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Wednesday, July 17, 2024

भारत-पाक क्रिकेट-रिश्तों में रुकावट कहाँ है?


भारत-पाकिस्तान के राजनीतिक-रिश्ते किसी भी सतह पर हों, इसमें दो राय नहीं कि खेल का मैदान दोनों को जोड़ता है. खेल ही नहीं, सिनेमा, संगीत, खानपान, पहनावा, साहित्य, भाषा और उसके मुहावरे हमें जोड़ते हैं.

भारत-पाक सांस्कृतिक-रिश्तों को सामान्य और आवागमन को आसान बना दीजिए और देखिए कि क्या चमत्कार होता है. दोनों क्रिकेट के दीवाने देश हैं. हम जिस गंगा-जमुनी संस्कृति की बातें सुनते हैं, वह इन्हीं मैदानों और मंचों पर पनपती है.

राजनीतिक रिश्ते जब टूटते हैं, तब सबसे ज्यादा नुकसान संस्कृति को होता है. भारतीय भूखंड में रहने वालों का हित इस बात में है कि उनकी संस्कृति सुरक्षित रहे और शांति बनी रहे. यदि ऐसा नहीं है, तो उसके कारण हमें खेल या संस्कृति में नहीं राजनीति में खोजने होंगे. आप पाएंगे कि सबसे बड़ा कारण वह कृत्रिम-विभाजन है, जिसने हमें पहले दो और फिर तीन देशों में तब्दील कर दिया.

बड़ा धक्का

हाल में मिली एक खबर के मुताबिक चैंपियंस ट्रॉफी क्रिकेट प्रतियोगिता में खेलने के लिए के लिए टीम इंडिया के पाकिस्तान जाने की संभावना लगभग नहीं है. बीसीसीआई चाहती है कि भारत के मैचों की मेजबानी दुबई या श्रीलंका करें. इसके लिए वह आईसीसी से अनुरोध करेगी.  

पाकिस्तान के दर्शकों और खेल-प्रशासन के लिए यह बड़ा धक्का है. इससे पहले एशिया कप में ऐसा ही हुआ था. भारत ने अपने सभी मैच श्रीलंका में खेले थे. दोनों देशों ने बरसों से हॉकी या क्रिकेट की द्विपक्षीय सीरीज नहीं खेली है.

2013 में पाकिस्तान की टीम आखिरी बार द्विपक्षीय क्रिकेट सीरीज खेलने आई थी. उसके बाद से इन दोनों टीमों के बीच सिर्फ आईसीसी या फिर एसीसी प्रतियोगिताओं में ही मैच हुए हैं. भारत ने 2008 के बाद से पाकिस्तान में आयोजित होने वाली प्रतियोगिताओं में भाग लेना भी बंद कर दिया है.

ऐसा भी नहीं है कि भारत ने पाकिस्तान में खेलना पूरी तरह बंद कर दिया है. इस साल फरवरी में डेविस कप टेनिस प्रतियोगिता के अपने मैच खेलने के लिए भारतीय टीम पाकिस्तान गई थी, पर टेनिस और क्रिकेट की लोकप्रियता में फर्क है और उनके राजनीतिक-सामाजिक प्रभावों में भी अंतर है.

Wednesday, November 16, 2022

कुंठित पाकिस्तान के जख्मों पर क्रिकेट की सफलता ने मरहम लगाया

 देश-परदेस


पाकिस्तान की टीम टी-20 विश्व कप के फाइनल में हालांकि हार गई, पर उसने देश के राजनीतिक अनिश्चय और असंतोष के गहरे जख्मों पर मरहम पर लगाने का काम किया है. भले ही वे चैंपियन नहीं बने, पर उन्हें संतोष है कि जब हमें प्रतियोगिता से बाहर मान लिया गया, हमने न केवल वापसी की, बल्कि फाइनल में भी लड़कर हारे. इससे देश के स्वाभिमान को सिर उठाने का मौका मिला है. फिलहाल देश के अखबारों के पहले सफे पर फौरन चुनाव कराने की माँग की जगह क्रिकेट के किस्सों ने ले ली है.

पाकिस्तानी समाज तमाम मसलों पर मुख्तलिफ राय रखता है, आपस में लड़ता रहता है, पर जब क्रिकेट की बात होती है, तब पूरा देश एक हो जाता है. फाइनल मैच का गर्द-गुबार बैठ जाने के बाद भी क्रिकेट या यह खेल लोक-साहित्य, संगीत, गीतों और यूट्यूबरों के वीब्लॉगों में दिखाई पड़ रहा है. इसे देखना, पढ़ना और सुनना बड़ा रोचक है.  

