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Monday, June 24, 2013

और अब आपदा की राजनीति

उत्तराखंड की आपदा को देखते हुए भाजपा ने यूपीए सरकार के खिलाफ अपना जेल भरो आंदोलन स्थगित कर दिया है। यह आंदोलन 27 मई से 2 जून तक चलना था, पर छत्तीसगढ़ में माओवादी हमले की वजह से स्थगित कर दिया गया था। गोवा में तय हुआ कि इसे जून में चलाया जाएगा। उधर दिग्विजय सिंह ने नरेन्द्र मोदी की उत्तराखंड यात्रा पर उँगली उठाई है। उसके पहले कांग्रेस की ओर से किसी ने तंज मारा था कि गुजरात ने इस आपदा के लिए सिर्फ दो करोड़ रुपए दिए। जवाब में भाजपा की प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी ने कहा, जनता जानना चाहती है कि आज जब उत्तराखंड में राष्ट्रीय आपदा आई है, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी कहां हैं। साथ में यह भी कहा कि विदेश में हैं तो बेहतर हैं वहीं रहें। वैसे भी राष्ट्रीय आपदा या बड़ी घटनाओं के समय राहुल गांधी देश में मौजूद नहीं रहते हैं। दिल्ली गैंगरेप के वक्त भी नहीं थे। मुख्तार अब्बास नकवी ने आरोप लगाया कि यूपीए सरकार के मंत्रियों की गलत बयानबाजी के कारण राहत कार्यों में बाधा आ रही है।

इस बयानबाज़ी की चपेट में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का यह बयान भी आ गया कि तालमेल न होने से ठीक से राहत का काम नहीं हो पा रहा है। इस बयान को भाजपा ने निशाने पर ले लिया। मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा, शिंदे को साफ करना चाहिए कि किन-किन एजेंसियों में तालमेल नहीं है क्योंकि केंद्र व उत्तराखंड में तो कांग्रेस की ही सरकारें हैं। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी ने आरोप लगाया कि दिल्ली में उनकी कोशिश से जुटाई गई राहत सामग्री को उत्तराखंड सरकार ने लेने से इंकार कर दिया। उनके निजी सहायक के अनुसार दिल्ली से तीन ट्रक सामान उत्तराखंड निवास भेजा गएया लेकिन अफसरों ने कहा कि राहत के लिए सिर्फ चेक या कैश में पैसा ही दे सकते हैं।

Monday, June 17, 2013

अकेली पड़ती भाजपा

इधर जेडीयू ने भाजपा से नाता तोड़ा, उधर कांग्रेस ने चुनाव के लिए अपनी टीम में फेरबदल किया। कांग्रेस ने पिछले साल नवम्बर से चुनाव की तैयारियाँ शुरू कर दी थीं। राहुल गांधी को चुनाव अभियान का प्रमुख बनाया गया। पार्टी के कुशल कार्यकर्ता चुनाव के काम में लगाए जा रहे हैं। इनका चुनाव राहुल गांधी के साथ करीबी रिश्तों को देखकर किया गया है। उधर भाजपा की चुनाव तैयारी आपसी खींचतान के कारण अस्त-व्यस्त है। सबसे बड़ी परेशानी जेडीयू के साथ गठबंधन टूटने के कारण हुई है। इसमें दो राय नहीं कि वह अकेली पड़ती जा रही है।

भाजपा और जेडीयू गठबंधन टूटने के कारणों पर वक्त बर्वाद करने के बजाय अब यह देखने की ज़रूरत है कि इस फैसले का भारतीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा। पिछले हफ्ते ही जेडीयू की ओर से कहा गया था कि मोदी के बारे में फैसला भाजपा का अंदरूनी मामला है। यानी इस बीच कुछ हुआ, जिसने जेडीयू के फैसले का आधार तैयार किया। बहरहाल अब राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज़ होगी। जेडीयू क्या कांग्रेस के साथ जाएगी? या ममता बनर्जी के संघीय मोर्चे के साथ? या अकेले मैदान में रहेगी? इन सवालों के फौरी जवाब शायद आज मिल जाएं, पर असल जवाब 2014 के परिणाम आने के बाद मिलेंगे। बहरहाल भानुमती का पिटारा खुल रहा है।

Monday, June 10, 2013

अब तो शुरू हुई है मोदी की परीक्षा

रविवार की शाम नरेन्द्र मोदी ने नए दायित्व की प्राप्ति के बाद ट्वीट किया : 'आडवाणी जी से फोन पर बात हुई. अपना आशीर्वाद दिया. उनका आशीर्वाद और सम्मान प्राप्त करने के लिए अत्यंत आभारी.' पर अभी तक आडवाणी जी ने सार्वजनिक रूप से मोदी को आशीर्वाद नहीं दिया है। यह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का टकराव है या कोई सैद्धांतिक मतभेद है? उमा भारती, सुषमा स्वराज और यशवंत सिन्हा ने सार्वजनिक रूप से मोदी को स्वीकार कर लिया है। इसके बाद क्या लालकृष्ण आडवाणी अलग-थलग पड़ जाएंगे? या राजनाथ सिंह उन्हें मनाने में कामयाब होंगे? और यह भी समझना होगा कि पार्टी किस कारण से मोदी का समर्थन कर रही है? 


भारतीय जनता पार्टी को एक ज़माने तक पार्टी विद अ डिफरेंस कहा जाता था। कम से कम इस पार्टी को यह इलहाम था। आज उसे पार्टी विद डिफरेंसेज़ कहा जा रहा है। मतभेदों का होना यों तो लोकतंत्र के लिए शुभ है, पर क्या इस वक्त जो मतभेद हैं वे सामान्य असहमति के दायरे में आते हैं? क्या यह पार्टी विभाजन की ओर बढ़ रही है? और क्या इस प्रकार के मतभेदों को ढो रही पार्टी 2014 के चुनाव में सफल हो सकेगी?

