उनके स्वच्छ भारत अभियान का प्रतीक चिह्न गांधी का गोल चश्मा है. गांधी के सत्याग्रह के तर्ज पर मोदी ने स्वच्छाग्रहशब्द का इस्तेमाल किया.

Sunday, September 16, 2018

‘आंदोलनों’ की सिद्धांतविहीनता

बंद, हड़ताल, घेराव, धरना और विरोध प्रदर्शन हमारी राजनीतिक संस्कृति के अटूट अंग बन चुके हैं। स्वतंत्रता आंदोलन से निकली इस राजनीति की धारणा है कि सार्वजनिक हितों की रक्षा का जिम्मा हरेक दल के पास है। ऐसा सोचना गलत भी नहीं है, पर सार्वजनिक हित-रक्षा के लिए हरेक दल अपनी रणनीति, विचार और गतिवधि को सही मानकर पूरे देश को अपनी बपौती मानना शुरू कर दिया है, जिससे आंदोलनों की मूल भावना पिटने लगी है। अक्सर वही आंदोलन सफल माना जाता है, जो हिंसा फैलाने में कामयाब हो। 
स्वतंत्रता आंदोलन से निकली राजनीति के अलावा देश की कम्युनिस्ट पार्टियों के पास रूस और चीन के उदाहरण हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों के पास मजदूर और किसान संगठन हैं, जिन्हें व्यवस्था से कई तरह की शिकायतें हैं। देश की प्रशासनिक व्यवस्था से नागरिकों को तमाम शिकायतें हैं। इनका निवारण तबतक नहीं होता जबतक आंदोलन का रास्ता अपनाया न जाए। यह पूरी बात का एक पहलू है। इन आंदोलनों की राजनीतिक भूमिका पर भी ध्यान देना होगा।

Tuesday, September 11, 2018

सामाजिक बदलाव में नागरिक समाज की भूमिका


धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का फैसला आने के बाद सवाल पैदा होता है कि इसे क्या हम समलैंगिक रिश्तों की सर्वस्वीकृति मानें? क्या यह वास्तव में एक नई आजादी है, जैसाकि एक अंग्रेजी अखबार ने शीर्षक दिया है इंडिपेंडेंस डे-2 यानी कि यह दूसरा स्वतंत्रता दिवस है। इस किस्म की प्रतिक्रियाएं अंग्रेजी मीडिया में ज्यादा हैं। इनसे देखने से लगता है कि कोई बड़ी क्रांति हो गई है। इसके विपरीत परम्परावादियों की प्रतिक्रिया निराशा से डूबी है। उन्हें लगता है कि व्यवस्था ने पापाचार को वैध और सही मान लिया है। एक तीसरी प्रतिक्रिया भी सम्भव है कि ठीक है कि समलैंगिकता को आपराधिक दायरे से बाहर रखें, पर यह समाज को स्वीकार्य नहीं है।