राजनीतिक दृष्टि

पाकिस्तान में खेल और राजनीति को किस तरीके से जोड़ा जाता है, उसपर गौर करने की जरूरत भी है. फाइनल मैच के पहले एक पाकिस्तानी विश्लेषक ने लिखा, पाकिस्तान जीता तो मैं मानूँगा कि देश में पीएमएल(नून) की सरकार भाग्यशाली है. 1992 में इसी पार्टी की सरकार थी और आज भी है. बहरहाल टीम चैंपियन तो नहीं बनी, पर देश इस सफलता से भी संतुष्ट है.

इमरान खान के जिन समर्थकों ने इस्लामाबाद जाने वाली सड़कों की नाकेबंदी कर रखी थी, वे कुछ समय के लिए खामोश हो गए और उन्होंने बैठकर सेमीफाइनल और फाइनल मैच देखे. ऐसा कब तक रहेगा, पता नहीं पर इतना साफ है कि भारत की तरह पाकिस्तान भी क्रिकेट के दीवानों का मुल्क है. बल्कि हमसे एक कदम आगे है.

Wednesday, October 27, 2021

पाकिस्तान के हाथों भारत की क्रिकेट में हार, एक साधारण सी घटना के असाधारण निहितार्थ


भारतीय टीम की हार मुझे भी अच्छी नहीं लगी। मैं भी चाहता हूँ कि हमारी टीम जीते। खेल के साथ राष्ट्रीय भावना भी जुड़ती है, पर मैं अच्छा खेलने वालों का भी प्रशंसक हूँ, भले ही वे हमारी टीम के खिलाड़ी हों या किसी और टीम के। खराब खेलकर हमारी टीम जीते, ऐसा मैं नहीं चाहता। पर टी-20 विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता में रविवार 24 अक्तूबर को भारत की हार के बाद मिली प्रतिक्रियाओं को देखने-सुनने के बाद चिंता हो रही है कि खेल को अब हम खेल के बजाय किसी और नजरिए से देखने लगे हैं।

यह विषयांतर है, पर मैं उसे यहाँ उठाना चाहूँगा। बहुत से लोगों के मन में सवाल आता है कि भारत में भारतीय जनता पार्टी के उभार के पीछे वजह क्या है? क्या वजह है कि हम जिस गंगा-जमुनी संस्कृति और समरसता की बातें सुनते थे, वह लापता होती जा रही है? जो बीजेपी के राजनीतिक उभार को पसंद नहीं करते उनके जवाब घूम-फिरकर हिन्दू-साम्प्रदायिकता पर केन्द्रित होते हैं। उस साम्प्रदायिकता को पुष्टाहार कहाँ से मिलता है, इसपर वे ज्यादा ध्यान नहीं देते। वे भारतीय इतिहास, मुस्लिम और अंग्रेजी राज तथा राष्ट्रीय आंदोलन वगैरह को लेकर लगभग एक जैसी बातें बोलते हैं। दूसरी तरफ बीजेपी-समर्थकों के तर्क हैं, जो घूम-फिरकर दोहराए जाते हैं, पर नई घटनाएं उनके क्षेपक बनकर जुड़ी जाती हैं।

मुझे तमाम बातें अर्ध-सत्य लगती हैं। खेल के मैदान, साहित्य, संस्कृति, संगीत समेत जीवन के हर क्षेत्र में निष्कर्ष एकतरफा हैं। इतिहास के पन्ने खुल भी रहे हैं, तो इन एकतरफा निष्कर्षों को समर्थन मिल रहा है। अफगानिस्तान में तालिबान की विजय और उसके बाद भारत सरकार की नीतियों, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने के फैसले, नागरिकता कानून, शाहीनबाग आंदोलन, किसान आंदोलन, लखीमपुर खीरी की हिंसा, डाबर का विज्ञापन और शाहरुख खान के बेटे की गिरफ्तारी सब कुछ इसी नजर से देखा जा रहा है। मीडिया की कवरेज और उनमें होने वाली बहसों की भाषा और तथ्यों की तोड़मरोड़ से बातें कहीं से कहीं पहुँच जाती हैं। टी-20 क्रिकेट भी इसी नजरिए का शिकार हो रहा है।

बहरहाल आप क्रिकेट देखें और इस घटनाक्रम पर विचार करें। सम्भव हुआ, तो इस चर्चा को आगे बढ़ाने का प्रयास करूँगा। फिलहाल क्रिकेट के इस घटनाक्रम पर मैं कुछ बातें स्पष्ट करना चाहूँगा:

