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Tuesday, January 31, 2012

जनता की खामोशियों को भी पढ़िए

गणतंत्र दिवस के दो दिन बाद मणिपुर में भारी मतदान हुआ और आज शहीद दिवस पर पंजाब और उत्तराखंड मतदान करेंगे। इसके बाद उत्तर प्रदेश का दौर शुरू होगा। और फिर गोवा। राज्य छोटे हों या बड़े परीक्षा लोकतांत्रिक प्रणाली की है। पिछले 62 साल में हमने अपनी गणतांत्रिक प्रणाली को कई तरह के उतार-चढ़ाव से गुजरते देखा है। पाँच राज्यों के इन चुनावों को सामान्य राजनीतिक विजय और पराजय के रूप में देखा जा सकता है और सत्ता के बनते बिगड़ते समीकरणों के रूप में भी। सामान्यतः हमारा ध्यान 26 जनवरी और 15 अगस्त जैसे राष्ट्रीय पर्वों या चुनाव के मौके पर व्यवस्था के वृहत स्वरूप पर ज्यादा जाता है। मौज-मस्ती में डूबा मीडिया भी इन मौकों पर राष्ट्रीय प्रश्नों की ओर ध्यान देता है। राष्ट्रीय और सामाजिक होने के व्यावसायिक फायदे भी इसी दौर में दिखाई पड़ते हैं। हमारी यह संवेदना वास्तविक है या पनीली है, इसका परीक्षण करने वाले टूल हमारे पास नहीं हैं और न इस किस्म की सामाजिक रिसर्च है। बहरहाल इस पिछले हफ्ते की दो-एक बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है, क्योंकि वह हमारे बुनियादी सोच से जुड़ी है।

Tuesday, January 24, 2012

इस वैश्विक ऑनलाइन बगावत के वैचारिक माने भी हैं

पिछले साल जनवरी के इन्हीं दिनों में ट्यूनीशिया से जनतांत्रिक विरोध की एक लहर उठी थी, जिसने पूरे पश्चिम एशिया और बाद में यूरोप और अमेरिका को हिलाकर रख दिया था। सोशल मीडिया के सहारे उठीं बगावत की वे लहरें अब भी चल रहीं हैं। पर पिछले हफ्ते इस क्रांति का एक और रूप देखने को मिला। पिछले बुधवार को दुनिया के सबसे बड़े ऑनलाइन एनसाइक्लोपीडिया विकीपीडिया ने अपनी सेवाओं को एक दिन के लिए ब्लैकआउट कर दिया। गूगल ने अपनी साइट पर एक ऑनलाइन पिटीशन जारी की जिसका 70 लाख से ज्यादा लोगों ने समर्थन किया। इलेक्ट्रॉनिक फ्रंटियर फाउंडेशन की पिटीशन को 10 लाख से ज्यादा लोगों का समर्थन मिला। सायबर संसार में विचरण करने वालों ने इंटरनेट पर जो बगावत देखी उसकी तुलना किसी और कार्य से नहीं की जा सकती।

Monday, January 16, 2012

सिर्फ दो महीने का सदाचार क्यों?

पत्रकार अम्बरीष कुमार ने फेसबुक पर लिखा है,’ इस बार कहीं भी सार्वजनिक रूप से न तो खिचड़ी का भंडारा हुआ और न लखनऊ में जगह जगह होने वाला तहरी भोज का आयोजन हुआ। न ही नव वर्ष और मकर संक्रांति के मौके पर किसी की शुभकामनाओं के बोर्ड और होर्डिंग। वजह सिर्फ चुनाव आयोग की सख्ती। भाजपा प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा-जब एक एक प्याली चाय का खर्चा उम्मीदवारों के खर्च में जोड़ दिया जा रहा है तो तहरी भोज जिसमे हजारों की संख्या में लोग आते है उसका खर्च चुनाव खर्च में जुड़वाने का जोखम कौन मोल लेगा।’ इस बार के चुनाव में प्रतिमाएं ढकने का प्रकरण सबसे ज्यादा चर्चा में है। मुसलमानों को आरक्षण देने की योजना और कानून मंत्री सलमान खुर्शीद और चुनाव आयोग के बीच अधिकार को लेकर छोटी सी चर्चा ने भी मामले को रोचक बना दिया।