Sunday, September 9, 2018

समलैंगिकता की हकीकत को स्वीकारें

धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का फैसला आने के बाद तीन किस्म की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। एक प्रतिक्रिया इस फैसले के स्वागत में है और दूसरी इसके विरोध में। अंग्रेजी के कुछ अखबारों और चैनलों को देखने से लगता है कि कोई बड़ी क्रांति हो गई है। एक अखबार ने शीर्षक दिया है इंडिपेंडेंस डे-2 यानी कि यह दूसरा स्वतंत्रता दिवस है। इसके विपरीत शुद्धतावादियों की प्रतिक्रिया निराशा से डूबी है। उन्हें लगता है कि व्यवस्था ने पापाचार को वैध और सही मान लिया है। एक तीसरी प्रतिक्रिया है कि ठीक है कि समलैंगिकता को आपराधिक दायरे से बाहर रखें, पर यह समाज को स्वीकार्य नहीं है।
हमारे समाज को ही नहीं, अभी यह दुनिया के तमाम समाजों को स्वीकार नहीं है। सच यह है कि प्राकृतिक रूप से विषमलिंगी सम्बंध ही सहज हैं। पर यह भी सच है कि दुनिया के सभी समाजों में आज से नहीं हजारों साल से समलैंगिक सम्बंध होते रहे हैं। इन्हें रोकने के लिए अनेक देशों में कानून हैं और सजाएं दी जाती हैं। हमारे देश में कुछ समय से समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर लाने की मुहिम चल रही थी। इसके पीछे बुनियादी तर्क यह है कि यह व्यक्ति के निजी चयन का मामला है। इसे अपराध के दायरे से बाहर लाना चाहिए। हमारी इसी अदालत में 2013 में इस तर्क को अस्वीकार कर दिया, पर अब स्वीकार किया है, तो उसपर भी विचार करना चाहिए। हकीकत को सभी स्तरों पर स्वीकार किया जाना चाहिए।
व्यावहारिक सच यह है कि देर-सबेर यह फैसला होना ही था। पिछले साल हमारी सुप्रीम कोर्ट ने प्राइवेसी को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया था। उस निर्णय की यह तार्किक परिणति है। ऐसा नहीं है कि इस फैसले के बाद पूरा समाज समलैंगिक हो जाएगा। अंततः यह समाज पर निर्भर करेगा कि वह किस रास्ते पर जाना चाहता है। समाज की मुख्य धारा इसे स्वीकार नहीं करेगी, पर कोई इस रास्ते पर जाता है, तो उसे प्रताड़ित भी नहीं करेगी। भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के मुताबिक कोई किसी पुरुष, स्त्री या पशुओं से प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध संबंध बनाता है तो यह अपराध होगा। इस अपराध के लिए उसे उम्रकैद या 10 साल तक की सजा के साथ आर्थिक दंड का भागी होना पड़ेगा। इतनी भारी सजा के बोझ से वे लोग अब बाहर आ जाएंगे, जो इसके दबाव में थे। पर यह बहस जारी रहेगी कि समलैंगिकता प्राकृतिक गतिविधि है या नहीं।

Saturday, September 8, 2018

भारत-अमेरिका रिश्तों का अगला कदम

विदेशी मामलों को लेकर भारत में जब बात होती है, तो ज्यादातर पाँच देशों के इर्द-गिर्द बातें होती हैं। एक, पाकिस्तान,दूसरा चीन। फिर अमेरिका, रूस और ब्रिटेन। इन देशों के आपसी रिश्ते हमें प्रभावित करते हैं। देश की आंतरिक राजनीति भी इन रिश्तों के करीब घूमने लगती है। पिछले कुछ हफ्तों की गतिविधियाँ इस बात की गवाही दे रहीं हैं। कश्मीर में घटनाक्रम तेजी से बदला है। उधर पाकिस्तान में इमरान खान की नई सरकार समझ नहीं पा रही है कि करना क्या है। इस बीच न्यूयॉर्क टाइम्स ने खबर दी है कि पाकिस्तानी सेना ने भारत के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। आर्थिक मसलों को लेकर अमेरिका और चीन के रिश्ते बिगड़ते जा रहे हैं। भारत और अमेरिका के रिश्तों में भी कुछ समय से कड़वाहट है। दोनों देशों के बीच लगातार टल रही टू प्लस टू वार्ता अंततः इस हफ्ते हो जाने के बाद असमंजस के बादल हटे हैं।