1.हमारी टीम एक मैच हारी है, टूर्नामेंट से बाहर नहीं हुई है। हो सकता है कि हमें पाकिस्तान के साथ फिर खेलने का मौका मिले। हो सकता है कि दोनों देश फाइनल में हों। हम यह प्रतियोगिता नहीं भी जीते, तब भी भविष्य की प्रतियोगिताएं जीतने का मौका है। इस हार से टीम ने कुछ सीखा हो, तभी अच्छा है।

2.टीम के कप्तान या किसी भी खिलाड़ी को कोसना गलत है। टीम जीत जाए, तो जमीन-आसमान एक करना और हार जाए, तो रोना नासमझी है। खासतौर से उनका विलाप कोई मायने नहीं रखता, जिन्हें खेल की समझ नहीं है।

3.इसके विपरीत जो लोग भारतीय टीम को भारतीय जनता पार्टी की टीम मानकर चल रहे हैं, वे भी गलत हैं। यह दृष्टि-दोष है। मीडिया की अतिशय कवरेज और कुछ खेल के साथ जुड़े देश-प्रेम के कारण ऐसा हुआ है। पर इस हार पर खुशी मनाने का भी कोई मतलब नहीं है।

4.हो सकता है लोग कहें, हम खुशी नहीं मना रहे हैं, केवल भक्तों का मजाक बना रहे हैं, उनकी प्रतिक्रिया भी मुझे समझ में नहीं आती। ऐसे वीडियो सोशल मीडिया में आए हैं, खासतौर से कश्मीर और पंजाब के शिक्षा-संस्थानों के जिनमें पाकिस्तानी टीम की विजय के क्षणों पर खुशी का माहौल नजर आता है। पर क्या यह राजद्रोह है? इस किस्म की प्रतिक्रियाओं की विपरीत प्रतिक्रिया होती है, जो अतिशय या आक्रामक-राष्ट्रवाद को जन्म देती हैं।

5.इस परिणाम पर हर्ष या विषाद के बजाय जिस तरह से साम्प्रदायिक टिप्पणियाँ हुईं, वे चिंताजनक हैं। मोहम्मद शमी को निशाना बनाने वाले ट्रोल नहीं जानते कि वे इतनी गलत बात क्यों बोल रहे हैं। अच्छा हुआ कि शमी के पीछे देश के तकरीबन ज्यादातर सीनियर खिलाड़ियों ने ट्वीट जारी किए।

6.क्या वास्तव में शमी को ट्रोल किया गया?  चर्चा इस बात की भी है कि सोशल मीडिया पर कुछ ऐसे हैंडलों ने इस ट्रोलिंग को शुरू किया, जो पाकिस्तान से संचालित होते हैं। ऐसा क्यों किया होगा? ताकि भारत में हिन्दू-मुस्लिम विभाजन बढ़े।

बरखा दत्त ने 25 अक्तूबर को 9.46 पर यह ट्वीट किया। क्या इसके पहले या इसके बाद शमी को ट्रोल करते हुए आपने ट्वीट देखे थे?

Friday, June 14, 2013

खेल जब पेशा है तो ‘फिक्सिंग’ भी होगी

खेल को पेशा बनाने का नतीजा

सतीश आचार्य का कार्टून


स्पॉट फिक्सिंग मामले में जेल से छूटने के बाद एस श्रीशांत ने कहा कि मैं इस प्रकरण को कभी नहीं भूलूँगा। इसने मुझे कई चीजें सिखाई हैं। श्रीशांत, अंकित चह्वाण और अजित चंडीला को एक आप खारिज कर दीजिए, भर्त्सना कीजिए। पर सब जानते हैं कि इस पापकर्म के वे सूत्रधार नहीं हैं। अपने पैरों पर कुल्हाड़ी इन्होंने मारी है। इनके पास इज़्जत, शोहरत और पैसे की कमी नहीं थी। खेल जीवन में यह सब इन्हें मिलता। फिर भी इन्होंने अपना करियर चौपट करना मंज़ूर किया। किस लालच ने इन्हें इस गलीज़ रास्ते पर डाला? उसी क्रिकेट ने जिसे यह खेल समझ कर आए थे। हमारे जीवन में पहले से मौज़ूद फिक्सिंग शब्द को आईपीएल ने नया आयाम दिया है। यह अति उत्साही कारोबारियों का कमाल है, जिन्होंने सब देखा उस गड़्ढे को नहीं देखा जिसपर उनके कदम पड़ चुके हैं।

