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Friday, June 9, 2023

संस्कृति और अपनी ज़मीन से जुड़े भारतीय मुसलमान

कुछ प्रसिद्ध मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी

नवंबर 2003 की बात है. अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर ने लोकतंत्र से जुड़े एक कार्यक्रम में कहा कि भारत ने लोकतंत्र और बहुधर्मी-समाज के निर्माण की दिशा में अद्भुत काम किया है. उन्होंने कहा कि भारतीय मुसलमानों ने साबित किया है कि इस्लाम का लोकतंत्र के साथ समन्वय संभव है.

जॉर्ज बुश ने एक जगह इस बात का जिक्र भी किया है कि अल-कायदा के नेटवर्क में भारतीय मुसलमान नहीं हैं. हालांकि बाबरी मस्जिद और गुजरात के प्रकरण के बाद भारतीय मुसलमानों को भड़काने के प्रयास किए गए, पर उन्हें सफलता नहीं मिली.

उसके भी पहले अस्सी के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत सेना के खिलाफ लड़ने वाले 'मुजाहिदीन' के बीच भारत के मुसलमान या तो थे ही नहीं और थे भी, तो बहुत कम संख्या में थे. आज तो स्थिति और भी बदली हुई है. भारतीय-संस्कृति और लोकतंत्र में मुसलमानों की भूमिका अपने आप में विषद विषय है.  इस छोटे से संदर्भ में भी उनकी भूमिका पर नज़र डालें, तो रोचक बातें सामने आती हैं.  

वैश्विक लड़ाई से दूर

भारत में मुसलमानों की आबादी इंडोनेशिया और पाकिस्तान की आबादियों के करीब-करीब बराबर है. पश्चिम एशिया के देशों के नागरिक जितनी बड़ी संख्या में विदेशी-युद्धों में लड़ते दिखाई पड़ते हैं, उनकी तुलना में भारतीयों की संख्या नगण्य है. उन छोटे देशों की कुल आबादी की तुलना में उनके लड़ाकों का प्रतिशत देखा जाए तो वह बहुत ज्यादा होगा.

भारतीय मुसलमान ने वैश्विक-आतंकवाद को नकारा है. इसकी वजह भारतीय समाज और संस्कृति में खोजी जा सकते हैं. हमें इस बात को हमेशा ध्यान में रखना होगा कि जिस भारत का विभाजन इस्लाम के आधार पर हुआ, उसमें आज भी तकरीबन उतने ही मुसलमान नागरिक हैं, जितने पाकिस्तान में हैं. उन्होंने भारत में ही रहना चाहा, तो उसका कोई कारण जरूर था.

उनकी देशभक्ति को लेकर किसी प्रमाण की जरूरत ही नहीं है. काउंटर-टेरर रणनीति बनाने वालों को इस फैक्टर पर गहराई से विचार करना चाहिए कि कौन से सांस्कृतिक-भावनात्मक और मानसिक कारण भारतीय मुसलमानों को अपनी ज़मीन से जोड़कर रखते हैं.

अतिवादी तत्व

यह भी नहीं कह सकते कि उनके बीच चरमपंथी नहीं हैं. उनके बीच अतिवादी तत्व भी हैं, पर सीमित संख्या में हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि जब वैश्विक-स्तर पर काफी बड़ी आबादी टकराव के रास्ते पर है, भारतीय मुसलमान उससे अपेक्षाकृत दूर हैं. हमारे जीवन में दोनों तरफ से जहरीली बातें भी हैं. उनकी प्रतिक्रिया भी होती है, पर देश की न्यायपालिका और जिम्मेदार नागरिक इस बदमज़गी को बढ़ने से रोकते हैं.  

Sunday, March 26, 2023

खालिस्तानी आंदोलन के खतरे


भारत सरकार और पंजाब सरकार ने खालिस्तानी आंदोलन के खिलाफ हालांकि कार्रवाई शुरू की है, पर लगता है कि इसमें कुछ देर की गई है। दो-तीन साल से जिस बात की सुगबुगाहट थी, वह खुलकर सामने आ रहा है। दिल्ली की सीमा पर एक साल तक चले किसान-आंदोलन के दौरान सोशल मीडिया पर खालिस्तान समर्थक सक्रिय हुए थे। 26 जनवरी, 2021 को लालकिले के द्वार तोड़कर जब भीड़ ने अपना झंडा फहराया था, तब मसले की गंभीरता की आशंका व्यक्त की गई थी। उन्हीं दिनों टूलकिट-प्रकरण उछला, जिसे सबसे पहले स्वीडिश जलवायु कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने सोशल मीडिया पर शेयर किया था। किसान आंदोलन शुरू होने के पहले ही पंजाब में पाकिस्तान से भेजे गए ड्रोनों की मदद से हथियार गिराने की घटनाएं हुई थीं। कनाडा स्थित कुछ समूहों ने सन 2018 से ‘रेफरेंडम-2020’ नाम से एक अभियान शुरू किया था, जिसके लक्ष्य बहुत खतरनाक हैं। हालांकि यह रेफरेंडम सफल नहीं हुआ, पर इससे साबित हुआ कि दुनिया में भारत-विरोधी गतिविधियाँ चल रही हैं। उन्हें जब भारत के भीतर समर्थन नहीं मिला, तो बाहर से अपने आदमी को प्लांट किया। इन बातों का सकारात्मक पक्ष यह है कि सिख समुदाय ने इन प्रवृत्तियों का विरोध  किया है।

अमृतपाल की भरती

इन बातों का संदर्भ अमृतपाल सिंह के नेतृत्व में हुई घटनाएं और फिर उसकी गिरफ्तारी की कोशिशों से जुड़ा है। पंजाब के पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने 1 सितंबर 2022 को एक सभा के दौरान अमृतपाल सिंह पर सवाल उठाए थे। उन्होंने कहा कि अमृतपाल दुबई से आया है और उसका पूरा परिवार दुबई में है। ऐसे में उसे भारत किसने भेजा? इसका पता लगाना पंजाब की आप सरकार की जिम्मेदारी है। अमृतपाल की अगुआई में उसके हजारों समर्थकों ने गत 23 फरवरी को अमृतसर के अजनाला थाने पर जिस तरह से हमला किया था, उसके बाद उनके इरादों को लेकर कोई संशय नहीं रह गया था। अमृतपाल दुबई में ट्रक ड्राइवर था। उसे पाकिस्तानी आईएसआई ने भारत में गड़बड़ी फैलाने के लिए तैयार किया। वे चाहते हैं कि पंजाब की नई पीढ़ी के मन में उन्माद भरा जाए, ताकि एकबार फिर से देश में अराजकता की लहर फैले जैसी अस्सी के दशक में पंजाब में चले खालिस्तानी आंदोलन के दौरान फैली थी। उसकी परिणति 1984 के ऑपरेशन ब्लूस्टार और इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में देखने को मिली थी। उन परिघटनाओं से पैदा हुआ गर्द-गुबार छँट ही रहा था कि भारत की एकता से ईर्ष्या रखने वालों ने दूसरी योजनाओं पर काम शुरू कर दिया।

