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Tuesday, August 1, 2023

सत्तापक्ष और विपक्ष की गठबंधन-राजनीति का एक और नया दौर

भारत के 26 प्रमुख विरोधी-दलों ने 18 जुलाई को बेंगलुरु में नए गठबंधन इंडिया की बुनियाद रखते हुए 2024 के लोकसभा चुनाव का एक तरह से बिगुल बजा दिया है। उसी रोज दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में 38 दलों ने शिरकत करके जवाबी बिगुल बजाया। इन दोनों बैठकों का प्रतीकात्मक महत्व ही था, क्योंकि इसके फौरन बाद 20 जुलाई से संसद का सत्र होने के कारण दोनों पक्ष राजनीतिक गतिविधियों में लग गए। मणिपुर में चल रही हिंसक गतिविधियों के बीच एक भयावह वीडियो के वायरल होने के बाद राजनीतिक टकराव और तीखा हो गया, और फिलहाल दोनों पक्ष अपनी एकता के पैतरों को आजमा रहे हैं।

नए गठबंधन इंडियाऔर पुराने गठबंधन एनडीए की इन बैठकों में संख्याओं के प्रदर्शन के पीछे भी कुछ कारण खोजे जा सकते हैं। विरोधी-एकता की पटना बैठक में 15 पार्टियाँ शामिल हुईं थीं। एक सोलहवीं पार्टी भी थी, जिसके नेता जयंत चौधरी किसी वजह से उस बैठक में नहीं आ पाए थे। वे बेंगलुरु में शामिल हुए। बेंगलुरु में जो 16 नई पार्टियाँ आईं, उनमें कोई नई प्रभावशाली पार्टी नहीं थी। तीन तो वाममोर्चा के घटक थे। कुछ तमिल पार्टियाँ थीं, जो कांग्रेस के साथ पहले से गठबंधन में हैं। उधर एनडीए में भी कोई खास नयापन नहीं था। बिहार और उत्तर प्रदेश से जीतन राम मांझी, ओम प्रकाश राजभर चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा के शामिल होने से यह संख्या बढ़ी हुई लगती है। इसके अलावा पूर्वोत्तर की अनेक छोटी-छोटी पार्टियाँ हैं, जिनकी लोकसभा में उपस्थिति नहीं है।

दोनों के संशय

इन दोनों बैठकों से एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दोनों गठबंधनों के भीतर असुरक्षा का भाव है। कांग्रेस पार्टी दस साल सत्ता से बाहर रहने के कारण जल बिन मछली बनी हुई है। छोटे क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाएं जाग रही हैं कि शायद उन्हें कुछ मिल जाए। बीजेपी के बढ़ते प्रभाव और ईडी वगैरह के दबाव के कारण इन्हें अस्तित्व का संकट भी नज़र आ रहा है।

दूसरी तरफ यह भी लगता है कि बीजेपी ने 2019 में पीक हासिल कर लिया था। क्या अब ढलान है? इस ढलान से तभी बच सकते हैं, जब नए क्षेत्रों में प्रभाव बढ़े। बीजेपी-समर्थक चाहते है कि उसके एजेंडा को जल्द से जल्द हासिल करने के लिए कम से कम इसबार तो सरकार बननी ही चाहिए। यह एजेंडा एक तरफ हिंदुत्व से जुड़ा है, वहीं राष्ट्रीय-एकता और वैश्विक-मंच पर महाशक्ति के रूप में उभरने पर। उन्हें यह भी दिखाई पड़ रहा है कि पार्टी की ताकत इस समय नरेंद्र मोदी है, पर उसके बाद क्या?

Friday, August 19, 2022

बिहार का बदलाव विरोधी दलों की राष्ट्रीय-राजनीति का प्रस्थान-बिंदु बनेगा

बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की जोड़ी ने शपथ लेकर एक नई राजनीतिक शुरुआत की है। इससे बिहार में ही नहीं देशभर में विरोधी दलों का आत्मविश्वास लौट आया है। पहली बार भारतीय जनता पार्टी अर्दब में दिखाई पड़ रही है। सवाल है कि राज्य की राजनीति अब किस दिशा में बढ़ेगी? क्या तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी की समझदारी बढ़ी है? नए सत्ता समीकरणों में कांग्रेस की भूमिका क्या है? शेष छोटे दलों का व्यवहार कैसा रहेगा वगैरह? ये सवाल बिहार तक ही सीमित नहीं हैं। इस बदलाव को विरोधी दलों की राष्ट्रीय-राजनीति का प्रस्थान-बिंदु बनना चाहिए।  

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक अरसे से प्रयास कर रही हैं कि बीजेपी के आक्रामक रवैए को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी दलों को एकजुट होना चाहिए। ममता बनर्जी ने बिहार में हुए परिवर्तन पर खुशी जाहिर की है। तृणमूल कांग्रेस ने नीतीश कुमार के कदम का स्वागत किया है और कहा है कि भाजपा सत्ता हथियाने के साथ सहयोगी दलों के अस्तित्व में विश्वास नहीं करती है।

तेजस्वी यादव ने भी इसी बात को दोहराया है। उन्होंने कहा कि हिंदी पट्टी वाले राज्यों में बीजेपी का अब कोई भी अलायंस पार्टनर नहीं बचा। बीजेपी क्षेत्रीय पार्टियों का इस्तेमाल करती है, फिर उन्हीं पार्टियों को ख़त्म करने के मिशन में जुट जाती है। बिहार में यही करने की कोशिश हो रही थी। बीजेपी के राष्ट्रीय अभियान का प्रतिरोध नहीं हुआ, तो वह समूची राजनीति पर बुलडोजर चला देगी।