Thursday, January 12, 2012

ममता बनर्जी की भी दूरगामी राजनीति है


बंगाल में कांग्रेस सत्तारूढ़ पार्टी के बजाय मुख्य विपक्षी दल जैसी नज़र आने लगी है। मानस भुनिया से लेकर दीपा दासमुंशी तक शिकायत कर रहे हैं। रायगंज कॉलेज के छात्रसंघ चुनाव में कांग्रेस और तृणमूल कार्यकर्ताओं के बीच बाकायदा संघर्ष हुआ और गिरफ्तारियाँ हुईं। शनिवार को ममता बनर्जी ने सबके सामने साफ कहा कि कांग्रेस चाहे तो बंगाल सरकार से अलग हो जाए। कांग्रेस की प्रतिक्रिया है कि हम जनता की सेवा करने आए हैं, करते रहेंगे। भीतर की कहानी यह है कि इस वक्त कांग्रेस बीजेपी को लेकर उतनी परेशान नहीं है, जितना ममता बनर्जी को लेकर है। लोकपाल बिल पर हुई फजीहत को लेकर कांग्रेस के प्रवक्ता बीजेपी पर गुस्सा उतार रहे हैं, पर निजी बातचीत में स्वीकार कर रहे हैं कि तृणमूल कांग्रेस के साथ समन्वय में कोई चूक हो गई है।

Monday, January 2, 2012

अंधेर नगरी का लोकतंत्र

नए साल का पहला दिन आराम का दिन था। आज काम का दिन है। हर नया साल चुनौतियों का साल होता है। पर हर साल की चुनौतियाँ गुणधर्म और प्रकृति में अनोखी होती हैं। हर दिन और हर क्षण पहले से फर्क होता है। पर जब हम समय का दायरा बढ़ाते हैं तो उन दायरों की प्रकृति भी परिभाषित होती है। पिछला साल दुनियाभर में स्वतः स्फूर्त जनांदोलनों का साल था। भारत में उतने बड़े आंदोलन नहीं हुए, जितने पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप के देशों में हुए। संकट खत्म नहीं हुआ है, बल्कि और गहरा रहा है। इसके घेरे में अमेरिका भी है, जहाँ इस साल बराक ओबामा को राष्ट्रपति पद के चुनाव में फिर से उतरना है। ओबामा अमेरिका में नई आशा की किरण लेकर आए थे। पर यह उम्मीद जल्द टूट गई। यह साल उम्मीदों की परीक्षाओं का साल है। आर्थिक दृष्टि से भारत, चीन और कुछ अन्य विकासशील देश इस संकट से बाहर हैं। इन देशों में राजनीतिक बदलाव की आहटें हैं। इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक दुनिया के लिए नई परिभाषाएं गढ़ने वाला है। हमारे लिए भी इसमें कुछ संदेश हैं।

Tuesday, December 27, 2011

किसे लगता है 'लोकतंत्र' से डर?

30 जनवरी महात्मा गांधी की 64वीं पुण्यतिथि है। पंजाब और उत्तराखंड के वोटरों को ‘शहीद दिवस’ के मौके पर अपने प्रदेशों की विधानसभाओं का चुनाव करने का मौका मिलेगा। क्या इस मौके का कोई प्रतीकात्मक अर्थ भी हो सकता है? हमारे राष्ट्रीय जीवन के सिद्धांतों और व्यवहार में काफी घालमेल है। चुनाव के दौरान सारे छद्म सिद्धांत किनारे होते हैं और सामने होता है सच, वह जैसा भी है। 28 जनवरी से 3 मार्च के बीच 36 दिनों में पाँच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होंगे। एक तरीके से यह 2012 के लोकसभा चुनाव का क्वार्टर फाइनल मैच है। 2013 में कुछ और महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव हैं, जिनसे देश की जनता का मूड पता लगेगा। उसे सेमीफाइनल कहा जा सकता है। क्योंकि वह फाइनल से ठीक पहले का जनमत संग्रह होगा। जनमत संग्रह लोकतंत्र का सबसे पवित्र शब्द है। इसी दौरान तमाम अपवित्रताओं से हमारा सामना होगा।

Monday, December 19, 2011

भेड़ों की भीड़ नहीं जागरूक जनता बनिए

सब ठीक रहा तो अब लोकपाल बिल आज या कल संसद में पेश कर दिया जाएगा। साल खत्म होते-होते देश पारदर्शिता के अगले पायदान पर पैर रख देगा। और कुछ नए सवालों के आधार तैयार कर लेगा। समस्याओं और समाधानों की यह प्रतियोगिता जारी रहेगी। शायद अन्ना हजारे की टीम 27 को जश्न का समारोह करे। हो सकता है कि इस कानून से असहमत होकर आंदोलन के रास्ते पर जाए। पर क्या हम अन्ना हजारे के या सरकार के समर्थक या विरोधी के रूप में खुद को देखते हैं? सामान्य नागरिक होने के नाते हमारी भूमिका क्या दर्शक भर बने रहने की है? दर्शक नहीं हैं कर्ता हैं तो कितने प्रभावशाली हैं? कितने जानकार हैं और हमारी समझ का दायरा कितना बड़ा है? क्या हम हताशा की पराकाष्ठा पर पहुँच कर खामोश हो चुके हैं? या हमें इनमें से किसी प्लेयर पर इतना भरोसा है कि उससे सवाल नहीं करना चाहते?