Monday, June 3, 2013

खेल को खेल ही रहने दो

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यों भी कम बोलते हैं। बोलते भी हैं तो खेलों पर सबसे कम। पिछले हफ्ते जब उन्होंने कहा कि खेलों में राजनीति नहीं होनी चाहिए, तब यह बात समझ में आ जानी चाहिए थी कि सरकार ने इन दिनों चल रही खेल राजनीति को गम्भीरता से लिया है। प्रधानमंत्री के अलावा राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने तकरीबन उसी समय क्रिकेट की सट्टेबाज़ी को लेकर अपना रोष व्यक्त किया। उसके दो-तीन दिन पहले ही बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन ने कहा था, मेरे पद छोड़ने का सवाल पैदा नहीं होता। मीडिया के कहने पर मैं पद थोड़े ही छोड़ दूँगा। पूरा बोर्ड मेरे साथ है। वास्तव में बोर्ड उनके साथ था। दो दिन बाद दिल्ली के एक अखबार ने लीड खबर छापी कि बीसीसीआई में राजनेता भरे पड़े हैं, पर कोई इस मामले में बोल नहीं रहा। इस खबर का असर था या कोई और बात थी कि बीसीसीआई में कांग्रेस से जुड़े राजनेताओं के बयान आने लगे। सबसे पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने श्रीनिवासन के इस्तीफे की माँग की। इसके बाद दबाव डालने के लिए संजय जगदाले और अजय शिर्के के इस्तीफे हो गए। राजीव शुक्ला ने भी आईपीएल के कमिश्नर पद से इस्तीफा दिया। कहना मुश्किल है कि यह इस्तीफा दबाव डालने के लिए है या सोनिया गांधी के निर्देश पर है।
क्रिकेट की सट्टेबाज़ी की खबरों ने तीन काम किए हैं। एक तो खेलों के भीतर घुसी राजनीति का पर्दाफाश किया है। दूसरे पैसे के खुले खेल की ओर इशारा किया है। और तीसरे देश का ध्यान कोलगेट और सीबीआई की स्वतंत्रता हटा दिया है। संयोग है कि पिछले ढाई साल से भारतीय राजनीति में चल रहे हंगामें की शुरूआत कॉमनवैल्थ गेम्स की तैयारियों से हुई थी। सुरेश कलमाडी हमारे नए राष्ट्रीय हीरो थे, जिनकी खेल और राजनीति में समान पकड़ थी। भारतीय ओलिम्पिक संघ के अध्यक्ष कलमाडी के साथ कॉमनवैल्थ गेम्स ऑर्गनाइज़िंग कमेटी के सेक्रेटरी जनरल ललित भनोत और डायरेक्टर जनरल वीके वर्मा की उस मामले में गिरफ्तारी भी हुई थी। हमें लगता है कि कलमाडी के दिन गए। पर ऐसा हुआ नहीं। पिछले साल दिसम्बर में भारतीय ओलिम्पिक महासंघ (आईओए) के चुनाव में यह मंडली फिर से मैदान में उतरी। उधर अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पक कमेटी (आईओसी) के एथिक्स कमीशन ने कलमाडी, भनोत और वर्मा को उनके पदों से निलंबित करने का सुझाव दिया। आईओए के अध्यक्ष पद के लिए हरियाणा के राजनेता अभय चौटाला का नाम तय हो चुका था। माना जाता था कि ललित भनोत चुनाव में नहीं उतरेंगे, पर अभय चौटाला ने राजनीति से उदाहरण दिया कि आरोप तो मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और जे जयललिता पर भी हैं। ललित भनोत कहीं से दोषी तो साबित नहीं हुए हैं। बहरहाल वह चुनाव नहीं हुआ। अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पक कमेटी (आईओसी) ने भारतीय ओलिम्पिक महासंघ की मान्यता खत्म कर दी। जिन दिनों क्रिकेट की सट्टेबाज़ी की खबरें हवा में थीं, उन्हीं दिनों आईओसी की एक टीम के साथ  खेलमंत्री जितेन्द्र सिंह की मुलाकात हुई और ओलिम्पिक में वापसी का रास्ता साफ हुआ। देश का शायद ही कोई खेल संघ हो जिसे लेकर राजनीतिक खींचतान न हो।
भारत की खेल व्यवस्था पर नज़र डालें तो आप पाएंगे कि सबसे ऊँचे पदों पर वे लोग बैठे हैं, जिनका खेल से वास्ता नहीं है। खेल संगठन पर जिसका एक बार कब्ज़ा हो गया, सो हो गया। पहले खेल संगठनों पर राजाओं-महाराजाओं का कब्ज़ा था। अब राजनेताओं का है। क्रिकेट ने फिक्सिंग शब्द को नए सिरे से परिभाषित किया और राजनीति में फिक्सरों का नया मुकाम बना दिया। सन 2011 के अगस्त में तत्कालीन खेल और युवा मामलों के मंत्री अजय माकन ने कैबिनेट के सामने एक कानून का मसौदा रखा। राष्ट्रीय खेल विकास अधिनियम 2011 के तहत खेल संघों को जानकारी पाने के अधिकार आरटीआई के अंतर्गत लाने का प्रस्ताव था। साथ ही इन संगठनों के पदाधिकारियों को ज्यादा से ज्यादा 12 साल तक संगठन की सेवा करने या 70 साल का उम्र होने पर अलग हो जाने की व्यवस्था की गई थी। यह कानून बन नहीं पाया। तब से अब तक इसके चौदह-पन्द्रह संशोधित प्रारूप बन चुके हैं, पर मामला जस का तस है। उसके पहले खेलमंत्री एमएस गिल यह कोशिश कर रहे थे कि खेलसंघों का नियमन किया जाए। इस मामले के कई जटिल पहलू हैं। खेलों में सरकारी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। केवल इसी नैतिक मूल्य के सहारे खेल संघों के पदाधिकारी सरकार के कानून बनाने के अधिकार को चुनौती देते हैं। अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पिक महासंघ (आईओसी) का भी कहना है कि खेलों के मामले में सरकारी हस्तक्षेप हमें मंज़ूर नहीं है।
क्रिकेट में स्पॉट फिक्सिंग के नए खेल ने इसे सट्टेबाजी से और सट्टेबाज़ी ने इसे दूसरे अपराधों से जोड़ दिया है। इसमें काले धन का खेल भी है। दिक्कत यह है कि ऊँचे स्तर पर ऐसे लोग बैठे हैं जिनके हित बीसीसीआई और आईपीएल से जुड़े हैं। इसी तरह बीसीसीआई के अध्यक्ष के हित आईपीएल से जुड़े हैं। ऐसे में पारदर्शिता कैसे आएगी? भारतीय हॉकी की महा-दुर्दशा के तमाम कारणों में से एक यह भी है कि इसे देखने वाला कोई संगठन ही नहीं है। देश में दो संगठन हॉकी के नाम पर हैं। एक को अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ की मान्यता है तो दूसरे को देश की अदालत ने वैध संगठन माना है।
आईपीएल मैच खत्म होने के बाद रात में पार्टियाँ होती है। यह भी खिलाड़ियों के कॉण्ट्रैक्ट का एक हिस्सा है। इन पार्टियों में शराबखोरी और छेड़खानी की घटनाएं होने लगीं हैं। इस किस्म की पार्टियों में अक्सर मुक्केबाजी होती है। यह सिर्फ आईपीएल की बात नहीं है। भारतीय टेस्ट क्रिकेट टीम की बात भी है। कुल मिलाकर खेल और अपराध का यह गठजोड़ सांस्कृतिक पतन का कारण भी बन रहा है। भारतीय क्रिकेट टीम के पुराने खिलाड़ी और सांसद कीर्ति आजाद एक अर्से से इस बात को उठा रहे हैं कि आईपीएल क्रिकट नहीं है, बल्कि मनी लाउंडरिंग का जरिया बन गया है। यह सच है कि आईपीएल के कारण क्रिकेट की लोकप्रियता बढ़ी, खिलाड़ियों को पैसा मिला और नए खिलाड़ियों को विश्व प्रसिद्ध खिलाड़ियों के साथ खेलने का मौका मिला। दूसरी ओर इसने एक गलीज़ संस्कृति को जन्म दिया है। इसलिए ज़रूरी है कि इसपर सामाजिक निगरानी हो। अजय माकन कानून नहीं बनवा पाए। अलबत्ता वे खेलमंत्री पद से हट गए। यह जिम्मेदारी नए खेलमंत्री की है कि वे संसद के मार्फत खेलों पर सामाजिक निगरानी का इंतज़ाम करें।