Wednesday, April 13, 2022

महाराष्ट्र के सत्तारूढ़ गठबंधन में दरार


पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को मिली विफलता के परिणाम देखने को मिलने लगे हैं। पराजय का असर है कि कुछ राज्यों से सम्भावित-भगदड़ के संकेत हैं। महाराष्ट्र और झारखंड में सुगबुगाहट है। खासतौर से महाराष्ट्र से किसी भी समय बड़े राजनीतिक-परिवर्तन की खबर आ जाए, तो हैरत नहीं होगी। कहीं न कहीं कुछ पक रहा है। एक तरफ शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस पार्टी के महा विकास अघाड़ी के बीच दरार बढ़ी है, वहीं तीनों पार्टियों के भीतर से खटपट सुनाई पड़ने लगी है।

हाई कमान से मुलाकात

सबसे बड़ा असमंजस कांग्रेस के भीतर है। पार्टी के विधायकों का एक दल अप्रैल के पहले हफ्ते में हाईकमान से मिलने दिल्ली आया। सूचना थी कि विधायकों की 3 या 4 अप्रैल को हाईकमान से मुलाकात होगी। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक विधायकों की मुलाकात पार्टी के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और महासचिव केसी वेणुगोपाल से हुई भी है। ये विधायक सोनिया गांधी या राहुल गांधी से मिलने के इच्छुक बताए जाते हैं। उस मुलाकात की जानकारी नहीं है। यह मुलाकात होगी या नहीं, यह भी स्पष्ट नहीं है।

दिल्ली आए विधायकों ने एक टीवी चैनल से बात करते हुए कहा 'सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद ही सनसनीखेज खुलासे होंगे।' उधर पार्टी का शीर्ष नेतृत्व तमाम संगठनात्मक गतिविधियों से घिरा है। संसद के बजट सत्र का समापन होने वाला है। कुछ और राज्यों से असंतोष की खबरें हैं। शीर्ष नेतृत्व ने जी-23 के नेताओं से भी संवाद शुरू किया है। दूसरी तरफ लगता है कि सुनवाई नहीं हुई, तो महाराष्ट्र का असंतोष मुखर होता जाएगा।

पराजय से निराशा

गत 10 मार्च को विधान सभा चुनाव परिणाम आने के कुछ दिन बाद शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य मजीद मेमन ने एक ट्वीट में लिखा कि पीएम मोदी में कुछ गुण होंगे या उन्होंने कुछ अच्छे काम किए होंगे, जिसे विपक्षी नेता ढूंढ नहीं पा रहे हैं। उनकी यह टिप्पणी ऐसे समय में आई थी, जब नवाब मलिक की गिरफ्तारी को लेकर उनकी पार्टी और केंद्र सरकार के बीच तलवारें तनी हुईं थीं। मजीद मेमन वाली बात तो आई-गई हो गई, पर अघाड़ी सरकार के भीतर की कसमसाहट छिप नहीं पाई।

Tuesday, September 28, 2021

जर्मनी में सोशल डेमोक्रेट सबसे आगे, पर सरकार गठबंधन की बनेगी


 रविवार को हुए जर्मनी के चुनाव में देश की सबसे पुरानी सोशल डेमोक्रेट पार्टी (एसपीडी) सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आई है, पर उसे सरकार बनाने के लिए गठबंधन करना होगा। शुरुआती परिणामों के आधार पर माना जा रहा है कि सेंटर-लेफ्ट सोशल डेमोक्रेट्स ने मामूली अंतर से चांसलर अंगेला मैैर्केल की पार्टी को देश के संघीय चुनावों में हरा दिया है। एसपीडी ने 25.7% वोट हासिल किए हैं, वहीं सत्तारुढ़ कंजर्वेटिव गठबंधन सीडीयू-सीएसयू ने 24.1% वोट हासिल किए हैं। जर्मन रेडियो के अनुसार चांसलर अंगेला मैर्केल की सीडीयू-सीएसयू ने चुनावों में अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया है।

बीबीसी हिन्दी के अनुसार ग्रीन्स पार्टी ने अपने इतिहास में सबसे बड़ा परिणाम हासिल करते हुए तीसरे स्थान पर क़ब्ज़ा किया है और 14.8% वोट हासिल किए हैं। सरकार बनाने के लिए अब एक गठबंधन ज़रूर बनाना होगा। शुरुआती परिणामों में बढ़त बनाने के बाद एसपीडी के नेता ओलाफ शॉल्त्स ने पहले कहा था कि उनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलेगा और वह सरकार बनाएगी। जब उनसे पूछा गया कि क्या इससे देश में अस्थिरता का माहौल बनेगा, उन्होंने कहा हमारे यहाँ लम्बे अरसे से गठबंधन सरकारें ही बनती आ रही हैं। सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी 2005 के बाद पहली बार सत्ता में आ सकती है।

एक्ज़िट पोल्स में भविष्यवाणी की गई थी कि चुनाव में कुछ भी परिणाम आ सकते हैं और यह चुनाव शुरुआत से ही अप्रत्याशित था और इसका परिणाम भी इस कहानी को ख़त्म करने नहीं जा रहा है। यह भी याद रखना होगा कि जब तक गठबंधन नहीं बन जाता तब तक चांसलर अंगेला मर्केल कहीं जाने वाली नहीं हैं। नए गठबंधन को क्रिसमस तक का इंतज़ार करना होगा। मर्केल पहले ही कह चुकी हैं कि मुझे चांसलर नहीं बनना।