Monday, December 12, 2011

नीति-अनीति और सत्ता की राजनीति


अन्ना हजारे के आंदोलन का अगला चरण सत्ता की राजनीति के अपेक्षाकृत ज्यादा करीब होगा। राहुल गांधी चाहते तो इस सभा में जाते और वही घोषणा करते जो एक-दो दिन बाद सरकार करने वाली है तो कांग्रेस के लिए वह बेहतर होता। बहरहाल कांग्रेस का गणित कुछ और है। या वह इतना अस्पष्ट है कि कांग्रेस को भी समझ में नहीं आ रहा। पर चिन्ता का विषय है समूची राजनीति का विचार और नीति से दूर होते जाना। लोकपाल विधेयक से बड़ा भारी बदलाव नहीं हो जाएगा। खराबी जन-प्रतिनिधित्व कानून में है और सामाजिक व्यवस्था में भी। इसके लिए अलग-अलग किस्म की राजनीति की दरकार है। हमारी पहली ज़रूरत है राजनीति को वैधानिकता प्रदान करना। एक अरसे से यह अपराधियों के चंगुल में फँसी है। 

पिछले हफ्ते एक रोज पटना से दिल्ली जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस को अचानक रोक लिया गया। पता लगा कि कुछ सांसदों को प्रथम श्रेणी एसी की बर्थ नहीं मिल पाईं। ट्रेन से कुल 18 सांसद यात्रा करने वाले थे। उनमें से छह को प्रथम एसी में जगह मिल पाई। बाकी को सेकंड एसी में जगह दी गई है। ऐसा पहली बार हुआ। कुछ सासंदों की ट्रेन छूटी या कुछ देर से आए। संसदीय कार्यों में उनकी ठीक से शिरकत नहीं हो पाई। बहरहाल इसकी शिकायत रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी से की गई। उन्होंने सासंदों से माफी माँगी। कुछ सरकारी अफसरों का तबादला किया गया। साथ ही रेलमंत्री ने आश्वासन दिया कि भविष्य में सासंदों के रिजर्वेशन का काम सीधे रेल बोर्ड से किया जाएगा। रेलमंत्री ने एक जानकारी यह भी दी कि सरकारी सर्कुलर है कि कोई नया डिब्बा लगाने के लिए तीन दिन पहले से सूचना होनी चाहिए। वह सूचना नहीं थी इसलिए नया डिब्बा नहीं लग पाया।

Monday, December 5, 2011

बंद गली में खड़ी कांग्रेस



कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद गुरदास दासगुप्त का कहना है कि रिटेल में एफडीआई के फैसले को स्थगित करने का फैसला भारत सरकार का है, बंगाल सरकार का नहीं। इसकी घोषणा बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की। दो रोज पहले तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह रहे थे कि यह फैसला सुविचारित है और इसे वापस लेने की कोई सम्भावना नहीं है। ममता बनर्जी ने वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का हवाला देकर कहा है कि जबतक इस मामले में सर्वानुमति नहीं होती यह फैसला स्थगित रहेगा। प्रणब मुखर्जी का कहना है कि सरकार का दृष्टिकोण संसद में व्यक्त किया जाएगा। संसद का सत्र चल रहा है मैं कोई घोषणा नहीं कर सकता। बुधवार को पता लगेगा कि सरकार क्या कह रही है, पर लगता है कि यूपीए ने अपना मृत्युलेख लिख लिया है। क्या सरकार अपनी पराजय की घोषणा करने वाली है? मनमोहन सरकार के सबसे महत्वाकांक्षी सुधार कार्यक्रमों में से एक के ठंडे बस्ते में जाने के राजनीतिक संदेश साफ हैं। इसके आगे के सुधार कार्यक्रम अब सामने आ भी नहीं पाएंगे।

Monday, November 28, 2011

अर्थनीति को चलाने वाली राजनीति चाहिए

सन 1991 में जब पहली बार आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को देश में लागू किया गया था तब कई तरह की आशंकाएं थीं। मराकेश समझौते के बाद जब 1995 में भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना तब भी इन आशंकाओं को दोहराया गया। पिछले बीस साल में इन अंदेशों को बार-बार मुखर होने का मौका मिला, पर आर्थिक उदारीकरण का रास्ता बंद नहीं हुआ। दिल्ली में कांग्रेस के बाद एनडीए की सरकार बनी। वह भी उस रास्ते पर चली। बंगाल और केरल में वाम मोर्चे की सरकारें आईं और गईं, पर उन्होंने भी उदारीकरण की राह ही पकड़ी। इस तरह मुख्यधारा की राजनीति में उदारीकरण की बड़ी रोचक तस्वीर बनी है। ज्यादातर बड़े नेता उदारीकरण का खुला समर्थन नहीं करते हैं, पर सत्ता में आते ही उनकी नीतियाँ वैश्वीकरण के अनुरूप हो जाती हैं। आर्थिक उदारी के दो दशकों का अनुभव यह है कि हम न तो उदारीकरण के मुखर समर्थक हैं और न विरोधी। इस अधूरेपन का फायदा या नुकसान भी अधूरा है।