सीमा पर हरकतें

भारतीय खुफिया एजेंसियों का कहना है कि पाकिस्तान से सक्रिय आतंकी ग्रुप सोशल मीडिया में काफी एक्टिव है और वे युवाओं को बरगला कर आतंकी संगठन में शामिल होने के लिए मना रहे हैं। इन संगठनों का इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर में आतंकी गतिविधियों को बढ़ाने के लिए किया जा सकता है। इस काम में पंजाब और कश्मीर के उन अपराधियों को भी शामिल किया जा रहा है, जो नशे का अवैध कारोबार करते हैं। हाल में पंजाब से सटी पाकिस्तानी सीमा आईएसआई  की गतिविधियों में इजाफा देखने को मिल रहा है। पाक रेंजर्स और आईएसआई की मदद से सीमा के नजदीक कई जगहों पर भारत में ड्रग्स और हथियार भेजने के लिए स्मगलरों और आतंकियों को ड्रोन्स मुहैया कराए गए हैं। फ़िरोज़पुर और अमृतसर के बीच कई पाकिस्तानी ड्रोन-गतिविधि काफी बढ़ गई है। पाकिस्तान की तरफ से सुरक्षा एजेंसियों को चकमा देने के लिए डमी ड्रोन्स का सहारा भी लिया जा रहा है।

Wednesday, February 8, 2023

आतंकवाद और आर्थिक-संकट से रूबरू पाकिस्तान


गत 30 जनवरी को, पेशावर की पुलिस लाइन की एक मस्जिद में हुए विस्फोट ने दिसंबर, 2014 में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल पर हुए हमले की याद ताजा कर दी है. इस विस्फोट में सौ से ज्यादा लोग मरे हैं, और ज्यादातर पुलिसकर्मी हैं. इस बात से खैबर पख्तूनख्वा सूबे की पुलिस के भीतर बेचैनी है. दूसरी तरफ देश की अर्थव्यवस्था पर विदेशी ऋणों की अदायगी में डिफॉल्ट का खतरा पैदा हो गया है.

इन दोनों संकटों ने पाकिस्तान की विसंगतियों को रेखांकित किया है. स्वतंत्रता के बाद भारत-पाकिस्तान आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र में मिलकर काम करते, जैसा विभाजन से पहले था, तो यह इलाका विकास का बेहतरीन मॉडल बनकर उभरता. पर भारत से नफरत विचारधारा बन गई. हजारों साल से जिस भूखंड की अर्थव्यवस्था, संस्कृति और समाज एकसाथ रहे, उसे चीर कर नया देश गढ़ने तक बात सीमित होती, तब भी ठीक था. आर्थिक-ज़मीन को तोड़ने के दुष्परिणाम सामने हैं.

अविभाजित भारत में आर्थिक-संबंध सामाजिक वर्गों में बँटे हुए थे, जो मिलकर परिणाम देते थे. विभाजन के बाद अचानक एक बड़े वर्ग के तबादले ने कारोबार की शक्ल बदल दी. भारत में भूमि-सुधार के कारण ज़मींदारी-प्रथा खत्म हुई, पाकिस्तान में वह बनी रही. आधुनिक राज-व्यवस्था पनप ही नहीं पाई. बहरहाल अब वहाँ जो हो रहा है, उसके सामाजिक-आर्थिक कारणों पर अलग से शोध की जरूरत है. 

इस्लामी अमीरात

टीटीपी की मांग है कि कबायली जिलों सहित पूरे देश में शरीअत कानून को लागू किया जाए और इन इलाकों से सेना को हटा लिया जाए. वे पाकिस्तान में वैसी ही व्यवस्था चाहते हैं, जैसी तालिबान के अधीन अफगानिस्तान में है. वे एक इस्लामी अमीरात स्थापित करना चाहते हैं, पर पाकिस्तान की सांविधानिक-व्यवस्था ब्रिटिश-जम्हूरियत पर आधारित है, इस्लामी परंपराओं पर नहीं है. यह वैचारिक विसंगति है.

देश की अर्थव्यवस्था अर्ध-सामंती है. एक तबका आज भी सोने-चाँदी के बर्तनों में भोजन करता है. राजनीति में इन्हीं जमींदारों और साहूकारों का वर्चस्व है और प्रशासन में भ्रष्टाचार का बोलबाला है. हुक्मरां जनता को किसी अदृश्य खतरे से डराते हैं, जिससे लड़ने के लिए सेना चाहिए, जबकि खतरा अशिक्षा और गरीबी से है.

Tuesday, January 17, 2023

आखिरकार अब्दुल रहमान मक्की पर भी संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंध लगा


पाकिस्तानी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के  नायब अमीर अब्दुल रहमान मक्की का नाम संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक आतंकवादियों की सूची में शामिल कर लिया गया है। माना जाता है कि हाफ़िज़ सईद की ग़ैर मौजूदगी में अब्दुल रहमान मक्की ही लश्कर-ए-तैयबा का कामकाज देख रहा है। वह इस आतंकवादी संगठन में उप-प्रमुख है।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की 1267 आईएसआईएस (दाएश) अल-क़ायदा प्रतिबंध कमेटी ने जिस सूची में मक्की का नाम शामिल किया है उसमें किसी व्यक्ति या संस्था के नाम को तब जोड़ा जाता है जब उसकी आतंक से जुड़ी गतिविधियों के पुख़्ता सबूत उपलब्ध हों। इस सूची में शामिल होने वाले की संपत्ति फ़्रीज़ कर दी जाती है, उन पर ट्रैवल बैन लगाया जाता है और किसी भी तरह से उन्हें हथियार मुहैया कराने पर रोक लगा दी जाती है।

16 जनवरी को मक्की का नाम इस सूची में शामिल करते हुए संयुक्त राष्ट्र की कमेटी ने सात आतंकवादी हमलों का हवाला दिया जिसमें साल 2000 में लाल क़िले पर हुआ हमला, 2008 में हुआ रामपुर हमला, 2008 में मुंबई मे हुआ 26/11 हमला और साल 2018 में गुरेज़ में हुए हमले को शामिल किया गया।

Thursday, November 24, 2022

भारत को ही चलानी होगी आतंक-विरोधी वैश्विक मुहिम


 देस-परदेश

वैश्विक-आतंकवाद को लेकर हाल में भारत से जुड़ी कुछ गतिविधियों ने ध्यान खींचा है. भारत ने संरा सुरक्षा परिषद की आतंकवाद-रोधी समिति (सीटीसी) की दिल्ली तथा मुंबई में हुई बैठकों की मेजबानी की. इनके अलावा दिल्ली में गत 18-19 नवंबर को हुआ नो मनी फॉर टेरर सम्मेलन. दोनों कार्यक्रमों का उद्देश्य आतंकवाद के खिलाफ ढीली पड़ती वैश्विक मुहिम की तरफ दुनिया का ध्यान खींचना था. इनका एक निष्कर्ष यह भी है कि इसे तेज करने के लिए अब भारत को आगे आना होगा.

आगामी 15-16 दिसंबर को वैश्विक आतंकवाद विरोधी प्रयासों से जुड़ी चुनौतियों पर संरा सुरक्षा परिषद की एक विशेष ब्रीफिंग की मेजबानी भी भारत करेगा. भारत की पुरजोर कोशिश इस विषय को प्रासंगिक बनाए रखने में होनी चाहिए. बावजूद इसके कि दुनिया ने अब दूसरी तरफ देखना शुरू कर दिया है.

चीन की भूमिका

इस दौरान एक और घटना ऐसी हुई है, जिसपर ध्यान देने की जरूरत है. मुंबई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद के बेटे हाफिज तल्हा सईद को संरा सुरक्षा परिषद की प्रतिबंधित आतंकियों की सूची में डालने के प्रस्ताव पर चीन ने फिर रोक लगा दी है. इस मामले में पाकिस्तान को चीन सुरक्षा-कवच उपलब्ध कराता रहा है. पाकिस्तान से चलने वाले कई चरमपंथी संगठनों के कमांडरों को वैश्विक आतंकवादी ठहराए जाने कोशिशों को चीन ने बार-बार रोका है.