Monday, June 3, 2013

खेल को खेल ही रहने दो

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यों भी कम बोलते हैं। बोलते भी हैं तो खेलों पर सबसे कम। पिछले हफ्ते जब उन्होंने कहा कि खेलों में राजनीति नहीं होनी चाहिए, तब यह बात समझ में आ जानी चाहिए थी कि सरकार ने इन दिनों चल रही खेल राजनीति को गम्भीरता से लिया है। प्रधानमंत्री के अलावा राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने तकरीबन उसी समय क्रिकेट की सट्टेबाज़ी को लेकर अपना रोष व्यक्त किया। उसके दो-तीन दिन पहले ही बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन ने कहा था, मेरे पद छोड़ने का सवाल पैदा नहीं होता। मीडिया के कहने पर मैं पद थोड़े ही छोड़ दूँगा। पूरा बोर्ड मेरे साथ है। वास्तव में बोर्ड उनके साथ था। दो दिन बाद दिल्ली के एक अखबार ने लीड खबर छापी कि बीसीसीआई में राजनेता भरे पड़े हैं, पर कोई इस मामले में बोल नहीं रहा। इस खबर का असर था या कोई और बात थी कि बीसीसीआई में कांग्रेस से जुड़े राजनेताओं के बयान आने लगे। सबसे पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने श्रीनिवासन के इस्तीफे की माँग की। इसके बाद दबाव डालने के लिए संजय जगदाले और अजय शिर्के के इस्तीफे हो गए। राजीव शुक्ला ने भी आईपीएल के कमिश्नर पद से इस्तीफा दिया। कहना मुश्किल है कि यह इस्तीफा दबाव डालने के लिए है या सोनिया गांधी के निर्देश पर है।
क्रिकेट की सट्टेबाज़ी की खबरों ने तीन काम किए हैं। एक तो खेलों के भीतर घुसी राजनीति का पर्दाफाश किया है। दूसरे पैसे के खुले खेल की ओर इशारा किया है। और तीसरे देश का ध्यान कोलगेट और सीबीआई की स्वतंत्रता हटा दिया है। संयोग है कि पिछले ढाई साल से भारतीय राजनीति में चल रहे हंगामें की शुरूआत कॉमनवैल्थ गेम्स की तैयारियों से हुई थी। सुरेश कलमाडी हमारे नए राष्ट्रीय हीरो थे, जिनकी खेल और राजनीति में समान पकड़ थी। भारतीय ओलिम्पिक संघ के अध्यक्ष कलमाडी के साथ कॉमनवैल्थ गेम्स ऑर्गनाइज़िंग कमेटी के सेक्रेटरी जनरल ललित भनोत और डायरेक्टर जनरल वीके वर्मा की उस मामले में गिरफ्तारी भी हुई थी। हमें लगता है कि कलमाडी के दिन गए। पर ऐसा हुआ नहीं। पिछले साल दिसम्बर में भारतीय ओलिम्पिक महासंघ (आईओए) के चुनाव में यह मंडली फिर से मैदान में उतरी। उधर अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पक कमेटी (आईओसी) के एथिक्स कमीशन ने कलमाडी, भनोत और वर्मा को उनके पदों से निलंबित करने का सुझाव दिया। आईओए के अध्यक्ष पद के लिए हरियाणा के राजनेता अभय चौटाला का नाम तय हो चुका था। माना जाता था कि ललित भनोत चुनाव में नहीं उतरेंगे, पर अभय चौटाला ने राजनीति से उदाहरण दिया कि आरोप तो मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और जे जयललिता पर भी हैं। ललित भनोत कहीं से दोषी तो साबित नहीं हुए हैं। बहरहाल वह चुनाव नहीं हुआ। अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पक कमेटी (आईओसी) ने भारतीय ओलिम्पिक महासंघ की मान्यता खत्म कर दी। जिन दिनों क्रिकेट की सट्टेबाज़ी की खबरें हवा में थीं, उन्हीं दिनों आईओसी की एक टीम के साथ  खेलमंत्री जितेन्द्र सिंह की मुलाकात हुई और ओलिम्पिक में वापसी का रास्ता साफ हुआ। देश का शायद ही कोई खेल संघ हो जिसे लेकर राजनीतिक खींचतान न हो।
भारत की खेल व्यवस्था पर नज़र डालें तो आप पाएंगे कि सबसे ऊँचे पदों पर वे लोग बैठे हैं, जिनका खेल से वास्ता नहीं है। खेल संगठन पर जिसका एक बार कब्ज़ा हो गया, सो हो गया। पहले खेल संगठनों पर राजाओं-महाराजाओं का कब्ज़ा था। अब राजनेताओं का है। क्रिकेट ने फिक्सिंग शब्द को नए सिरे से परिभाषित किया और राजनीति में फिक्सरों का नया मुकाम बना दिया। सन 2011 के अगस्त में तत्कालीन खेल और युवा मामलों के मंत्री अजय माकन ने कैबिनेट के सामने एक कानून का मसौदा रखा। राष्ट्रीय खेल विकास अधिनियम 2011 के तहत खेल संघों को जानकारी पाने के अधिकार आरटीआई के अंतर्गत लाने का प्रस्ताव था। साथ ही इन संगठनों के पदाधिकारियों को ज्यादा से ज्यादा 12 साल तक संगठन की सेवा करने या 70 साल का उम्र होने पर अलग हो जाने की व्यवस्था की गई थी। यह कानून बन नहीं पाया। तब से अब तक इसके चौदह-पन्द्रह संशोधित प्रारूप बन चुके हैं, पर मामला जस का तस है। उसके पहले खेलमंत्री एमएस गिल यह कोशिश कर रहे थे कि खेलसंघों का नियमन किया जाए। इस मामले के कई जटिल पहलू हैं। खेलों में सरकारी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। केवल इसी नैतिक मूल्य के सहारे खेल संघों के पदाधिकारी सरकार के कानून बनाने के अधिकार को चुनौती देते हैं। अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पिक महासंघ (आईओसी) का भी कहना है कि खेलों के मामले में सरकारी हस्तक्षेप हमें मंज़ूर नहीं है।
क्रिकेट में स्पॉट फिक्सिंग के नए खेल ने इसे सट्टेबाजी से और सट्टेबाज़ी ने इसे दूसरे अपराधों से जोड़ दिया है। इसमें काले धन का खेल भी है। दिक्कत यह है कि ऊँचे स्तर पर ऐसे लोग बैठे हैं जिनके हित बीसीसीआई और आईपीएल से जुड़े हैं। इसी तरह बीसीसीआई के अध्यक्ष के हित आईपीएल से जुड़े हैं। ऐसे में पारदर्शिता कैसे आएगी? भारतीय हॉकी की महा-दुर्दशा के तमाम कारणों में से एक यह भी है कि इसे देखने वाला कोई संगठन ही नहीं है। देश में दो संगठन हॉकी के नाम पर हैं। एक को अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ की मान्यता है तो दूसरे को देश की अदालत ने वैध संगठन माना है।
आईपीएल मैच खत्म होने के बाद रात में पार्टियाँ होती है। यह भी खिलाड़ियों के कॉण्ट्रैक्ट का एक हिस्सा है। इन पार्टियों में शराबखोरी और छेड़खानी की घटनाएं होने लगीं हैं। इस किस्म की पार्टियों में अक्सर मुक्केबाजी होती है। यह सिर्फ आईपीएल की बात नहीं है। भारतीय टेस्ट क्रिकेट टीम की बात भी है। कुल मिलाकर खेल और अपराध का यह गठजोड़ सांस्कृतिक पतन का कारण भी बन रहा है। भारतीय क्रिकेट टीम के पुराने खिलाड़ी और सांसद कीर्ति आजाद एक अर्से से इस बात को उठा रहे हैं कि आईपीएल क्रिकट नहीं है, बल्कि मनी लाउंडरिंग का जरिया बन गया है। यह सच है कि आईपीएल के कारण क्रिकेट की लोकप्रियता बढ़ी, खिलाड़ियों को पैसा मिला और नए खिलाड़ियों को विश्व प्रसिद्ध खिलाड़ियों के साथ खेलने का मौका मिला। दूसरी ओर इसने एक गलीज़ संस्कृति को जन्म दिया है। इसलिए ज़रूरी है कि इसपर सामाजिक निगरानी हो। अजय माकन कानून नहीं बनवा पाए। अलबत्ता वे खेलमंत्री पद से हट गए। यह जिम्मेदारी नए खेलमंत्री की है कि वे संसद के मार्फत खेलों पर सामाजिक निगरानी का इंतज़ाम करें।

