Showing posts with label कॉमनवैल्थ. Show all posts
Showing posts with label कॉमनवैल्थ. Show all posts

Tuesday, August 10, 2010

ट्विटरीकृत शोर के दौर में साख का सवाल


शनिवार के अखबारों में सहारा समूह के अध्यक्ष सुब्रत रॉय सहारा की  एक भावनात्मक अपील प्रकाशित हुई है। उन्होंने कहा है कि मीडिया में कॉमनवैल्थ गेम्स को लेकर जो निगेटिव कवरेज हो रहा है उससे उससे पूरे संसार में हमारे देश और निवासियों के बारे में गलत संदेश जा रहा है। हमें इन खेलों को सफल बनाना चाहिए। यह अपील टाइम्स ऑफ इंडिया में भी प्रकाशित हुई, जिसके किसी दूसरे पेज पर उनके टीवी चैनल 'टाइम्स नाव' का विज्ञापन है। टाइम्स नाव कॉमनवैल्थ खेलों के इस 'भंडाफोड़' का श्रेय लेता रहा है। और वह काफी अग्रेसिव होकर इसे कवर कर रहा है।

शनिवार के इंडियन एक्सप्रेस में शेखर गुप्ता का साप्ताहिक कॉलम नेशनल इंटरेस्ट इसी विषय को समर्पित है। उन्होंने लिखा है कि दो हफ्ते पहले हमारे मन में इन खेलों को लेकर यह भाव नहीं था। इंडियन एक्सप्रेस ने खुद इस भंडाफोड़ की शुरुआत की थी, पर हमने यह नहीं सोचा था कि इन सब बातों का इन खेलों के खिलाफ प्रचार करने और माहौल को इतना ज़हरीला बनाने में इस्तेमाल हो जाएगा। जिस तरीके से खेलों के खिलाफ अभियान चला है उससे पत्रकारिता के ट्विटराइज़ेशन का खतरा रेखांकित होता है।सब चोर हैं इस देश का लोकप्रिय जुम्ला है।

कॉमनवैल्थ गेम्स के बहाने हम मीडिया की प्रवृत्तियों को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। साथ ही यह समझ भी आता है कि पत्रकार छोटी-छोटी बातों की उपेक्षा क्यों कर रह हैं। कॉमनवैल्थ गेम्स पर कितना खर्च हो रहा है, कहाँ-कहाँ खर्च हो रहा है और किस खर्च के लिए कौन जिम्मेदार है इसकी पड़ताल तो आसानी से की जा सकती है। दस-पन्द्रह हजार करोड़ के खर्च से शुरू होकर बात एक लाख करोड़ तक पर जा चुकी है। इंडियन एक्सप्रेस ने दिल्ली सरकार और खेल मंत्रालय की रपटों के हवाले से 41,589.35 करोड़ रु के खर्च का ब्योरा दिया है। इसमें फ्लाई ओवरों का निर्णाण, मेट्रो कनेक्टिविटी, लो फ्लोर डीटीसी बसों की संख्या में वृद्धि, सड़कों का मरम्मत, फुटपाथों का निर्माण वगैरह भी शामिल है। खेलों के दौरान होने वाले खर्च अलग हैं। दूर से लगता है कि सुरेश कलमाडी के पास चालीस-पचास हजार करोड़ अपने विवेक से खर्च करने का अधिकार था। ऐसा नहीं है। घपले हुए हैं तो पूरी व्यवस्था ने होने दिए हैं।

इसमें दो राय नहीं कि मीडिया ने जो मामले उठाए हैं, उनके पीछे कोई आधार होगा। उन्हें जाँचा और परखा जाना चाहिए। पब्लिक स्क्रूटिनी जितनी अच्छी होगी काम उतने अच्छे होंगे। इस बात को साफ-साफ बताना चाहिए कि किससे कहाँ चूक हुई है या किसने कहाँ चोरी की है। इसके लिए पत्रकारों को इस बात का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए कि वे हवाबाज़ी में न आ जाएं। जैसे-जैसे आर्थिक मसले बढ़ेंगे वैसे-वैसे पत्रकारों की जिम्मेदारी बढ़ेगी। ऐसे मौकों पर व्यक्तिगत हिसाब बराबर करने वाले भी आगे आते हैं। वे अधूरे तथ्य पत्रकारों को बताकर अपनी मर्जी से काम करा लेते हैं। इधर लगभग हर चैनल और अखबार में एक्सक्ल्यूसिव का ठप्पा लगाने का चलन बढ़ा है। एक्सक्ल्यूसिव होने की जल्दबाज़ी में हम तथ्यों को परखते नहीं। कई बार तथ्य सही होते हैं, पर उन्हें उछालने वाले कोई का कोई स्वार्थ होता है। उसे देखने की ज़रूरत भी है। अच्छी खबर पढ़ने में अक्सर सनसनीखेज नहीं होती, पर मीडिया की दिलचस्पी सनसनी में है।     
 
फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉगों पर जो शब्दावली चलती है, वह मुख्यधारा के मीडिया की शब्दावली कभी नहीं थी। जनता के बीच संवाद की भाषा और पत्रकारिता की भाषा एक जैसी नहीं हो सकती। कॉमनवैल्थ गेम्स के कारण पूरे देश की इज़्ज़त रसातल में जा रही है, इसलिए हम इस बात पर विचार कर रहे हैं। यों हमें सोचना चाहिए कि पत्रकारिता की भूमिका वास्तव में है क्या। तथ्यों को बाँचे-जाँचे बगैर पेश करने का चलन बढ़ता जा रहा है। जन-पक्षधरता अच्छी बात है, पर सारे तथ्यों की पड़ताल होनी चाहिए। कम से कम उस व्यक्ति का पक्ष भी जानने की कोशिश करनी चाहिए, जिस पर आरोप लगाए जा रहे हैं। पत्रकारिता परिपक्व विचार और समझ का नाम भी है। इन दिनों उसे जिस तरह उसके मूल्यों से काटने की कोशिश हो रही है, वह भी तो ठीक नहीं है।

ये खेल बचें या न बचें यह राष्ट्रीय हितों से जुड़ा सवाल है। हमारी दिलचस्पी पत्रकारिता को बचाने में भी है। इस सिलसिले में मैं आनन्द प्रधान के एक लेख का हवाला देना चाहूँगा, जो उन्होंने हिन्दी पत्रकार-लेखक हेम चन्द्र पांडे की मौत को लेकर लिखा है। हेम की मौत पर मीडिया ने कोई पड़ताल नहीं की। संयोग से सोहराबुद्दीन की मौत इन दिनों खबरों में है। चूंकि उस खबर के साथ बड़े नाम जुड़े हैं, इसलिए मीडिया का ध्यान उधर है। जिन मूल्यों-सिद्धांतों के हवाले से सोहराबुद्दीन की पड़ताल हुई, वे हेम के साथ भी तो जुड़े हैं। शायद यह मामला डाउन मार्केट है। अप मार्केट और डाउन मार्केट पत्रकारिता की मूल भावना से मेल नहीं खाते। पत्रकारिता सिर्फ व्यवसायिक हितों की रक्षा में लग जाएगी तो वह जनता से कटेगी। उसका दीर्घकालीन व्यावसायिक हित भी साख बचाने में है। सब चोर हैं का जुम्ला उसके साथ नहीं चिपकना चाहिए।

इधर हूट में एक खबर पढ़ने को मिली कि पेड न्यूज़ के मसले पर प्रेस काउंसिल की संशोधित रपट में अनेक कड़वे प्रसंग हट गए हैं। बहुमत के आधार पर तय हुआ कि प्रकाशकों की दीर्घकालीन साख और हितों को जिन बातों से चोट लगे उन्हें हटा देना चाहिए। पर पत्रकारिता की दीर्घकालीन साख और हित-रक्षा किसकी जिम्मेदारी है? कॉमनवैल्थ गेम्स होने चाहिए और हमें एशियाई खेल से भी नहीं भागना चाहिए। यह काम एक गम्भीर और आश्वस्त व्यवस्था ही कर सकती है। इसे सिविल सोसायटी कहते हैं। इसमें मीडिया भी शामिल है। सब चोर हैं का भाव पैदा करने में मीडिया की भूमिका भी है।

अफरा-तफरी के पीछे कौन लोग हैं, यह साफ तौर पर बताने का काम मीडिया का है। इस काम के लिए गम्भीर पत्रकारिता की ज़रूरत है। यही पत्रकारिता भीड़ की मनोवृत्ति से बचाने में सेफ्टी वॉल्व का काम करती है। एक अरसे से खबरों के कान मरोड़कर उन्हें या तो सनसनीखेज़ या मनोरंजक बनाकर पेश करने की प्रवृत्ति हावी है। साख चाहे सरकार की गिरे या बिजनेस हाउसों की जनता की बेचैनी बढ़तीहै। जैसे-जैसे ट्विटर संस्कृति बढ़ेगी, शोर और बढ़ेगा। ऐसे में हर तरह के संस्थानों को अपनी साख के बारे में भी सोचना चाहिए। पत्रकारिता की शिक्षा देने वाले संस्थानों से लेकर मडिया हाउसों तक अपनी साख को लेकर चेतेंगे तब वे उन तरीकों को खोजेंगे, जिनसे साख बनती है या बचती है।


Friday, August 6, 2010

हमारे ग़म और हमारी खुशियाँ

आज तीन तरह की खबरों पर ध्यान जा रहा है। तीनों हमें कुछ न कुछ सोचने को मज़बूर करती हैं। इनमें हमारी कमज़ोरी ज़ाहिर होती है और ताकत भी।