मुंबई हमले के संदर्भ में भारत का अनुभव रहा है कि आतंकवाद जैसे मसलों पर विश्व समुदाय की बातें बड़ी-बड़ी होती हैं, पर कार्रवाई करने का मौका जब आता है, तब सब हाथ खींच लेते हैं. काउंटर-टेरर संस्थाएं नख-दंत विहीन साबित हुई हैं. हाल में भारत ने इस बात को रेखांकित करने के लिए जो पहल की हैं, उनपर ध्यान देने की जरूरत है.

नो मनी फॉर टेरर

दिल्ली में हुए नो मनी फॉर टेरर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि जो देश आतंकवाद को बढ़ावा देते हैं, उन्हें इसकी क़ीमत चुकानी चाहिए. गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि अपनी पहचान छिपाने और कट्टरपंथी सामग्री फैलाने के लिए आतंकवादी डार्क नेट का इस्तेमाल कर रहे हैं. क्रिप्टोकरेंसी जैसी आभासी संपत्ति का उपयोग भी बढ़ रहा है.

नो मनी फॉर टेरर सम्मेलन पहली बार 2018 में पेरिस में हुआ था. उसके बाद 2019 में ऑस्ट्रेलिया में आयोजित किया गया था. भारत को इसकी मेजबानी 2020 में करनी थी, लेकिन महामारी के कारण इसे स्थगित कर दिया गया था. इस समूह का कोई स्थायी कार्यालय नहीं है. इसका सचिवालय भी भारत में स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है.

Tuesday, August 2, 2022

कौन था अल-ज़वाहिरी, क्या चाहता था?

ओसामा बिन लादेन के साथ अल-ज़वाहिरी की पुरानी तस्वीर

अमेरिका ने अल-क़ायदा के नेता अयमान अल-ज़वाहिरी को अफ़ग़ानिस्तान में एक ड्रोन हमले में मार दिया है। ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद से अल-ज़वाहिरी ही इस संगठन को चला रहा था और उसकी मौत के बाद यह भी स्पष्ट है कि उसे अफगानिस्तान में शरण मिली हुई थी। ज़ाहिर है कि अल-क़ायदा का अस्तित्व बना हुआ है, और वह अपनी गतिविधियों को चला भी रहा है। भारत की दृष्टि से अल-ज़वाहिरी की मौत महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसके दो वीडियो ऐसे हैं, जिनसे इस बात की पुष्टि होती है कि उसके संगठन की भारत में भले ही बड़ी उपस्थिति नहीं हो, पर उसकी दिलचस्पी भारत में थी।  

भारत पर निगाहें

एक वीडियो में उसने भारत में अल-कायदा की शाखा स्थापित करने की घोषणा की थी और दूसरे में कर्नाटक के हिजाब विवाद पर अपनी टिप्पणी की थी। यों 2001 के बाद भारत को लेकर उनकी टिप्पणियों की चर्चा कई बार हुई। उसने अफगानिस्तान, कश्मीर, बोस्निया-हर्जगोविना और चेचन्या में इस्लामिक-युद्ध का कई बार उल्लेख किया। यों बिन लादेन ने भी 1996 में ताजिकिस्तान, बर्मा, कश्मीर, असम, फिलीपाइंस, ओगाडेन, सोमालिया, इरीट्रिया और बोस्निया-हर्जगोविना में मुसलमानों की कथित हत्याओं को लेकर अपना गुस्सा व्यक्त किया था।  

इस बात को लेकर कयास हैं कि तालिबान को क्या पता था कि अल-ज़वाहिरी उनके देश में है? अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि काबुल के जिस घर में अल-ज़वाहिरी को ड्रोन स्ट्राइक में मारा गया, उसमें बाद में तालिबान के अधिकारी गए और यह छिपाने की कोशिश की कि यहाँ कोई मौजूद नहीं था।

सीआईए का ऑपरेशन

बीबीसी के अनुसार रविवार को अमेरिका की सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी यानी सीआईए ने अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में ऑपरेशन चलाया, जिसमें अल-ज़वाहिरी मारा गया। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है,"ज़वाहिरी के हाथ अमेरिकी नागरिकों के ख़िलाफ़ हत्या और हिंसा के ख़ून से रंगे थे। अब लोगों को इंसाफ़ मिल गया है और यह आतंकवादी नेता अब जीवित नहीं है।"

राष्ट्रपति बाइडेन ने ज़वाहिरी को साल 2000 में अदन में अमेरिकी जंगी पोत यूएसस कोल पर आत्मघाती हमले के लिए भी ज़िम्मेदार बताया। इसमें 17 नौसैनिकों की मौत हुई थी। उन्होंने कहा, ''यह मायने नहीं रखता कि उसके सफाए में इतना लंबा समय लगा। यह भी मायने नहीं रखता कि कोई कहाँ छिपा है। अगर आप हमारे नागरिकों के लिए ख़तरा हैं तो अमेरिका छोड़ेगा नहीं। हम अपने राष्ट्र और नागरिकों की सुरक्षा में कभी कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।''

Thursday, December 23, 2021

अफस्पा पर राष्ट्रीय-बहस होनी चाहिए

2004 में मणिपुर लिबरेशन आर्मी की सदस्य होने के आरोप में थंगियन मनोरमा की मौत के बाद मणिपुरी महिलाओं का निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन

नगालैंड विधानसभा ने सोमवार 20 दिसंबर को सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास करके केंद्र से उत्तर पूर्व और विशेष रूप से नगालैंड से सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम यानी अफस्पा को वापस लेने की माँग की। इस महीने के शुरू में राज्य के मोन जिले में हुई फायरिंग में 14 नागरिकों के मारे जाने के मामले में भी विधानसभा में निंदा प्रस्ताव पारित किया गया। नगालैंड पुलिस ने कहा था कि सेना के 21 पैरा स्पेशल फोर्स ने नागरिकों की हत्या और घायल करने के इरादे से गोलीबारी की थी। पड़ोसी राज्य मेघालय ने भी इसे हटाने की माँग की है। असम और मणिपुर में कांग्रेस पार्टी इस आशय की माँग कर रही है।

नगालैंड सरकार का नेतृत्व भाजपा की सहयोगी नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी कर रही है। प्रस्ताव में अधिकारियों से हत्याओं पर माफी मांगने और न्याय दिलाने का आश्वासन भी माँगा गया है। उधर असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने कहा है कि हम फिलहाल राज्य में अफस्पा को जारी रखना चाहेंगे। बाद में कानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक रही, तो इसकी समीक्षा करेंगे। उन्होंने कहा, कानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक हो तो कोई भी राज्य अफस्पा को चलाए रखना नहीं चाहेगा। पर हम इसे वापस ले भी लें, तो क्या आतंकवादी अपनी गतिविधियाँ बंद कर देंगे? इस कानून की वापसी शांति-व्यवस्था की स्थापना से जुड़ी है।

उदासीनता क्यों?

