जापान में बौद्ध धर्म चीन और कोरिया के रास्ते गया था। पर
सन 723 में बौद्ध भिक्षु बोधिसेन का जापान-प्रवास भारत-जापान रिश्तों में मील का
पत्थर है। बोधिसेन आजीवन जापान में रहे। भारत में जापान को लेकर और जापान में भारत
के प्रति श्रद्धा का भाव है। बोधिसेन को जापान के सम्राट शोमु ने निमंत्रित किया
था। वे अपने साथ संस्कृत का ज्ञान लेकर गए थे और माना जाता है कि बौद्ध
भिक्षु कोबो दाइशी ने 47 अक्षरों वाली जापानी अक्षरमाला को संस्कृत की पद्धति पर
तैयार किया था। जापान के परम्परागत संगीत पर नृत्य पर भारतीय प्रभाव भी है। पर हम
जापानियों को उनकी कर्म-निष्ठा के कारण पहचानते हैं। हाल के वर्षों में चीन ने
दुनिया में अपनी धाक कायम की है, पर जापानियों ने उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही
अपना सिक्का बुलंद कर रखा है।
अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस समेत तमाम देशों के साथ
हमारे रिश्ते रहे हैं, पर दुनिया में एक देश ऐसा है, जिसे लेकर भारतीय जन-मन बेहद
भावुक है। हमारे वैदेशिक सम्बन्धों में अनेक ऐसे मौके आए जब जापान ने हमारा विरोध
किया, खासतौर से 1998 में एटमी धमाकों के बाद फिर भी हमारे यहाँ जापान की छवि कभी
खराब नहीं हुई। आर्थिक प्रगति और पश्चिमी प्रभाव के बाद भी दोनों देशों में
परम्परागत मूल्य बचे हैं। दोनों देश देव और असुर को इन्हीं नामों से पहचानते हैं।
जापान को हम सोनी, टयोटा, होंडा
और सुज़ुकी के कारण भी जानते हैं। दिल्ली की शान मेट्रो के लिए हमें जापान ने
आर्थिक मदद दी थी। सुभाष बोस और रासबिहारी बोस जैसे स्वतंत्रता सेनानी भारत-जापान
के रिश्तों की कड़ी रहे हैं। जापानी लोग जस्टिस राधा विनोद पाल के मुरीद हैं,
जिन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सुदूर पूर्व के लिए बने मिलिटरी
ट्रिब्यूनल के सदस्य जज के रूप में दूसरे जजों के खिलाफ जाकर अकेले जापान के पक्ष
में फैसला सुनाया था।