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Wednesday, December 31, 2025

धर्मवीर भारती की पत्रकारिता

टिल्लन रिछारिया ने काफी पहले मुझसे भारती जी पर लेख लिखने को कहा था। मैंने भी लिखने में देरी की। टिल्लन जी के निधन से अवरोध पैदा हुए होंगे। इस वजह से किताब के प्रकाशन में भी देरी हुई होगी। बहरहाल 2025 के जनवरी में यह प्रकाशित हुई, जिसमें मेरा यह लेख भी शामिल है।

 रचनात्मक प्रतिभाएं बहुमुखी होती हैं। इसलिए रचनात्मकता के दायरे खींचना मुश्किल काम है। कविता शुरू होकर उपन्यास बन सकती है और कोई कहानी कविता में तब्दील हो सकती है। यह रचनाकार पर निर्भर करता है कि वह गीली मिट्टी को क्या आकार देता है। धर्मवीर भारती की पहली पहचान साहित्यकार के रूप में है। पर वे पत्रकार भी थे, बावजूद इसके कि जिस धर्मयुग के नाम से वे पहचाने गए, उसमें उन्होंने बहुत कम लिखा। फिर भी वे अपने किसी कृतित्व के कारण ही संपादक रूप में पहचाने गए। रिपोर्टर, लेखक और संपादक अलग-अलग पहचान हैं।

साहित्यकार के मुकाबले पत्रकार का मूल्यांकन केवल उसकी निजी-रचनाओं के मार्फत नहीं किया जा सकता। वह लेखक भी होता है और आयोजक भी। वह अपने विचार लिखता है और दूसरों के विचारों का वाहक भी होता है। उसका मूल्यांकन किसी एक या अनेक रिपोर्टों या टिप्पणियों के आधार पर किया जाना चाहिए। यह एक कसौटी है। दूसरी कसौटी है वह समग्र-आयोजन जिसमें वह अनेक रचनाधर्मियों को जोड़ता है। इस कसौटी पर खरा उतरना बेहद मुश्किल काम है, क्योंकि इसमें तमाम लोग जुड़े होते हैं, जो कंकड़-पत्थर नहीं इंसान हैं।

धर्मयुग: एक दीर्घ रचना-प्रक्रिया

इस लिहाज से धर्मयुग अपने आप में एक रचना-प्रक्रिया थी। उसकी साप्ताहिक, मासिक या वार्षिक-योजना, सहयोगियों की कार्य-क्षमता का मूल्यांकन, कार्य-वितरण और देश-काल के साथ चलने की सामर्थ्य का विवेचन लोगों ने किया है और होता रहेगा। उसमें एक दौर भारती जी का था और वह 27 वर्ष का था, यानी काफी लंबा। उसे भारती जी की पत्रकारिता का दौर कह सकते हैं।

काफी लंबा होने का मतलब यह भी है कि उन्हें अपनी दृष्टि, विवेक और क्षमताभर काम करने का मौका मिला, जिसका श्रेय बेनेट कोलमन कंपनी और उसके प्रबंधकों को भी जाता है। या उस विशेष मुद्रण प्रक्रिया को, जिसके कारण धर्मयुग, इलस्ट्रेटेड वीकली, फिल्मफेयर और फेमिना जैसी पत्रिकाओं की अलग पहचान थी। उस दौर को भी जिसमें इन पत्रों का मुकाबला करने वाले नहीं थे।

भारती जी का उपन्यास गुनाहों का देवता मैंने 1962-63 में कभी पढ़ा होगा। तब मैं किसी भी कहानी या उपन्यास को पढ़ लिया करता था। 12-13 की उम्र के लिहाज से उस उपन्यास को ठीक से समझ पाना भी मेरे लिए आसान नहीं रहा होगा, पर उन दिनों मैं चंदामामा से लेकर मामा बरेरकर के उपन्यासों तक कुछ भी पढ़ लेता था।

दूसरों से अलग

मथुरा के चौबियापाड़े की एक गली में छोटा सा समाज कल्याण पुस्तकालय और वाचनालय था, जो आसपास के लोगों की मदद से चलता था। शाम को दो बेंचें लगा दी जाती थीं, जिनमें बैठकर लोग अखबार और पत्रिकाएं पढ़ते थे। चंदामामा, मनमोहन, पराग और बालक से लेकर धर्मयुग तक। नंदन का प्रकाशन तब शुरू हुआ नहीं था। बहरहाल धर्मयुग और भारती जी के रिश्ते या उसके महत्व को मैं तब समझता नहीं था। वह पत्रिका दूसरी पत्रिकाओं से अलग लगती थी, अपने आकार, बनावट, छपाई और सजावट की वजह से। इसी पुस्तकालय से एक किताब घर ले जाने की व्यवस्था भी थी। इसी निशुल्क-व्यवस्था के तहत मैंने इब्ने सफी बीए से लेकर गुरुदत्त और रवींद्रनाथ ठाकुर तक के उपन्यास पढ़ डाले।