बीसीसीआई भारतीय क्रिकेट टीम को तैयार करती है। टीम के साथ राष्ट्रीय प्रतिष्ठा जुड़ती है। उसके खाते आरटीआई के लिए खुलने चाहिए और आईपीएल के तमाशे को कड़े नियमन के अधीन लाया जाना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो यह मामला सरकार के गले की हड्डी बन जाएगा। आईपीएल जैसी खेल संस्कृति को जन्म दे रहा है वह खतरनाक है। उससे ज्यादा खतरनाक है इसकी आड़ में चल रही आपराधिक गतिविधियाँ जिनका अभी अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। दाऊद इब्राहीम जैसे माफिया भी इसके कारोबार की ओर मुखातिब हुए हैं। क्रिकेट की सट्टेबाज़ी के ताज़ा प्रकरण की गहराई से जाँच हो तो उसकी जड़ें बहुत दूर तक जाएंगी। यह जाँच खुलकर होनी चाहिए। दूसरी ओर खेल मैदान को खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों तक सीमित रहने देना चाहिए। इसमें राजनीति के प्रवेश को रोकना चाहिए। सवाल यह नहीं है कि एन श्रीनिवासन हटेंगे या नहीं। उनके हटने का मतलब है उनके विरोधी गुट को बैठने की जगह मिलेगी। अनुभव यह है कि तकरीबन सारे गुट खेल के मैदान में गंदगी फैलाने का काम करते हैं। यह गंदगी दूर होनी चाहिए ताकि साफ-सुथरे मैदानों में साफ-सुथरे खेल हों। पर एक शंका फिर भी बाकी रह जाती है। कहीं यह क्रिकेट-कांड दूसरे मसलों से ध्यान हटाने की कोशिश तो नहीं?
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