बीसीसीआई भारतीय क्रिकेट टीम को तैयार करती है। टीम के साथ राष्ट्रीय प्रतिष्ठा जुड़ती है। उसके खाते आरटीआई के लिए खुलने चाहिए और आईपीएल के तमाशे को कड़े नियमन के अधीन लाया जाना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो यह मामला सरकार के गले की हड्डी बन जाएगा। आईपीएल जैसी खेल संस्कृति को जन्म दे रहा है वह खतरनाक है। उससे ज्यादा खतरनाक है इसकी आड़ में चल रही आपराधिक गतिविधियाँ जिनका अभी अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। दाऊद इब्राहीम जैसे माफिया भी इसके कारोबार की ओर मुखातिब हुए हैं। क्रिकेट की सट्टेबाज़ी के ताज़ा प्रकरण की गहराई से जाँच हो तो उसकी जड़ें बहुत दूर तक जाएंगी। यह जाँच खुलकर होनी चाहिए। दूसरी ओर खेल मैदान को खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों तक सीमित रहने देना चाहिए। इसमें राजनीति के प्रवेश को रोकना चाहिए। सवाल यह नहीं है कि एन श्रीनिवासन हटेंगे या नहीं। उनके हटने का मतलब है उनके विरोधी गुट को बैठने की जगह मिलेगी। अनुभव यह है कि तकरीबन सारे गुट खेल के मैदान में गंदगी फैलाने का काम करते हैं। यह गंदगी दूर होनी चाहिए ताकि साफ-सुथरे मैदानों में साफ-सुथरे खेल हों। पर एक शंका फिर भी बाकी रह जाती है। कहीं यह क्रिकेट-कांड दूसरे मसलों से ध्यान हटाने की कोशिश तो नहीं?
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

Tuesday, May 28, 2013

क्रिकेट के सीने पर सवार इस दादागीरी को खत्म होना चाहिए

आईपीएल में स्पॉट फिक्सिंग की खबरें आने के बाद यह माँग शुरू हुई कि इसके अध्यक्ष एन श्रीनिवासन को हटाया जाए। श्रीनिवासन पर आरोप केवल सट्टेबाज़ी को बढ़ावा देने का नहीं है। वे बीसीसीआई के अध्यक्ष हैं और उनकी टीम चेन्नई सुपरकिंग्स आईपीएल में शामिल है। 

इस बात को सब जानते हैं कि आईपीएल की व्यवस्था अलग है, पर वह बीसीसीआई के अधीन काम करती है। बीसीसीआई का भारतीय क्रिकेट पर ही नहीं अब दुनिया के क्रिकेट पर एकछत्र राज है। यह उसकी ताकत थी कि उसने क्रिकेट की विश्व संस्था आईसीसी के निर्देशों को मानने से इनकार कर दिया। 

भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता ने इसका कारोबार चलाने वालों को बेशुमार पैसा और ताकत दी है। और इस ताकत ने बीसीसीआई के एकाधिकार को कायम किया है। यह मामूली संस्था नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार शांतनु गुहा रे ने हाल में बीबीसी हिन्दी वैबसाइट को बताया कि सत्ता के गलियारों में माना जाता है कि केंद्रीय मंत्री अजय माकन को खेल मंत्रालय से इसलिए हाथ धोना पड़ा, क्योंकि वे बीसीसीआई पर फंदा कसने की कोशिश कर रहे थे।

Monday, May 20, 2013

पराजय-बोध से ग्रस्त भाजपा




कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने के बाद पिछले हफ्ते लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में लिखा कि यह हार न होती तो मुझे आश्चर्य होता। पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा के प्रति उनकी कुढ़न का पता इस बात से लगता है कि उन्होंने उनका पूरा नाम लिखने के बजाय सिर्फ येद्दी लिखा है। 

वे इतना क्यों नाराज़ हैं? उनके विश्वस्त अनंत कुमार ने घोषणा की है कि येद्दियुरप्पा की वापसी पार्टी में संभव नहीं है। पर क्या कोई वापसी चाहता है?

उससे बड़ा सवाल है कि भाजपा किस तरह से पार्टी विद अ डिफरेंस नज़र आना चाहती है। उसके पास नया क्या है, जिसके सहारे वोटर का मन जीतना चाहती है? और उसके पास कौन ऐसा नेता है जो उसे चुनाव जिता सकता है?

भाजपा अभी तक कर्नाटक, यूपी और बिहार की मनोदशा से बाहर नहीं आ पाई है। उसके भीतर कहा जा रहा है कि सन 2008 में जब कर्नाटक में सरकार बन रही थी तब बेल्लारी के खनन माफिया रेड्डी बंधुओं को शामिल कराने का दबाव तो केन्द्रीय नेताओं ने डाला। क्या वे उनकी पृष्ठभूमि नहीं जानते थे? आडवाणी जी कहते हैं कि हमने भ्रष्टाचार में मामले में समझौता नहीं किया, पर क्या उन्होंने रेड्डी बंधुओं के बारे में अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी?

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि पिछले साल जब मुम्बई में पार्टी कार्यकारिणी में पहली बार नरेन्द्र मोदी भाग लेने आए तो येद्दियुरप्पा भी आए थे। पार्टी की भीतरी कलह कुछ नहीं केवल राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व का झगड़ा है। और इस वक्त यह झगड़ा नरेन्द्र मोदी बनाम आडवाणी की शक्ल ले चुका है। पिछले हफ्ते कर्नाटक के एमएलसी लहर सिंह सिरोया ने आडवाणी जी को चार पेज की करारी चिट्ठी लिखी है, जिसमें कुछ कड़वे सवाल हैं। सिरोया को पार्टी कोषाध्यक्ष पद से फौरन हटा दिया गया, पर क्या सवाल खत्म हो गए?