Sunday, October 25, 2020

चुनावी ज़ुनून में कोरोना की अनदेखी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों के साथ बिहार विधानसभा चुनाव के पहले दौर का प्रचार चरम पर पहुँच रहा है। देश की निगाहें इस वक्त दो-तीन कारणों से बिहार पर हैं। महामारी के दौर में हो रहा यह पहला चुनाव है। चुनाव प्रचार और मतदान की व्यवस्थाओं का कोरोना संक्रमण पर असर होगा। राजनीतिक दल प्रचार के जुनून में अपनी जिम्मेदारियों की अनदेखी कर रहे हैं। चुनाव आयोग असहाय है।

पिछले साल लोकसभा चुनाव के बाद सात विधानसभाओं के चुनाव भी हुए थे। और इस साल के शुरू में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए। इन चुनावों का निष्कर्ष है कि फिलहाल वोटर के मापदंड लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए अलग-अलग हैं। उत्तर भारत की सोशल इंजीनियरी के लिहाज से बिहार के चुनाव बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। सन 2015 के चुनाव में बिहार ने ही महागठबंधन की अवधारणा दी थी। प्रकारांतर से भारतीय जनता पार्टी ने विरोधी दलों की उस रणनीति का जवाब खोज लिया और उत्तर प्रदेश में वह प्रयोग सफल नहीं हुआ। बिहार में भी अंततः महागठबंधन टूटा।

Saturday, December 29, 2018

गठबंधन का महा-गणित


http://epaper.navodayatimes.in/1957596/Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/8/1
देश में गठबंधन राजनीति के बीज 1967 से पहले ही पड़ चुके थे, पर केन्द्र में उसका पहला तजुरबा 1977 में हुआ। फिर 1989 से लेकर अबतक इस दिशा में लगातार प्रयोग हो रहे हैं और लगता है कि 2019 का चुनाव गठबंधन राजनीति के प्रयोगों के लिए भी याद रखा जाएगा। सबसे ज्यादा रोचक होंगे, चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात इसमें आने वाले बदलाव। तीसरे मोर्चे या थर्ड फ्रंट का जिक्र पिछले चार दशक से बार-बार हो रहा है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि यह पूरी तरह बन गया हो और ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि इसे बनाने की प्रक्रिया में रुकावट आई हो। फर्क केवल एक आया है। पहले इसमें एक भागीदार जनसंघ (और बाद में भाजपा) हुआ करता था। अब उसकी जगह कांग्रेस ने ले ली है। यानी तब मोर्चा कांग्रेस के खिलाफ होता था, अब बीजेपी के खिलाफ है। फिलहाल सवाल यह है कि गठबंधन होगा या नहीं? और हुआ तो एक होगा या दो?  

पिछले तीन दशक से इस फ्रंट के बीच से एक नारा और सुनाई पड़ता है। वह है गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस गठबंधन का। इस वक्त गैर-भाजपा महागठबंधन और गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस संघीय मोर्चे दोनों की बातें सुनाई पड़ रहीं हैं। अभी बना कुछ भी नहीं है और हो सकता है राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए और यूपीए के अलावा कोई तीसरा गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बने ही नहीं। अलबत्ता क्षेत्रीय स्तर पर अनेक गठबंधनों की सम्भावनाएं इस वक्त तलाशी जा रहीं हैं। साथ ही एनडीए और यूपीए के घटक दलों की गतिविधियाँ भी बढ़ रहीं हैं। सीट वितरण का जोड़-घटाना लगने लगा है और उसके कारण पैदा हो रही विसंगतियाँ सामने आने लगी हैं। कुछ दलों को लगता है कि हमारी हैसियत अब बेहतर हुई है, इसलिए यही मौका है दबाव बना लो, जैसाकि हाल में लोजपा ने किया।  

Saturday, November 10, 2018

गठबंधन-परिवार के स्वप्न-महल

कर्नाटक में लोकसभा की तीन और विधानसभा की दो सीटों पर हुए उपचुनाव ने महागठबंधन-परिवार में अचानक उत्साह का संचार कर दिया है। कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर बीजेपी को बौना बना दिया है। बीजेपी का गढ़ माने जाने वाले बेल्लारी में भारी पराजय से बीजेपी नेतृत्व का चेहरा शर्म से लाल है। नहीं जमखंडी की लिंगायत बहुल सीट हारने का भी उन्हें मलाल है। पार्टी के भीतर टकराव के संकेत मिल रहे हैं। यूपी के बाद कर्नाटक का संदेश है कि विरोधी दल मिलकर चुनाव लड़ें तो बीजेपी को हराया जा सकता है। कांग्रेस इस बात को जानती है, पर वह समझना चाहती है कि यह गठबंधन किसके साथ और कब होगा? यह राष्ट्रीय स्तर पर होगा या अलग-अलग राज्यों में?
इन परिणामों के आने के पहले ही तेदेपा के चंद्रबाबू नायडू ने दिल्ली आकर राहुल गांधी समेत अनेक नेताओं से मुलाकात की थी और 2019 के बारे में बातें करनी शुरू कर दी। सपनों के राजमहल फिर से बनने लगे हैं। पर गौर करें तो कहानियाँ लगातार बदल रहीं हैं। साल के शुरू में जो पहल ममता बनर्जी और के चंद्रशेखर राव ने शुरू की थी, वह इसबार आंध्र से शुरू हुई है।
महत्वपूर्ण पड़ाव कर्नाटक
कर्नाटक विधानसभा के चुनाव इस साल एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुए हैं। यहाँ कांग्रेस ने त्याग किया है। पर क्या यह स्थायी व्यवस्था है?  क्या कांग्रेस दिल्ली में भी त्याग करेगी?  क्या चंद्रबाबू पूरी तरह विश्वसनीय हैं? बहरहाल उनकी पहल के साथ-साथ तेलंगाना के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-तेदेपा गठबंधन का लांच भी हुआ है। अब चंद्रबाबू चाहते हैं कि महागठबंधन जल्द से जल्द बनाना चाहिए, उसके लिए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों का इंतजार नहीं करना चाहिए।