जून के तीसरे हफ्ते मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के इस्तीफा देने के बाद से कश्मीर में घटनाक्रम तेजी से बदला है। इसके फौरन बाद कश्मीर में एक दशक से जमे जमाए राज्यपाल रहे एनएन वोहरा का कार्यकाल समाप्त हो गया। उनकी जगह अगस्त के तीसरे हफ्ते में सतपाल मलिक ने राज्य के राज्यपाल का पदभार ग्रहण किया। सतपाल मलिक इसके पहले बिहार के राज्यपाल थे। राज्य के पुलिस प्रमुख भी बदल दिए गए हैं। नए राज्यपाल के आने के पहले ही राज्य के शहरी और ग्रामीण निकाय चुनाव इस अक्तूबर और नवम्बर में कराने की घोषणा हो गई थी। उस घोषणा की प्रतिक्रिया में राजनीतिक लहरें बनने लगी हैं।
सवाल है कश्मीर को लेकर सरकार क्या कोई बड़ा फैसला करने वाली है? उधर लोकसभा चुनाव करीब हैं। चुनाव के पहले क्या कोई बड़ा फैसला करना सम्भव है?पर मन यह भी कहता है कि चुनाव के पहले बड़े नाटकीय फैसले सम्भव भी हैं। इस सिलसिले में दिल्ली में गुरुवार को भारत और अमेरिका के रक्षा और विदेश मंत्रियों की बहुप्रतीक्षित टू प्लस टू वार्ताके निहितार्थों को समझने की कोशिश भी करनी चाहिए। भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण तथा अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो और रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस ने इस वार्ता में हिस्सा लिया।

Sunday, September 2, 2018

राफेल पर राजनीति की छाया

केन्द्र सरकार के लिए इस हफ्ते का आखिरी दिन खुशखबरी लेकर आया। खबर है कि इस वित्तीय वर्ष के पहली तिमाही में अर्थ-व्यवस्था में 8.2 फीसदी की दर से इजाफा हुआ है। इसका सबसे सकारात्मक पक्ष है मैन्यूफैक्चरिंग और फार्म सेक्टर का बेहतर प्रदर्शन। ये दोनों सेक्टर रोजगार देते हैं। लगता यह है कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण दबाव में आई अर्थव्यवस्था फिर से रास्ते पर आ रही है। इससे पहले 2015-16 की पहली तिमाही में जीडीपी में सबसे तेज वृद्धि दर्ज हुई थी। पिछले वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में जीडीपी वृद्घि दर 7.7 फीसदी रही थी। बहरहाल इस तिमाही में भारत एकबार फिर से सबसे तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बन गया है। चीन की वृद्घि दर पहली तिमाही में घटकर 6.7 फीसदी रह गई है।

इस खुशखबरी के बावजूद केन्द्र सरकार पर विरोधियों के हमले बढ़ जा रहे हैं। चुनाव नजदीक आ रहे हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के कारण सरकार दबाव में आई है। कांग्रेस ने राफेल विमान के सौदे को चुनाव का मुद्दा बनाने का फैसला किया है। राहुल गांधी ने कई बार कहा है कि राफेल-डील में कोई घोटाला है। क्या घोटाला है, यह पार्टी ने स्पष्ट नहीं किया है। पार्टी इतना जरूर कह रही है कि हमने जो सौदा किया था, उसके मुकाबले सरकार अब बहुत ज्यादा कीमत दे रही है। दूसरे इसके ऑफसेट में सरकार की पसंदीदा कम्पनियों को फायदा पहुँचाने का आरोप भी है।

Saturday, September 1, 2018

लोकतांत्रिक ‘सेफ्टी वॉल्वों’ पर वार

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और उसके बाद शुरू हुई ‘बहस’ और ‘अदालती कार्यवाही’ कई मानों में लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है। एक तरफ देश में फासीवाद, नाजीवाद के पनपने के आरोप हैं, वहीं हमारे बीच ऐसे व्यक्ति और संगठन हैं, जो रात-रात भर अदालतों में गुहार लगा सकते हैं। ऐसे में इस व्यवस्था को फासिस्ट कैसे कहेंगे? हमारी अदालतें नागरिक अधिकारों के पक्ष में हस्तक्षेप कर रहीं हैं। मीडिया पर तमाम तरह के आरोप हैं, पर ऐसा नहीं कि इस मामले में सामाजिक कार्यकर्ताओं के पक्ष को सामने रखा न गया हो। 

