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Monday, September 26, 2022

यूक्रेन में लड़ाई और भड़कने का अंदेशा


वैश्विक राजनीति का घटनाक्रम तेजी से बदल रहा है. गत 16 सितंबर को समरकंद में हुए एससीओ शिखर सम्मेलन में नरेंद्र मोदी और व्लादिमीर पुतिन के बीच हुए संवाद से लगा था कि शायद यूक्रेन का युद्ध जल्द समाप्त हो जाएगा. पर उसके बाद
पुतिन के बयान और पश्चिमी देशों के तुर्की-ब-तुर्की जवाब से लग रहा है कि लड़ाई बढ़ेगी.

अब व्लादिमीर पुतिन ने अपने राष्ट्रीय प्रसारण में देश में आंशिक लामबंदी की घोषणा की है और एटमी हथियारों के इस्तेमाल की बात को दोहराया है. बुधवार 21 सितंबर को उन्होंने  कहा कि पश्चिम रूस को ब्लैकमेल कर रहा है, लेकिन रूस के पास जवाब देने के लिए कई हथियार हैं. हम अपने नागरिकों की रक्षा के लिए हरेक हथियार का इस्तेमाल करेंगे. रूसी जनता के समर्थन में मुझे पूरा भरोसा है.

सिर्फ भभकी

दूसरी तरफ यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की का कहना है कि हमें नहीं लगता कि रूस परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा. ज़ेलेंस्की ने जर्मनी के बिल्ड न्यूज़पेपर के टीवी कहा,  मुझे नहीं लगता कि दुनिया उन्हें परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की इजाजत देगी.

पुतिन के इस बयान पर जहां दुनिया भर के नेताओं ने टिप्पणी की है वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा परिषद में कहा कि रूस यूक्रेन के एक देश के रूप में बने रहने के उसके अधिकारों को ख़त्म करने का लक्ष्य बना रहा है. रूसी हमले के विरोध में हम यूक्रेन के साथ खड़े हैं. बाइडन ने सुरक्षा परिषद में वीटो के इस्तेमाल पर रोक लगाने की बात भी कही और साथ ही कहा कि अमेरिका सुरक्षा परिषद में सदस्यों की संख्या बढ़ाने का समर्थन करता है.

थक रहा है रूस

यह भी लगता है कि इस लड़ाई में रूस थक गया है, पर अपमान का घूँट पीने को भी वह तैयार नहीं है. दूसरी तरफ उसे मिल रहे चीनी-समर्थन में कमी आ गई है. इस साल जनवरी-फरवरी में रूस-चीन रिश्ते आसमान पर थे, तो वे अब ज़मीन पर आते दिखाई पड़ रहे हैं.

Saturday, April 9, 2022

वैश्विक असमंजस के दौर में भारतीय विदेश-नीति

संरा महासभा में हुए मतदान का परिणाम

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पिछले आठ साल में पहली बार कुछ जटिल सवालों का सामना कर रही है। वैश्विक-महामारी से देश बाहर निकलने का प्रयास कर रहा है। पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था को वापस लाने की कोशिशें शुरू हुई हैं। ऐसे में यूक्रेन के युद्ध ने कुछ बुनियादी सवाल खड़े कर दिए हैं। हम किसके साथ हैं
? ‘किसकेसे एक आशय है कि हम रूस के साथ हैं या अमेरिका के? किसी के पक्षधर नहीं हैं, तब हम चाहते क्या हैं? स्वतंत्र विदेश-नीति को चलाए रखने के लिए जिस ताकतवर अर्थव्यवस्था और फौजी ताकत की जरूरत है, अभी वह हमारे पास नहीं है। हमारा प्रतिस्पर्धी दबाव बढ़ा रहा है। हम क्या करें?


गुरुवार 7 अप्रेल को संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहकर भारत ने यों तो अपनी तटस्थता का परिचय दिया है, पर प्रकारांतर से यह वोट रूस-विरोधी है। चीन ने इस प्रस्ताव के विरोध में वोट देकर रूस का सीधा समर्थन किया। अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) से रूस को निलंबित कर दिया गया। भारत समेत 58 देश संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहे। इनमें दक्षिण एशिया के सभी देश थे, पर ध्यान देन वाली बात यह है कि म्यांमार ने अमेरिकी-प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि उसे चीन के करीब माना जाता है। यूएनएचआरसी से रूस का निलंबन बता रहा है कि वैश्विक मंच पर रूस-चीन गठजोड़ की जमीन कमज़ोर है। निलंबन-प्रस्ताव के समर्थन में 93 वोट पड़े और 24 वोट विरोध में पड़े। अर्थात 92 देशों ने अमेरिका का साथ दिया और चीन सहित 23 देश रूस के साथ खड़े हुए।

हिंद महासागर में चीनी उपस्थिति बढ़ती जा रही है। म्यांमार में सैनिक-शासकों से हमने नरमी बरती, पर फायदा चीन ने उठाया। इसकी एक वजह है कि सैनिक-शासकों के प्रति अमेरिकी रुख कड़ा है। बांग्लादेश के साथ हमारे रिश्ते सुधरे हैं, पर सैनिक साजो-सामान और इंफ्रास्ट्रक्चर में चीन उसका मुख्य-सहयोगी है। अफगानिस्तान में तालिबान का राज कायम होने के बाद वहाँ भी चीन ने पैर पसारे हैं। पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक-गतिरोध के पीछे जितनी आंतरिक राजनीति की भूमिका है, उतनी ही अमेरिका के बरक्स रूस-चीन गठजोड़ के ताकतवर होने की है।