Sunday, August 12, 2018

गठबंधन-प्रति-गठबंधन

संसद के मॉनसून सत्र के पूरा होते ही राजनीतिक जोड़-घटाना शुरू हो गया है। जिस तरह महाभारत में युद्ध के पहले दोनों पक्षों की ओर से लड़ने वाले महारथियों के नाम सामने आने लगे थे, करीब उसी तरह राज्यसभा के उप-सभापति पद के चुनाव के बाद देश की राजनीतिक स्थिति नज़र आने लगी है। एनडीए प्रत्याशी हरिवंश की जीत की उम्मीद थी भी, तो इतनी आसान नहीं थी। सत्ता पक्ष ने पहले टाला और फिर अचानक चुनाव करा लिया। इस दौरान उसने अपने समीकरणों को ठीक कर लिया। फिलहाल एनडीए के चुनाव मैनेजमेंट की चुस्ती साबित हुई, वहीं विरोधी-एकता के अंतर्विरोध भी उभरे। अभी बहुत से किन्तु-परन्तु फिर भी बाकी हैं।

एनडीए जहाँ नरेन्द्र मोदी को आगे रखकर चुनाव मैदान में उतर रहा है वहीं विरोधी दलों का कहना है कि नेतृत्व का सवाल चुनाव परिणाम आने के बाद देखा जाएगा। कांग्रेस ने संकेत दिया है कि नेतृत्व को लेकर वह खुले मन से विचार कर रही है। उसे कोई दूसरा नेता भी स्वीकार हो सकता है। यानी कि ममता बनर्जी और मायावती के दावों को भी स्वीकार कर सकते हैं। अभी बातें संकेतों में हैं, जिन्हें स्पष्ट शब्दों में कहने के रणनीतिक जोखिम हैं। वस्तुतः अभी महागठबंधन की शक्ल भी साफ नहीं है। फिलहाल महागठबंधन का ‘कोर’ यानी कि केन्द्र नजर आने लगा है, पर यह भी करीब-करीब तय सा लग रहा है कि बीजद, टीआरएस और अद्रमुक इसके साथ नहीं है।

Monday, July 17, 2017

नए दौर में प्रवेश करती भारतीय राजनीति

राजनीतिक गलियारों में डेढ़-दो महीने की अपेक्षाकृत चुप्पी के बाद आज दो बड़ी राजनीतिक घटनाएं होने जा रहीं हैं, जिनका राजनीति पर असर देखने को मिलेगा. देश के चौदहवें राष्ट्रपति के चुनाव के अलावा संसद का मॉनसून सत्र आज शुरू हो रहा है. सोलहवीं लोकसभा के तीन साल गुजर जाने के बाद यह पहला मौका है, जब 18 विरोधी दल एक सामूहिक रणनीति के साथ संसद में उतर रहे हैं. पिछले मंगलवार को इन दलों ने उप-राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी का नाम तय करने के साथ अपनी भावी रणनीति का खाका भी तय किया है. ये दल अब महीने में कम से कम एक बार बैठक करेंगे. ये बैठकें दिल्ली में ही नहीं अलग-अलग राज्यों में होंगी. ज्यादा महत्वपूर्ण है संसदीय गतिविधियों में इनका समन्वय. राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया अब क्रमशः तेज होगी.

Monday, May 23, 2016

क्षेत्रीय क्षत्रप क्या बीजेपी के खिलाफ एक होंगे?

इस चुनाव को बंगाल में दीदी और तमिलनाडु में अम्मा की जीत के कारण याद रखा जाएगा। इनके अलावा केरल के पूर्व मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन को उनकी छवि के कारण पहचाना जाएगा। कुछ नाम और हैं जो कल तक राष्ट्रीय स्तर पर ज्यादा जाने-पहचाने नहीं हुए थे। इनमें हिमंत विश्व सरमा, सर्बानंद सोनोवाल, पी विजयन और ओ राजगोपाल शामिल हैं।

Sunday, March 27, 2016

अंतर्विरोधों से घिरी है जनता-कांग्रेस एकता

बारह घोड़ों वाली गाड़ी

चुनावी राजनीति ने भारतीय समाज में निरंतर चलने वाला सागर-मंथन पैदा कर दिया है। पाँच साल में एक बार होने वाले आम चुनाव की अवधारणा ध्वस्त हो चुकी है। हर साल किसी न किसी राज्य की विधानसभा का चुनाव होता है। दूसरी ओर राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का हस्तक्षेप बढ़ा है। गठबंधन बनते हैं, टूटते हैं और फिर बनते हैं। यह सब वैचारिक आधार पर न होकर व्यक्तिगत हितों और फौरी लक्ष्यों से निर्धारित होता है। किसी के पास दीर्घकालीन राजनीति का नक्शा नजर नहीं आता।
अगले महीने हो रहे विधानसभा चुनाव के पहले चारों राज्यों में चुनाव पूर्व गठबंधनों की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में है। बंगाल में वामदलों के साथ कांग्रेस खड़ी है, पर तमिलनाडु और केरल में दोनों एक-दूसरे के सामने हैं। यह नूरा-कुश्ती कितनी देर चलेगी? नूरा-कुश्ती हो या नीतीश का ब्रह्मास्त्र राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी का एक विरोधी कोर ग्रुप जरूर तैयार हो गया है। इसमें कांग्रेस, वामदलों और जनता परिवार के कुछ टूटे धड़ों की भूमिका है। पर इस कोर ग्रुप के पास उत्तर प्रदेश का तिलिस्म तोड़क-मंत्र नहीं है।
ताजा खबर यह है कि जनता परिवार को एकजुट करने की तमाम नाकाम कोशिशों के बाद जदयू, राष्ट्रीय लोकदल, झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) और समाजवादी जनता पार्टी (रा) बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में विलय की संभावनाएं फिर से टटोल रहे हैं। नीतीश कुमार, जदयू अध्यक्ष शरद यादव, रालोद प्रमुख अजित सिंह, उनके पुत्र जयंत चौधरी और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की 15 मार्च को नई दिल्ली में इस सिलसिले में हुई बैठक में बिहार के महागठबंधन का प्रयोग दोहराने पर विचार किया गया।