इस मामले का 2019 की चुनावी राजनीति से कहीं न कहीं सीधा रिश्ता है। बीजेपी की सफलता के पीछे दलित और ओबीसी वोट भी है। बीजेपी-विरोधी राजनीति उस वोट को बीजेपी से अलग करना चाहती है। रोहित वेमुला प्रकरण एक प्रतीक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लम्बे अरसे से दलितों और खासतौर से जनताजातीय इलाकों में सक्रिय है। यह इस प्रकरण का आंतरिक पक्ष है। सवाल यह है कि बीजेपी ने उन लोगों पर कार्रवाई क्यों की जो सीधे उसके राजनीतिक प्रतिस्पर्धी नहीं हैं? दूसरा सवाल यह है कि यदि ये ताकतें बीजेपी को परास्त करने की योजना में शामिल हैं, तो यह योजना किसकी है? इन बातों पर अलग से विचार करने की जरूरत है। 

फिलहाल इस प्रकरण का सीधा वास्ता हमारी राजनीतिक-व्यवस्था और लोकतांत्रिक संस्थाओं से है, जो परेशान करने वाला है। साथ ही भारतीय राष्ट्र-राज्य की एकता और अखंडता के सवाल भी हैं, जिनकी तरफ हम देख नहीं पा रहे हैं। बदलते भारत और उसके भीतर पनपने वाले उदार लोकतांत्रिक समाज की परिकल्पना के बरक्स कई प्रकार की अंतर्विरोधी धाराओं का टकराव भी देखने को मिल रहा है।

अधिकारों की रक्षा और नागरिकों की सुरक्षा के सवाल बेहद महत्वपूर्ण हैं, पर यह मामला ज्यादा बड़े राजनीतिक विमर्श से जुड़ा है। इसके साथ 1947 की आजादी के बाद राष्ट्र-राज्य के गठन की प्रक्रिया और विकास की धारा से कटे आदिवासियों, दलितों और वंचितों के सवाल भी हैं। इस मामले के कानूनी, राजनीतिक और राष्ट्र-राज्य के संरक्षण से जुड़े तीन अलग-अलग पहलू हैं। तीनों गड्ड-मड्ड हो रहे हैं। उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में समझने के जरूरत है।

सेफ्टी वॉल्व

इन दिनों शब्द चल रहा है अर्बन नक्सली। सच यह है कि बड़ी संख्या में लोग माओवादी, कम्युनिस्ट, नक्सवादी, लिबरल और वामपंथी वगैरह के अर्थ नहीं जानते। अक्सर सबको एक मानकर चलते हैं। सामाजिक जीवन से जुड़े वकील, अध्यापक, साहित्यकार या दूसरे कार्यकर्ता काफी खुले तरीके से सोचते हैं। क्या उनकी राजनीतिक असहमतियों को देश-द्रोह का दर्जा देना चाहिए? इस मामले के कुछ पहलुओं की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हो रही है। जिस बेंच में सुनवाई हो रही है उसके एक सदस्य जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा है, ‘असहमति, लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है। असहमति को अनुमति नहीं दी गई तो प्रेशर कुकर फट सकता है।’

पिछले 71 वर्षों में भारतीय लोकतंत्र ऐसे सेफ्टी वॉल्वों की वजह से सुरक्षित है। इसमें राष्ट्र-राज्य की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। क्या वर्तमान राजनीतिक सत्ता-प्रतिष्ठान के फैसले चरमपंथी हैं? क्या उसके पहले के सत्ता-प्रतिष्ठान की रीति-नीति फर्क थी? इस चर्चा के दौरान तथ्य सामने आएंगे। जिनके आधार पर हमें आमराय बनाने का मौका मिलेगा। लोकतांत्रिक विकास का यह भी एक दौर है। जरूरी है कि इस बहस को राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ाएं।