ज्यादातर राजनीतिक दलों की माँगे जनता के मिजाज को देखते हुए होती हैं। नगालैंड में निर्दोष नागरिकों की मौत बहुत दुखद घटना थी। सरकार के खेद जताने से लोगों का गुस्सा कम नहीं होगा। सेना कह सकती है कि ऐसी दुखद घटनाएं कभी-कभी हो जाती हैं, पर इसका विश्लेषण करना जरूरी है कि आखिर इस उदासीनता एवं अभिमान की वजह क्या है।

पूर्वोत्तर के राज्य, खासकर जिन राज्यों में उग्रवाद सक्रिय है, वे देश के मुख्य भाग से कटे हैं। इन राज्यों के लोगों के प्रति निष्ठुर रवैये की एक वजह यह हो सकती है कि वे राष्ट्रीय मीडिया की पहुंच से दूर हैं और ज्यादातर गरीब हैं। अफस्पा भी इस निष्ठुरता की एक वजह है। पूर्वोत्तर भारत के अधिकतर राजनीतिक दल इस कानून को समाप्त करने की मांग कर रहे हैं। मेघालय और नगालैंड में भाजपा गठबंधन के मुख्यमंत्री भी यही मांग कर रहे हैं।

तीन सत्य

वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने हाल में लिखा है कि इस विशेष कानून के बारे में हम तीन कड़वे सत्य से परिचित हैं? पहला, अगर इस कानून से सशस्त्र बलों को विशेष अधिकार नहीं मिले होते तो यह हिंसा कभी नहीं होती। सेना की टुकड़ी को तब स्थानीय प्रशासन और पुलिस को विश्वास में लेना पड़ता। अगर स्थानीय भाषा की जानकारी होती तो भी हालात यहां तक नहीं पहुंचते। जिस स्थान या क्षेत्र से आप जितनी दूर होते हैं वहां की भाषा समझना उतना ही महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

दूसरा सत्य यह है कानून समाप्त करने का अब समय आ गया है। कम से कम जिस रूप में इस कानून की इजाजत दी गई है वह किसी भी तरीके से सेना या हमारे राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा में मदद नहीं कर पा रहा है। तीसरा और सर्वाधिक कड़वा सत्य यह है कि तमाम विरोध प्रदर्शन के बावजूद सरकार यह कानून वापस नहीं लेगी। अखबारों में इस विषय पर कितने ही आलेख क्यों न लिखे गए हों, पर एक के बाद एक सरकारों का रवैया ढुलमुल रहा है। इस कानून पर एक बड़ा राजनीतिक दांव लगा हुआ है।

मोदी-शाह सहित कोई भी सरकार इस विषय पर नरम रुख रखने के लिए तैयार नहीं होगी। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार भी अपने 10 वर्ष के कार्यकाल में यह हिम्मत नहीं जुटा पाई। चूंकि, यह कानून निरस्त नहीं होगा इसलिए यह गुंजाइश खोजनी होगी कि हम किस तरह जरूरत होने पर ही इस कानून का इस्तेमाल करें।

Tuesday, October 19, 2021

कश्मीर में आतंकियों की नई रणनीति का उद्देश्य है हालात को सामान्य बनने से रोकना

 


जम्मू-कश्मीर में अक्तूबर के महीने में आतंकी घटनाओं ने रफ्तार पकड़ ली है। इस माह के पहले 18 दिनों में आतंकियों की तरफ से काफी नुकसान किया गया है। अभी तक इस माह में आतंकियों की तरफ से 12 नागरिकों की हत्या की गई है, जिसमें बाहर के नागरिक भी शामिल हैं। इसके अलावा नौ जवान मुठभेड़ों में शहीद हुए हैं। इनके अलावा कुल 13 मुठभेड़ों में 14 आतंकियों को मार गिराया गया है। इन आतंकी घटनाओं को देखते हुए पूरे प्रदेश में सुरक्षा को कड़ा किया गया है। जाँच एजेंसियाँ इस बात की पड़ताल भी कर रही हैं कि पाकिस्तानी आईएसआई क्या इस्लामिक स्टेट खुरासान की आड़ में अपनी गतिविधियों को बढ़ाने का प्रयास तो नहीं कर रही है। आईएसकेपी की पत्रिका में एक गोलगप्पे वाले को गोली मारने की तस्वीर प्रकाशित की गई है। हाल में राज्य में बाहर से आए लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। प्रशासन ने एहतियातन कश्मीर के कुछ इलाकों में इंटरनेट पर फिर से रोक लगा दी है।

जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों की नई रणनीति का उद्देश्य राज्य में सामान्य होते हालात की प्रतिक्रिया और फिर से अशांति और अराजकता की स्थिति पैदा करने की कोशिश है। राज्य में औद्योगिक गतिविधियों को तेज करने और कई श्रेणियों के नागरिकों को राज्य का स्थायी निवासी घोषित करने की प्रक्रिया चल रही है। इससे न केवल उन्हें, बल्कि राज्य के लोगों को रोजगार हासिल करने में आसानी होगी। राष्ट्रीय जाँच एजेंसी एनआईए का कहना है कि आतंकवादी इसे विफल करना चाहते हैं।  

आतंकवादियों के इस इरादे की जानकारी एक ब्लॉग पोस्ट से मिली है, जिसे अब ब्लॉक कर दिया गया है। इस पोस्ट में बताया गया था कि जम्मू-कश्मीर में अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने और राज्य के विभाजन के बाद आतंकवादियों क्या करेंगे। इस ब्लॉग पोस्ट को इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के आदेशों के बाद ब्लॉक कर दिया गया है।

Sunday, October 10, 2021

कश्मीरी हिंसा के पीछे कौन?


पिछले कुछ दिनों में कश्मीर घाटी में हुई आतंकी-हिंसा में हिंदुओं और सिखों की हत्या के बाद जम्मू-कश्मीर का माहौल फिर से तनावपूर्ण हो गया है। स्थानीय लोगों के मन में कई सवाल पैदा हो रहे हैं, वहीं शेष भारत में सवाल पूछा जा रहा है कि राज्य के हालात क्या फिर से 90 के दशक जैसे होने वाले हैं? क्या घाटी से बचे-खुचे पंडितों और सिखों का पलायन शुरू हो जाएगा? क्या यह हिंसा पाकिस्तान-निर्देशित है? क्या आतंकवादियों की यह कोई रणनीति है? इस हिंसा के पीछे द रेसिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) नामक नई संस्था है, जिसके पीछे पाकिस्तान के लश्करे तैयबा का हाथ है। इस साल सितंबर तक जम्मू-कश्मीर में आतंकियों ने दो दर्जन लोगों की हत्याएं की थीं। अब अक्तूबर में पाँच दिन के भीतर सात लोगों के मारे जाने की खबरें हैं।

सॉफ्ट टार्गेट

नई बात यह है कि ये हमले मासूम नागरिकों पर हुए हैं। हाल के वर्षों में आतंकवादी ज्यादातर सुरक्षाबलों पर हमले कर रहे थे। हमलों के दौरान वे मारे भी जाते थे, क्योंकि सुरक्षाबल उन्हें जवाब देते थे, पर अब वे वृद्धों, स्त्रियों और गरीब कारोबारियों की हत्याएं कर रहे हैं, जो आत्मरक्षा नहीं कर सकते। ऐसा ही वे नब्बे के दशक में कर रहे थे, जिसके कारण घाटी से पंडितों का पलायन हुआ था। हालांकि छत्तीसिंहपुरा की हिंसा को छोड़ दें, तो सिखों पर अपेक्षाकृत कम हमले हुए हैं। 20 मार्च, 2000 की रात को छत्तीसिंहपुरा में 40-50 आतंकियों ने इस गाँव पर हमला करके 35 सिखों की हत्या की थी। महत्वपूर्ण यह है कि ये ‘टार्गेटेड किलिंग्स’ हैं। ऐसा नहीं है कि भीड़ को निशाना बनाया गया है, बल्कि सोच-समझकर हत्या की गई है। इसका मतलब है कि कोई सोच इसके पीछे काम कर रहा है।

क्या यह माना जाए कि आतंकवादी परास्त हो रहे हैं और अब वे अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए सॉफ्ट टार्गेट को निशाना बना रहे हैं, जिसमें जोखिम कम है और दहशत फैलाने की सम्भावनाएं ज्यादा हैं? जनता के बीच घुसकर कार्रवाई करने के लिए मामूली तमंचों और चाकुओं से काम चल जाता है। हत्यारे अपनी कार्रवाई करके भागने में सफल हो जाते हैं। यह रणनीति क्या है और इसके पीछे उद्देश्य क्या हैं, इसे समझने की भी जरूरत है। क्या वे दहशत फैलाना चाहते हैं, ताकि अल्पसंख्यक कश्मीर छोड़कर भागें और कानूनी-व्यवस्था में बदलाव के कारण जो नए लोग इस इलाके में बसना चाहें, तो वे अपना इरादा बदलें?