Saturday, November 28, 2015

अब गैर-भाजपा राजनीति का दौर

लोकसभा चुनाव के पहले तक देश में तीसरे या चौथे मोर्चे की अवधारणा गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा मोर्चे के रूप में होती थी, पर पछले कुछ समय से गैर-भाजपा मोर्चा बनाने की कोशिशें तेज हो गई हैं। इनमें कांग्रेस भी शामिल है। इससे दो बातें साबित होती हैं। एक- भाजपा देश की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बन गई है और दूसरे भाजपा का विकल्प कांग्रेस नहीं है। धर्म निरपेक्ष राजनीति के झंडे तले तमाम क्षेत्रीय ताकतों को एक करने की कोशिश हो रही है। प्रश्न है कि कांग्रेस इस ताकत का नेतृत्व करेगी या इनमें से एक होगी? सन 2016 के विधानसभा चुनावों में इसका जवाब मिलेगा। 

सन 1962 के आम चुनाव तक भारतीय राजनीति निर्विवाद रूप से एकदलीय थी। सन 1967 में गठबंधनों का एक नया दौर शुरू होने के बावजूद 1971 तक इस राजनीति का रूप एकदलीय रहा। जो कुछ भी था एकदलीय था और विपक्ष माने गैर-कांग्रेसवाद। गैर-कांग्रेसवाद 1967 के बाद प्रचलित नारा था। पर गैर-कांग्रेसवाद का अर्थ जनसंघवाद या कम्युनिस्ट पार्टी वाद नहीं था। कोई भी पार्टी ऐसी नहीं थी, जो कांग्रेस का विकल्प बनती। इसीलिए 1977 में जब देश की जनता ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने का मन बनाया तो विकल्प एक गठजोड़ के रूप में सामने आया, जिसके पास कोई साझा विरासत नहीं थी। यह गठजोड़ दो साल के भीतर बिखर गया।

Saturday, November 21, 2015

गठबंधन-चातुर्य और राजनीति का महा-मंथन

इस साल संसद का मॉनसून सत्र सूखा रहा। पूरे सत्र में सकारात्मक संसदीय कर्म ठप रहा। अब शीत सत्र सामने है। इसमें क्या होने वाला है? सरकार क्या अपने विधेयकों को पास करा पाएगी? क्या वह भारतीय राजनीति के ज्वलंत सवालों का ठीक से जवाब देगी? दूसरी ओर सवाल यह भी है कि क्या विपक्ष एक होकर किसी नई राष्ट्रीय ताकत को तैयार करेगा? बिहार विधान सभा के चुनाव परिणामों से उत्साहित विपक्ष क्या अपनी एकता को संसद में भी साबित करेगा? भाजपा-विरोधी इस राजनीति का नेतृत्व कौन करेगा? यह एकता क्या भविष्य के विधान सभा चुनावों में भी देखने को मिलेगी? 

बिहार-परिणाम के विश्लेषक अब भी इस गुत्थी से उलझे पड़े हैं कि भाजपा की पराजय के पीछे महागठबंधन का जातीय-साम्प्रदायिक गणित था या उसकी असहिष्णु राजनीति। भविष्य की राजनीति का रिश्ता इस सवाल से जुड़ा है। और पूरे देश की राजनीति सोशल इंजीनियरी से जुड़ी है। इस जातीय गणित की अगली महा-परीक्षा अब 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में होगी। महागठबंधन बिहार की परिस्थितियों से मेल खाता था। देखना होगा कि दूसरे राज्यों में वह किस रूप में बनेगा। और यह भी कि उसका नेतृत्व कौन करेगा?   

बिहार में एनडीए की विफलता और महागठबंधन की सफलता से कांग्रेस प्रफुल्लित जरूर है, पर आने वाले समय में उसके सामने नेतृत्व की चुनौती खड़ी होगी। अब वह जमाना नहीं रहा जब शेर के नेतृत्व में जंगल के सारे जानवर लाइन लगाकर चलते थे। अब सबकी महत्वाकांक्षाएं हैं। जेडीयू का नेतृत्व नीतीश कुमार को नए राष्ट्रीय नेता के रूप में खड़ा करना चाहता है। नीतीश कुमार का शपथ ग्रहण समारोह इसीलिए विपक्ष की एकता के महा-सम्मेलन जैसा बन गया। पर उसके अंतर्विरोध भी छिपे हैं। महागठबंधन के आलोचकों को लालू-नीतीश दोस्ती की दीर्घायु को अब भी लेकर संदेह है।
बिहार में महागठबंधन बनाने में नीतीश कुमार की कोशिशों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पर जेडीयू की निगाह गैर-कांग्रेस विपक्ष पर है। पार्टी के महासचिव केसी त्यागी ने हाल में कहा है कि जदयू, तृणमूल और आम आदमी पार्टी कई मुद्दों पर समान विचारों वाले हैं और देश में सहयोगात्मक संघवाद को मजबूत करने का समय आ गया है। इस संघवाद को जोड़ने लायक लम्बा धागा कांग्रेस या भाजपा के पास ही है। अतीत में इसमें वाम मोर्चा की भूमिका रही है, जो अभी पृष्ठभूमि में है। वामपंथी सामने आए तो इस मोर्चे के अंतर्विरोध मुखर होंगे।

Saturday, June 13, 2015

बिहार में बोया क्या यूपी में काट पाएंगे मुलायम?