Wednesday, November 23, 2011

हताशा से जूझते भारत का ज्ञान और सपने

पता नहीं कितने अखबारों में यह खबर थी कि 'कौन बनेगा करोड़पति' में पाँच करोड़ जीतने वाले मोतीहारी के सुशील कुमार ने श्रीमती सोनिया गांधी से भेंट की। यह सम्मान ओलिम्पिक मेडल जीतने वालों को मिलता रहा है। कल यानी इतवार के अखबारों ने इस बार के केबीसी की व्यावसायिक सफलता का गुणगान किया है। किस तरह उसने 'स्मॉल टाउन इंडिया' की भावनाओं को भुनाया। बहरहाल कुछ ज्ञान और कुछ भाग्य के सहारे चलने वाला खेल गाँव-गाँव, गली-गली सपने बिखेरने में कामयाब हुआ है। यह सायास था या अनायास पर 'कौन बनेगा करोड़पति' में कुछ नई बातें देखने को मिलीं। इसमें शामिल होने वालों की बड़ी तादाद बिहार, झारखंड और हिन्दी राज्यों के पिछड़े इलाकों से थी। कार्यक्रम के प्रस्तोताओं ने दुर्भाग्य के शिकार, हताश और विफलता से जूझते लोगों पर खासतौर से ध्यान दिया। उनकी करुण-कथाएं देश के सामने रखीं। अमिताभ बच्चन ने इन निराश लोगों के जीवन में खुशियाँ बाँटीं। सन 2000 में जब यह सीरियल जब शुरू हुआ था तब लोगों को करोड़पति बनने का यह रास्ता नज़र आया। यह रास्ता सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक की लॉटरी संस्कृति से बेहतर था। कम से कम लोगों ने जीके का रट्टा तो लगाया।

Monday, November 14, 2011

कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
अन्ना आंदोलन शुरू होने के पहले करीब 42 साल से लोकपाल का मसला देश की जानकारी में था। पर उसे लेकर कोई आंदोलन खड़ा नहीं हुआ। अन्ना हजारे का पहला अनशन शुरू होते वक्त कोई किसी कोर कमेटी वगैरह की बात नहीं करता था। पहले से दूसरे अनशन के बीच जनांदोलनों से जुड़े तमाम लोग इस आंदोलन से जुड़े। मेधा पाटकर समर्थन में आईं तो अरुंधति रॉय विरोध में। इस बीच अन्ना टीम के सदस्यों के अंतर्विरोध भी सामने आए। कीचड़ भी उछला। शांति भूषण को लेकर एक सीडी वितरित हुई। उस सीडी की कानूनी परिणति क्या हुई मालूम नहीं, पर वह मामला भुला दिया गया। जैसे-जैसे आंदोलन भड़का अन्ना टीम के सदस्यों को लेकर विवाद खड़े होते गए। प्रशांत भूषण के कश्मीर-वक्तव्य पर विवाद, अन्ना पर मनीष तिवारी के आरोप, स्वामी अग्निवेश की सीडी, अरविन्द केजरीवाल को इनकम टैक्स विभाग का नोटिस, किरण बेदी के हवाई यात्रा टिकटों का विवाद, राजेन्द्र सिंह और पी राजगोपाल की आंदोलन से अलहदगी, कोर कमेटी में फेर-बदल का विवाद, ब्लॉग लेखक का विवाद वगैरह-वगैरह। जैसे-जैसे आंदोलन भड़का वैसे-वैसे अन्ना आंदोलन के अंतर्विरोध भी सामने आए। कुछ खुद-ब-खुद आए और कुछ भड़काए गए। आग में हाथ डालने पर झुलसन क्यों नहीं होगी?

Wednesday, November 9, 2011

भारत-पाक कारोबारी रिश्तों के दाँव-पेच

भारत-पाकिस्तान रिश्तों में किस हद तक संशय रहते हैं, इसका पता पिछले हफ्ते भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने की घोषणा के बाद लगा। पाकिस्तान की सूचना प्रसारण मंत्री ने बाकायदा इसकी घोषणा की, पर बाद में पता लगा कि फैसला हो ज़रूर गया है पर घोषणा में कोई पेच था। घोषणा सही थी या गलत, भारत का दर्जा बदल गया है या बदल जाएगा। तरज़ीही देश या एमएफएन शब्द भ्रामक है। इसका अर्थ वही नहीं है, जो समझ में आता है। इसका अर्थ यह है कि पाकिस्तान अब हमें उन एक सौ से ज्यादा देशों के बराबर रखेगा जिन्हें एमएफएन का दर्जा दिया गया है। मतलब जिन देशों से व्यापार किया जाता है उन्हें बराबरी की सुविधाएं देना। उनमें भेदभाव नहीं करना।