Monday, May 13, 2013

अब दलदल में हैं मनमोहन


कांग्रेस ने स्पष्ट किया है कि पवन बंसल और अश्विनी कुमार को पद से हटाने का फैसला पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का संयुक्त निर्णय था केवल सोनिया गांधी का नहीं। इस स्पष्टीकरण की ज़रूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि मीडिया में इस बात का चर्चा था कि सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से मंत्री हटे। आडवाणी जी ने अपने ब्लॉग में मनमोहन सिंह को उलाहना भी दिया कि अब पद पर बने रहने के क्या माने हैं? बहरहाल इतना ज़रूर स्पष्ट हो रहा है कि विपक्ष का निशाना अब सीधे मनमोहन सिंह बनेंगे।

पवन बंसल और अश्विनी कुमार की छुट्टी के बाद भी यूपीए-2 का संकट खत्म नहीं होगा। मंत्रियों के इस्तीफों के पीछे सोनिया गांधी का हाथ होने की बात मीडिया में आने के कारण जहाँ पार्टी अध्यक्ष की स्थिति बेहतर हुई है वहीं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की स्थिति बिगड़ी है। 

कोल ब्लॉक आबंटन तब हुआ जब कोयला मंत्रालय का प्रभार भी प्रधानमंत्री के पास था। इसलिए कोयले की कालिख अब सीधे प्रधानमंत्री पर लगेगी। सुप्रीम कोर्ट के सामने सीबीआई की जो स्टेटस रिपोर्ट पेश हुई है उसके अनुसार सन 2006 से 2009 के बीच कोल ब्लॉक आबंटनों के सिलसिले में अनाम अधिकारियों के खिलाफ 11 एफआईआर दायर की गई हैं।

कौन हैं वे अधिकारी? उनका नाम पता  लगाने के पहले यह बताना ज़रूरी होगा कि उस वक्त कोयला मंत्रालय मनमोहन सिंह के पास था।

Monday, May 6, 2013

इस स्टूडियो-उन्माद को भी बन्द कीजिए


अच्द्दा हुआ कि लद्दाख में चीनी फौजों की वापसी के बाद तनाव का एक दौर खत्म हुआ, पर यह स्थायी समाधान नहीं है। भारत-चीन सीमा उतनी अच्छी तरह परिभाषित नहीं है, जितना हम मान लेते हैं। दूसरे हम पूछ सकते हैं कि हमारी सेना अपनी ही सीमा के अंदर पीछे क्यों हटी? इस सवाल का जवाब बेहतर हो कि राजनयिक स्तर पर हासिल किया जाए। पिछले हफ्ते कई जगह कहा जा रहा था कि भारत सॉफ्ट स्टेट है। सरकार ने शर्मनाक चुप्पी साधी है। बुज़दिल, कायर, दब्बू, नपुंसक। खत्म करो पाकिस्तान के साथ राजनयिक सम्बन्ध। तोड़ लो चीन से रिश्ते। मिट्टी में मिला दी हमारी इज़्ज़त। इस साल जनवरी में जब दो भारतीय सैनिकों की जम्मू-कश्मीर सीमा पर गर्दन काटे जाने की खबरें आईं तब लगभग ऐसी प्रतिक्रियाएं थीं। और फिर जब लद्दाख में चीनी घुसपैठ और सरबजीत सिंह की हत्या की खबरें मिलीं तो इन प्रतिक्रयाओं की तल्खी और बढ़ गई। टीवी चैनलों के शो में बैठे विशेषज्ञों की सलाह मानें तो हमें युद्ध के नगाड़े बजा देने चाहिए। सरबजीत का मामला परेशान करने वाला है, पर मीडिया ने उसे जिस किस्म का विस्तार दिया वह अवास्तविक है। हम भावनाओं में बह गए। सच यह है कि जब सुरक्षा और विदेश नीति पर बात होती है तो हम उसमें शामिल नहीं होते। उसे बोझिल और उबाऊ मानते हैं। और जब कुछ हो जाता है तो बचकाने तरीके से बरताव करने लगते हैं। हमने 1965, 1971 और 1999 की लड़ाइयों में पाकिस्तान के साथ राजनयिक रिश्ते नहीं तोड़े तो आज तोड़ने वाली बात क्या हो गईहम बात-बात पर इस्रायली और अमेरिकी कार्रवाइयों का जिक्र करते हैं। क्या हमारे पास वह ताकत है? और हो भी तो क्या फौरन हमले शुरू कर दें? किस पर हमले चाहते हैं आप?  बेशक हम राष्ट्र हितों की बलि चढ़ते नहीं देख सकते, पर हमें तथ्यों की छान-बीन करने और बात को सही परिप्रेक्ष्य में समझना भी चाहिए। 

Monday, April 29, 2013

सीबीआई क्या खुद पहल करेगी?

कोल ब्लॉक आबंटन की स्टेटस रिपोर्ट के मसले में कानून मंत्री और सीबीआई डायरेक्टर दोनों ने मर्यादा का उल्लंघन किया है। पर इस वक्त सीबीआई डायरेक्टर चाहें तो एक बड़े बदलाव के सूत्रधार बन सकते हैं। इस मामले में सच क्या है, उनसे बेहतर कोई नहीं जानता। उन्हें निर्भय होकर सच अदालत और जनता के सामने रखना चाहिए। दूसरे ऐसी परम्परा बननी चाहिए कि भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा तथा अन्य महत्वपूर्ण सेवाओं के अफसरों को सेवानिवृत्ति के बाद कम से कम पाँच साल तक कोई नियुक्ति न मिले। भले ही इसके बदले उन्हें विशेष भत्ता दिया जाए। इससे अफसरों के मन में लोभ-लालच नहीं रहेगा। सत्ता का गलियारा बेहद पेचीदा है। यहाँ के सच उतने सरल नहीं हैं, जितने हम समझते हैं। बहरहाल काफी बातें अदालत के सामने साफ होंगी। रंजीत सिन्हा के हलफनामे में जो नहीं कहा गया है वह सामने आना चाहिएः-
कुछ बातें जो अभी तक विस्मित नहीं करती थीं, शायद वे अब विस्मित करें। कोयला मामले में सीबीआई डायरेक्टर रंजीत सिन्हा के अदालत में दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि मामले की स्टेटस रिपोर्ट का ड्राफ्ट कानून मंत्री को दिखाया गया, जिसकी उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी। सीबीआई ने अपनी रपट 8 मार्च को दाखिल की थी। उसके बाद 12 मार्च को अटॉर्नी जनरल जीई वाहनावती ने अदालत से कहा कि हमने इस रपट को देखा नहीं था। इसके बाद अदालत ने सीबीआई के डायरेक्टर को निर्देश दिया कि वे हलफनामा देकर बताएं कि यह रिपोर्ट सरकार को दिखाई गई या नहीं। अदालत ने ऐसा निर्देश क्यों दिया? इसके बाद 13 अप्रेल के अंक में इंडियन एक्सप्रेस ने खबर दी कि सीबीआई डायरेक्टर अदालत में दाखिल होने वाले हलफनामे में इस बात को स्वीकार करेंगे कि रपट सरकार को दिखाई गई थी।