Tuesday, May 28, 2013

क्रिकेट के सीने पर सवार इस दादागीरी को खत्म होना चाहिए

आईपीएल में स्पॉट फिक्सिंग की खबरें आने के बाद यह माँग शुरू हुई कि इसके अध्यक्ष एन श्रीनिवासन को हटाया जाए। श्रीनिवासन पर आरोप केवल सट्टेबाज़ी को बढ़ावा देने का नहीं है। वे बीसीसीआई के अध्यक्ष हैं और उनकी टीम चेन्नई सुपरकिंग्स आईपीएल में शामिल है। 

इस बात को सब जानते हैं कि आईपीएल की व्यवस्था अलग है, पर वह बीसीसीआई के अधीन काम करती है। बीसीसीआई का भारतीय क्रिकेट पर ही नहीं अब दुनिया के क्रिकेट पर एकछत्र राज है। यह उसकी ताकत थी कि उसने क्रिकेट की विश्व संस्था आईसीसी के निर्देशों को मानने से इनकार कर दिया। 

भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता ने इसका कारोबार चलाने वालों को बेशुमार पैसा और ताकत दी है। और इस ताकत ने बीसीसीआई के एकाधिकार को कायम किया है। यह मामूली संस्था नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार शांतनु गुहा रे ने हाल में बीबीसी हिन्दी वैबसाइट को बताया कि सत्ता के गलियारों में माना जाता है कि केंद्रीय मंत्री अजय माकन को खेल मंत्रालय से इसलिए हाथ धोना पड़ा, क्योंकि वे बीसीसीआई पर फंदा कसने की कोशिश कर रहे थे।

Sunday, May 19, 2013

खेलों का कचूमर निकालते उसके सौदागर



स्पॉट फिक्सिंग सिर्फ क्रिकेट का मामला नहीं है। अब यह हमारे खून में शामिल हो गई है। जबसे आईपीएल शुरू हुआ है यह बेशर्मी से चीयर गर्ल्स के साथ नाचने लगी है। पिछले साल इन्हीं दिनों आईपीएल से जुड़े कुछ खिलाड़ियों पर स्पॉट फिक्सिंग के आरोप लगे थे। 

एक स्टिंग ऑपरेशन के बाद पुणे वारियर्स के मोहनीश मिश्रा, किंग्स इलेवन पंजाब के शलभ श्रीवास्तव, डेकन चार्जर्स के टी. पी. सुधींद्र, किंग्स इलेवन पंजाब के अमित यादव और दिल्ली के अभिनव बाली को सस्पेंड किया गया था। जाँच के बाद टीपी सुधीन्द्र को जीवन भर के लिए और शलभ श्रीवास्तव  को पाँच साल के लिए बैन कर दिया गया। 

बाकी तीन खिलाड़ियों को लूज़ टॉक के कारण एक-एक साल के लिए बैन किया गया। एक साल का यह बैन इसी बुधवार को खत्म हुआ था। यानी जिस दिन श्रीसंत एंड कम्पनी का मामला सामने आया। 

उसी दिन अंतरऱाष्ट्रीय ओलिम्पिक महासंघ के साथ भारत की ओलिम्पिक खेलों में वापसी को लेकर सकारात्मक बात हुई थी। ओलिम्पिक खेलों का आईपीएल से कोई रिश्ता नहीं है, पर भारत में खेलों का जो कचूमर निकला है उसमें आईपीएल कल्चर का हाथ है। 