Monday, October 31, 2011

फॉर्मूला रेस कुशलता की प्रतीक ज़रूर है, पर इसकी राष्ट्रीय प्रश्नों से विसंगति है

अक्सर स्पोर्ट्स चैनलों पर आपने देखी होंगी विशेष ट्रैकों पर दौड़ती एक सीट की कारें। ये कारें खासतौर से बनाई जाती हैं। दुनियाभर के अलग-अलग सर्किटों पर ये कार रेस होती हैं। इन्हें ग्रां-प्रि या अंग्रेज़ी में ग्रैंड प्राइज़ (जीपी) रेस कहते हैं। उनके रिज़ल्ट जोड़कर दो वार्षिक चैम्पियनशिप होती हैं। एक ड्राइवरों के लिए और दूसरी कंस्ट्रक्टर्स के लिए। कंस्ट्रक्टर यानी इंजन, पहिए, चैसिस वगैरह जोड़कर खास तरह की कार बनाने वाले। ये कारें 360 किलोमीटर प्रति घंटा तक की रफ्तार से दौड़ती हैं। इन रेसों को दुनियाभर में देखा जाता है। सन 2010 के सीज़न में 52 करोड़ 70 लाख दर्शकों ने टीवी पर इन रेसों को देखा।

Monday, October 24, 2011

कारोबार और पत्रकारिता के बीच की दीवार कैसे टूटी?

प्रेस की आज़ादी का व्यावहारिक अर्थ है मीडिया के मालिक की आज़ादी। इसमें पत्रकार की जिम्मेदारी उन नैतिक दायित्वों की रक्षा करने की थी जो इस कर्म को जनोन्मुखी बनाते हैं। पर देर सबेर सम्पादक पद से पत्रकार हट गए, हटा दिए गए या निष्क्रिय कर दिए गए। या उनकी जगह तिकड़मियों और दलाल किस्म के लोगों ने ले ली। पर कोई मालिक खुद ऐसा क्यों करेगा, जिससे उसके मीडिया की साख गिरे? इसकी वजह कारोबारी ज़रूरतों का नैतिकताओं पर हावी होते जाना है। मीडिया जबर्दस्त कारोबार के रूप में विकसित हुआ है। मीडिया कम्पनियाँ शेयर बाज़ार में उतर रही हैं और उन सब तिकड़मों को कर रही हैं, जो क्रोनी कैपीटलिज़्म में होती हैं। वे अपने ऊपर सदाशयता का आवरण भी ओढ़े रहती हैं। साख को वे कूड़दान में डाल चुकी हैं। उन्हें अपने पाठकों की नादानी और नासमझी पर भी पूरा यकीन है। इन अंतर्विरोधों के कारण  गड़बड़झाला पैदा हो गया है। इसकी दूरगामी परिणति मीडिया -ओनरशिप को नए ढंग से परिभाषित करने में होगी। ऐसा आज हो या सौ साल बाद। जब मालिक की दिलचस्पी नैतिक मूल्यों में होगी तभी उनकी रक्षा होगी। मीडिया की उपादेयता खत्म हो सकती है, पत्रकारिता की नहीं। क्योंकि वह धंधा नहीं एक मूल्य है।

पिछले कुछ वर्षों में भारतीय टीवी चैनल पर एक नया कार्यक्रम दिखाई पड़ा ‘सच का सामना।‘ किसी विदेशी कार्यक्रम की नकल पर बने कार्यक्रम का ध्यान देने वाला पहलू था तो उसकी टाइमिंग। कठोर सच सामने आ रहे हैं। उन्हें सुनने, विचार करने और अपने को सुधारने के बाद ही कोई समाज या संस्था आगे बढ़ सकती है। ऐसा पहली बार हुआ जब बड़े लोग जेल जाने लगे और घोटालों की झड़ी लग गई। और इन मामलों की चर्चा से समूचा मीडिया रंग गया। प्रौढ़ होते समाज के बदलाव का रास्ता विचार-विमर्श और सूचना माध्यमों से होकर गुजरता है। पिछले एक दशक में पत्रकारिता शब्द पर मीडिया शब्द हावी हो गया। दोनों शब्दों में कोई टकराव नहीं, पर मीडिया शब्द व्यापक है। सूचना-संचार कर्म के पत्रकारीय, व्यावसायिक और तकनीकी पक्ष को एक साथ रख दें तो वह मीडिया बन जाता है। इसी कर्म के सूचना-विचार पहलुओं की सार्वजनिक हितकारी और जनोन्मुख अवधारणा है पत्रकारिता। वह अपने साथ कुछ नैतिक दायित्व लेकर चलती है। पर मीडिया कारोबार भी है। वह पहले भी कारोबार था, पर हाल के वर्षों में वह यह साबित करने पर उतारू है कि वह कारोबार ही है। कारोबार के भी अपने मूल्य होते हैं। इस कारोबार के भी थे। वे भी क्रमशः कमज़ोर होते जा रहे हैं।