सम्पत्ति की बंदरबाँट

कश्मीर से पंडितों के पलायन के बाद उनकी सम्पत्ति पर कब्जे को लेकर बंदरबाँट भी एक कारण हो सकता है। हाल में सरकार ने कश्मीरी पंडितों की क़ब्ज़ा की गई अचल संपत्तियों पर उन्हें दोबारा अधिकार देने की कवायद शुरू की थी। अब तक ऐसे लगभग 1,000 मामलों का निपटारा करते हुए संपत्ति को वापस उनके असली मालिक के हवाले कर दिया गया। हिंसा के पीछे यह भी एक कारण हो सकता है। इन सब बातों के अलावा ये घटनाएं 'बड़ी सुरक्षा चूक' भी हैं। जहाँ-जहाँ वारदात हुई, वहाँ से कुछ ही मीटर की दूरी पर या तो सुरक्षा बलों के शिविर थे या एसएसपी का कार्यालय। सुरक्षा एजेंसियों ने 21 सितंबर को ही अलर्ट जारी किया था और बड़े हमले की आशंका जताई थी। हमारी खुफिया-व्यवस्था को अब ज्यादा जागरूक होकर काम करना होगा, क्योंकि हत्यारे छिपने के लिए जगह तलाशते हैं। यदि जनता के बीच पुलिस की पैठ हो, तो उनका पता लगाना आसान होता है।

सौहार्द पर निशाना

इन हत्याओं से केवल कश्मीर में ही नहीं, शेष भारत में भी साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ता है। इसीलिए लगता है कि इसके पीछे पाकिस्तान में बैठे आकाओं की कोई योजना काम कर रही है। टीआरएफ नाम के नए समूह का नाम अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद से ही सुनाई पड़ा है। टीआरएफ ने गत 2 अक्तूबर को हुई माजिद अहमद गोजरी और मोहम्मद शफी डार की हत्याओं की जिम्मेदारी भी ली थी। फिर मंगलवार 5 अक्तूबर को तीन अलग-अलग वारदातों में तीन लोगों की हत्या कर दी। पहले इकबाल पार्क क्षेत्र में श्रीनगर की प्रसिद्ध फार्मेसी के मालिक माखनलाल बिंदरू की, फिर लाल बाजार क्षेत्र में गोलगप्पे बेचने वाले वीरेंद्र पासवान की और इसके बाद बांदीपुरा के शाहगुंड इलाके में एक नागरिक मोहम्मद शफी लोन की हत्या की गई।

Friday, October 8, 2021

कश्मीर में हत्याओं के पीछे क्या है आतंकवादियों की रणनीति?

 

माखन लाल बिंदरू

जम्मू-कश्मीर में हाल में हुई नागरिकों की हत्याओं से कुछ सवाल खड़े होते हैं। पिछले कुछ वर्षों में आतंकवादियों के ज्यादातर हमले सुरक्षाबलों पर होते थे। इन हमलों के दौरान वे मारे भी जाते थे, क्योंकि सुरक्षाबल उन्हें जवाब देते थे, पर अब वे वृद्धों, स्त्रियों और गरीब कारोबारियों की हत्याएं कर रहे हैं, जो आत्मरक्षा नहीं कर सकते। इसका एक अर्थ है कि आतंकवादी परास्त हो रहे हैं और अब वे अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए सॉफ्ट टार्गेट को निशाना बना रहे हैं, जिसमें जोखिम कम है और दहशत फैलाने की सम्भावनाएं ज्यादा हैं। इसके अलावा यह भी समझ में आता है कि पाकिस्तान से इनके लिए कुछ नए संदेश प्राप्त हो रहे हैं।

यह रणनीति क्या है और इसके पीछे उद्देश्य क्या हैं, इसे समझने की जरूरत है। अलबत्ता पाक-परस्त द रेसिस्टेंस फ्रंट (TRF) ने इन हत्याओं की जिम्मेदारी ली है। जम्मू-कश्मीर पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों का मानना है कि TRF लश्कर-ए-तैयबा का ही एक फ्रंट है जिसे पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को स्थानीय कश्मीरियों का मूवमेंट बताकर प्रोजेक्ट करने के लिए खड़ा किया है। ऐसे में पाकिस्तान की मंशा साफ समझी जा सकती है। इस साल सितंबर तक जम्मू-कश्मीर में आतंकियों ने दो दर्जन लोगों की हत्याएं की हैं।

टीआरएफ ने गत 2 अक्तूबर को हुई माजिद अहमद गोजरी और मोहम्मद शफी डार की हत्याओं की जिम्मेदारी भी ली थी। इस तरह पाँच दिन में सात नागरिकों की हत्याएं हुई हैं। बिंदरू की हत्या के बाद जारी बयान में टीआरएफ ने कहा कि बिंदरू दवाइयों के धंधे की आड़ में काम कर रहा था और दूसरी तरफ आरएसएस की सहायता से सीक्रेट सेमिनारों को चलाता था। उसने यह सब बन्द करने से इनकार कर दिया था।

शिक्षकों की हत्या

मंगलवार को आतंकवादियों ने तीन अलग-अलग वारदातों में तीन लोगों की हत्या कर दी। इसके बाद गुरुवार को श्रीनगर के ईदगाह इलाके में आतंकवादियों ने एक सरकारी विद्यालय के दो शिक्षकों की गोली मार कर हत्या कर दी। इनमें एक महिला विद्यालय की प्रधानाचार्य थी। मृतकों में स्कूल की प्रिंसिपल सुपिन्दर कौर और कश्मीरी पंडित शिक्षक दीपक चंद शामिल हैं।

इन हत्याओं के बाद कश्मीर में अल्पसंख्यक हिन्दू और सिख समुदायों के बीच भय का माहौल है। जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) दिलबाग सिंह ने कहा कि इन हत्याओं के पीछे के लोगों का जल्द ही परदाफाश किया जाएगा। कायरता के यह कृत्य कश्मीर घाटी में सांप्रदायिक सद्भाव और भाईचारे को नुकसान पहुंचाने का एक प्रयास है।

Tuesday, August 31, 2021

अफगानिस्तान पर सुरक्षा परिषद में महाशक्तियों के मतभेद उभर कर सामने आए

संरा सुरक्षा परिषद की बैठक में अध्यक्ष की कुर्सी पर भारत के विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला

अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी पूरी तरह हो चुकी है और अब यह देश स्वतंत्र अफगान इस्लामिक अमीरात है। हालांकि यहाँ की सरकार भी पूरी तरह बनी नहीं है, पर मानकर चलना चाहिए कि जल्द बनेगी और यह देश अपने नागरिकों की हिफाजत, उनकी प्रगति और कल्याण के रास्ते जल्द से जल्द खोजेगा और विश्व-शांति में अपना योगदान देगा। अब कुछ बातें स्पष्ट होनी हैं, जिनका हमें इंतजार है। पहली यह कि इस व्यवस्था के बारे में वैश्विक-राय क्या है, दूसरे भारत और अफगानिस्तान रिश्तों का भविष्य क्या है और तीसरे पाकिस्तान की भूमिका अफगानिस्तान में क्या होगी। इनके इर्द-गिर्द ही तमाम बातें हैं।

जिस दिन अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी पूरी हुई है, उसी दिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एक प्रस्ताव पास किया है, जिसमें तालिबान को याद दिलाया गया है कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर लगाम लगाने के अपने वायदे पर उन्हें दृढ़ रहना होगा। मंगलवार को संरा सुरक्षा परिषद में भारत की अध्यक्षता का अंतिम दिन था। भारत की अध्यक्षता में पास हुआ प्रस्ताव 2593 भारत की चिंता को भी व्यक्त करता है। यह प्रस्ताव सर्वानुमति से पास नहीं हुआ है। इसके समर्थन में 15 में से 13 वोट पड़े। इन 13 में भारत का वोट भी शामिल है। विरोध में कोई मत नहीं पड़ा, पर चीन और रूस ने मतदान में भाग नहीं लिया।

इस अनुपस्थिति को असहमति भले ही न माना जाए, पर सहमति भी नहीं माना जाएगा। अफगानिस्तान को लेकर पाँच स्थायी सदस्यों के विचार एक नहीं हैं और भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। दूसरे यह भी स्पष्ट है कि रूस और चीन के साथ भारत की सहमति नहीं है। सवाल है कि क्या है असहमति का बिन्दु? इसे सुरक्षा परिषद की बैठक में रूसी प्रतिनिधि के वक्तव्य में देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि इस प्रस्ताव के लेखक, यानी अमेरिका ने, अफगानिस्तान में आतंकवादियों को हमारे और उनके (अवर्स एंड देयर्स) के खानों में विभाजित किया है। इस प्रकार उसने तालिबान और उसके सहयोगी हक्कानी नेटवर्क को अलग-अलग खाँचों में रखा है। हक्कानी नेटवर्क पर ही अफगानिस्तान में अमेरिकी और भारतीय ठिकानों पर हमले करने का आरोप लगता रहा है।

Friday, August 27, 2021

काबुल-धमाके खतरे का संकेत


गुरुवार देर शाम काबुल के अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर हुए दो धमाकों में कम से कम 73 लोगों की मौत हो गई है और 140 लोग घायल हुए हैं। बीबीसी को यह जानकारी अफ़ग़ानिस्तान के स्वास्थ्य अधिकारी ने दी है। पेंटागन के मुताबिक़ इस हमले में 13 अमेरिकी सैनिक मारे गए हैं। 2011 के बाद अमेरिकी सैनिकों पर यह सबसे ख़तरनाक हमला है। विस्फोटों की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट समूह ने ली है। उन्होंने अपने टेलीग्राम चैनल के ज़रिए किया है कि एयरपोर्ट पर हुए हमले के पीछे इस्लामिक स्टेट खुरासान (आईएसके) का हाथ है।

प्राचीन खुरासान मध्य एशिया का एक ऐतिहासिक क्षेत्र था, जिसमें आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान और पूर्वी ईरान के बहुत से भाग शामिल थे। आधुनिक ईरान में ख़ोरासान नाम का एक प्रांत है, जो इस ऐतिहासिक खुरासान इलाक़े का केवल एक भाग है। इस इलाके में सक्रिय इस आतंकी संगठन को इस्लामिक स्टेट खुरासान कहा जाता है।

अफगानिस्तान में चल रहे जबर्दस्त राजनीतिक बदलाव के बीच इस परिघटना के निहितार्थ समझने की जरूरत है। हाल में इस्लामिक स्टेट ने तालिबान को अमेरिका का पिट्ठू बताया था। इस्लामिक स्टेट का कहना है कि अफगानिस्तान में तालिबान शरिया लागू नहीं कर पाएंगे। इसके पहले यह आरोप भी लगाया जाता रहा है कि इस्लामिक स्टेट को अमेरिका ने खड़ा किया है। बहरहाल अब कम से कम दो बातों पर विचार करने की जरूरत होगी। पहले, यह कि अफगानिस्तान से विदेशियों की निकासी पर इस घटना का क्या असर होगा। और दूसरे यह कि क्या तालिबान इस इलाके में स्थिरता कायम करने में सफल होंगे? और क्या वे इस क्षेत्र को आतंकी संगठनों का अभयारण्य बनने से रोक पाएंगे?

रॉयटर्स के अनुसार अमेरिका को अंदेशा है कि इस किस्म के हमले और हो सकते हैं। अमेरिकी सेना यहाँ से 31 अगस्त तक पूरी हट जाने की घोषणा कर चुकी है। दूसरी तरफ तालिबानी व्यवस्था अभी पूरी तरह लागू हो नहीं पाई है। बाजारों में सामान की कमी हो गई है। बैंक-व्यवस्था शुरू हुई है, पर अराजकता है। हजारों-लाखों लोग बेरोजगार हो चुके हैं। ऐसे में इस इलाके में एक और मानवीय त्रासदी खड़ी होने का खतरा है।

 

 

 

 

Tuesday, November 10, 2020

कट्टरपंथी कवच में पड़ती दरार

फ्रांस और ऑस्ट्रिया में हुई आतंकी घटनाओं के बाद मुस्लिम देशों की प्रतिक्रियाएं कुछ विसंगतियों की ओर इशारा कर रही हैं। अभी तक वैश्विक मुस्लिम समाज की आवाज सऊदी अरब और उनके सहयोगी देशों की तरफ से आती थी, पर इसबार तुर्की, ईरान और पाकिस्तान सबसे आगे हैं। जबकि सऊदी अरब ने संतुलित रुख अपनाया है। संयुक्त अरब अमीरात ने फ्रांस सरकार का समर्थन किया है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इसे 'इस्लामिक आतंकवादी' हमला कहा था और यह भी कहा कि इस्लाम संकट में है। उन्होंने इस्लामिक कट्टरपंथी संगठनों पर कार्रवाई का भी ऐलान किया है।

भारतीय दृष्टिकोण से इन बातों के सकारात्मक पक्ष भी हैं। आतंकवाद के विरुद्ध किसी भी लड़ाई में भारत की भूमिका होगी, क्योंकि भारत इसका शिकार है। इन गतिविधियों में पाकिस्तानी शिरकत दुनिया के सामने खुल चुकी है। उसका हिंसक रूप सामने है। उसे अब सऊदी अरब जैसे देश और इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) का सहारा भी मिलने नहीं जा रहा है। इस्लामिक जगत में उसने अब तुर्की का दामन थामा है, जिसकी अर्थव्यवस्था पतनोन्मुख है। पाकिस्तान के भीतर विरोधी दलों ने इमरान सरकार के खिलाफ मुहिम चला रखी है। पहली बार सेना के खिलाफ राजनीतिक दल खुलकर सामने आए हैं।