सन 2008 में जबसे आईपीएल शुरू हुआ है कोई साल ऐसा नहीं जाता जब कोई विवाद खड़ा नहीं होता हो। बीसीसीआई ने कभी इसे गम्भीरता से नहीं लिया। पिछले साल इस मामले में पुलिस जाँच की ज़रूरत नहीं समझी गई। उन दिनों अमित यादव ने मीडिया के सामने ऐसा इशारा किया था कि टीम फ्रैंचाइज़ी खुद ही फिक्स कर देते हैं। 

Sunday, May 20, 2012

जेंटलमैंस गेम से कल्चरल क्राइम तक क्रिकेट

हिन्दू में केशव का कार्टून

एक ज़माने तक देश के सबसे लोकप्रिय खेल हॉकी और फुटब़ॉल होते थे। आज क्रिकेट है। ठीक है। देश के लोगों को पसंद है तो अच्छी बात है। अब यह सारे मीडिया पर हावी है। क्रिकेट की खबरें, क्रिकेट के विज्ञापन। बॉलीवुड के अभिनेता, अभिनेत्री क्रिकेट में और सारे देश के नेता क्रिकेट में। पिछले हफ्ते की कुछ खबरों को आधार बनाया जाए तो सारे अपराधी क्रिकेट में और सारे अपराध क्रिकेट में। पिछले हफ्ते बुधवार की रात मुम्बई के वानखेड़े स्टेडियम में कोलकाता नाइट रायडर्स टीम के मालिक शाहरुख खान और स्टेडियम के सिक्योरिटी स्टाफ के बीच ऐसी ठनी कि शाहरुख के वानखेड़े स्टेडियम में प्रवेश पर पाँच साल के लिए पाबंदी लगा दी गई। शाहरुख का रुख और बदले में की गई कार्रवाई दोनों के पीछे गुरूर नज़र आता है। लगता है मुफ्त की कमाई ने सबके दिमागों में अहंकार की आग भर दी है।

Friday, May 18, 2012

क्रिकेट को धंधा बनने से रोकिए

आईपीएल में स्पॉट फिक्सिंग की खबरे आने के बाद बीसीसीआई को पारदर्शी बनाने की ज़रूरत है। उसके खाते आरटीआई के लिए खुलने चाहिए और साथ ही आईपीएल के तमाशे को कड़े नियमन के अधीन लाया जाना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो यह मसला तमाम बड़े घोटालों की तरह सरकार के गले की हड्डी बन जाएगा। आईपीएल ने जिस तरह की खेल संस्कृति को जन्म दिया है वह खतरनाक है। उससे ज्यादा खतरनाक है इसकी आड़ में चल रही आपराधिक गतिविधियाँ जिनका अभी अनुमान ही लगया जा सकता है। खेल मंत्री अजय माकन ने ठीक माँग की है कि बीसीसीआई खुद को आईपीएल से अलग करे। अभी जिन पाँच खिलाड़ियों पर कार्रवाई की गई है वह अपर्याप्त है, क्योंकि सम्भव है कि इसमें अनेक मोटी मछलियाँ सामने आएं।

Saturday, January 28, 2012

क्रिकेट में भारतीय धुलाई के पुराने मौके




Monday, April 4, 2011

इस कप में भारत के लिए भी कुछ है?



हमारे अपार्टमेंट के कम्युनिटी हॉल में बड़े स्क्रीन पर मैच दिखाने की व्यवस्था थी। बाहर छोले-भटूरे, पकौड़ियों, कोल्ड और कॉफी का इंतजाम था। बच्चों के स्कूलों की छुट्टी थी। साहब लोगों में से ज्यादातर की छुट्टी थी। जिनकी नहीं थी उन्होंने ले ली थी। उनके साहबों ने भी ली थी। शोर से पता लग जाता था श्रीलंका का एक और गया। बाद में खामोशी से पता लग गया कि जयवर्धने ने कैसी ठुकाई की है। सब्जी लेने गए तो वहाँ ठेले के बराबर टीवी लगा था। दवाई की दुकान में भी था। मदर डेयरी में भी लगा था। घर आते-आते रास्ते में एक-एक रन का हिसाब मिल रहा था। स्पोर्ट्स चैनल से हटाकर न्यूज़ चैनल लगाया तो उसमें धोनी और संगकारा के बीच टॉस की कंट्रोवर्सी पर डिस्कशन चल रहा था। टू-जी स्पेक्ट्रम पर सीबीआई की चार्जशीट पर किसी की निगाहें नहीं थीं।