Monday, October 17, 2011

स्मारकों से ज्यादा महत्वपूर्ण है स्मृतियों का होना

शायद सन 1979 की बात है। प्रेमचंद के जन्मशती वर्ष की शुरूआत की जा रही थी। लखनऊ दूरदर्शन की एक परिचर्चा में मेरे एक सहचर्चाकार ने सुझाव दिया कि लमही और वाराणसी में प्रेमचंद के घरों को स्मारक बना दिया जाए। सुझाव अच्छा था, पर मेरी राय यह थी कि प्रेमचंद के साहित्य को पढना या पढ़ाया जाना ज्यादा महत्वपूर्ण है। जो समाज अपने लेखकों को पढ़ता नहीं, वह ईंट-पत्थर के स्मारकों का क्या करेगा? स्मारकों के साथ स्मृतियों का होना महत्वपूर्ण है। स्मृतियाँ हर तरह की होती हैं। मीठी भी कड़वी भी।

नोएडा में मुख्यमंत्री मायावती ने दलित प्रेरणास्थल का उद्घाटन करके एक नई बहस का आधार तैयार किया है। बेशक नए पार्क प्रभावशाली हैं और दलितों की अस्मिता को बढ़ाने वाले हैं, पर क्या इससे उनके जीवन में कोई सुधार होगा? क्या इनका कोई अर्थ है? इन पार्कों-प्रतिमाओं और स्मारकों पर कितना खर्च हुआ और खर्च वाजिब है या नहीं, यह इस लेख का विषय नहीं है। यह विचार करने की इच्छा ज़रूर है कि हमारा समाज स्मृतियों और स्मारकों से विमुख रहने वाला समाज क्यों है? वह इतिहास की वस्तुनिष्ठ समझ से भागता क्यों है?

Monday, October 10, 2011

अन्ना की 'राजनीति' का फैसला वोटर करेगा, उसे फैसला करने दो





अन्ना हज़ारे के लिए बेहतर होगा कि वे अपने आंदोलन को किसी एक राजनीतिक दल के फायदे में जाने से बचाएं। पर इस बारे में क्या कभी किसी को संशय था कि उनका आंदोलन कांग्रेस विरोधी है? खासतौर से जून के आखिरी हफ्ते में जब यूपीए सरकार की ओर से कह दिया गया कि हम कैबिनेट में लोकपाल विधेयक कानून का अपना प्रारूप रखेंगे। सबको पता था कि इस प्रारूप में अन्ना आंदोलन की बुनियादी बातें शामिल नहीं होंगी। रामलीला मैदान में यह आंदोलन किस तरह चला, संसद में इसे लेकर किस प्रकार की बहस हुई और किसने इसे समर्थन दिया और किसने इसका विरोध किया, यह बताने की ज़रूरत नहीं। भाजपा ने इसका मुखर समर्थन किया और कांग्रेस ने दबी ज़ुबान में सीबीआई को इसके अधीन रखने, राज्यों के लिए भी कानून बनाने और सिटीज़ंस चार्टर पर सहमत होने की कोशिश करने का भरोसा दिलाया। भाजपा से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस आंदोलन का समर्थन करने की घोषणा कर दी थी। फिर भी सितम्बर के पहले हफ्ते तक आधिकारिक रूप से यह आंदोलन किसी राजनीतिक दल के साथ नहीं था। और आज भी नहीं है। पर परोक्षतः यह भाजपा के पक्ष में जाएगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि आंदोलन वोटर के सामने सीधे यह सवाल रख रहा है। चुनाव लड़ने के बजाय इस तरीके से चुनाव में हिस्सा लेने में क्या हर्ज़ है? इसका नफा-नुकसान आंदोलन का नेतृत्व समझे।

Monday, August 15, 2011

किससे करें फरियाद कोई सोचता भी तो हो


सैंकड़ों नाले करूँ लेकिन नतीजा भी तो हो।
याद दिलवाऊँ किसे जब कोई भूला भी तो हो।



हर साल पन्द्रह अगस्त की तारीख हमें घर में आराम करने और पतंगें उड़ाने का मौका देती है। तमाम छुट्टियों की सूची में यह भी एक तारीख है। सरकारी दफ्तरों, स्कूलों, सार्वजनिक संस्थाओं में औपचारिक ध्वजारोहणों के साथ मिष्ठान्न वितरण की व्यवस्था भी होती है। 26 जनवरी और पन्द्रह अगस्त साल के दो दिन हमने राष्ट्र प्रेम के नाम सुरक्षित कर दिए हैं। तीसरा राष्ट्रीय पर्व 2 अक्टूबर है। एक अलग किस्म की औपचारिकता का दिन। एक बड़ा तबका नहीं जानता कि देश की उसके जीवन में क्या भूमिका है। और देशप्रेम से उसे क्या मिलेगा? करोड़ों अनपढ़ों और गैर-जानकारों की बात छोड़िए।  पढ़े-लिखों के दिमाग साफ नहीं हैं।

Monday, August 8, 2011

काग्रेस में उत्तराधिकार को लेकर इतना सन्नाटा क्यों है?