तुर्क पहलकदमी

इस्लामी देशों की प्रतिक्रिया पर ध्यान दें, तो पाएंगे कि विरोध की कमान तुर्की ने अपने हाथ में ले ली है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान उनसे सुर मिला रहे हैं। मैक्रों के बयान की प्रत्यक्षतः मुस्लिम देशों ने भर्त्सना की है, पर तुर्की, ईरान और पाकिस्तान को छोड़ दें, तो शेष इस्लामिक मुल्कों की प्रतिक्रियाएं औपचारिक हैं। जनता का गुस्सा सड़कों पर उतरा जरूर है, पर सरकारी प्रतिक्रियाओं में अंतर है।

Tuesday, November 3, 2020

पाकिस्तान: आतंक जिसकी विदेश नीति है

दुनिया को धीरे-धीरे समझ में आ रहा है कि पाकिस्तान किसी देश का नाम नहीं, वह एक आंतकी अवधारणा है। उसका प्रधानमंत्री संरा महासभा में खून की नदियाँ बहाने और एटम बम चलाने की धमकी दे सकता है। हाल के वर्षों में उसने तुर्की और चीन जैसे दो ऐसे देशों को अपना संरक्षक बनाया है, जो खुद अपनी हिंसक और अराजक गतिविधियों के कारण वैश्विक आलोचना के पात्र बन रहे हैं।

गत 21 से 23 अक्तूबर तक पेरिस में हुई फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की वर्च्युअल बैठक में फैसला हुआ कि आतंकी गतिविधियों पर नियंत्रण के लिए पाकिस्तान को जो काम निर्धारित समय में पूरा करने के लिए कहा गया था, वे पूरे नहीं हो पाए हैं, इसलिए उसे ‘ग्रे लिस्ट’ में ही रखा जाएगा। पाकिस्तान को अब सुधरने के लिए फरवरी 2021 तक का समय और दिया गया है।

राष्ट्रीय रणनीति!

अराजकता और आतंक जिस देश की घोषित रणनीति है, उसके सुधरने की क्या उम्मीद की जाए? पाकिस्तान कैसे सुधरेगा? हम जिन्हें आतंकवादी कहते हैं, उन्हें वह राष्ट्रनायक कहता है। अलबत्ता अपनी गतिविधियों के कारण वह चारों तरफ से घिरने लगा है। एफएटीएफ की कार्रवाई के अलावा इसके कुछ और उदाहरण भी सामने हैं।

Tuesday, October 20, 2020

एफएटीएफ की 'ग्रे लिस्ट’ से पाकिस्तान का फिलहाल निकल पाना मुश्किल

 

फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की 21 से 23 अक्तूबर को होने वाली सालाना आम बैठक के ठीक पहले लगता है कि पाकिस्तान इसबार भी न तो ग्रे लिस्ट से बाहर आएगा और न ब्लैक लिस्ट में डाला जाएगा। भारत सरकार के सूत्रों का कहना है कि एफएटीएफ ने पाकिस्तान को जिन 27 कार्य-योजनाओं की जिम्मेदारी दी थी, उनमें से केवल 21 पर ही काम हुआ है। शेष छह पर नहीं हुआ।

इसके पहले एफएटीएफ के एशिया प्रशांत ग्रुप की रिपोर्ट गत 30 सितंबर को जारी हुई थी, जिसमें पाकिस्तान को दिए गए कार्य और उस पर अमल करने के उपायों की समीक्षा की गई। इसका सारांश है कि पाकिस्तान फिलहाल प्रतिबंधित होने वाली सूची से तो बच सकता है, लेकिन उसे अभी निगरानी सूची में ही रहना होगा। एफएटीएफ ने पाकिस्तान को गैरकानूनी वित्तीय लेन-देन, बाहर से आने वाली फंडिंग को रोकने, एनजीओ के नाम पर काम करने वाली एजेंसियों की गतिविधियों पर लगाम लगाने व पारदर्शिता लाने के लिए कार्यों की सूची सौंपी है।

पेरिस में क्या होगा?

पेरिस स्थित मुख्यालय में एफएटीएफ की 21-23 अक्टूबर को वर्च्युअल बैठक होगी। एफएटीएफ ने हाल के महीनों में पाकिस्तान सरकार की तरफ से उठाए गए कुछ कदमों की तारीफ भी की है। खासतौर पर जिस तरह से गैरसरकारी संगठनों की गतिविधियों को पारदर्शी बनाने के लिए कदम उठाए गए हैं, उनकी तारीफ की गई है। पाकिस्तान में नई व्यवस्था लागू की गई है, जिससे हजारों एनजीओ की फंडिंग की निगरानी संभव हो सकेगी।

Thursday, January 16, 2020

क्या अब खुलेंगी कश्मीरी आतंकवाद से जुड़ी विस्मयकारी बातें?


जम्मू कश्मीर में हिज्बुल मुजाहिदीन के दो आतंकवादियों के साथ पुलिस अधिकारी दविंदर सिंह की गिरफ्तारी के बाद कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं. यह गिरफ्तारी ऐसे मौके पर हुई है, जब राज्य की प्रशासनिक और पुलिस व्यवस्था में आमूल परिवर्तन हुआ है. केंद्र शासित प्रदेश होने के नाते अब राज्य की पुलिस पूरी तरह केंद्र सरकार के अधीन है. क्या यह गिरफ्तारी उस बदलाव के महत्व को को रेखांकित कर रही है, या राज्य पुलिस की उस कार्यकुशलता को बता रही है, जिसे राजनीतिक कारणों से साबित करने का मौका नहीं मिला
कश्मीर के आतंकवाद के साथ जुड़ी कुछ बातें शायद अब सामने आएं. जो हुआ है, उसमें कहीं न कहीं उच्च प्रशासनिक स्तर पर स्वीकृति होगी. यह मामला इतना छोटा नहीं होना चाहिए, जितना अभी नजर आ रहा है. मोटे तौर पर ज़ाहिर हुआ है कि इस डीएसपी के साथ हिज्बुल मुजाहिदीन का सम्पर्क था. यह सम्पर्क क्यों था और क्या इसमें कुछ और लोग भी शामिल थे, इस बात की जाँच होनी चाहिए. क्या वह डबल एजेंट की काम कर रहा था? जाँच आगे बढ़ने पर 13 दिसम्बर, 2001 को संसद पर हुए हमले के बाबत भी कुछ जानकारियाँ सामने आएंगी. 

Tuesday, March 26, 2019

आतंकी लाइफ-लाइन को तोड़ना जरूरी

http://inextepaper.jagran.com/2083942/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/26-03-19#page/12/1
पुलवामा के हत्याकांड और फिर बालाकोट में की गई भारतीय कार्रवाई की गहमागहमी के बीच हमने गत 7 मार्च को जम्मू के बस स्टेशन पर हुए ग्रेनेड हमले पर ध्यान नहीं दिया. घटना के फौरन बाद ही इसे अंजाम देने वाला मुख्य अभियुक्त पकड़ लिया गया, पर यह घटना कुछ बातों की तरफ इशारा कर रही है. पिछले नौ महीनों में इसी इलाके में यह तीसरी घटना है. आतंकवादी जम्मू के इस भीड़ भरे इलाके में कोई बड़ी हिंसक कार्रवाई करना चाहते हैं, ताकि जम्मू और कश्मीर घाटी के बीच टकराव हो. भारतीय सुरक्षाबलों की आक्रामक रणनीति के कारण पराजित होता आतंकी-प्रतिष्ठान नई रणनीतियाँ लेकर सामने आ रहा है.