Monday, April 22, 2013

ब्रेक के बाद... और अब वक्त है राजनीतिक घमासान का


बजट सत्र का उत्तरार्ध शुरू होने के ठीक पहले मुलायम सिंह ने माँग की है कि यूपीए सरकार को चलते रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। उधर मायावती ने लोकसभा के 39 प्रत्याशियों की सूची जारी की है। दोनों पार्टियाँ चाहेंगी तो चुनाव के नगाड़े बजने लगेंगे। उधर टूजी मामले पर बनी जेपीसी की रपट कांग्रेस और डीएमके के बाकी बचे सद्भाव को खत्म करने जा रही है।  कोयला मामले में सीबीआई की रपट में हस्तक्षेप करने का मामला कांग्रेस के गले में हड्डी बन जाएगा। संसद का यह सत्र 10 मई को खत्म होगा। तब तक कर्नाटक के चुनाव परिणाम सामने आ जाएंगे। भाजपा के भीतर नरेन्द्र मोदी को लेकर जो भीतरी द्वंद चल रहा है वह भी इस चुनाव परिणाम के बाद किसी तार्किक परिणति तक पहुँचेगा।  राजनीति का रथ एकबार फिर से ढलान पर उतरने जा रहा है। 

Monday, April 15, 2013

अगले चुनाव के बाद खुलेगी राजनीतिक सिद्धांतप्रियता की पोल


जिस वक्त गुजरात में दंगे हो रहे थे और नरेन्द्र मोदी उन दंगों की आँच में अपनी राजनीति की रोटियाँ सेक रहे थे उसके डेढ़ साल बाद बना था जनता दल युनाइटेड। अपनी विचारधारा के अनुसार नीतीश कुमार, जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव किसी की नरेन्द्र मोदी की रीति-नीति से सहमति नहीं थी। नीतीश कुमार उस वक्त केन्द्र सरकार में मंत्री थे। वे आसानी से इस्तीफा दे सकते थे। शायद उन्होंने उस वक्त नहीं नरेन्द्र मोदी की महत्ता पर विचार नहीं किया। सवाल नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने या न बनने का नहीं। प्रत्याशी बनने का है। उनके प्रत्याशी बनने की सम्भावना को लेकर पैदा हुई सरगर्मी फिलहाल ठंडी पड़ गई है।

Monday, April 8, 2013

धा धा धिन्ना, नमो नामो बनाम राग रागा



लालकृष्ण आडवाणी का कहना है कि मैं एक सपने के सहारे राजनीति में सक्रिय हूँ। उधर नरेन्द्र मोदी गुजरात का कर्ज़ चुकाने के बाद भारत माँ का कर्ज़ चुकाने के लिए दिल्ली आना चाहते हैं। दिल्ली का कर्ज़ चुकाने के लिए कम से कम डेढ़ दर्जन सपने सक्रिय हो रहे हैं। ये सपने क्षेत्रीय राजनीति से जुड़े हैं। उन्हें लगता है कि प्रदेश की खूब सेवा कर ली, अब देश-सेवा की घड़ी है। बहरहाल आडवाणी जी के सपने को विजय गोयल कोई रूप देते उसके पहले ही उनकी बातों में ब्रेक लग गया। विजय गोयल के पहले मुलायम सिंह यादव ने आडवाणी जी की प्रशंसा की थी। भला मुलायम सिंह आडवाणी की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? हो सकता है जब दिल्ली की गद्दी का फैसला हो रहा हो तब आडवाणी जी काम आएं। मुलायम सिंह को नरेन्द्र मोदी के मुकाबले वे ज्यादा विश्वसनीय लगते हैं। कुछ और कारण भी हो सकते हैं। मसलन नरेन्द्र मोदी यूपी में प्रचार के लिए आए तो वोटों का ध्रुवीकरण होगा। शायद मुस्लिम वोट फिर से कोई एक रणनीति तैयार करे। और इस रणनीति में कांग्रेस एक बेहतर विकल्प नज़र आए। उधर आडवाणी जी लोहिया की तारीफ कर रहे हैं। क्या वे भी किसी प्रकार की पेशबंदी कर रहे हैं? आपको याद है कि आडवाणी जी ने जिन्ना की तारीफ की थी। उन्हें लगता है कि देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी छवि सौम्य सभी वर्गों के लिए स्वीकृत बनानी होती है। जैसी अटल बिहारी वाजपेयी की थी।

Monday, April 1, 2013

विचार और सिद्धांत की अनदेखी करती राजनीति

पिछले बुधवार को तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पास करके माँग की कि केंद्र सरकार श्रीलंका के साथ मित्र राष्ट्र जैसा व्यवहार बंद करे। इसके पहले यूपीए-2 को समर्थन दे रही पार्टी डीएमके ने केन्द्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया। तमिलनाडु में श्रीलंका को लेकर पिछले तीन दशक से उबाल है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि श्रीलंका के खिलाड़ी वहाँ खेल न पाए हों। या भारतीय टीम के तमिल खिलाड़ियों को श्रीलंका में कोई परेशानी हुई हो। पर तमिलनाडु में अब श्रीलंका के पर्यटकों का ही नहीं खिलाड़ियों का प्रवेश भी मुश्किल हो गया है। मुख्यमंत्री जयललिता ने हाल में श्रीलंकाई एथलीटों का राज्य में प्रवेश रोक दिय़ा। पिछले साल सितम्बर में उन्होंने श्रीलंकाई छात्रों को चेन्नई में दोस्ताना फुटबाल मैच खेलने की अनुमति नहीं दी थी। और अब आईपीएल के मैचों में श्रीलंका के खिलाड़ी चेन्नई में खेले जा रहे मैचों में नहीं खेल पाएंगे। दूसरी ओर जब तक ममता बनर्जी की पार्टी यूपीए में शामिल थी केन्द्र सरकार की नीतियों को लागू कर पाना मुश्किल हो गया था। खासतौर से विदेश नीति के मामले में ममता ने भी उसी तरह के अड़ंगे लगाने शुरू कर दिए थे जैसे आज तमिलनाडु की राजनीति लगा रही है। ममता बनर्जी ने पहले तीस्ता पर, फिर एफडीआई, फिर रेलमंत्री, फिर एनसीटीसी और फिर राष्ट्रपति प्रत्याशी पर हठी रुख अख्तियार करके कांग्रेस को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया था, जहाँ से पीछे हटने का रास्ता नहीं बचा था। और अंततः दोस्ती खत्म हो गई।