कॉमनवैल्थ गेम्सः अपने देश में अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता कराने के पीछे मोह इस बात का होता है कि हमारी प्रसिद्धि देश के बाहर हो। हम रोल मॉडल बनें। बाहरी देश के पर्यटक और दर्शक हमारे यहाँ आएं। साथ ही व्यापारी और उद्यमी आएं। यहाँ पैसा लगाएं। कारोबार करें। हमारा विकास हो उन्हें भी फायदा मिले। पर कॉमनवैल्थ गेम्स बाद में होंगे। उसके पहले कैसा बखेड़ा खड़ा हो गया है। तीन चीजें साफ नज़र आ रहीं हैं, जो हमारी इज्जत में बट्टा लगाएंगीः-


1. कोई भी काम समय से नहीं हुआ। पिछले रविवार को खेलमंत्री एम एस गिल ने भारतीय मीडिया से कहा, आप फॉज़ीटिव खबरें क्यों नहीं लिखते? इस बीच बीबीसी के किसी रिपोर्टर ने लंदन में 2012 में होने वाले ओलिम्पिक की तैयारी को अपने कैमरे में शूट करके दिखाया। सारे स्टेडियम तैयार हैं। हमारे यहाँ आधे से ज्यादा काम बाकी है। कहाँ है पॉज़ीटिव की गुंजाइश?
2.  काम की क्वालिटी बेहद खराब है। पानी बह रहा है। छतें चू रही हैं। रेलिंगें अभी से उखड़ रहीं हैं।
3. करीब-करीब सारे काम की लागत दस गुना तक बढ़ गई है। ऊपर से भ्रष्टाचार के आरोप। 


दिल्ली शहर ने पिछले दस साल में मेट्रो का निर्माण देखा। वह निर्माण कॉमनवैल्थ के निर्माण से कहीं ज्यादा था। एक-एक चीज़ समय से बनी। लोगों को पता भी नहीं लगा। हर चीज़ अपनी लागत पर बनी। आज दिल्ली में रिक्शे वाला भी कहता है, इससे बेहतर था श्रीधरन को यह काम दे देते। हम बेहतर काम कर सकते हैं, पर कर नहीं पाते।


सुना है इन खेलों में एआर रहमान और कैटरीना कैफ के कार्यक्रम पर 75 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। हमने शायद अपनी पूरी टीम की तैयारी पर इसका चौथाई भी खर्च नहीं किया होगा। बहरहाल जो भी है हास्यास्पद है। 


कश्मीरः मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कल श्रीनगर के शेरे कश्मीर अस्पताल में घायलों का हाल-चाल पता करने गए। दिल्ली के अखबारों में श्रीनगर का जो विवरण आ रहा है उसके अनुसार आंदोलन में महिलाएं आगे आ गईं हैं। इसका मतलब है कि आंदोलन बहुत दूर तक पहुँच गया है। 


टाइम्स ऑफ इंडिया में आरती जेरथ की रिपोर्ट के अनुसार अली शाह गीलानी चाहते हैं कि जनमत संग्रह हो जिसमें कश्मीर के नागरिक तय करें कि उन्हें पाकिस्तान और भारत में किसके साथ रहना है। लगता नहीं कि यह जनमत संग्रह करा पाना सम्भव है। गीलानी पाक-परस्त हैं। यह भी सच है कि इस वक्त घाटी में उनकी बात सुनी जा रही है, पर समूचा नेतृत्व एक नहीं है। सीमा के दोनों ओर कई तरह के सुर हैं। पाक अधिकृत कश्मीर के भीतर पाकिस्तान विरोधी लोग भी हैं।


भारतीय संसद समूचे कश्मीर को अपना मानते हुए प्रस्ताव पास कर चुकी है। यों आजतक जितने भी फॉर्मूले सामने आए हैं, उनमें से किसी को मानने की परिस्थिति नहीं है। 


रतन टाटाः टाटा उद्योग समूह के प्रमुख रतन टाटा ने काम से अवकाश लेने का फैसला किया है। अब उनके उत्तराधिकारी को चुना जाएगा। इसके लिए पाँच सदस्यों की एक कमेटी बनाई गई है। इस कमेटी में रतन टाटा खुद शामिल नहीं हैं। 


रतन टाटा के कार्यकाल में टाटा ने अंतरराष्ट्रीय उद्योग समूह के रूप में अपना स्थान बना लिया है। इस संस्था में अब खानदान नहीं काम महत्वपूर्ण है। इस संस्था की खासियत है कि इसके 66 फीसदी शेयर उन ट्रस्टों के पास हैं, जो सार्वजनिक हित में काम करते हैं। इन ट्रस्टों को यह रकम टाटा परिवार के लोगों ने ही दी थी। 


जैसे मैने शुरू में श्रीधरन का नाम लिया था वैसे ही टाटा समूह का नाम लिया जा सकता है। कर्तव्य परायणता, कुशलता और सुव्यवस्था के मानक भी हमारे पास अपने हैं। अकुशलता, बेईमानी और भ्रष्टाचार के तो हैं ही। इनमें हम किसे आगे बढ़ने देते हैं, यह इस देश लोगों के हाथ में हैं।