सरकार, पार्टी और मीडिया में सन्नाटा क्यों है?
राहुल गांधी को सामने आने दीजिए

जिन्हें याद है उन्हें याद दिलाने की ज़रूरत नहीं, पर जो नही जानते उन्हें यह बताने की ज़रूरत है कि 31 अक्टूबर 1984 को श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या का समाचार देश के आधिकारिक मीडिया पर शाम तक नहीं आ पाया था। इसके कारण जो भी रहे हों, पर निजी चैनलों के उदय के बाद से देश में छोटी-छोटी बातें भी चर्चा का विषय बनी रहती हैं। पिछली 4 अगस्त को सारे चैनलों का ध्यान दो खबरों पर था। कर्नाटक में येदुरप्पा का पराभव और कॉमनवैल्थ गेम्स के बारे में सीएजी की रपट। बेशक दोनों खबरें बड़ी थीं, पर श्रीमती सोनिया गांधी के स्वास्थ्य और उनकी अनुपस्थिति में पार्टी की अंतरिम व्यवस्था के बारे में खबरें या तो देर से आईं या इतनी सपाट थीं कि उन्हें समझने में देर हुई। ये खबरें सबसे पहले बीबीसी और एएफपी जैसी विदेशी एजेंसियों ने जारी कीं। सरकार, सरकारी मीडिया और प्राइवेट मीडिया ने इसे बहुत महत्व नहीं दिया। बात ठीक है कि इतने संवेदनशील मुद्दे पर कयासबाज़ी नहीं होनी चाहिए, पर सामान्य जानकारी देने में क्या कोई खराबी थी? कांग्रेस पार्टी की वैबसाइट तक पर इस विषय पर कोई जानकारी नहीं है। क्या ऐसा जानबूझकर है या इसलिए कि एक जगह पर जाकर पूरी व्यवस्था घबराहट और असमंजस की शिकार है?