Tuesday, March 26, 2013

राजनीति में साल भर चलती है होली


पिछला हफ्ता राजनीतिक तूफानों का था तो अगला हफ्ता होली का होगा। संसद के बजट सत्र का इंटरवल चल है। अब 22 अप्रेल को फिर शुरू होगा, जो 10 मई तक चलेगा। पिछले हफ्ते डीएमके, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच के रिश्तों ने अचानक मोड़ ले लिया। किसी की मंशा सरकार गिराने की नहीं है, पर लगता है कि अंत का प्रारम्भ हो गया है। किसी को किसी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की ज़रूरत नहीं है। शायद सरकार खुद ही तकरीबन छह महीने पहले चुनाव कराने का प्रस्ताव लेकर आए। पर उसके पहले कुछ बातें साफ हो जाएंगी। एक तो यह कि उदारीकरण के जुड़े कानून संसद के शेष दिनों में पास करा दिए जाएंगे और दूसरे चुनाव पूर्व के गठबंधन भले ही तय न हो पाएं, चुनावोत्तर गठबंधनों की सम्भावनाओं पर गहरा विमर्श हो जाएगा।

Monday, March 18, 2013

उदीयमान भारत के अंतर्विरोध


जवाहर लाल के कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की स्थिति काफी अच्छी थी। गुट निरपेक्ष देशों के नेताओं टीटो-नासर और नेहरू की वृहत्त्रयी ने जो आभा मंडल बनाया था, वह भावनात्मक ज्यादा था। उसके पीछे व्यावहारिक शक्ति नहीं थी। सन 1962 में चीन के साथ हुई लड़ाई में नेहरू का वह आभा मंडल अचानक पिघल गया। उसके बाद सन 1971 में इंदिरा गांधी ने अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय देते हुए एक ताकतवर भारत की परिकल्पना पेश की। हालांकि उसी दौर में भारत के अंदरूनी अंतर्विरोध भी उभरे। सन 1973 का आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव अस्सी के दशक में पंजाब आंदोलन और अंततः इंदिरा गांधी की हत्या का कारण भी बना। उन्हीं दिनों मंडल और कमंडल के दो बड़े आंदोलनों ने हमारे सामाजिक अंतर्विरोधों को खोला। पाकिस्तान में उसी दौरान ज़िया-उल-हक ने कट्टरता की फसल को बोना शुरू कर दिया। सन 1971 के आहत पाकिस्तान का निशाना कश्मीर था, जहाँ अस्सी के उतरते दशक में हिंसक आंदोलन शुरू हो गया। और जिसमें पाकिस्तान की सबसे बड़ी भूमिका थी।

Tuesday, March 12, 2013

बदलते दौर में पाकिस्तान


पाकिस्तानी प्रधानमंत्री राजा परवेज की अजमेर शरीफ की निजी यात्रा को भारतीय मीडिया ने इस तरीके से कवर किया मानो ओबामा की सरकारी यात्रा हो। प्रायः हर चैनल में एंकर दिन भर यह सवाल पूछते रहे कि पाकिस्तान हमारे फौजियों की गर्दनें काट रहा है और हम उनके प्रधानमंत्री को लंच दे रहे हैं। शायद श्रोताओं और दर्शकों को यह सवाल पसंद आता है। पर पसंद क्यों आता है? इसकी एक वजह यह भी है कि यही मीडिया अपने दर्शकों, पाठकों को चुनींदा जानकारी देता है। यह बात सरहद के दोनों ओर है। इतिहास के क्रूर हाथों ने दोनों देशों को एक-दूसरे का दुश्मन क्यों बनाया और क्या यह दुश्मनी अनंतकाल तक चल सकती है? क्या हम एक-दूसरे के अंदेशों, संदेहों और जानकारियों से परिचित हैं? पाकिस्तान क्या वैसा ही है जैसा हम समझते हैं? और क्या भारत वैसा ही है जैसा पाकिस्तानियों को बताया जाता है?