पुलवामा के बाद जम्मू क्षेत्र में हिंसा भड़की थी. ऐसी प्रतिक्रियाओं का परोक्ष लाभ आतंकी जाल बिछाने वाले उठाते हैं. जम्मू में ग्रेनेड फेंकने वाले की उम्र पर गौर कीजिए. नौवीं कक्षा के छात्र को कुछ पैसे देकर इस काम पर लगाया गया था. आईएसआई के एजेंट किशोरों के बीच सक्रिय हैं. कौन हैं ये एजेंट? जमाते-इस्लामी और जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट पर प्रतिबंधों से जाहिर है कि अब उन सूत्रधारों की पहचान हो रही है. वे हमारी उदार नीतियों का लाभ उठाकर हमारी ही जड़ें काटने में लगे हैं. उन तत्वों की सफाई की जरूरत है, जो जहर की खेती कर रहे हैं.

गर्मियाँ आने वाली हैं, जब आतंकी गतिविधियाँ बढ़ती हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान भी वे हरकतें करेंगे. उधर पाकिस्तान को लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानियों के हाथ में फिर से सत्ता आने वाली है. आईएसआई के सूत्रधारों ने पूरे इलाके में भारतीय व्यवस्था के प्रति जहर भरना शुरू कर दिया है. कश्मीर में ही नहीं, वे पंजाब में खत्म हो चुके खालिस्तानी-आंदोलन में फिर से जान डालने का प्रयास कर रहे हैं. इसके लिए उन्होंने अमेरिका में सक्रिय कुछ लोगों की मदद से रेफरेंडम-2020 नाम से एक अभियान शुरू किया है. उन्हें अपना ठिकाना उपलब्ध कराया है. उनकी योजना करतारपुर कॉरिडोर बन जाने के बाद भारत से जाने वाले श्रद्धालुओं के मन में जहर घोलने की है.

Sunday, March 24, 2019

कश्मीर पर नई लाल रेखा

http://epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2019-03-24
पिछले पाँच साल में कश्मीर को लेकर मोदी सरकार की नीतियाँ निरंतर सख्त होती गईं हैं और इस वक्त अपने कठोरतम स्तर पर हैं। इन पाँच वर्षों में सरकार ने नर्म रुख अख्तियार करने की कोशिश भी की, पर हालात ऐसे बने कि उसका रुख सख्त होता चला गया। पिछले हफ्ते की कुछ घटनाओं से लगता है कि सरकार ने राजनयिक स्तर पर एक और नई रेखा खींची है। यह रेखा हुर्रियत के खिलाफ है। हुर्रियत के दो महत्वपूर्ण घटकों जमाते-इस्लामी और अब जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) पर प्रतिबंध लगाया गया है। 


पाकिस्तान दिवस (23 मार्च) की पूर्व-संध्या पर दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग में हुए कार्यक्रम में भारत सरकार के मंत्री इसलिए शामिल नहीं हुए, क्योंकि हुर्रियत को बुलाया गया था। यह एक और रेड लाइन रेखा है। उधर प्रधानमंत्री ने इमरान खान के नाम बधाई संदेश भी भेजा है। इसे कुछ लोग संशय बता रहे हैं। ऐसा नहीं है। कश्मीर के मामले में भारत का कड़ा संदेश है और बधाई एक परम्परा के तहत है, जो दुनिया के सभी देश एक-दूसरे के साथ निभाते हैं। इन पत्रों का औपचारिक महत्व होता है आधिकारिक नहीं।  

Friday, March 1, 2019

आतंकवाद से लड़ने की पेचीदगियाँ

http://inextepaper.jagran.com/2048752/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/01-03-19#page/12/1
भारतीय पायलट की वापसी के कारण फिलहाल दोनों देशों के बीच फैला तनाव कुछ समय के लिए दूर जरूर हो गया है, पर आतंकवाद का बुनियादी सवाल अपनी जगह है. यह सब पुलवामा कांड के कारण शुरू हुआ था. बुधवार को अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में फिर से प्रस्ताव रखा है कि जैशे-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अज़हर को वैश्विक आतंकवादी घोषित किया जाए. परिषद की प्रतिबंध समिति अगले दस दिन में इसपर विचार करेगी. पता नहीं, प्रस्ताव पास होगा या नहीं. चीन ने पुलवामा कांड की निंदा की है और बालाकोट पर की गई भारतीय वायुसेना की कार्रवाई की आलोचना भी नहीं की है, पर इस प्रस्ताव पर उसका दृष्टिकोण क्या होगा, यह देखना होगा.

पिछले दस साल में यह चौथी कोशिश है. सारी कोशिशें चीन ने नाकाम की हैं. वुज़ान में विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में हालांकि चीन ने आतंकवाद के खिलाफ भारत की सारी बातों का समर्थन किया, पर पाकिस्तान का नाम नहीं लिया. एक प्रतिबंधित संगठन के नेता पर प्रतिबंध लगाने में इतने पेच हैं. हम इस वास्तविकता की अनदेखी नहीं कर सकते.

आतंकवाद पर विजय केवल फौजी कार्रवाई से हासिल नहीं होगी. उसके लिए राजनयिक मोर्चे पर ही लड़ना होगा. और केवल मसूद अज़हर पर पाबंदी लगाने से सारा काम नहीं होगा. पर वह बड़ा कदम होगा. सफलता तभी मिलेगी, जब पाकिस्तानी समाज इसके खिलाफ खड़ा होगा. सीमा के दोनों तरफ कट्टरता का माहौल खत्म होगा और कश्मीर में शांति की स्थापना होगी. क्या यह सब आसानी से सम्भव है? 


बालाकोट स्थित जैशे-मोहम्मद के ट्रेनिंग सेंटर पर हमले के बाद पाकिस्तानी आईएसपीआर के मेजर जनरल आसिफ़ ग़फ़ूर ने सुबह 5.12 मिनट पर पहला ट्वीट किया था, पर भारत सरकार की तरफ से पहली आधिकारिक जानकारी 11.30 बजे विदेश सचिव विजय गोखले ने दी. रक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी की बैठक में काफी सोच-विचार के बाद भारत ने इसे ‘नॉन-मिलिट्री’ एक्शन बताया था. हमला पाकिस्तान पर नहीं था, बल्कि ऐसे दुश्मन पर था, जो पाकिस्तान में तो है, पर नॉन-स्टेट एक्टर है. 

Wednesday, February 20, 2019

इमरान खान पर भरोसा किसे है?



पुलवामा कांड पर पाँच दिन बाद अपनी प्रतिक्रिया में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा है कि भारत हमें जानकारी दे, तो हम जाँच करेंगे। इस बात को काफी लोगों ने सकारात्मक रूप से लिया है, पर एक बड़ी संख्या में लोगों को, खासतौर से भारत के लोगों को विश्वास नहीं है। आज के इंडियन एक्सप्रेस में राहुल त्रिपाठी की एक रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि इमरान पर यकीन न करने के कारण क्या हैं। आज के एक्सप्रेस में सम्पादकीय भी इसी विषय पर है। राहुल त्रिपाठी की रिपोर्ट में कहा गया है कि जैशे-मोहम्मद के बाबत भारत की और से दी गई सूचनाओं पर पाकिस्तान पहले से कुंडली मारे बैठा है। भारत के तमाम अनुरोधों के बावजूद वह कुछ करके नहीं दे रहा है। भारत में हुई कम से कम दो बड़ी आतंकी घटनाओं में मसूद अज़हर का नाम है। एक है 2001 का संसद पर हमला और दूसरी है 2016 का पठानकोट हमला। मसूद अज़हर के नाम दो बार इंटरपोल ने दो रेड कॉर्नर नोटिस जारी किए हैं। पहला 2004 में संसद पर हुए हमले के बाबत और दूसरा 2016 में पठानकोट हमले के संदर्भ में।