बिहार में जनता परिवार के महागठबंधन पर पक्की मुहर लग जाने और नेतृत्व का विवाद सुलझ जाने के बाद वहाँ गैर-भाजपा सरकार बनने के आसार बढ़ गए हैं। भाजपा के नेता जो भी कहें, चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों का अनुमान यही है। इस गठबंधन के पीछे लालू यादव और नीतीश कुमार के अलावा मुलायम सिंह यादव और कांग्रेस के राहुल गांधी की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही है। लगता है कि बिहार में दिल्ली-2015 की पुनरावृत्ति होगी, भले ही परिणाम इतने एकतरफा न हों। ऐसा हुआ तो पिछले साल लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिले स्पष्ट बहुमत का मानसिक असर काफी हद तक खत्म हो जाएगा। नीतीश कुमार, लालू यादव, मुलायम सिंह और राहुल गांधी तीनों अलग-अलग कारणों से यही चाहते हैं। पर क्या चारों हित हमेशा एक जैसे रहेंगे?

Saturday, November 15, 2014

बिखरे जनता परिवार की एकता?

 क्षेत्रीय राजनीति के लिए सही मौका है और दस्तूर भी,
पर इस त्रिमूर्ति का इरादा क्या है?
पिछले हफ्ते दिल्ली में बिखरे हुए जनता परिवार को फिर से बटोरने की कोशिश के पीछे की ताकत और सम्भावनाओं को गम्भीरता के साथ देखने की जरूरत है। इसे केवल भारतीय जनता पार्टी को रोकने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। व्यावहारिक रूप से यह पहल ज्यादा व्यापक और प्रभावशाली हो सकती है। खास तौर से कांग्रेस के पराभव के बाद उसकी जगह को भरने की कोशिश के रूप में यह सफल भी हो सकती है। भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय राजनीति को एक-ध्रुवीय बना दिया है। उसके गठबंधन सहयोगी भी बौने होते जा रहे हैं। ऐसे में क्षेत्रीय राजनीति को भी मंच की तलाश है। संघीय व्यवस्था में क्षेत्रीय आकांक्षाओं को केवल राष्ट्रीय पार्टी के भरोसे छोड़ा नहीं जा सकता। पर सवाल यह है कि लालू, मुलायम, नीतीश पर केंद्रित यह पहल क्षेत्रीय राजनीति को मजबूत करने के वास्ते है भी या नहीं? इसे केवल अस्तित्व रक्षा तक सीमित क्यों न माना जाए?

Sunday, October 19, 2014

आत्मनिर्भर भाजपा की आहट

आज हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम वैसे ही रहे जैसे कि एक्ज़िट पोल बता रहे हैं तब भारतीय राजनीति में तीन नई प्रवृत्तियाँ सामने आएंगी। भाजपा निर्विवाद रूप से देश की सबसे प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी बनेगी। दूसरे कांग्रेस के सामने क्षेत्रीय दल बनने का खतरा पैदा हो जाएगा। तीसरे क्षेत्रीय दलों के पराभव का नया दौर शुरू होगा। भाजपा को अब दिल्ली विधानसभा के चुनाव कराने का फैसला लाभकारी लगेगा। मोदी लहर को खारिज करने वाले खारिज हो जाएंगे। और अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी के नए नेतृत्व को मान्यता मिल जाएगी। 

इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को प्रतीकात्मक सफलता भी मिली तो ठीक। वरना पार्टी अंधे कुएं में जा गिरेगी। दूसरी ओर गठबंधन सहयोगियों के बगैर चुनाव में सफल हुई भाजपा के आत्मविश्वास में कई गुना वृद्धि होगी। अब सवाल है कि क्या पार्टी एनडीए को बनाए रखना चाहेगी? क्या क्षेत्रीय दलों के लिए यह खतरे की घंटी है? और क्या इसके कारण राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा-विरोधी मोर्चे को बनाने की मुहिम जोर नहीं पकड़ेगी?

Saturday, August 30, 2014

बिहार-प्रयोग के किन्तु-परन्तु

बिहार के विधान सभा उपचुनावों में जीत के बाद जेडीयू के अध्यक्ष शरद यादव ने कहा है कि उन्हें पहले से पता था कि गठबंधन की जीत होगी। अब इस एजेंडे को देश भर में ले जाएंगे। जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस महागठबंधन के नेताओं का कहना है कि जनता ने साबित किया है कि नरेंद्र मोदी के रथ को आसानी से रोका जा सकता है। लालू और नीतीश ने कांग्रेस को साथ लेकर मोर्चा बनाने का जो प्रयोग किया वह अपनी पहली परीक्षा में सफल साबित हुआ। इन परिणामों से यह बात तो साबित हुई कि इन दोनों नेताओं का पिछड़ी जातियों में जनाधार मजबूत है और यह भी कि लोकसभा चुनाव में बिहार में एनडीए को मिली जीत के पीछे बड़ा कारण 'मोदी लहर' के साथ-साथ वोटों का बिखराव भी था। यह बात भी समझ में आती है कि इस प्रयोग को देश भर में ले जाने की कोशिश की जाएगी।