Tuesday, February 26, 2013

हंगामा करने मात्र से आतंक को हराना सम्भव नहीं


हैदराबाद के बम धमाके जब हुए हैं तब हमारी संसद का सत्र चल रहा है। धमाकों की गूँज संसद में सुनाई भी पड़ी है। उम्मीद करनी चाहिए कि राष्ट्रीय राजनीति इन धमाकों  के निहितार्थ को जनता का सामने रखेगी और कोई समाधान पेश करेगी। यह मानने के पहले हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि आतंकी गतिविधियाँ फिलंहाल हमारे जीवन का हिस्सा हैं। इन्हें पूरी तरह खत्म करने का दावा नहीं किया जा सकता, पर समाधान खोजा जा  सकता है। न्यूयॉर्क और लंदन से लेकर मैड्रिड तक धमाकों के मंज़र देख चुके हैं। भारत के मुकाबले अमेरिका आतंकवादियों का ज़्यादा बड़ा निशाना है, पर 9/11 के बाद अमेरिका ने दूसरा मौका धमाका-परस्तों को नहीं दिया। बेशक हम उतने समृद्ध नहीं। भौगोलिक रूप से हमारी ज़मीन पर दुश्मन का प्रवेश आसान है। इन बातों के बावज़ूद हमें खुले दिमाग से कुछ मसलों पर विचार करना चाहिए। खासतौर से इस बात को ध्यान में रखते हुए कि भारत आर्थिक बदलाव के महत्वपूर्ण दौर से गुज़र रहा है और नए प्रकार की राष्ट्र-रचना का काम चल रहा है। तथ्य यह है कि नवम्बर 2008 में मुम्बई धमाकों और उसके बाद छह शहरों में हुए धमाकों में से किसी की तह तक हम नहीं पहुँच पाए। बावजूद इसके कि हमने नेशनल इंटेलिजेंस एजेंसी बनाई है, जिसका काम सिर्फ आतंकवादी मामलों की जाँच करना है। दिल्ली हाईकोर्ट धमाकों में भी कोई बड़ी प्रगति नहीं हो पाई। आमतौर पर धमाकों के पीछे इंडियन मुजाहिदीन या हूजी का हाथ माना जाता है जो प्रकारांतर से लश्करे तैयबा से जुड़ते हैं। हाल में हिन्दुत्ववादी संगठनों का हाथ भी देखा गया है। आतंकवाद से सुरक्षा के दो पहलू हैं। एक है कार्रवाई से पहले की खुफिया सूचना और दूसरा है जाँच। हम दोनों जगह नाकाम हैं।
हैदराबाद धमाकों के राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक निहितार्थ को एक-एक करके देखें तो कुछ सकारात्मक और कुछ नकारात्मक बातें सामने आएंगी। धमाकों की खबर के साथ ही मीडिया हरकत में आ गया जैसा कि हमेशा होता है। रात के पौने नौ बजे अपने आप को सबसे तेज़ कहने वाले चैनल ने मरने वालों की संख्या  24 पर पहुँचा दी थी। यह संख्या दूसरे चैनलों के अनुमानों की दुगनी थी और अब तक के अनुमानों से भी ज्यादा है। दूसरे चैनल बम धमाकों की संख्या दो या तीन के बीच अटके थे वहीं इस चैनल पर इससे ज्यादा का अंदेशा व्यक्त किया जा रहा था। धमाकों का उद्देश्य अफरा-तफरी फैलाने का था तो मीडिया का काम उसे बढ़ाने का नहीं होना चाहिए। न्यूयॉर्क पर हुए आतंकी हमले की कवरेज को देखें तो आप पाएंगे कि मीडिया ने अव्यवस्था और अराजकता के बजाय व्यवस्था को दिखाने की कोशिश की। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की ऊँची इमारत की सीढ़ियों में दो कतारें अपने आप बन गईं। एक कतार में लोग उतर रहे थे और दूसरी कतार में राहतकर्मी ऊपर जा रहे थे। आपने लाशों की तस्वीरें देखी भी नहीं होंगी। इसके विपरीत मुम्बई पर हुए आतंकी हमले की भारतीय मीडिया कवरेज ने पाकिस्तान में बैठे आतंकियों को मदद पहुँचाई। आतंकियों और उन्हें निर्देश देने वालों के फोन-संदेशों ने इस बात की पुष्टि की। ज़रूरत इस बात की है कि मीडियाकर्मियों को इन स्थितियों में कवरेज का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
दूसरा पाठ प्रशासनिक व्यवस्था का है। गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे के वक्तव्य से लगता है कि सरकार के पास कुछ शहरों में धमाकों के अंदेशे की खुफिया जानकारी थी। जानकारी इतनी साफ हो कि किस वक्त पर कहाँ हमला हो सकता है तो हमला हो ही नहीं पाता। पर मोटा अंदेशा हो तो पेशबंदी की जा सकती है। हैदराबाद में क्या पेशबंदी थी, अभी यह स्पष्ट नहीं है। लगता है कि सुरक्षा-व्यवस्था को इसका गुमान नहीं  था। इसे इंटेलिजेंस फेल होना कहते हैं। इंटेलिजेंस या खुफियागीरी कई तरह से होती है। इसमें तकनीक का इस्तेमाल होता है, दूसरे देशों या संगठनों की सूचनाओं को एकत्र किया जाता है और जनता से सीधे प्राप्त जानकारियों को हासिल किया जाता है। इसे मानवीय या ह्यूमन इंटेलिजेंस कहते हैं। हमारे यहाँ ह्यूमन इंटेलिजेंस बेहद कमज़ोर है। इसके सामाजिक और प्रशासनिक दोनों कारण हैं। मसलन हैदराबाद में अमोनियम नाइट्रेट से बम बनाया गया था। यह सबसे आसानी से मिलने वाला विस्फोटक है जो खेती के काम भी आता है। इसकी बिक्री को नियंत्रित करने के साथ-साथ इसके विक्रेताओं से सम्पर्क रखने और उन्हें प्रशिक्षित करने की ज़रूरत भी होगी। पर हम यह काम नहीं कर पाए हैं। हमने जानकारियों का नेशनल ग्रिड (नैट ग्रिड) बनाया है, पर लगता है जानकारियों के विश्लेषण की पद्धति तैयार नहीं की। इससे भी बड़ी बात यह है कि पुलिस बलों के पास पर्याप्त लोग नहीं हैं, जो अपने इलाके की जनता से दोस्ताना रिश्ता रखें। उन्हें इसके लिए प्रशिक्षित भी नहीं किया गया है। इसी महीने सुप्रीम कोर्ट में एक लोक याचिका के संदर्भ में तमाम तथ्य सामने आए हैं कि किस तरीके से हमारे नेता वीआईपी सुरक्षा के नाम लाल बत्ती, एक्स-वाई-जेड सुरक्षा की तलाश में रहते हैं। इसके कारण जनता की सुरक्षा पीछे रह जाती है। खुफिया एजेंसियों में युवा खून की ज़रूरत भी है। अधिकतर एजेंसियों में 50 से ऊपर की उम्र के लोग यह काम कर रहे हैं, जबकि आतंकी संगठन किशोरों को आकर्षित कर रहे हैं। इसमें भी दो राय नहीं कि बेरोज़गारी और गरीबी ने किशोरों को भ्रमित कर दिया है। उन्हें सकारात्मक रास्ते पर लाने की जिम्मेदारी व्यवस्था की है। और भ्रष्टाचार पर काबू पाने की ज़रूरत भी है, क्योंकि आतंकियों के पास पैसा हथियार बैकडोर से आते हैं।
राजनीतिक दृष्टि से देखें तो हमारे सामने सबसे बड़ा उदाहरण है नेशनल काउंटर टैररिज़्म सेंटर (एनसीटीसी)। पिछले साल फरवरी में सरकार ने अचानक इसे बनाने की घोषणा कर दी। इसपर कुछ राज्य सरकारों ने इसमें अड़ंगा लगा दिया। यदि हमें एनसीटीसी की ज़रूरत है तो उसके राजनीतिक निहितार्थ को जल्द से जल्द समझ कर इसका रास्ता साफ करना चाहिए। पिछले एक साल में यह मामला जस का तस है। हैदराबाद की घटना क्या मजलिसे इत्तहादुल मुस्लिमीन के विधायक अकबरुद्दीन ओवेसी के भाषण का परिणाम थी? लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने यह सवाल उठाया है। उनका यह भी कहना था कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में सरकार और भाजपा का दृष्टिकोण एक नहीं है। यह चिंतनीय वक्तव्य है। इन दो दलों का नहीं पूरे देश का दृष्टिकोण एक होना चाहिए। यह आम जनता की सुरक्षा का सवाल है। बेशक जब अकबरुद्दीन ओवेसी का ज़िक्र होगा तो प्रवीण तोगड़िया का भी होगा। राजनीतिक दलों को इस मामले की संवेदनशीलता को समझना चाहिए। 
एक महत्वपूर्ण पहलू अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है। इस बात तक की तह तक पहुँचने की ज़रूरत है कि पाकिस्तान में कराची प्रोजेक्टनाम से लश्करे तैयबा का वह गिरोह चल रहा है या नहीं जिसका उद्देश्य भारत में अराजकता फैलाना है। कराची प्रोजेक्ट के बारे में डेविड कोल हैडली ने अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफबीआई को जानकारी दी थी। यह प्रोजेक्ट 2003 से चल रहा था और अनुमान है कि आज भी सक्रिय है। लश्करे तैयबा अपने नए नाम दारुल उद दावा के रूप में सक्रिय है और हाफिज सईद दिफा-ए-पाकिस्तान कौंसिल के नाम से कट्टरपंथी आंदोलन चला रहे हैं। मुम्बई धमाकों के सिलसिले में पाकिस्तान सरकार के आश्वासन के बावज़ूद वहाँ से आए आयोग की जानकारी को पाकिस्तान की अदालत ने साक्ष्य नहीं माना। और अब एक नए आयोग की व्यवस्था की जा रही है, जो इस मामले की तफतीश से जुड़े लोगों से बात करेगा। इतना साफ है कि पाकिस्तान की नागरिक सरकार इतनी ताकतवर नहीं है कि वह लश्करे तैयबा पर काबू पा सके। हाफिज सईद पर अमेरिका की ओर से 10 मिलियन डॉलर के इनाम की घोषणा के बाद से उसके हौसले बढ़े ही हैं, कम नहीं हुए। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में हम तभी जीत सकते हैं जब सामाजिक और राजनीतिक रूप से एक और प्रशासनिक रूप से कुशल हों। 