Saturday, February 12, 2022

चीन-पाकिस्तान ‘मोर्चाबंदी’ की चुनौती


राहुल गांधी ने हाल में लोकसभा में कहा कि मोदी सरकार ने चीन और पाकिस्तान को साथ लाकर बड़ा अपराध किया है। हमारी विदेश नीति में लक्ष्य रहता था कि पाकिस्तान और चीन को क़रीब आने से रोकना है, लेकिन इस सरकार ने दोनों को साथ ला दिया है। उनके इस वक्तव्य के तीन दिन बाद ही बीजिंग से चीन-पाकिस्तान की एक संयुक्त वक्तव्य आया, जिसमें कहा गया कि हम कश्मीर में किसी भी एकतरफ़ा कार्रवाई का विरोध करते हैं, क्योंकि इससे कश्मीर मुद्दा जटिल हो जाता है। उनका इशारा अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 की वापसी को लेकर है।

यह मनो-युद्ध है। चीन हमारा प्रतिस्पर्धी है। उसे लेकर हमारा राष्ट्रीय संकल्प क्या है या क्या होना चाहिए? मोर्चा सीमा पर ही नहीं हैं। वह हमारी लोकतांत्रिक-व्यवस्था का लाभ उठाता है। आज ठोस-लड़ाई के बजाय हाइब्रिड-युद्ध का जमाना है। दुनिया की नजरें इस वक्त यूक्रेन और ताइवान पर हैं। साठ साल पहले 20 अक्तूबर 1962 को जब चीन ने भारत पर हमला बोला था, दुनिया की नजरें क्यूबा में मिसाइलों की तैनाती पर केंद्रित थीं। वह चीन के आंतरिक संकट का दौर भी था। 1958 से 1962 के बीच वह भयंकर दुर्भिक्ष का शिकार हुआ था, जिसमें डेढ़ से साढ़े पाँच करोड़ लोगों की मौतें हुई थीं। माओ-जे-दुंग के लंबी छलाँग कार्यक्रम देन।

सावधानी की जरूरत

चीन से सावधान रहने की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। विफलताओं पर परदा डालने के लिए युद्ध जाँचा-परखा फॉर्मूला है। वह कुछ भी कर सकता है। बहरहाल उसपर बाद में करेंगे, पहले चीन-पाकिस्तान गठजोड़ पर गौर करें। भारत के खिलाफ दोनों एकसाथ हैं, इस बात से इनकार नहीं कर सकते। पर चीन को ऐसा करने से कैसे रोकेंगे? मनुहार करेंगे, बिनती करेंगे?  क्या इससे चीन मान जाएगा? दूसरा सवाल है कि क्या अनुच्छेद 370 की वापसी से वह नाराज है? या भारत के फैसले ने इस गठजोड़ का पर्दाफाश किया है?

डोकलाम का मामला तो 2017 में उठा था। उसके पहले 2013 में भारत के पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में भारत का 640 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हथिया लिया है। श्याम सरन तब यूपीए सरकार की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के अंतर्गत काम करने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष थे। सरकार ने उनकी बात को स्वीकार नहीं किया, पर यह बात रिकॉर्ड में मौजूद है। उस साल अप्रैल में देपसांग इलाके में चीनी घुसपैठ हुई और उसके अगले साल चुमार इलाके में।

1963 से है गठजोड़

राहुल गांधी की टिप्पणी का जवाब विदेशमंत्री एस जयशंकर ने ट्विटर पर दिया, पर यह बात आई-गई हो गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात का जिक्र ही नहीं किया। चीन और पाकिस्तान की साठगाँठ क्या नई बात है? हमारी सेना को 1965 से इस बात का अंदेशा है कि पाकिस्तान के साथ चीन भी भारत के खिलाफ मोर्चा खोलेगा। सन 1963 में पाकिस्तान ने चीन को शक्सगम घाटी सौंपी। तभी गठजोड़ बन गया था। पृष्ठभूमि तो 1962 का लड़ाई में तैयार हो ही गई थी। 1965 का हमला उस रणनीति का पहला प्रयोग था।  

Wednesday, August 25, 2010

भारत-जापान रिश्ते

भारत और जापान के बीच एटमी सहयोग की बातचीत लम्बे अर्से से चली आ रही है, पर हाल के दिनों में इसमें तेजी आई है। इसके पीछे जापान की अपनी आर्थिक दुश्वारियाँ ज्यादा हैं। बहरहाल तमाम अंदेशों के बावज़ूद ऐसा लगता है कि इस साल के अंत में जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जापान जाएंगे तब भारत-जापान न्यूक्लियर संधि हो जाएगी। अंतरराष्ट्रीय रिश्तों के बनने और बिगड़ने की गति आसानी से नज़र नहीं आता।

भारत-जापान रिश्तों के भविष्य में और प्रगाढ़ होने की अच्छी खासी सम्भावनाएं हैं। इसके पीछे भौगोलिक यथार्थ, सामरिक और आर्थिक ज़रूरतें हैं। यों तो आज कोई किसी या शत्रु या मित्र नहीं है, पर कुछ मित्र अपेक्षाकृत ज्यादा सहज होते हैं। जापान हमारा अपेक्षाकृत सहज मित्र है।


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विश्लेषण आईडीएसए की टिप्पणी