इस गठबंधन में कोई नई बात है तो बस यही कि यह गैर-भाजपा गठबंधन था, गैर-कांग्रेस गठबंधन नहीं। अतीत में यह एक ही जड़ी का नाम होता था। अब तक ऐसा गठबंधन इसलिए नहीं बना कि कांग्रेस, राजद और जेडीयू तीनों तुर्रम खां थे। अब तीनों डरे हुए हैं। अब देखना होगा कि यह गठबंधन अगले साल विधानसभा चुनाव तक रहता भी है या नहीं। बना रहा तो राष्ट्रीय शक्ल लेगा या नहीं। इनकी टोली में कौन से दल शामिल होंगे और क्यों। यह तीसरा मोर्चा है, चौथा है या एनडीए के जवाब में दूसरे मोर्चे की कोई नई अवधारणा है? यह लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की प्राण-रक्षा है या सुविचारित सैद्धांतिक गठबंधन है? क्या सभी या बहुसंख्यक धर्म निरपेक्ष पार्टियाँ शामिल होंगी?

धुरी में कौन है कांग्रेस या जनता परिवार?
इन सवालों के जवाब पाने के पहले एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या जनता दल का गैर-कांग्रेसवाद अब खत्म हो चुका है? लालू प्रसाद का राजद तो लम्बे अरसे से कांग्रेस के साथ गठबंधन करता आ रहा है, पर जेडीयू ने पहली बार किया। इन चुनाव परिणामों के बाद शरद यादव ने दिल्ली के एक अख़बार से कहा कि जनता दल ने कांग्रेस के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी है, पर अब गैर-कांग्रेसवाद का दौर खत्म हो चुका है। क्या अब जनता परिवार के गठबंधनों में कांग्रेस भी शामिल होगी? लालू और नीतीश की पहचान बिहार के बाहर नहीं है। कांग्रेस की पहचान अखिल भारतीय है। अभी तक तीसरे या चौथे मोर्चे की धुरी वाम मोर्चे की पार्टियाँ बनती थीं। क्या अब कांग्रेस इसकी धुरी बनेगी? यह सोचने में कोई खराबी नहीं कि देश की सारी धर्म-निरपेक्ष पार्टियाँ एक छतरी के नीचे आ जाएं, पर यह व्यावहारिक नहीं है। हमें पहले कांग्रेस के भविष्य का अनुमान लगाना होगा। वह किधर जाने वाली है?

लोकसभा चुनाव के समय ऐसा मोर्चा क्यों नहीं बना? शायद ऐसी पिटाई का अंदेशा न नीतीश कुमार को था और न लालू को। जब जान पर बन आई तब इस मोर्चे का विचार आया है। चुनाव के ठीक पहले जिस धर्मनिरपेक्ष मोर्चे को बनाने की कोशिश की गई थी वह विफल रहा, क्योंकि ममता, जयललिता, नवीन पटनायक और मायावती ने इसमें शिरकत नहीं की। क्षेत्रीय दलों में ये चार सबसे प्रभावी दल हैं। बिहार उपचुनावों के परिणाम आने के बाद मुलायम सिंह यादव ने कहा कि हम उत्तर प्रदेश में ऐसे गठबंधन पर विचार कर सकते हैं, पर मायावती ने इसकी सम्भावना को खारिज कर दिया था। पर क्या मुलायम के उस प्रस्ताव पर मायावती पुनर्विचार करेगी जिसमें बसपा-सपा गठबंधन की बात थी? सन 1993 में उत्तर प्रदेश में सफल होने के बाद पिछले 21 साल से ये दोनों दल एक-दूसरे के मुख्य प्रतिस्पर्धी हैं। उनकी प्रतिस्पर्धा के कारणों को भी समझना होगा। इसी तरह क्या कर्नाटक में जनता परिवार कांग्रेस के साथ आएगा? क्या पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, वाम मोर्चा और कांग्रेस एक साथ आएंगे? क्या इस मोर्चे के प्रस्तावकों के पास तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा, असम, हरियाणा, गुजरात और राजस्थान के लिए भी फॉर्मूले है? मुलायम सिंह, मायावती और कांग्रेस तीनों एक भाजपा को हराने के लिए एकजुट क्यों नहीं हो सकते? क्या ममता बनर्जी और वाम दल मिलकर काम कर सकते हैं?

थोड़ा सा इंतज़ार कीजिए
इन सब बातों के पहले उत्तर प्रदेश में तथा कुछ अन्य राज्यों में 13 सितम्बर को होने वाले उपचुनावों के परिणामों का इंतज़ार भी करना होगा। उसके बाद देखें कि झारखंड में विधान सभा चुनाव में महागठबंधन बनता है या नहीं। फिर महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और सम्भवतः दिल्ली के परिणामों पर नज़र डालनी होगा। बिहारी महागठबंधन की गतिविधियों पर निगाह रखनी होगी। यानी इसका नेता कौन? फिलहाल तो झगड़ा नहीं है, पर अगले साल गठबंधन की जीत हुई तो मुख्यमंत्री कौन? राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की अवधारणा तो और भी महत्वाकांक्षी लगती है। फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन बना तो नेतृत्व किसके पास रहेगा? ऐसे कुछ सवाल हैं, जिनके जवाब पेचीदा हैं।