Monday, February 18, 2013

भारतीय सुरक्षा को प्रभावित करेगी यह 'भिंडी बाज़ार' मनोवृत्ति


भारत सरकार ने ऑगस्टा वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर के समझौते को रद्द करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। समझौते का रद्द होना इटली की कम्पनी फिनमैकेनिका के लिए बहुत बड़ा झटका साबित होगा। इतना ही बड़ा झटका यूपीए सरकार को लगेगा। क्योंकि इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं। मीडिया में इस आशय की जानकारियाँ अलग-अलग स्रोतों से आने लगी हैं कि फायदा परिवार को मिला। इस तरह की बातों से भ्रम की स्थिति पैदा होती है। प्रमाणों के साथ बात की जानी चाहिए। अच्छी बात यह है कि मामले की शुरूआत इटली सरकार ने की है। हमें जो भी जानकारियाँ मिल रहीं हैं, वे सब वहीं से हासिल हो रही हैं। अब सीबीआई को इटली जाकर जाँच करने का मौका मिलेगा, पर उसके पहले वहाँ की सरकार और अदालत से इज़ाज़त लेनी होगी। इस मामले की तुलना बोफोर्स मामले से की जाती है, पर उस मामले में स्वीडन सरकार ने सहयोग नहीं किया था। सारी जाँच भारतीय एजेंसियों और मीडिया के मार्फत हुई थी। इस बार इटली की सरकार ने पहल की है। आश्चर्य इस बात पर है कि तकरीबन एक साल से यह मामला भारतीय मीडिया में उछल रहा था, पर सरकार ने पहल नहीं की।

Monday, February 11, 2013

फाँसी की राजनीति


भारत में किसी भी बात पर राजनीति हो सकती है। अफज़ल गुरू को फाँसी देने के सवाल पर और उससे जुड़ी तमाम पेचीदगियों पर भी। और अब अफज़ल गुरू के बाद पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह तथा राजीव गांधी की हत्या के अभियुक्तों को फाँसी की मसला राजनीति का विषय बनेगा।  
फेसबुक पर कानपुर के पत्रकार ज़फर इरशाद का स्टेटस था, कांग्रेस के लोगों के पास ज़बरदस्त दिमाग है..जैसे ही उसने देखा कुम्भ में बहुत मोदी-मोदी हो रहा है, उसने अफज़ल को फाँसी देकर सारी ख़बरों को डाइवर्ट कर दिया..अब कोई बचा है क्या फाँसी के लिए?” अजमल कसाब की तरह अफज़ल गुरू की फाँसी न्यायिक प्रक्रिया से ज़्यादा राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा नज़र आती हैं। इस सिलसिले में अभी कुछ और पात्र बचे हैं, जिनकी सज़ा राजनीतिक कारणों से रुकी है। बहरहाल एक और टिप्पणी थी फ्रॉम सॉफ्ट टु एक्शन टेकिंग स्टेट। यानी सरकार अपनी छवि बदलने की कोशिश में है। यह भाजपा के हिन्दुत्व को दिया गया जवाब है। लम्बे अरसे से कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान में ही नहीं, हमारे दो बड़े राजनीतिक दलों के बीच रस्साकशी चलती रही है। और यह बात कश्मीर समस्या और भारत-पाकिस्तान रिश्तों को परिभाषित करने में बड़ी बाधा है। अजमल कसाब और अफज़ल गुरू को फाँसी देने में जिस किस्म की गोपनीयता बरती गई वह इस अंतर्विरोध को रेखांकित करती है। हमारी  आंतरिक राजनीति पर विभाजन की छाया हमेशा रही है। और ऐसा ही पाकिस्तान में है। दोनों देशों में चुनाव की राजनीति इस प्रवृत्ति को बजाय कम करने के और ज्यादा बढ़ाती है। दोनों देशों के चुनाव करीब है।

Monday, February 4, 2013

कानूनी सुधार का अधूरा चिंतन


पिछले दो साल में हुए दो बड़े जनांदोलनों की छाया से सरकार बच नहीं पा रही है। यह छाया 21 फरवरी से शुरू होने वाले बजट सत्र पर भी पड़ेगी। इन आंदोलनों की नकारात्मक छाया से बचने के लिए सरकार ने पिछले हफ्ते दो बड़े फैसले किए हैं। केन्द्रीय कैबिनेट ने पहले लोकपाल विधेयक के संशोधित प्रारूप को मंज़ूरी दी और उसके बाद स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अपराधों को रोकने के लिए कानून में बदलाव की पहल करते हुए अध्यादेश लाने का फैसला किया। दोनों मामलों में सरकार कुछ देर से चेती है और दोनों में उसका आधा-अधूरा चिंतन दिखाई पड़ता है। अंदेशा यह है कि यह कदम उल्टा भी पड़ सकता है। सीपीएम ने इस बात को सीधे-सीधे कह भी दिया है। यह अधूरापन केवल सरकार में नहीं समूची राजनीति में है। इसके प्रमाण आपके सामने हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व आईपीएस अधिकारी प्रकाश सिंह की याचिका पर छह साल पहले सरकार को निर्देश दिया था कि वह पुलिस सुधार का काम करे। ज्यादातर राज्य सरकारों की दिलचस्पी इसमें नहीं है। पिछले साल लोकपाल आंदोलन को देखते हुए लगभग सभी दलों ने संसद में आश्वसान दिया था कि कानून बनाया जाएगा। जब 2011 के दिसम्बर में संसद में बहस की नौबत आई तो बिल लटक गया। सरकार अब जो विधेयक संशोधन के साथ लाने वाली है उसके पास होने के बाद लोकपाल की परिकल्पना बदल चुकी होगी। दिसम्बर 2011 में ही समयबद्ध सेवाएं पाने और शिकायतों की सुनवाई के नागरिकों के अधिकार का विधेयक भी पेश किया गया था। कार्यस्थल पर यौन शोषण से स्त्रियों की रक्षा का विधेयक 2010 से अटका पड़ा है। ह्विसिल ब्लोवर कानून के खिलाफ विधेयक अटका पड़ा है। भोजन का अधिकार विधेयक अटका पड़ा है। यह संख्या बहुत बड़ी है।