Friday, April 1, 2011

दक्षिण एशिया में क्रिकेट


हर तोड़ का सुपर जोड़

सुबह पहला टेक्स्ट मैसेज आया, चलो मुम्बई...रावण वेट कर रहा है....सैटरडे को दशहरा है...-)। पिछले कुछ दिनों से फेसबुक, ट्विटर और टीवी पर तीसरे और चौथे विश्वयुद्ध की घोषणाएं हो रहीं थीं। ऊँचे-ऊँचे बोलों, उन्मादों, रंगीनियों, शोर-गुल, धूम-धड़ाके के बाद भारत फाइनल में पहुँच गया है। भारत-ऑस्ट्रेलिया मैच को हमारे मीडिया ने सेमी फाइनल माना था। भारत-पाकिस्तान मैच फाइनल था। और अब शायद भारत-श्रीलंका मैच साउथ एशिया कप का फाइनल है।

Thursday, March 31, 2011

क्रिकेट का संग्राम

भारत-पाकिस्तान के बीच विश्व कप सेमी फाइनल मैच मुझे खेल के लिहाज से शानदार नहीं लगा। पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने सचिन के चार-चार कैच गिराए और उसकी सेंचुरी फिर भी नहीं बनी। शुरू में वीरेन्द्र सहवाग ने एक ओवर में पाँच चौके मारकर अच्छी शुरुआत की, पर चले वे भी नहीं। पूरे मैच में रोमांच स्टेडियम से ज्यादा घरों के ड्रॉइंग रूमों, रेस्तराओं और मीडिया दफ्तरों में ही था। इतना जरूर लगता है कि भारतीय मीडिया, खासतौर से हिन्दी मीडिया के पास युद्ध के अलावा दूसरा रूपक नहीं है। 




बहरहाल आज मुझे अखबारों में ध्यान देने लायक जो लगा सो पेश है।  

पाकिस्तानी अखबार डॉन के पहले सफे पर क्रिकेट की खबर का शीर्षक



Dropped catches, scratchy shots 
and Misbah’s ‘Test innings’ 
blamed for defeat 
Cricket mania evaporates 
after anti-climax

Tuesday, February 22, 2011

ऊपर से आने का, नीचे दबाने का...पेप्सी आहा

पेप्सी का यह कैम्पेन खासा लोकप्रिय हो रहा है। आपको यह कैसा लगा? फूहड़, रोचक , रचनात्मक या कुछ और? इसके लोकप्रिय होने की कोई वजह होगी। क्या है वह वजह? बेहतर हो कि हम लोकप्रियता की संस्कृति और उसके सामाजिक संदर्भों पर भी बात करें। इसकी भर्त्सना करना आसान है, पर क्या हम इसकी उपेक्षा कर सकते हैं? 

पेप्सी का कैम्पेन चेंज द गेम।

ऊपर से आने का

नीचे दबाने का

पीछे उठाने का हा..

हा...हा...हा

Saturday, November 13, 2010

चीन में एशिया खेल

ग्वांग्ज़ो में एशिया खेलों का उद्घाटन समारोह आकर्षक और मौलिक था। दिल्ली के कॉमनवैल्थ खेल समारोह के उद्घाटन कार्यक्रम से इक्कीस ही लगा। हालांकि इन खेलों में शामिल देशों की संख्या कॉमनवैल्थ देशों से कम है, पर हिस्सा लेने वाले खिलाड़ियों की संख्या दुगनी है। खेल का स्तर भी बेहतर होगा। ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और कनाडा की टीमों की कमी अकेले चीन की टीम ही कर देगी। फिर जापान और कोरिया हैं। ईरान, उज्बेकिस्तान, ताजिकस्तान, फिलीपाइन्स और इंडोनेशिया जैसी टीमें भी किसी से कम नहीं हैं।

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हमारा सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट भी यहाँ है, पर हमारी टीम नहीं है। सबसे रोचक होगा चीनी क्रिकेट टीम को देखना। पाकिस्तान के जावेद मियांदाद ने टीम की मदद की है। खेलना चीनी खिलाड़ियों को ही है। पिछले तीन-चार साल में चीनी क्रिकेट में पारंगत हो गए हैं। अब उनका हुनर देखने की बारी है। कुछ साल पहले तक वो हॉकी भी नहीं खेलते थे, पर दोहा एशियाड में उन्होंने भारत को हरा दिया। कोई सीखना चाहे तो उसके लिए कोई काम मुश्किल नहीं है।