बिहार के चुनाव परिणामों के गम्भीर निष्कर्ष निकालने के पहले दो-तीन बातों को समझ लिया जाना चाहिए। इन दसों सीटों के चुनावों का मुद्दा लोकसभा चुनाव के मुद्दे से फर्क था। उस चुनाव में राष्ट्रीय राजनीति प्रभावी थी, इसमें स्थानीय मसले हावी थे। लोकसभा चुनाव के भारी मतदान के मुकाबले इस चुनाव में मतदान तकरीबन 20 से 25 फीसदी कम हुआ। जो तबका तब नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट देने के लिए निकला था, वह इस बार नहीं निकला। वह विधान सभा चुनाव में भी वोट नहीं देगा ऐसा नहीं कह सकते। जरूरी नहीं कि वह अगली बार भाजपा को ही वोट दे, पर वह महत्वपूर्ण साबित होगा। उसका वोट जाति और धर्म के बाहर जाकर पड़ता है। भाजपा का रूप विधान सभा चुनाव में क्या होगा कहना मुश्किल है। जातीय ध्रुवीकरण की काट में क्या वह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के रास्ते पर जाएगी? उत्तर प्रदेश भाजपा अपेक्षाकृत आक्रामक है और हिन्दुत्व की लाइन पर जा रही है।

भाजपा को रोका जा सकता है
बिहार के इन परिणामों ने यह साबित किया है कि भाजपा को रोकना मुश्किल काम नहीं है, बशर्ते स्थानीय नेता त्याग करें। किसी ताकत को रोकना एक बात है और एक सुगठित, सुचारु विकल्प कायम करना दूसरा काम है। गठबंधन हमारी ही नहीं दुनिया भर की राजनीति का सत्य बनकर उभरे हैं। सन 2010 में ब्रिटेन में लिबरल डेमोक्रेट और कंजर्वेटिव पार्टियों के बीच अचानक गठबंधन बना, पर दोनों पार्टियों ने काफी पेपरवर्क करके उसे सलीके से औपचारिक रूप दिया। बावजूद इसके वहाँ भी बगावत होती रहती है। सन 2015 में दोनों पार्टियों को अलग-अलग चुनाव लड़ना है इसलिए वहाँ असहमतियाँ दिखाई पड़ने लगी हैं। गठबंधन का लक्ष्य सत्ता को हासिल करना है, उसे सिद्धांत से सजाने का काम राजनीतिक कौशल से जुड़ा है। बिहार में लालू-नीतीश कौशल ने काम किया, पर कब तक और कहाँ तक?
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित

Wednesday, November 20, 2013

गठबंधनों का गड़बड़झाला


लालू यादव से किसी टीवी चैनल के एंकर ने कहा, आपकी तो रीजनल पार्टी है. लालू बोले रीजनल नहीं ओरीजनल पार्टी है. लालू प्रसाद ने जवाब क्या सोचकर दिया था पता नहीं, पर इतना तय है कि वे भारत की ग्रासरूट राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस लिहाज से उनकी राजनीति ओरीजनल है. वे इस वक्त परेशानी से घिरे हैं, पर यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि उनकी राजनीति खत्म हो गई. उसका एक नया दौर शुरू हुआ है. तमाम क्षेत्रीय क्षत्रपों की तरह लालू यादव भी सन 2014 के चुनाव के बाद देश में बुनी जाने वाली राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे. वे खुद चुनाव लड़ें या न लड़ें.

गठबंधन भारतीय राजनीति का मूल तत्व है. चाहे वह 1962 तक की कांग्रेस के एकछत्र शासन की राजनीति हो या यूपीए-2 की गड़बड़झाला राजनीति. इस राजनीति के तमाम गुण-दोष हैं. इसके साथ विचार-दर्शन और सिद्धांत हैं और शुद्ध मतलब-परस्ती भी. इसके अंतर में सम्प्रदाय और जाति के कारक हैं जो इसे संकीर्ण बनाते हैं, पर क्षेत्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के दर्शन भी इसी के मार्फत होते हैं. हाँ, इन गठबंधनों में विचारधारा कम, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या गुटबाजी हावी रहती हैं. गठबंधनों के कारणों के तफसील में जाएंगे तो यही बात उजागर होगी.

Saturday, June 22, 2013

गली-गली तैयार हैं प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी

जनता पार्टी एक प्रकार का गठबंधन था, नहीं चला। जनता दल भी गठबंधन था। राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा भी गठबंधन थे जो साल, डेढ़ साल से ज्यादा नहीं चले। इनके बनने के मुकाबले बिगड़ने के कारण ज्यादा महत्वपूर्ण थे। राजनीतिक गठबंधनों का इतिहास बताता है कि इनके बनते ही सबसे पहला मोर्चा इनके भीतर बैठे नेताओं के बीच खुलता है। पिछले दो साल से सुनाई पड़ रहा है कि यह क्षेत्रीय दलों का दौर है। इस उम्मीद ने लगभग हर प्रांत में प्रधानमंत्री पद के दो-दो तीन-तीन दावेदार पैदा कर दिए हैं। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण ये मोर्चे बनने से पहले ही टूटने लगते हैं। वर्तमान कोशिशें भी उत्साहवर्धक संकेत नहीं दे रहीं हैं।

छत्रप शब्द पश्चिमी लोकतंत्र से नहीं आया है। आधुनिक भारतीय राजनीति पर परम्परागत क्षेत्रीय सूबेदारों के हावी होने की वजह है हमारी भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता। एक धीमी प्रक्रिया से क्षेत्रीयता और राष्ट्रीयता का समागम हो रहा है। प्रमाण है पार्टियों की बढ़ती संख्या। सन 1951 के चुनाव में हमारे यहाँ 14 राष्ट्रीय और 39 अन्य पार्टियाँ थीं। इनमें से 11 राष्ट्रीय पार्टियों के 418, अन्य के 34 और 37 निर्दलीय प्रत्याशी जीते थे। जबकि 2009 के लोकसभा चुनाव में 363 पार्टियाँ उतरीं थीं। इनमें 7 राष्ट्रीय, 34 प्रादेशिक और 242 पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियाँ थीं। इनमें से 38 पार्टियों के और 9 निर्दलीय सांसद वर्तमान लोकसभा में हैं।