Tuesday, August 2, 2011

संसदीय व्यवस्था को प्रभावी बनाना भी हमारी जिम्मेदारी है



अगस्त का महीना भारतीय स्वतंत्रता दिवस और 1942 की अगस्त क्रांति के सिलसिले में याद किया जाता है। या फिर हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए बमों के कारण। लगता है कि इस साल अगस्त के महीने में कुछ और क्रांतियाँ होंगी। इसकी शुरूआत कर्नाटक में मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा के पराभव से हो चुकी है। लोकपाल संस्था प्रभावशाली होगी या नहीं, इसका संकेत कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने दे दिया है। जिन्हें अभी तक अन्ना हजारे के पीछे भाजपा का हाथ लगता था, शायद उनकी धारणा में कुछ बदलाव हो, पर इस मामले को राजनीति के ऊपर ले जाकर देखने की ज़रूरत है।
आज से शुरू होने वाले सत्र में महत्वपूर्ण संसदीय कार्य पूरे होंगे। ज्यादातर निगाहें लोकपाल विधेयक पर हैं इसलिए हम वहीं तक देख पा रहे हैं। पर केवल लोकपाल विधेयक ही कसौटी पर नहीं है। देश की व्यवस्था को परिभाषित करने के लिहाज से हम इस वक्त एक महत्वपूर्ण मुकाम पर खड़े हैं। संसद के इस सत्र में और आने वाले सत्र में अनेक नए कानून और संविधान संशोधन होंगे। दूसरे अगले लोकसभा चुनाव के पहले के राजनैतिक ध्रुवीकरण की शुरुआत अब होगी। और तीसरे तमाम घोटालों, बवालों और झमेलों पर एक सार्थक बहस संसद में होगी, बशर्ते उसे होने दिया जाए। चौथे अन्ना का अनशन हो या न हो, जनता की खुली संसद का दायरा बढ़ने वाला है। 
मूल्य वृद्धि, भ्रष्टाचार, काला धन, तेलंगाना, एयर इंडिया, रिटेल में एफडीआई, भूमि अधिग्रहण कानून, मुम्बई धमाके और विदेश-नीति से जुड़े अनेक मामले कतार में खड़े हैं। इधर ए राजा ने अदालत में पी चिदम्बरम और मनमोहन सिंह पर आरोप लगाकर भाजपा और वाम मोर्चे को अच्छे हथियार दे दिए हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना यूपीए सरकार की टोपी में लगी कलगी की तरह है। पर इस योजना को लागू करने में अनियमितताओं की लम्बी सूची भी विपक्ष के पास है। तो इसलिए बेहद रोचक शो शुरू होने वाला है। राजनीति में टाइमिंग महत्वपूर्ण होती है। देखना यह है कि किसका होमवर्क सटीक है। और इस दौरान कुछ नई बातों का पर्दाफाश भी होगा। येदुरप्पा से छुटकारा पाकर भाजपा नैतिकता के ऊँचे धरातल पर खड़े होने का दावा करेगी। उधर बेल्लारी के रेड्डी बंधु भी कुछ नए रहस्य खोलने वाले हैं। कई व्यक्तिगत और कई सार्वजनिक रहस्यों के खुलने का दौर भी शुरू होगा अब।
शोर-शराबे को संसदीय कर्म मानें तो हमारे यहाँ इसकी कमी नहीं। पर गम्भीर काम-काज के लिहाज से हम काफी पीछे हैं। संसद के पिछले दो सत्रों में हमारी संसद ने सिर्फ पाँच बिल पास किए हैं। दोनों सदनों के पास 81 बिल विचारार्थ पड़े हैं। उम्मीद है कि भूमि अधिग्रहण बिल, डायरेक्ट टैक्सेज कोड बिल, उच्च शिक्षा में सुधार के बाबत विधेयक, महिलाओं को पंचायत में 50 फीसदी आरक्षण देने का विधेयक, केन्द्रीय शिक्षा संस्थानों में आरक्षण से जुड़ा विधेयक औस तमाम विधेयक है। इनमें से कुछ स्थायी समिति में हैं। कुछ की रिपोर्ट आ गई हैं। उनपर विचार तभी होगा, जब संसद को समय मिलेगा।
लोकपाल विधेयक को पेश करने के पहले स्थायी समिति में भेजा जाएगा। यह मसला राजनैतिक रंग ले चुका है, इसलिए शायद हमारा ध्यान उधर ही रहेगा, पर सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को लेकर अभी कई कानून और हैं। इनमे एक है ह्विसिल ब्लोवर बिल, जिसकी माँग लम्बे अर्से से हो रही है पर जो बन नहीं पा रहा। इसी तरह ज्युडीशियल एकाउंटेबिलिटी बिल है, जिसके आधार पर सरकार न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे से बाहर रखना चाहती है। विदेशी अधिकारियों को भारतीय कम्पनियाँ घूस न देने पाएं इसके लिए भी एक बिल है। अभी हम खाद्य सुरक्षा जैसे कानूनों के बारे में ज्यादा बात ही नहीं कर पाए हैं। बहरहाल, व्यवस्था को पारदर्शी, जिम्मेदार और कुशल बनाने के लिए अनेक कानूनों का प्रस्ताव है। यदि आप संसद के सामने विचाराधीन कानूनों की सूची पर ध्यान दें तो समझ में आएगा कि ये कानून कितने महत्वपूर्ण हैं और इनके बारे में फैसला करने में देरी का अर्थ क्या है। बेशक यह सब राजनैतिक चक्रव्यूहों को पार किए बगैर सम्भव नहीं होगा।
अन्ना हजारे के अनशन के बाद सरकार ने उनके पाँच सदस्यों को शामिल करके एक ड्राफ्टिंग कमेटी ज़रूर बनाई, पर आज उसका कोई मतलब समझ में नहीं आता। अंततः सरकार ने बिल का जो समौदा तैयार किया है, वह संयुक्त समिति का मसौदा नहीं है। तो क्या अन्ना को फिर से अनशन करना चाहिए? या फिर संसद के विवेक पर सब कुछ छोड़ देना चाहिए? कानून तो संसद में ही बनेगा, पर संसद के बाहर की आवाजों को भी भीतर तक सुना जा सकता है। हाल के घटनाक्रम के बाद कम से कम इतना ज़रूर हुआ है कि मूल्य, विचार और नैतिकता की बातें सुनी जाने लगीं हैं। जिस वक्त कैबिनेट में इस मसौदे पर चर्चा हो रही थी थी, मनमोहन सिंह समेत कुछ मंत्रियों ने सुझाव दिया कि इसमें प्रधानमंत्री के पद को भी लोकपाल के दायरे के भीतर लाना चाहिए। उनका कहना था कि ऐसा करके हम जनता को बेहतर संदेश देते हैं। बहरहाल कैबिनेट का फैसला हो चुका है। अब यह कानून देश की राजनीति के पाले में हैं। क्या यह कानून अगले चुनाव का मुद्दा बन सकता है?
शायद कोई अकेला कानून किसी चुनाव का मुद्दा न बने, पर व्यवस्थागत पारदर्शिता बन सकती है। धीरे-धीरे हम विचार के दायरे को फोकस करते जा रहे हैं। इसकी एक शुरुआत आज से होगी, भारतीय संसद में।